आरक्षण क्या, क्यों, किसके लिए और कैसे? साथ मे पढ़े अन्य संवैधानिक उपाय, जिनका उद्देश्य है देश -समाज मे शोषितों और वंचितों के लिए समानता के स्तर को प्राप्त करना….
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सामाजिक स्तर मे सुधार के लिए संविधान में त्रि-आयामी (त्रि-स्तरीय) रण नीति बनाई गयी, जो इस प्रकार हैं।
1. सामाजिक सुरक्षा प्रदान करके:
न्यायिक/नियमन साधनों द्वारा समानता के सिद्धांतको लागू करके और सामाजिक बाधाओं को दूर करके,दलितों पर होने वाली शारीरिक हिंसा के अपराधियों को कठोर दंड का प्रावधान करके,
ऐसे परंपरागत नियमों, प्रबंधों को बंद करके, जो दलितों की डिग्निटी ( गरिमा )और आत्म सम्मान को ठेस पहुँचाते हैं।
उनके परिश्रम की उचित कीमत और फल की प्राप्ति सुनिश्चित करके,-प्राकृतिक संसाधनों पर किसी खास वर्ग का ही अधिपत्य कम करके,
दलितों को उपलब्ध कराई गयी सुविधा, अधिकार, लाभ आदि की देखभाल के लिए स्वतंत्र आयोगो का गठन करके।
2. कमपेनसेटरी डिस्क्रिमिनेशन (प्रति पूरक भेदभाव ): सार्वजनिक सेवाओं, प्रतिनिधि संगठनों/ निकायों, शैक्षिक संस्थानों मे आरक्षण लागू करके व अन्य सहायता प्रदान करके।
3. विकास:- अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति और अन्य समुदायों के बीच पैदा हुई खाई को पाटने के लिए लाभ और संसाधनों का पुनरवितरण करके.
ये नीति राज्य (भारत) द्वारा कार्यान्वित की गयी और तब से इस नीति के प्रति प्रतिबद्धता, भारत राज्य की विशेषता रही है. समय समय पर ये नीति ज़रूरत पड़ने पर और ज़्यादा मजबूत बनाई गयी और साथ ही ज़रूरत के मुताबिक इसका दायरा भी बढ़ाया गया है. जहाँ तक सुरक्षा संबंधी प्रायोजनों की बात है, तो खुद संविधान मे काफ़ी विस्तृत रूप से उन परंपराओं, नियम क़ानूनों, सामाजिक संस्थागत प्रबंधों और दलितों पर थोपी गयी किसी भी अन्य प्रकार की अमानवीय और भेदभावी स्थिति को ख़तम करने की ढाँचागत रूपरेखा दी गयी है जो अस्पृश्यता को समाज मे लागू करते हैं, उसका अनुमोदन करते हैं या इस हीन परंपरा के पालन को प्रोत्साहित करते हैं।
इन संवैधानिक प्रबंधों को लागू करने के लिए क़ानून बनाए गये. उदाहरण के लिए:-
The Untouchability Practices Act, 1955 संविधान के आर्टिकल 17 को लागू करने के लिए बनाया गया. इस क़ानून को फिर से सख़्त बनाया गया और 1976 मे सन्सोधित करके इसे Protection of Civil Rights Actके नाम से ज़्यादा प्रभावी रूप मे लागू किया गया. बाद मे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्यों पर लगातार बढ़ते गये जघन्य अत्याचारों और हिंसा, जैसे सामूहिक नर संहार, बलात्कार, आगज़नी, गंभीर हमलो द्वारा शारीरिक क्षति आदि के फलस्वरूप राज्य को एक बार फिर गंभीर फ़ैसले लेने पड़े और दलितों को सुरक्षा के लिए विशेष क़ानून बनाना पड़ा जिसे
“Scheduled Caste and Scheduled Tribe (Prevention of Atrocities) Act, 1989
के नाम से जाना गया और इसमे पहले से अधिक कठोर सजाओं का प्रावधान किया गया ताकि ये क़ानून दलित के लिए प्रतिरक्षक ढाल का कार्य कर सके. इसी क़ानून का शोषक समाज ने जमकर विरोध किया. यही क़ानून वर्ग विशेष द्वारा “हरिजन एक्ट” के नाम से प्रचारित किया गया. समाज मे स्थापित परंपराओं और क़ायदे क़ानूनों द्वारा दलितों को परंपरागत कार्यों में धकेलने के विरुद्ध और उनके अपने सामाजिक स्तर मे सकारात्मक बदलाव लाने के प्रयासों में सहयोग के लिए समय समय पर अतिरिक्त क़ानूनों को भी प्रभाव मे लाया गया।
