Saturday 24 August 2019

आयुर्वेद

 जड़ी-बूटी चकित्सा वास्तव में उन आदिवासी लोगो की देन है जो जंगलों में रहते थे, जंगलों में रहने के कारण जड़ी बूटियों के उपयोग को वे पीढ़ी दर पीढ़ी भली भांति जानते और समझते थें।
ये परम्परा बौद्ध भिक्खुओ में भी आई, चुकी बौद्ध भिक्खुओ को धम्म प्रचार प्रसार के लिए दूर दूर तक प्रवास करना होता था ।रास्ते मे बीमार पड़ने पर अपना इलाज स्वयं ही करना होता था अतः जड़ी बूटियों का ज्ञान भली प्रकार जानना होता था।

कहा जाता है कि आयुर्वेद के जनक चरक थे, किंतु चरक से बहुत पहले और सिकंदर के आक्रमण से भी पहले बौद्ध भिक्खुओ ने जड़ी बूटियों का ज्ञान यूनान में फैला दिया था। इस बात को क्लीमेंट ( 150-218 ईसा) ने अपनी पुस्तक अलेक्जेंड्रिया में लिखा है।

हिजरी सन की दूसरी सदी में बौद्ध भिक्खुओ के चिकित्सा ज्ञान को अरब के लोगों ने ' बुदाशिफ़ /बुदाशिफ़ा 'के नाम के ग्रँथ में संग्रहित किया ।

रेगिस्तानी जमीन से आने वाले लोग कैसे जंगल की जड़ी बूटियों का ज्ञान रख सकते थे? जिन्होंने कुंए तक नही देखे थे वे जंगली जड़ीबूटियों का विस्तृत ज्ञान दें ऐसा संभव नही था। शायद इसी लिए आयुर्वेदिक साहित्य के दो महत्वपूर्ण ग्रँथ चरक संहिता और सुश्रुत में अजीबोगरीब नुस्खे दिए हुए हैं , आप कुछ नुस्खों का उदहारण देखिये-

1-प्रमेह रोग- इस रोग में मूत्र के साथ धातु या शक्कर गिरती है , इस के रोगी को दिए जाने वाले आहार का निर्देश करते हुए चरक संहिता में कहा गया है -

2- ये विष्किरा से प्रतुदा ...... चाप्यपूपान(चरक संहिता , चकित्सा स्थानम् ,अध्याय 6, श्लोक 19)
अर्थात प्रमेह से पीड़ित रोगियो को विष्किर( तितर की जाति का एक पक्षी) और प्रतुद(बाज,कौआ, तोता) पक्षी का मांस तथा जंगली पशु के मांस का रस( तरी) के साथ यव का भात और सत्तू का आहार करना चाहिए जिससे यह रोग ठीक हो जाए।

3-यक्ष्मा रोग(क्षय रोग) - इस रोग से पीड़ित को तितर, मुर्गा, आदि पक्षीयो का मांस घी में पका के खाने का विधान चरक ने किया है -
लावणाम्लकटूष्णश्च रसान् ....... कल्पयेत्( चरक संहिता, चकित्सा स्थानम् 8/66)

बहुत से लोग आयुर्वेदिक इलाज के गुण गाते हुए ऐलोपेथी को भला बुरा कहते हैं । उनकी नजर में आयुर्वेदिक दवाइयाँ रामबाण होती हैं और उनके सामने ऐलोपैथिक दवाइयाँ कचरे का ढेर। पर यह बात अलग है की बीमार होने पर वे लोग हास्पिटल में एडमिट होते हैं और ठीक ऐलोपैथिक दवाइयो से ही होते हैं। बाबा रामदेव के सहयोगी बालकृष्ण जीवन भर पंतजलि के आयुर्वेदिक दवाइयों से लोगो को मूर्ख बनाते रहें, कंल जब खुद बीमार हुए तो एम्स में भर्ती हुए । आयुर्वेदिक इलाज काम न आया।

