Tuesday 25 September 2018

यम और आर्य

इतिहासकारो का मानना है कि लगभग 1700 ईसा पूर्व आर्यो की पहली लहर यूरेशिया ( वर्तमान उज़्बेकिस्तान, ईरान, मीडिया( {फ़ारस}  आदि  )से और दूसरी ईसा के पहली सदी के आस पास भारत पहुँची । मुख्यत:  आर्यो के  चारागाह लंबे सूखे के कारण मवेशियों और उनके भरण पोषण के लिए पर्याप्त नही थे अतः देशांतरण उनकी मजबूरी थी ।

इस बात की पुष्टि हित्ती मुहरों पर उत्कीर्ण विशिष्ट कूबड़ वाले भारतीय बैल के चित्र से स्पष्ट हो जाती है। हित्ती भाषा भी मूल रूप से आर्य भाषा ही है , खत्ती शब्द  हित्ती का पर्याय है जो संस्कृत में क्षत्रिय बन जाता है और पालि में खत्तिय । सिन्धु सभ्यता को नष्ट करने में लोहे के हथियारों का महत्वपूर्ण योगदान रहा था , लोहे का ज्ञान हित्तियो द्वारा ही भारत में पहुँचा।

ईरान , मीडिया ,उज्बेकिस्तान के लोग संस्कृत से मिलती जुलती भाषा बोलते थे , जावेस्ता में तो एक चौथाई शब्द संस्कृत के ही जान पड़ते हैं। 1400 ईसा पूर्व के आस पास के मितन्नी अभिलेखों से पता चलता है कि भारतीय आर्य देवताओ की उपासना करने वाले लोग ईरान की उरमिया झील ( उर प्रदेश) के पास बसे हुए थे , संस्कृत ग्रन्थों में उर स्थान का जिक्र बहुत बार आया है। ऋग्वैदिक अप्सरा उर्वशी उर प्रदेश की ही थी। ईरान में इन्द्र, मित्र, वरुण आदि देवताओं की पूजा होती थी परंतु ज़रतुशत/ ज़रदुश्त द्वारा बहिष्कृत करने और फिर नए आश्रय की तलाश में ये वंहा से पलायन कर गयें। बाद में ईरानियों ने मित्र , वरुण , इन्द्र आदि की पूजा बंद कर दी किंतु अग्नि को भारतीय आर्य की तरह पूजते रहें।

ईरानी ग्रन्थो में राजा यम / यिम के 'वर' की जानकारी मिलती है , यह वर ऐसा आयताकार स्थान था जंहा मृत्यु, जाड़े की शीत या पाप घुस नही सकती थी , यह वही स्वर्गलोग था जिसका सीमित वर्णन  संकृत ग्रन्थों में आता है । निषेध भंग के कारण दंड की भागी बनी जनता को बचाने के  लिए राजा यम ने स्वयं मृत्यु को अपनाया इस प्रकार वह पहला मरने वाला देवता बना। ऋग्वेद में भी वह पहला मरने वाला देवता है आज भी मृत्यु का देवता है , प्राचीन समय मे जब किसी की मृत्यु होती थी तो वह यम की नगरी में ही अपने पूर्वजो से मिलता था। बाद में यम यातनाएं देने वाला  नरक का देवता बना  दिया गया ।

ग्रन्थो में जिस प्रकार की वर/ यमलोक की जानकारी मिलती है ठीक उसी प्रकार की लंबाई चौड़ाई के आयताकार बाड़े को सोवियत पुरातत्व विद्वानों ने उज्बेकिस्तान में खोज निकाले हैं, इस 'वर/ यम लोक ' का जिक्र आचार्य चतुरसेन जी ने भी अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ' वयं रक्षाम: में किया है।  वर में पत्थर की दीवारों से बने छोटे छोटे कमरे बने हुए थे जिनमें वे संकट के समय रहते थे और बीच की खुली जगह में अपने पशुओं को बांध देते थे। यम और उसका वर/यमलोक( अधिकार क्षेत्र) एक सत्यता थी जिसकी यादे आर्य अपने साथ भारत लाएं।