The Employment of Manual scavengers and Construction of Dry Latrines (Prohibition) Act, 1993 नामक क़ानून, जो दलितों द्वारा हाथ से अन्य नागरिकों के मानव मल को साफ करने की अतिहीन कुप्रथा को ख़तम करने के लिए बना था, इन नियमों मे सबसे महत्वपूर्ण है. जो एक अन्य कुप्रथा रोकी जानी थी, वो थी दलित लड़कियों का मंदिरों मे देवदासी के नाम पर यौन शोषण. आंध्रा प्रदेश और कर्नाटक ने देवदासी नाम की इस प्रथा को तत्काल प्रभाव से ख़त्म करने के लिए क़ानून पास किए. इस प्रथा के द्वारा जवान दलित लड़कियाँ स्थानीय देवता को देवदासी के नाम पर भेंट चढ़ा दी जाती थीं, जिनका मंदिर के पुजारियों द्वारा यौन शोषण होता था।
देवता के नाम पर मंदिर के पुजारी/पुरोहित, दलित लड़कियों का शोषण करते रहे थे. महाराष्ट्र मे 1934 मे ही इस घटिया परंपरा को बंद करने का क़ानून बन चुका था. कुछ क़ानून जो, इस उच्च वर्ग द्वारा शुरू की गयी दलित बालिकाओं के शारीरिक शोषण इस नीच धार्मिक परंपरा को गैर क़ानूनी घोषित करके इसके उन्मूलन और प्रतिबंध के लिए पास किए गये, वो इस प्रकार हैं:-
Andhra Pradesh Devdasi (Prohibition of Dedication) Act, 1988
Karnataka Devdasi (Prohibition of Dedication) Act, 1992
Hindu Religious and Charitable Endowment Act, 1927 of Mysore.
The Bombay Devdasi Protection Act, 1934
(उपरोक्त क़ानूनों का बनाया जाना इस परंपरा के वजूद, उसके प्रचलन और पुरोहित वर्ग के दलित वर्ग के प्रति घृणित और अमानवीय नज़रिए का सेल्फ़ एक्सप्लनेटरी और लीगल प्रूफ है)
रोज़गार प्रदाता/नियोक्ता द्वारा अपने यहाँ नियुक्त काम गारों/श्रमिकों के शोषण को रोकने के लिए भी क़ानून बनाया गया. इस क़ानून का मकसद मालिक द्वारा मजदूरों की सही मज़दूरी का भुगतान पक्का करना, कार्य के चुनाव की स्वतंत्रता दिलाना, ताकि नियोक्ता दावरा श्रमिकों पर अमानवीय और श्रमिकों की इच्छा के विपरीत कार्य करने की बाध्यता लादना बंद करना सुनिश्चित किया जा सके, अपने शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाने की स्वतंत्रता आदि आदि का ध्यान रखा गया. हालाँकि ये क़ानून अनुसूचित जाति और अनुसूचित/जन जाति के लिए ही विशेष रूप से न होकर, हर वर्ग के श्रमिक पर लागू होता है, पर इसका सबसे बड़ा प्रभावित वर्ग दलित वर्ग ही था क्योंकि सबसे ज़्यादा मजदूर और श्रमिक इसी वर्ग से आते थे और आते हैं।
इस उद्देश्य के लिए बने क़ानून इस प्रकार हैं:
Bonded Labour System (Abolition) Act, 1976, बंधुआ मज़दूरी प्रणाली(निषेध) एक्ट, 1976
Minimum Wages Act, 1948, मिनिमम वेजस आक्ट,
Equal Renumiration Act, 1976, 1948, ईक्वल रीम्यूनरेशन आक्ट, 1976
Child Labour (Prohibition and Regulation) Act, 1986, चाइल्ड लेबर (प्रोहिबिशन आंड रेग्युलेशन) आक्ट, 1986
Inter-State Migrant Workmen (Regulation of Employment and Conditions of Services) Act, 1979, इंटर-स्टेट माइग्रेंट वर्कमेन (रेग्युलेशन ऑफ एंप्लाय्मेंट आंड कंडीशन्स ऑफ सर्वीसज़) आक्ट, 1979
दलित समुदाय को समाज की मुख्य धारा से निकल दिए जाने और समाज से बहिष्कृत रखे जाने के फलस्वरूप सभी प्रकार के लाभकारी और उत्पादन के साधनों पर उच्च वर्ग का ही अधिकार रहा, जिसके कारण आज़ादी के समय भी लबभग सभी प्राकृतिक और बौद्धिक संसाधन इस उच्च वर्ग के ही पास अत्यधिक घनत्व के साथ केंद्रित थे, और दलित समुदाय इनसे सभ्याता के समय से ही वंचित रखा गया. आर्थिक संसाधनों और लाभकारी संपदा के कथित सवर्ण समाज के पास ही भारी मात्रा मे एकत्रित पाए जाने पर भी चोट की गयी. इस विषय के अंतर्गत “लैंड रिफॉर्म लॉ” (भूमि शुधार क़ानून), जिसका उद्देश्य अनुसूचित जाति व जनजाति के साथ साथ गाँव मे अन्य ग़रीब तबके के लोगों को भूमि का पुनरवितरण शामिल था, लागू किया गया।
डेट रिलीफ लेजिस्लेशन्स (ऋण राहत कानून) साहूकारों और सूद खोरों के हाथों ग़रीब लोगों के शोषण को रोकने और पैसे के लेन देन को नियमित करने के उद्देश्य से लागू किए गये.