यही आदिशंकराचर्य जी भी अपना इलाज आयुर्वेद से न कर पाए थे, दयानन्द सरस्वती जी जीवन भर आयुर्वेद के गुण गाते रहें पर अंत समय मे अंग्रेजी डॉक्टर के पास भागे।  आयुर्वेद के नाम पर मूर्ख बनाने वालों से सावधान रहिये।


Friday 23 August 2019

बुद्ध, कृष्ण और हेराक्लीज

 कोसंबी जी के अनुसार कृष्ण के बारे में एकमात्र पुरातात्विक प्रणाम है उनका हथियार चक्र ही है , यह हथियार वैदिक नही है । उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर ( दरसल , बौद्ध दक्खिणागिरि) के एक गुफा चित्र में एक रथारोही को चक्र से आदिवासियों पर आक्रमण करते हुए दिखाया गया है जिसका  समय होगा  800 ईसा पूर्व , यह लगभग वही समय होगा जब वाराणसी में मानव बस्ती बसनी शुरू हुई थी ।क्या आपको लगता है कि चक्र एक अच्छा हथियार हो सकता है? मेरे ख्याल से नही! चक्र का इतना तीक्ष्ण होना की उसे फेंक के मारने पर किसी किसी की गर्दन कट जाए यह प्रयोगात्मक रूप से थोड़ा कठिन और बेढंगा है।

फिर कृष्ण ने ऐसा हथियार क्यों चुना जो अच्छा नहीं था ? कंही चक्र  को जानबूझ के है 'हथियार ' तो नहीं बनाया गया है ?
यदि चक्र को हथियार के रूप में हम देखते हैं तो किंदवंतियो और कथाओं में कृष्ण ही एक अकेले  ऐसा पात्र लगते हैं जो चक्र का इस्तेमाल करते हैं  ।

कृष्ण के चक्र का नाम सुदर्शन था जिसका अर्थ होता है 'दिखने में अच्छा' या ' जिसको देख के अच्छा लगे' , क्या हथियार को देख के किसी को अच्छा लग सकता है ? हथियार तो संहारक होता है ,मृत्यु लाता है , भय लाता है । फिर कैसे वह 'सुदर्शन' हो सकता है?

इतिहास में बुद्ध  के साथ भी चक्र जुड़ा हुआ है , बुद्ध ने धम्म चक्र ( धम्म चक्क -पवत्तन) चलाया था जिसके द्वारा आधी दुनिया में बौद्ध धम्म फैला दिया । उनके धम्म  चक्र के दर्शन इतने सु-दर्शन थे की लोग अनायास ही खिंचे चले आते थे ।

  शायद बुद्ध का धम्म चक्क ही कृष्ण का सुदर्शन चक्र है ?

कृष्ण के भाई बलराम जिसे शेषनाग का अवतार समझा जाता है वह द्योतक है कि कृष्ण का नागों से घनिष्ठ  सम्बन्ध था। वासुदेव द्वारा कंस की कैद से निकालते वक्त भी एक कई सरो वाला वासुकी नाग ही  कृष्ण को प्रकृतिक आपदा से बचाता है।

बुद्ध का भी आदिवासी नाग जाति से आत्मीय सम्बन्ध थे, उन्होंने नागों को अपने धर्म में दीक्षित किया । मुचलिन्द नाम के नाग जाति के व्यक्ति ने उनकी प्रकृतिक के प्रोकोप से उनकी रक्षा की थी। नालन्दा और संकस्या जैसे प्रमुख बौद्ध विहारों में नागों के प्रति विशेष श्रद्धा रखी जाति थी और इनका उत्थान नाग पूजा स्थलों से हुआ था।

शायद मुचलिन्द ही कृष्ण का भाई शेषनाग का अवतार बलराम ही था ?