यही 'वर/ यमलोक' बाद में यूनानी आख्यानों में औजियन ( गंदगी से भरा) की अश्वशाला के रूप में वर्णित हुआ जिसे यूनानी देवता हेराक्लीज ने साफ किया ।

Saturday 15 September 2018

जानिए गणपति के मूषक का रहस्य-

  आपने मेरे पहले लेख में पढ़ा कि गणपति के हस्ती मुख होने के पीछे क्या कारण हो सकते हैं? कैसे गुप्त काल मे  गणपति अर्थात गणों( संघ) के नायक का परिवर्तन कर उन्हें देवता बनाया गया । जैसा की बताया गया कि गणपति का हस्ती मुख दरसल उन राजसत्ताओं का प्रतीक था जिनका सम्बन्ध हाथी टोटम से रहा होगा। जैसे कि मतंग सत्ता, खरगेवाल सत्ता आदि

गणपति की मूर्ति का दूसरा अभिन्न अंग होता है मूषक, मूषक को उनकी सवारी के रूप में दर्शाया जाता है। क्या एक चूहा किसी व्यक्ति की सवारी हो सकता है? तो, आईए इस भाग में जाने की दरसल  वह मूषक किसका प्रतीक है।

प्रसिद्ध इतिहासकार केपी जायसवाल (1881-1937) अपनी पुस्तक ' इंडियन हिस्ट्री' में कहते हैं कि" हमे प्राचीन इतिहास में चूहों अथवा मूषकों का भी उल्लेख मिलता है। मूषक वही थे जो प्राम्भिक ग्रीक कथाकारों की कथाओं में मूसिकन कहलाते थे।मूषक और मूसिकन दोनों नामो में काफी समानता है। यदि यह बात सत्य है तो यदि हमें ग्रीक कथाकारों की पर विश्वास करना चाहिए तो हमे यह भी मानना पड़ेगा कि सिकंदर के अभियान के समय ये मूषक एक सामुदायिक जनजातीय जीवन बिता रहे थें।"


अतः ये स्पष्ट है कि हाथियों या मतंगो की भांति इन चूहों या मूषकों का भी टोटमवादी अतीत था ।

जनरल आफ दी बिहार एंड ओरिसा रिसर्च सोसायटी का हवाला देते हुए चट्टोपाध्याय बताते हैं  मूषक लोग दक्षिण भारत के निवासी थें, महाभारत में बताया गया है कि वे  वनवासियों  के साथ रहते थे। निश्चय ही इनका प्रदेश कलिंग से ज्यादा दूर नही रहा होगा क्यों कि नाट्यशास्त्र में ( लगभग 200 ईसापूर्व) में तोमल, कोसल , और मोसल( मूशिका) जनों का उल्लेख है। पुराणों में विंध्य देशों में ' स्त्री राज्य' अर्थात मातृसत्तामक सत्ता का उल्लेख है । याद कीजिये कि अशोक के कलिंग विजय की जो कथा कही जाती है उसमे उसकी भिड़ंत स्त्री सैनिको से होती है, ऐसा तभी सम्भव हो सकता है जब सत्ता या तो मातृसत्तामक हो अथवा सत्ता में स्त्री की महत्वपूर्ण भूमिका रहती हो अतः हम यह कह सकते हैं कि विंध्य राज्यों में स्त्री राज्य के साथ मूषक टोटमवादियों का भी अस्तित्व रहा होगा । यह भी हो सकता है कि दरसल विंध्य के स्त्री राज्यों का टोटम मूषक ही रह हो।

हमे सीधा यह तो पता नही मिलता की मूषकों की राजसत्ता कौन सी थी किन्तु इसके ऐतिहासिक प्रमाण जरूर मिलते हैं कि किसी प्राम्भिक सत्ता ने मूषकों को पराजित अवश्य किया था ,मूषकों के पराजित होने की कथा प्रसिद्ध हस्तिगुफ़ा में कलिंग के राजा खारवेल के शिलालेखों में मिलती है । ये शिलालेख 160 ईसा पूर्व बताए जाते हैं।  जायसवाल जिन्होंने इन शिलालेखों को पढ़ने में अपना पूरा जीवन बिता दिया था बताते हैं कि शिलालेख की चौथी पंक्ति में उल्लेख है कि राजा खारवेल ने मूषिकों को पराजित किया ।