सामाजिक सुधार की इस रणनीति का दूसरा भाग कमपेनसेटरी डिस्क्रिमिनेशन (प्रति पूरक भेदभाव / क्षतिपूर्ति भेदभाव या सकारात्मक कार्यवाही) से संबंधित है जो निम्न लिखित प्रायोजन लागू करता है:
सार्वजनिक सेवा की नियुक्ति और प्रमोशन मे आरक्षण लागू करके,विधायिका की सीटों मे आरक्षण लागू करके (केंद्रीय, राज्य, पंचायत राज, मुनिसिपल बॉडीस आदि),शैक्षिक और प्रोफेशनल कॉलेजस की सीट मे आरक्षण लागू करके,निर्धारित योग्यता मापदंडो मे छूट प्रदान करके,फीस मे छूट या माफी प्रदान करके, आदि आदि।
ये सब उपाय यह सुनिश्चित करने के उद्देश्य के साथ किए गये की दलित समुदाय के लोग भी देश के सार्वजनिक तंत्र की शक्ति और निर्णयों मे अपना हिस्सा ले सके, साथ ही उनको उच्च शिक्षा प्राप्त करने के भी अवसर उपलब्ध हो सकें. ये महसूस किया गया था की यह वर्ग जन्म जन्मान्तर और सदियों की अर्जित की गयी कमज़ोरी, व्यापक रूप में प्रचलित सामाजिक शोषण और सामाजिक अपंगता के कारण खुली प्रतियोगिता मे अपना ज़रूरी हिस्सा नहीं ले पाएगा।
इन प्रायोजनों का उद्देश्य दलितों और उस क्षेत्र मे रह रहे अन्य वर्गों के बीच पैदा हुई सामाजिक अंतर की गहरी खाई को पाटना था।
सामाजिक सुधार की इस रण नीति का तीसरा पहलू दलितों के व्यापक और बहुदिशीय विकास पर फोकस करता है. इस विषय के अंतर्गत लाभो का सीमांकन करके व तरह तरह की योजनाओं के अंतर्गत धनराशि जारी करके दलितों की आर्थिक स्थिति को सुधारने का प्रयास किया गया है ताकि समाज मे दलितों का उन्नयन (उपर की और गमन) हो सके. इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्रायोजन था की योजना के अंतर्गत जारी राशि का एक निश्चित प्रतिशत अनिवार्य रूप से दलितों के लाभ वाली योजनाओं पर ही खर्च किया जाए।
अनुसूचित जाति के केस मे इस प्रकार के प्रबंध को “स्पेशल कॉंपोनेंट प्लान” के नाम से जाना जाता है और इसके अंतर्गत ज़िम्मेदार एजेंसी दलितों के हित के लिए योजना बनाकर धन राशि पास करती है जो कम से कम उस राज्य मे दलितों की जनसंख्या के प्रतिशत के बराबर होती है और केंद्रीय योजनाओं मे देश की कुल आबादी मे दलितों के प्रतिशत के बराबर होती है. (उत्तर प्रदेश की राज्य योजना मे = 21%, केंद्रीय योजना मे= 15%). ये संसाधन दलित समुदाय के लिए ऐसे प्रोग्राम और गतिविधियों मे खर्च किए जाते हैं जो सीधे तौर पर दलितों की आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाने मे मददगार साबित होते हों।
इसी नियम के समानांतर, स्टेट पॉलिसी द्वारा प्रावधान किए गये की विभिन्न विकास कार्यक्रमों, जिनसे आम आबादी के लाभ जुड़े हों, उनमें लाभ प्राप्त करने वाले लोगों की संख्या या की एक निश्चित प्रतिशत अनुसूचित जाति व जन जाति से होना सुनिश्चित किया जाएगा और किसी भी स्थिति मे उनकी उस राज्य मे जनसंख्या मे हिस्से के प्रतिशत से कम नहीं होगा. ऐसा इसलिए करना पड़ा ताकि संस्थाएँ लाभों का एक तरफ़ा वितरण करके दलितों को उनके हिस्से से वंचित न कर दें, जैसा की परंपरागत तौर पर समाज मे होता आया।
कुछ विशेष कार्यक्रमों के अंतर्गत, जहाँ दलितों और शेष समाज के बीच अत्यधिक विशाल अंतर पाए गये, वहाँ विशेष संस्थागत कार्यक्रमों द्वारा इस खाई को पाटने के लिए अतिरिक्त संसाधन जारी किए गये, जिसके अंतर्गत साक्षरता का विस्तार, ग़रीबी-उन्मूलन कार्यक्रम, घर और खेती के लिए ज़मीन का आवंटन आदि शामिल हैं.