कृष्ण के जीवन के अंतिम समय उनके अपने सगे संबंधियों यानि  यदुवंश का नाश हो जाता है ,कौरव सहित सभी सगे सम्बन्धिय युद्ध में मारे जाते हैं । कृष्ण बिलकुल अकेले किसी अज्ञात जगह पर अपनी जीवन लीला समाप्त करते हैं।

बुद्ध की मृत्यु भी एक गुमनाम देहात में हुई ,परिचारिका के लिए केवल एक भिक्षु उनके साथ था ।उस समय तक युद्ध में उनके सगे संबंधियों यानि  शाक्य (सक्क)काबिले का नाश हो चुका था । उनके दोनों सरंक्षक राजाओं की दयनीय स्थति में मृत्यु हो चुकी होती है। जैसे कृष्ण के हितैषी कौरव और पांडवो की  ।

शायद बुद्ध को ही कृष्ण का चोला पहना के खड़ा किया गया ?

कृष्ण या शिव की मूर्तियों के साथ नाग का चित्रण बहुत बाद का है लगभग 9-10 सदी ,जबकि बुद्ध के साथ नाग (मुचलिन्द) की मूर्तियां चौथी सदी में ही बननी शुरू हो गई थी। नीचे आप चित्र देख सकते हैं।

एक ऐतिहासिक पहलू और देखिये ।

यूनानियों ने चौथी ईसापूर्व जब भारत पर आक्रमण किया तो उनके आख्यानों में भारतीय कृष्ण की कथा के अनुसार एक नर देवता था जिसका नाम हेराक्लीज था  । हेराक्लाज यूनानी आख्यानों में एक मल्ल योद्धा था जिसका रंग कड़ी धूप में काला पड़ गया था । इसने हाइड्रा नाम के एक विशालकाय सर्प को ऐसे ही मारा था जैसे कृष्ण ने कालिय नाग को। हेराक्लाज ने कृष्ण की तरह अनेक अप्सराओं के साथ विवाह किया था ।

भारतीय आख्यानों में कृष्ण की मृत्यु कैसे हुई यह अस्पष्ट है किंतु यूनानी कथाओं में हेराक्लीज की मृत्यु का कारण स्पष्ट है। कृष्ण की कहानी के अनुसार जरस नाम के एक बहेलिए ने जो कि दरसल कृष्ण का सौतेला भाई था उसने कृष्ण की एड़ी में तीर मारा और वही तीर उनकी मृत्यु का कारण बना। भारतीय लोग यह नही समझ पाते कि आखिर कोई एड़ी में तीर लगने से कैसे मर सकता है? जबकि कृष्ण का जो व्यक्तित्व था वह नायक की तरह था जिसके हजारो अनुचर थें।

इसका जबाब में डी डी  कोसंबी लिखते हैं हेराक्लीज की मृत्यु भी इसी प्रकार विष बुझे तीर से होती है, उसकी मृत्यु आनुष्ठानिक वध से होती है जिसमे बलि दिए जाने वाले का भाई( उत्तराधिकारी ) विष बुझे तीर से करता है ।

तो क्या कृष्ण की कहानी हेराक्लीज के बाद कि है?
बहुत सम्भव है कि हेराक्लीज की कहानी को बा

द में बुद्ध के साथ मिक्स कर के परोसा गया हो ?


Wednesday 27 March 2019

खोए हुए नगर की तलाश

ईसा के जन्म से कई शताब्दी पहले ही बौद्ध धर्म चीन में भली भांति परिचित हो चुका था । सू- मा-चेइन नाम के चीनी लेखक ने ईसा के जन्म से एक शताब्दी पूर्व अपने इतिहास में बौद्ध धर्म के बारे में जिक्र किया है।

चीन के प्रबुद्ध लोग बौद्ध धर्म के ज्ञान की प्राप्ति के लिए लालायित हो उठे थें, उन्हें यह विश्वाश था कि गोतम की भूमि पर अपने अधूरे ज्ञान की पूर्ति होगी।  इन्ही आकांक्षाओं के वसीभूत हो वे कठिन पहाड़ियों की चढ़ाई कर, तपा देने वाले रेगिस्तानों , जमा देने वाली सर्द हवाओं और बर्फ की चोटियों, घने और खतरनाक जंगलो , चोर लुटरों द्वारा जान के भय को त्याग ,विभिन्न यातनाओं के झेलकर भारत आएं । यंहा के बौद्ध विहारों -विश्वविद्यालयों  में ज्ञान प्राप्त किया , राज दरबारों में रुके और अपनी यात्राओं को लिपिबद्ध किया ।