दुखद यह है कि सभी ऐतिहासिक और शोधकार्यो के बाद भी हस्तिगुफ़ा के लेख आज भी पूरी तरह से नही पढ़े गए जिससे हमें मूषिकों के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त हो सके। यंहा तक कि यह भी नही पता चला कि उस गुफा के नाम हस्तिगुफ़ा क्यों पड़ा? और हस्ती से उनका किस सत्ता से सम्बन्ध है ।

इस गुफा के निर्माण बौद्ध / जैन धर्मावलंबियों ने बनाया था ।इसका मतलब की गुफा में जो शिलालेखों में मूषिकों की पराजय का विवरण है उनका  गणपति के देवता बनने में कोई न कोई संकेत अवश्य है । जो भी हो पर यह ऐतिहासिक प्रमाण है की प्राचीन भारत मे हस्ती कबीले भी थें और मूषक कबीले भी , हमारे पास हस्ती कबीले विजयी होने और मूषक कबीले के पराजित होने के प्रमाण है इसलिए इतिहाकारों कि धारण है की गणपति की मूर्ति के पीछे किसी हस्ती क़बीले( शायद खारवेल) द्वारा अपना साम्राज्य स्थापित करने का इतिहास छिपा है।

मोरे और डेवी ने मिश्र में जनजातियों से साम्राज्य बनने तक के काल का बहुत गहन शोध कार्य किये थे, उन्होंने मुख्यतया टोटमवादी प्रमाणों के आधार पर सिद्ध किया कि राज्य के उदय का इतिहास देवताओं के उदय का भी इतिहास था।

अतः हम यह कह सकते हैं कि गणपति हस्तिमुख उनके हाथी के टोटम( झंडे) का प्रतीक था और उनके पैरों में पड़ा चूहा पराजित मूषक जनजाति का प्रतीक । एक आश्चर्यजनक चीज और देखने को मिलती है , वह है उड़ीसा के बौद्ध विहारों में जो गणेश की प्रतिमाएं मिलती हैं वे स्त्री काया लिए हुए है ,अर्थात 64 योगनियों में सम्लित हैं। ऐसा कैसे हुआ कि गणेश को स्त्री बना दिया गया ? या कंही वास्तव में गणेश योगनी अर्थात मातृसत्तामक सत्ता का प्रतीक तो नही थे?

इन सवालों का जबाब जानिए मेरे अगले लेख में ...

Thursday 13 September 2018

गणपति

  गणपति सम्बन्धी पौरणिक कथाएं जितना जटिल और गल्प भरी हुई हैं उतना ही उनका नाम सरल है, गणपति का शाब्दिक अर्थ हुआ गणों का पति अर्थात गणों का स्वामी या नायक। आइए जानते हैं कि क्या गणपति का कोई ऐतिहासिक चिंन्ह भी है या सिर्फ वह पौरणिक कथाओं के गल्प तक सीमित हैं?

 वाजसनेयी संहिता के अपने भाष्य में  महिधर ने व्यख्या की है " गणनाम  गणरूपेण पालकम' अर्थात जो गणों या सैन्य दलों की रक्षा करता है। फ्लीट ने गण शब्द का अर्थ करते हुए कहा है 'गण शब्द का प्रमुख अर्थ है जनजातीय समूह और संगठन या परिषद। पाणिनि ने संघ शब्द की व्युत्पत्ति गण शब्द से बताया है।