दलित समुदाय की बहुदिशीय सुरक्षा के उपाय करने के साथ साथ इस बात की निगरानी रखनी भी बहुत आवश्यक थी कि दलितों के लिए किए गये उपाय सही मे ज़मीनी हक़ीकत बन भी रहे हैं या नहीं और इस समुदाय के हिस्से के लिए जारी की गयी सुविधा उन तक पहुँच भी रही है या नहीं. इस उद्देश्य के साथ चार निगरानी संस्थाएँ / आयोग बनाए गये.
राष्ट्रीय अनुसूचित जाति व जनजाति आयोग की स्थापना स्वयं संविधान के अंतर्गत की गयी,
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना Proctection of Human Rights Act, 1993 के अंतर्गत हुई,
राष्ट्रीय महिला आयोग की स्थापना National Commission for Women Act, 1990 के अंतर्गत हुई,
राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग की स्थापना National Commission for Safai Karmacharis Act, 1993 के अंतर्गत हुई है.
मानवाधिकार आयोग और महिला आयोग, किसी विशेष जाति के लिए ना होकर देश के हर एक नागरिक के लिए स्थापित हुए हैं, लेकिन इनके कार्यक्षेत्र हमेशा ही दलित समुदायसे सबसे ज़्यादा जुड़े रहे, जिनका अधिकार हनन सबसे ज़्यादा होता आया।
उपरोक्त संवैधानिक प्रबंधों से स्पष्ट है की राज्य, दलितों के प्रति होने वाली हिंसा और इसके कारणों की जड़ को सामाजिक व्यवस्था और परंपरागत पदानुक्रमित संबंधों मे पाता है और इन तथ्यों को क़ानूनी रूप से स्वीकार करता है, जो दलितों को सामाजिक आधीनता और इनडिग्निटी से भरी जिंदगी मे झोंक कर अवसाद भरा जीवन जीने को मजबूर करते हैं।
यहाँ बताई गयी त्रि-स्तरीय पॉलिसी धीरे धीरे उन कारकों को ख़त्म करने मे सहायता करेगी जो दलितों के प्रति हिंसा के रूप में परिणत हो जाते हैं या कारण बनते हैं और इस तरह समय के साथ साथ समाज मे समानता का आगमन और प्रसार होगा, जो समय लेगा. बड़े सोच विचार के बाद सामाजिक समानता लाने के लिए बनाया गया ये मॉडेल, समय के साथ साथ अनुभवों के आधार पर और सुदृढ़ किया गया और सोशियल इंजिनियरिंग के द्वारा सुधार के लिए देशभर मे प्रयासरत है।
यह बात भी स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आती है की सामाजिक संबंधों को बंद करने की इस प्रक्रिया मे राज्य की भूमिका न केवल बेहद महत्वपूर्ण बल्कि निर्णायक रूप मे रही है. इसमे कोई शंका नहीं की राज्य को ये भूमिका, जागरूकता के साथ साथ एक सकारात्मक झुकाव से इन हाशिए पर रखे गये और वंचित (सुविधा विहीन और अधिकारहीन) समुदायों के पक्ष मे प्रयोग करनी थी, जब भी दुर्जेय और अभेद्य उच्च वर्ग इस वंचित समुदाय के सामने रुकावट बना खड़ा हो. राज्य के सामने स्पष्ट था की ये वंचित और शक्तिहीन समुदाय उच्च और शक्तिशाली (सुविधा संपन्न और अधिकार संपन्न) वर्ग के सामने लंबी समयावधि तक भी अपने दम पर अपने हक की लड़ाई लड़ने मे सक्षम नहीं हो पाएगा. इसलिए ऐसी उम्मीद की गयी थी की राज्य कार्यकारिणी, विधायिका और न्यायपालिका के संस्थान न्यायिक और संवैधानिक भावना का सम्मान करते हुए, राज्य की इस नीति का पालन करेंगे और उचित और आवश्यक प्रतिक्रिया देंगे।