सिन्धु सभ्यता के विषय मे जानने की मेरी इच्छा इतनी तीव्र है कि जब मैने यह पढ़ा था कि हरियाणा के राखीगढ़ी गांव में भी सिंधु सभ्यता के बहुत से अवशेष मिले हैं तो मेरी यंहा जाने की जाग उठी थी। करीब दो सालों से यंहा जाने की सोच रहा था ताकि अपनी आंखों से उस सभ्यता के अवशेषों को देख सकूं जो कभी हमारे पूर्वजों की रही थी।  राखीगढ़ी में  1997 से खुदाई चालू  है , अब तक वंहा  सिंधू सभ्यता के मानव कंकाल , बर्तन, आभूषण , कंघी आदि चीजे प्राप्त हुई हैं। दिल्ली से राखीगढ़ी की दूरी लगभग 160 किलो मीटर की है । सुबह घर से निलने के बाद दिल्ली और बहादुरगढ़ का भयंकर जाम झेलते हुए , उबड़- ख़बड़ रास्तो को पार करते हुए तकरीबन साढ़े चार घण्टे में मैं राखीगढ़ी पहुंचा । राखीगढ़ी गांव को पार कर जब आप अंतिम छोर पर पहुंचेगे तो वंहा आपको कई घर अनुसूचित जाति के दिखाई देंगे ,महिलाओं का पहनावा और बर्तनों के प्रयोग से ही आपको यह अंदाजा हो जायेगा कि ये सिंधु संस्कृति के वंशज है किन्तु अब विपन्न अवस्था मे हैं। उन्ही के घरों के सामने ही महान सिंधु सभ्यता के अवशेष वाले मिट्टी के टीले शुरू हो जाते हैं।

मैंने एक व्यक्ति से पूछा कि म्युजियम कँहा है ? तो उसने एक बड़ी निर्माणधीन इमारत को दिखाते हुए कहा कि अभी बन रहा है। मैं उस निर्माणधीन इमारत के अंदर गया और वंहा के ठेकेदार से जानकारी लेने लगा।उस ठेकदार ने बताया कि अभी म्युजियम की इमारत बन रही है , जो वस्तुएं खुदाई में अभी तक निकली हैं वे किसी और म्युजियम में रखी हुई हैं जब इमारत बन जाएगी तब वे चीजे यंहा लाई जाएंगी।
मैं निराश हो गया , इतनी दूर कष्ट सह के आना बेकार रहा। फिर मैने कार वापस मोड़ी और टीले के सामने ले जा के खड़ी कर ऊपर टीले पर चढ़ कर देखने लगा। वंहा कई मिट्टी के टीले थें, कुछ को खोद के गड्ढा बना दिया गया था जिसमे लोहे की जाली लगा के बंद कर दिया गया था । गड्ढा होने के कारण उनमे पानी भर गया था जो तालाब जैसा प्रतीत हो रहा था। कुछ टीले अब भी ऐसे थें जिनकी खुदाई नही हुई थी।  बाकी चारो तरफ खेत ही खेत दिख रहे थें।