गणपति के प्रमुख नामो में से कुछ नाम इस प्रकार है -विघ्नकृत, विघ्नेश, विघ्ननेश्वर ,विनायक आदि।  इन सबका विशुद्ध शाब्दिक अर्थ है विघ्न डालने वाला । प्रचीन ब्रह्मणिक ग्रन्थो में गणपति के प्रति तिरस्कार और घृणा के भाव हैं। 'मानव गृह्य सूत्र ' में कहा गया है - शासन करने योग्य राजकुमार को राज्य नही मिलता, सभी गुण सम्पन कुमारियों को पति नही मिलते, संतान उतपन्न करने योग्य स्त्रियां भी बांझ रह जाती हैं, स्त्रियों की संतानों की मृत्यु हो जाती है ।"

देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय जी भी याज्ञवल्क्य का उदहारण देते हुए अपनी पुस्तक ' लोकायत' में कहते हैं कि " याज्ञवल्क्य के अनुसार रुद्र और ब्रह्मा ने बाधाएं उत्पन्न करने के लिए विनायक को गणों का मुखिया नियुक्त किया ।उसका आक्रांता स्वप्न में देखता है कि वह डूब रहा है ,लाल कपड़े पहने हुए सिर मुंडे लोग हैं। मांसाहारी पशुओ की सवारी कर रहा है, चांडालों , ऊंटों , कुत्तो, गधों आदि के साथ रह रहा है । "

गौर तलब है कि मनु ने शूद्रों का धन कुत्ते और गधे बताया है , और लाल  वस्त्र पहना तथा सिर मुंडाना बौद्ध परम्परा रही है। तो क्या हम कह सकते हैं की गण वास्तव में शुद्र और बौद्ध रहे होंगे? जैसा कि पाणिनि ने भी कहा है कि गण का अर्थ संघ होता है। संघ बौद्ध परम्परा का हिस्सा था।

ब्रह्म वैवर्त पुराण में एक कथा आई है जिसमे गणपति एक दन्त होने की कथा इस प्रकार है , परशुराम और गणपति के बीच एक युद्ध हुआ था जिसमे परशुराम ने अपना कुल्हाड़ा गणपति पर मारा जिससे उनका एक दांत टूट गया । इस कथा में रोचक बात यह है कि परशुराम से उनका युद्ध, जैसा कि सभी जानते हैं कि परशुराम ब्राह्मणों और पुरोहितों के सर्वोच्च स्थिति के घोर समर्थक थे । क्या इसका तात्पर्य यह हुआ  की गणपति के काल मे उनका सबसे प्रमुख शत्रु पुरोहित और ब्राह्मण वर्ग था? प्राचीन ब्रह्मणिक ग्रन्थों में जिस प्रकार गणपति के प्रति तिरस्कार और घृणा है उससे तो यही जाहिर होता है। बौद्ध और शूद्रों के प्रति जो घृणा और तिरस्कार ब्राह्मणिक ग्रन्थों में हैं उससे इसकी पुष्टि भी होती है की गणपति का सम्बंध जरूर बौद्ध धम्म से रहा होगा।

मनु ( 3/219) में तो ब्राह्मणो को गणो का अन्न तक खाने को निषेध कर देते है ।मनु सीधा शुद्रो और दलितों का अन्न खाने से मना करते है , यानि मनु के अनुसार गण शुद्र -अछूत और बौद्ध  रहे होंगे ।

देवीप्रसाद जी मोनियर विलियम्स जैसे विद्वान का हवाला देते हुए कहते हैं कि"  यद्यपि गणपति बाधाएं उत्पन्न करने वाले हैं  किंतु साथ मे इसे दूर भी करते हैं इसलिए सभी कार्यो के आरम्भ में ' नमो गणेशाय विघ्नेश्वराय ' के साथ उनका स्मरण किया जाता है।जिसका अर्थ है कि मैं विघ्नों के देवता गणेश के सम्मुख नमन करता हूँ। यह बात तो सही है किंतु यह बात बदली हुई  परिस्थितियों की है ,यानी ऐसा बाद में विकसति हुई गणपति संबंधी परिवर्तित भावनाओ के कारण हुआ। देवीप्रसाद जी कहते है कि गणपति की आरंभिक प्रतिमाओं में कुछ में उन्हें भयावह दानव के रूप में दिखाया गया है जो नग्नता के साथ साथ
आभूषण रहित दिखाया गया है जो संकेत हैं कि आरम्भ में गणपति के प्रति कैसी धारणाएं थीं।