कहीं ऐसा ना हो कि सरकारी तंत्र एक उदासीन या पक्षपात पूर्ण तरीके से कार्य करने लगें, इस पर निगरानी रखने के लिए विशेष निगरानी तंत्रों की स्थापना की गयी ताकि नीतिगत प्रतिबद्धता और इसके पालन के उद्देश्य से बनाई गयी व्यवस्था अपने नियत रास्ते से भटके नहीं।
इस रण नीति में ये भी आशा और आदर्शवादी दृष्टिकोण संजोया हुआ थी की बहुसंख्यक हिंदू समाज भी स्वयं अपनी ज़िम्मेदारी समझ कर एक उदार और मानवीय नीति और लोकतांत्रिक प्रक्रिया अपनाते हुए ज़रूरी सहयोग देगा और स्वयं को इन आधारों पर खुद को बदलकर एक संपूर्ण और सकारात्मक सामाजिक बदलाव मे अपना सहयोग प्रदान करेगा. इस प्रकार ये उम्मीद की गयी थी की सोशियल इंजिनियरिंग के इस प्रयास द्वारा अन्य समुदायों के दलित, उत्पीड़ित और शोषित समुदायों के प्रति चले आ रहे रवैये और व्यावहारिक प्रतिक्रिया मे व्यापक और सकारात्मक परिवर्तन देखने को मिलेंगे।
मानवाधिकार आयोग की इस रिपोर्ट के आगे के भागों मे विस्तार से इस बात की जाँच की गयी है और कारण बताए हैं कि इस त्रि-आयामी रणनीति के अभीष्ट उद्देश्य संपादित/कार्यान्वित हुए, ज़मीनी हक़ीकत बने भी कि नहीं या फिर अनुसूचित जातियों के खिलाफ परंपरागत जारी हिंसा, जो कि धीरे धीरे और चुपचाप अस्पृश्यता के पालन द्वारा, तरह तरह की बाधाएँ लादकर और निर्योग्यताएँ थोप कर, भेदभाव करके, पक्षपातो और छुवा छूत आधारित परंपराएँ जारी रखकर तथा प्रत्यक्ष रूप से शारीरिक हिंसा करके और उनके प्रति जघन्य अपराध जैसे हत्या, नरसंहार, बलात्कार, आगज़नी आदि द्वारा सतत रूप से अन्य समुदायों द्वारा जारी रहती है। ताकि जाति आधारित सामाजिक व्यवस्था को लागू रखा जा सके और इसमे होने वाले परिवर्तनों के खिलाफ बहुत ही सख़्त प्रतिरक्षा दलितों के मन मे भय बैठाकर स्थापित रखी जा सके, वो वैसे ही जारी रही या कम हुईं.
अगर इस पॉलिसी का पालन नहीं हुआ है तो कभी आगे ये भी बताया जाएगा की राज्य की इस त्रि-आयामी पॉलिसी के कार्यान्वयन और इसे समाज मे लागू करने के रास्ते मे कौन सी बाधाएँ आई और इनके पालन मे क्या कुछ सही नहीं रहा. समय मिला तो इस विषय पर भी बात की जाएगी की संविधान और राज्य की पॉलिसी मे निहित इस प्रकार की आशा को बहुसंख्यक हिंदू समाज ने अपनी इन घ्रिणित परंपराओं को छोड़कर उदारवादी और मानवतावादी और जनतांत्रिक सामाजिकता को अपनाने मे कितनी उत्सुकता दिखाई ताकि भारतीय सभ्यता भी दुनिया की विकसित सभ्यताओं के स्तर को प्राप्त कर सके और यह भी चर्चा की जाएगी कि क्या “राज्य -नागरिक समाज इंटरफेस” ने इस मुद्दे पर सकारात्मक सामाजिक बदलाव के लिए ज़रूरी सदभाव दर्शाया या नहीं!!
धन्यवाद!