मैं नीचे उतर आया और किसी स्थानीय व्यक्ति से इस विषय में विस्तार से जानना चाह रहा था , पर अधिकतर लोग इस विषय मे अनभिज्ञ थें , उन्हें यह तो पता था कि खुदाई में कुछ निकला तो है पर उसका क्या महत्व है वह नही जानते हैं । थोड़ा खोजने पर अनिल नाम के एक व्यक्ति ने मुझे बताया कि रुक रुक के खुदाई चलती है, पिछली बार जो खुदाई हुई थी उसे पाट दिया गया है क्यों कि जब तक म्युजियम नही बन जाता तब तक उन चीजों को रखने की व्यवस्था नही है।जब म्युजियम बन जायेगा तब दुबारा खुदाई होगी। राखीगढ़ी और उससे लगता एक गांव को आर्कियोलॉजिकल साइट घोषित कर दिया गया है,गांव कभी खाली करवाया जा सकता है । राखीगढ़ी में सिन्धु सभ्यता का विस्तार लगभग 3 किलो मीटर रेडियस में है । सिन्धु सभ्यता के  समय की एक बड़ी बस्ती रही होगी । अनिल ने बताया कि उसने खुदाई में मिट्टी की ईंटो की दीवार और पीतल के बर्तन देखे थें पर वह जगह अब दुबारा पाट दी गई है , ताकि चोरो और जानवरों से सुरक्षित रखा जा सके ।

कुछ फोटो लेने के बाद मैं खाली हाथ और निराश हो वापस चल दिया। यह मेरे लिए बहुत दुख की बात थी , मैं फाहियान की तरह कामयाब नही हो पाया। मेरा समय, पैसा और मेहनत सब बेकार चली गई थी।










Friday 25 January 2019

जगन्नाथ पुरी

तंत्रवाद के देह तत्व से विश्वोत्पत्ति विज्ञान का प्रादुर्भाव हुआ है ऐसा इतिहासकार मानते हैं। इतिहासकर बंदोपाध्याय ने कहा है कि तांत्रियो का विश्वोत्पत्ती विज्ञान उनके देहतत्व से गहरा संबंध था।, इसका कारण बड़ा सीधा सा है ।यदि मानव देह सूक्ष्म ब्रह्मांड समझा जाता है तो ब्रह्मांड के जन्म को केवल मानव शिशु के पैदा होने की क्रिया के साथ समानता के अनुसार ही समझा जा सकता है और तांत्रिक विश्वोत्पत्ति का यही केंद्र बिंदु है। तंत्र के अनुसार इस विश्व की उत्पत्ति 'काम' से की गई थी यह स्त्री से उत्पन्न है और स्त्री का पुरुष के साथ मिलन से उपजा है।

बौद्ध मत में एक मत जिसे कामवज्रयान कहा गया उसका प्रादुर्भाव हुआ ,यह मत इस विचार पर आधारित था कि मानव जन्म और विश्व की उत्पत्ति समान सिद्धांतो के आधार पर हुई। इस मत के अनुसार विश्व का सृजन ' काम ' द्वारा हुआ है ठीक उसी प्रकार जैसे मनुष्य जन्म लेता है । इस मत के अनुयायियों के अनुष्ठान भी ब्रह्मांडीय  काम और मनुष्य काम के बीच समरूपता लाने के लिए होते थे।
उन्होंने इस काम अनुष्ठान को अपने मठों विहारों में प्रदर्शित किया।

आज इतिहासकारो और  पुरातत्व वैज्ञानिकों ने माना है कि  जगन्नाथ मंदिर (पुरी) इन्ही कामवज्रयानियो के प्रभाव के आधीन बना है। जिसे आज जगन्नाथ कहा जाता है दरसल वह कामवज्रयान मत की देवी (देई) बिमला का धाम है जो कि कामवज्रयानियो का पवित्र स्थल था । इस मंदिर में ब्रह्मांडीय सृजन और मानव देह सृजन के बीच सादृश्य स्थापित किया गया । मंदिर में किये गए शिल्पों में आधार था कि प्रत्येक पुरूष कामवज्रयान मत  का भिक्षु है हर प्रत्येक स्त्री योगनी । इस सारे मंदिर का निर्माण कामवज्रयानी मत के सिद्धांतों के अनुरूप हुआ था।

तो,  जिस  जगन्नाथ मंदिर पर आज हिन्दू धर्म का आधिपत्य है वह मूल रूप से बौद्ध मठ है । क्या बौद्धों को फिर से अपना मठ वापस लेने का संघर्ष नही करना चाहिए?