कोडिंगटन ने अपने 'एशेन्ट इंडिया ' में गणपति की ऐसी प्रतिमा का उल्लेख किया है जो पूर्ण साज सज्जा के साथ है और इसका काल गुप्त काल के निकट है । कुमारस्वामी जैसे विद्वानों ने माना है कि गुप्त शासन से पहले इस प्रकार की गणेश की कोई प्रतिमा नही थी , गुप्त काल मे ही गणेश की प्रतिमाएं अचानक बनने लगी। गौर तलब है कि गुप्त राजाओं के शासन में ब्रह्मणिक ग्रँथ नए सिरे से लिखे जाने लगे थे तो यह संभवना रही है कि गणपति का बदला हुआ नया रूप गुप्त काल मे ही प्रकट हुआ हो।गणपति का ब्राह्मणीकरण इसी काल मे हुआ होगा।


आगे देवी प्रसाद जी फिर कहते है की मध्य काल के ग्रन्थो में गणेश ( गणपति) के हस्ती मुख , मूषक वाहन आदि कई तरह जिक्र है जबकि प्राचीन ग्रंथो में ऐसा नहीं है ।इसका उत्तर देते हुए वे कहते हैं की हस्ती सर टोटम (प्रतीक चिन्ह ) दर्शाता है । जैसा की हैम जानते है दुनिया भर में प्रत्येक काबिले का एक टोटम होता है जो पशु , पक्षी अथवा पेड़ पौधों पर हो सकता था ।जैसे जब यूनानी भारत आये तो उनका टोटम पंख फैलाये बाज था ।

भारत में भी टोटमवाद रहा है , मतंग( हाथी)  राजवंश की स्थापना कोसल के बाद के काल की है ।मतंग राजवंश  ने सिक्के चलवाए और एक विस्तृत राजसत्ता कायम की ।
मतंग राजसत्ता ललित विस्तार के अनुसार मौर्य राजाओ से पहले की है पंरतु हम यह नहीं कह सकते की मतंग राजसत्ता स्थापित होने से  गणपति के देवत्य का स्थान प्राप्त हुआ होगा ।
परन्तु इससे यह सिद्ध होता है की हाथियो (टोटम) की राजसत्ता कभी रही होगी ।

अब केवल मतंग सत्ता  ही नहीं हस्ती सत्ता नहीं रही होगी बल्कि शिलालेखो से पता चलता है की बहुत से हस्तिसत्ता भारत में रही जैसे खारवेल की रानी ने स्वयं को हस्ती की पुत्री बताया ।

एक और गौर करने लायक उदहारण देना चाहूँगा मैं आपको , की बौद्धों का और हाथियों का सम्बन्ध जग उजागर है । किद्वंतीयो के अनुसार गोतम के जन्म से पूर्व उनकी माता के सपने में हाथी आता है ।

अतः बाद के कई बौद्ध राजो जैसे मतंग आदि ने हाथी को अपना टोटम बनाया ।तो यह सिद्ध है की गणपति का जो हस्ती सर है वह दरसल बौद्ध राजाओ का टोटम रहा था, तो क्या माने की गणपति वास्तव में बौद्ध धम्म से सम्बंधित थें? । जो गण शब्द है जिसका अर्थ पाणिनि ने भी संघ किया है उसका सीधा संबंध बौद्ध अनुयायिओं से है? हम सांची स्तूप द्वार  में बुद्ध की माता लुम्बनी को कमल आसन पर बैठे देखते है जिनके बगल में दो हाथी उनपर जल वर्षा कर रहे हैं, बिल्कुल इसी चित्र की कल्पना लक्ष्मी देवी के लिए की गई है।

तो क्या ब्राह्मणिक व्यवस्था में विघ्न डालने वाले ' विघ्नेश्वर' वास्तव में कभी बौद्ध संघ के नायक थें ?