Source: Human Right Commission Report by K. B. Saxena (For Govt. of India)
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सामाजिक स्तर मे सुधार के लिए संविधान में त्रि-आयामी (त्रि-स्तरीय) रण नीति बनाई गयी, जो इस प्रकार हैं।
1. सामाजिक सुरक्षा प्रदान करके:
न्यायिक/नियमन साधनों द्वारा समानता के सिद्धांतको लागू करके और सामाजिक बाधाओं को दूर करके,दलितों पर होने वाली शारीरिक हिंसा के अपराधियों को कठोर दंड का प्रावधान करके,
ऐसे परंपरागत नियमों, प्रबंधों को बंद करके, जो दलितों की डिग्निटी ( गरिमा )और आत्म सम्मान को ठेस पहुँचाते हैं।
उनके परिश्रम की उचित कीमत और फल की प्राप्ति सुनिश्चित करके,-प्राकृतिक संसाधनों पर किसी खास वर्ग का ही अधिपत्य कम करके,
दलितों को उपलब्ध कराई गयी सुविधा, अधिकार, लाभ आदि की देखभाल के लिए स्वतंत्र आयोगो का गठन करके।
2. कमपेनसेटरी डिस्क्रिमिनेशन (प्रति पूरक भेदभाव ): सार्वजनिक सेवाओं, प्रतिनिधि संगठनों/ निकायों, शैक्षिक संस्थानों मे आरक्षण लागू करके व अन्य सहायता प्रदान करके।
3. विकास:- अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति और अन्य समुदायों के बीच पैदा हुई खाई को पाटने के लिए लाभ और संसाधनों का पुनरवितरण करके.
ये नीति राज्य (भारत) द्वारा कार्यान्वित की गयी और तब से इस नीति के प्रति प्रतिबद्धता, भारत राज्य की विशेषता रही है. समय समय पर ये नीति ज़रूरत पड़ने पर और ज़्यादा मजबूत बनाई गयी और साथ ही ज़रूरत के मुताबिक इसका दायरा भी बढ़ाया गया है. जहाँ तक सुरक्षा संबंधी प्रायोजनों की बात है, तो खुद संविधान मे काफ़ी विस्तृत रूप से उन परंपराओं, नियम क़ानूनों, सामाजिक संस्थागत प्रबंधों और दलितों पर थोपी गयी किसी भी अन्य प्रकार की अमानवीय और भेदभावी स्थिति को ख़तम करने की ढाँचागत रूपरेखा दी गयी है जो अस्पृश्यता को समाज मे लागू करते हैं, उसका अनुमोदन करते हैं या इस हीन परंपरा के पालन को प्रोत्साहित करते हैं।
इन संवैधानिक प्रबंधों को लागू करने के लिए क़ानून बनाए गये. उदाहरण के लिए:-
The Untouchability Practices Act, 1955 संविधान के आर्टिकल 17 को लागू करने के लिए बनाया गया. इस क़ानून को फिर से सख़्त बनाया गया और 1976 मे सन्सोधित करके इसे Protection of Civil Rights Actके नाम से ज़्यादा प्रभावी रूप मे लागू किया गया. बाद मे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्यों पर लगातार बढ़ते गये जघन्य अत्याचारों और हिंसा, जैसे सामूहिक नर संहार, बलात्कार, आगज़नी, गंभीर हमलो द्वारा शारीरिक क्षति आदि के फलस्वरूप राज्य को एक बार फिर गंभीर फ़ैसले लेने पड़े और दलितों को सुरक्षा के लिए विशेष क़ानून बनाना पड़ा जिसे
“Scheduled Caste and Scheduled Tribe (Prevention of Atrocities) Act, 1989
के नाम से जाना गया और इसमे पहले से अधिक कठोर सजाओं का प्रावधान किया गया ताकि ये क़ानून दलित के लिए प्रतिरक्षक ढाल का कार्य कर सके. इसी क़ानून का शोषक समाज ने जमकर विरोध किया. यही क़ानून वर्ग विशेष द्वारा “हरिजन एक्ट” के नाम से प्रचारित किया गया. समाज मे स्थापित परंपराओं और क़ायदे क़ानूनों द्वारा दलितों को परंपरागत कार्यों में धकेलने के विरुद्ध और उनके अपने सामाजिक स्तर मे सकारात्मक बदलाव लाने के प्रयासों में सहयोग के लिए समय समय पर अतिरिक्त क़ानूनों को भी प्रभाव मे लाया गया।