Tuesday 11 September 2018

आत्मा और मृत्यु -

पृथ्वी पर जब से जीवन की शुरुआत एक कोशीय जीव के रूप में हुई तब से जीवन को बचाये रखने की जद्दोजहद शुरू हो गई थी। जीवन को सुरक्षित रखने की प्रक्रिया में खुद को बचाने की प्रवृति उत्पन्न हुई।  मृत्यु से जीवन को बचाने और खुद को सुरक्षित रखने को प्रवृति जो करोड़ो साल पहले एक कोशीय जीव से आरम्भ वह विकास के विभिन्न चरणों से गुजरती हुई एक भय के रूप में मनुष्यों में स्थापित हुई । जिन जीवो में खुद को सुरक्षित रखने या जीवन को बचाये रखने की प्रवृति नही थी वे विलुप्त होते चले गए।

मृत्यु सिर्फ शरीर की समाप्ति भर नही बल्कि जीवन की समाप्ति है ,अतः जीवन को बचाने की प्रवृति का अधिकतम रूप हमे मौत के भय के रूप में प्रदर्शित होता है। मृत्यु द्वारा पूरी तरह से ख़त्म हो जाने का विचार हमारे मन में भयानक उथल पुथल मचा देता है। जीवन को बचा पाने की ललक, जीवन को जीते रहने का परिणाम हुआ की  मनुष्य ने ‘आत्मा’ की परिकल्पना की,जो मृत्यु से परे हो। मरने के बाद भी जीवित रहने की धारणा ही आत्मा की परिकल्पना है।

आत्मा की स्थापना के लिए मनुष्य में मौजूद ' चेतना' तत्व का सहारा लिया गया । चेतना ज्ञानेन्द्रियो का समूह है ,जिनसे विचार या बोध की भावना जैसे गुण प्रकट होते है । चेतना को आत्मा का रूप दिया गया जो मनुष्य के शरीर मे कंही रहता है और शरीर से अलग हौ। जो मरता नही और न ही नष्ट होता है चाहे शरीर नष्ट हो जाये तब भी। आत्मा के सहारे धर्मो को स्थापित किया गया या यूं कहें कि आत्मा को धर्मो की धुरी बनाया गया। यहूदी , ईसाई, इस्लाम धर्म के अनुसार  मृत्यु के बाद आत्मा क़यामत के दिन तक इंतज़ार करती है और उस दिन पाप और पुण्य के आधार पर स्वर्ग या नर्क में जाती है। किन्तु हिन्दू धर्म मे आत्मा परमात्मा का रूप है और वह कर्मो के अनुसार पुनर्जन्म लेके  योनियों में भटकती रहती है अंत मे मोक्ष प्राप्त कर परमात्मा में विलीन  हो जाती है।

आधुनिक जीव विज्ञान के अनुसार आत्मा नाम की कोई चीज नही है, इसी प्रकार आत्मा से संबंधित सभी धारणाएं जैसे पुनर्जन्म, स्वर्ग- नर्क, परमात्मा आदि को खारिज करती है। मॉडर्न बायलॉजी द्वारा विख्यात वैज्ञानिक फ्रांसिस क्रिक ने यह साबित करने का दावा किया आत्मा का अस्तिव नही होता , उन्होंने अपनी किताब 'विज्ञान द्वारा आत्मा की खोज' जो 1962 में लिखी थी उस पर उन्हें नोबल पुरस्कार भी मिला था  उसमे सिद्ध किया कि आत्मा मात्र कल्पना भर है। उनके अनुसार जीवन कोई वस्तु,शक्ति  या ऊर्जा नही बल्कि कुछ गुणों का संयोग भर है जैसे Metabolism, Reproduction, Responsiveness, Growth, Adaptation आदि।

उनके अनुसार ये गुण जटिल कार्बन यौगिकों के मिश्रण द्वारा प्रदर्शित होते हैं जिन्हे कोशिका के नाम से जाना जाता है और सबसे सरल कोशिका जिसे हम जानते हैं वह है वायरस ।अपनी सहज प्रवृति  की वजह से यदि ये कोशिकाएं एक दुसरे के साथ सहयोग में आती है और किसी वातावरण में साथ में रहती है तो वे एक संगठन बनाती है जिसे हम जीव कहते है। यदि कोशिकाएं एक दूसरे से असहयोग करती है तो वह कैंसर कहलाती हैं।जब ज़्यादा से ज़्यादा कोशिकाएं एक दुसरे के सहयोग में आती हैं और जटिल संगठन का निर्माण करती हैं तो हमें और दुसरे जीव प्राप्त होते हैं जैसे की कीड़े, सरीसृप, बंदर, मनुष्य आदि।

मनुष्य के शरीर मे लगभग 38 लाख कोशिकाएं हैं जो रोज मरती और रोज नई बनती हैं, मनुष्य इन्ही कोशिकाओं का समूह है ।हर कोशिका में जीवन होता है। तो इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि हमारे अंदर 38 लाख आत्माएं रहती हैं!!मनुष्य के मरने के 24 घण्टे बाद उसके त्वचा की कोशिकाएं मरनी शुरू हो जाती हैं  दो दिन बाद हड्डियों की और तीन दिन बाद रक्त धमनियों की यही कारण है कि मरने के तुरंत बाद भी अंगदान सम्भव होता है।

 मानव शरीर कि कोशिकाएं अधिकतम 50  गुना विभाजित हो सकती हैं जिसे हेफलिक सीमा(Hayflick Limit) कहते हैं। जब हम बच्चे होते हैं तो कोशिका विभाजन कि दर काफी ऊँची होती है, फिर समय के साथ यह दर काफी धीमी हो जाती है और अंत मे कोशिका विभाजन बिल्कुल ही रुक जाता है जिससे मृत्यु होने की प्रक्रिया होती है। पर ऐसा नही है कि संसार मे सभी जीव मरते ही है, कई जीव जैसे जैली फिश अपनी कोशिकाओं  को विभाजित कर अमर रहती है जब तक कि कोई बाहरी कारण उसकी मृत्यु का कारण बने।

उपनिषदों ( देंखे छान्दोग्य उपनिषद 8-3-3) में आत्मा का केंद्र ह्रदय को माना गया है ,आत्मा हृदय में रहती है ' स वा आत्मा ह्रदय ' । किन्तु , 1964 में जेम्स हार्डी ने मनुष्य के ह्रदय की जगह चिंपांजी के ह्रदय का प्रत्यारोपण कर यह सिद्ध किया कि आत्मा हृदय में नही रहती।

दरसल मृत्यु के स्वभाविक प्रक्रिया है किंतु धर्म के धंधेबाजों ने इसे भय के रूप में परिभाषित कर इसे भयानक तो बना ही  दिया है बल्कि इससे स्वर्ग नरक जोड़ के अपनी धूर्तता भी सिद्ध की ।  अपने स्वजनों के मरने पर इंसान फूट फूट के रोता है जबकि धर्म / मजहब के अनुसार आत्मा की मृत्यु ही नही होती ,तो रोने का औचित्य क्या? दरसल इंसान धर्म/ मज़हब के झूठ को जानता है इसलिए उसे अपने स्वजनों के दुबारा जन्नत/ स्वर्ग में मिलने का विश्वास नही रहता ।

सोचिए की अगर इस्लामिक आतंकवादियों जो जन्नत के लालच में खुद को बम्ब से उड़ा लेते हैं या दूसरों को मार देते हैं यदि उन्हें यह हकीकत पता होती कि मरने के बाद कोई रूह नही होती तो शायद लाखो बेगुनाहों की जान बच गई होती। अगर आत्मा नाम की कल्पना नही की गई होती तो ऐसा होता कि हम मानते की हर व्यक्ति धीरे धीरे खत्म हो रहा है तो आपस मे प्रेम की संभवना बहुत अधिक होती।