The Employment of Manual scavengers and Construction of Dry Latrines (Prohibition) Act, 1993 नामक क़ानून, जो दलितों द्वारा हाथ से अन्य नागरिकों के मानव मल को साफ करने की अतिहीन कुप्रथा को ख़तम करने के लिए बना था, इन नियमों मे सबसे महत्वपूर्ण है. जो एक अन्य कुप्रथा रोकी जानी थी, वो थी दलित लड़कियों का मंदिरों मे देवदासी के नाम पर यौन शोषण. आंध्रा प्रदेश और कर्नाटक ने देवदासी नाम की इस प्रथा को तत्काल प्रभाव से ख़त्म करने के लिए क़ानून पास किए. इस प्रथा के द्वारा जवान दलित लड़कियाँ स्थानीय देवता को देवदासी के नाम पर भेंट चढ़ा दी जाती थीं, जिनका मंदिर के पुजारियों द्वारा यौन शोषण होता था।
देवता के नाम पर मंदिर के पुजारी/पुरोहित, दलित लड़कियों का शोषण करते रहे थे. महाराष्ट्र मे 1934 मे ही इस घटिया परंपरा को बंद करने का क़ानून बन चुका था. कुछ क़ानून जो, इस उच्च वर्ग द्वारा शुरू की गयी दलित बालिकाओं के शारीरिक शोषण इस नीच धार्मिक परंपरा को गैर क़ानूनी घोषित करके इसके उन्मूलन और प्रतिबंध के लिए पास किए गये, वो इस प्रकार हैं:-
Andhra Pradesh Devdasi (Prohibition of Dedication) Act, 1988
Karnataka Devdasi (Prohibition of Dedication) Act, 1992
Hindu Religious and Charitable Endowment Act, 1927 of Mysore.
The Bombay Devdasi Protection Act, 1934
(उपरोक्त क़ानूनों का बनाया जाना इस परंपरा के वजूद, उसके प्रचलन और पुरोहित वर्ग के दलित वर्ग के प्रति घृणित और अमानवीय नज़रिए का सेल्फ़ एक्सप्लनेटरी और लीगल प्रूफ है)
रोज़गार प्रदाता/नियोक्ता द्वारा अपने यहाँ नियुक्त काम गारों/श्रमिकों के शोषण को रोकने के लिए भी क़ानून बनाया गया. इस क़ानून का मकसद मालिक द्वारा मजदूरों की सही मज़दूरी का भुगतान पक्का करना, कार्य के चुनाव की स्वतंत्रता दिलाना, ताकि नियोक्ता दावरा श्रमिकों पर अमानवीय और श्रमिकों की इच्छा के विपरीत कार्य करने की बाध्यता लादना बंद करना सुनिश्चित किया जा सके, अपने शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाने की स्वतंत्रता आदि आदि का ध्यान रखा गया. हालाँकि ये क़ानून अनुसूचित जाति और अनुसूचित/जन जाति के लिए ही विशेष रूप से न होकर, हर वर्ग के श्रमिक पर लागू होता है, पर इसका सबसे बड़ा प्रभावित वर्ग दलित वर्ग ही था क्योंकि सबसे ज़्यादा मजदूर और श्रमिक इसी वर्ग से आते थे और आते हैं।
इस उद्देश्य के लिए बने क़ानून इस प्रकार हैं:
Bonded Labour System (Abolition) Act, 1976, बंधुआ मज़दूरी प्रणाली(निषेध) एक्ट, 1976
Minimum Wages Act, 1948, मिनिमम वेजस आक्ट,
Equal Renumiration Act, 1976, 1948, ईक्वल रीम्यूनरेशन आक्ट, 1976
Child Labour (Prohibition and Regulation) Act, 1986, चाइल्ड लेबर (प्रोहिबिशन आंड रेग्युलेशन) आक्ट, 1986
Inter-State Migrant Workmen (Regulation of Employment and Conditions of Services) Act, 1979, इंटर-स्टेट माइग्रेंट वर्कमेन (रेग्युलेशन ऑफ एंप्लाय्मेंट आंड कंडीशन्स ऑफ सर्वीसज़) आक्ट, 1979
दलित समुदाय को समाज की मुख्य धारा से निकल दिए जाने और समाज से बहिष्कृत रखे जाने के फलस्वरूप सभी प्रकार के लाभकारी और उत्पादन के साधनों पर उच्च वर्ग का ही अधिकार रहा, जिसके कारण आज़ादी के समय भी लबभग सभी प्राकृतिक और बौद्धिक संसाधन इस उच्च वर्ग के ही पास अत्यधिक घनत्व के साथ केंद्रित थे, और दलित समुदाय इनसे सभ्याता के समय से ही वंचित रखा गया. आर्थिक संसाधनों और लाभकारी संपदा के कथित सवर्ण समाज के पास ही भारी मात्रा मे एकत्रित पाए जाने पर भी चोट की गयी. इस विषय के अंतर्गत “लैंड रिफॉर्म लॉ” (भूमि शुधार क़ानून), जिसका उद्देश्य अनुसूचित जाति व जनजाति के साथ साथ गाँव मे अन्य ग़रीब तबके के लोगों को भूमि का पुनरवितरण शामिल था, लागू किया गया।
डेट रिलीफ लेजिस्लेशन्स (ऋण राहत कानून) साहूकारों और सूद खोरों के हाथों ग़रीब लोगों के शोषण को रोकने और पैसे के लेन देन को नियमित करने के उद्देश्य से लागू किए गये.
सामाजिक सुधार की इस रणनीति का दूसरा भाग कमपेनसेटरी डिस्क्रिमिनेशन (प्रति पूरक भेदभाव / क्षतिपूर्ति भेदभाव या सकारात्मक कार्यवाही) से संबंधित है जो निम्न लिखित प्रायोजन लागू करता है:
सार्वजनिक सेवा की नियुक्ति और प्रमोशन मे आरक्षण लागू करके,विधायिका की सीटों मे आरक्षण लागू करके (केंद्रीय, राज्य, पंचायत राज, मुनिसिपल बॉडीस आदि),शैक्षिक और प्रोफेशनल कॉलेजस की सीट मे आरक्षण लागू करके,निर्धारित योग्यता मापदंडो मे छूट प्रदान करके,फीस मे छूट या माफी प्रदान करके, आदि आदि।
ये सब उपाय यह सुनिश्चित करने के उद्देश्य के साथ किए गये की दलित समुदाय के लोग भी देश के सार्वजनिक तंत्र की शक्ति और निर्णयों मे अपना हिस्सा ले सके, साथ ही उनको उच्च शिक्षा प्राप्त करने के भी अवसर उपलब्ध हो सकें. ये महसूस किया गया था की यह वर्ग जन्म जन्मान्तर और सदियों की अर्जित की गयी कमज़ोरी, व्यापक रूप में प्रचलित सामाजिक शोषण और सामाजिक अपंगता के कारण खुली प्रतियोगिता मे अपना ज़रूरी हिस्सा नहीं ले पाएगा।
इन प्रायोजनों का उद्देश्य दलितों और उस क्षेत्र मे रह रहे अन्य वर्गों के बीच पैदा हुई सामाजिक अंतर की गहरी खाई को पाटना था।
सामाजिक सुधार की इस रण नीति का तीसरा पहलू दलितों के व्यापक और बहुदिशीय विकास पर फोकस करता है. इस विषय के अंतर्गत लाभो का सीमांकन करके व तरह तरह की योजनाओं के अंतर्गत धनराशि जारी करके दलितों की आर्थिक स्थिति को सुधारने का प्रयास किया गया है ताकि समाज मे दलितों का उन्नयन (उपर की और गमन) हो सके. इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्रायोजन था की योजना के अंतर्गत जारी राशि का एक निश्चित प्रतिशत अनिवार्य रूप से दलितों के लाभ वाली योजनाओं पर ही खर्च किया जाए।
अनुसूचित जाति के केस मे इस प्रकार के प्रबंध को “स्पेशल कॉंपोनेंट प्लान” के नाम से जाना जाता है और इसके अंतर्गत ज़िम्मेदार एजेंसी दलितों के हित के लिए योजना बनाकर धन राशि पास करती है जो कम से कम उस राज्य मे दलितों की जनसंख्या के प्रतिशत के बराबर होती है और केंद्रीय योजनाओं मे देश की कुल आबादी मे दलितों के प्रतिशत के बराबर होती है. (उत्तर प्रदेश की राज्य योजना मे = 21%, केंद्रीय योजना मे= 15%). ये संसाधन दलित समुदाय के लिए ऐसे प्रोग्राम और गतिविधियों मे खर्च किए जाते हैं जो सीधे तौर पर दलितों की आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाने मे मददगार साबित होते हों।
इसी नियम के समानांतर, स्टेट पॉलिसी द्वारा प्रावधान किए गये की विभिन्न विकास कार्यक्रमों, जिनसे आम आबादी के लाभ जुड़े हों, उनमें लाभ प्राप्त करने वाले लोगों की संख्या या की एक निश्चित प्रतिशत अनुसूचित जाति व जन जाति से होना सुनिश्चित किया जाएगा और किसी भी स्थिति मे उनकी उस राज्य मे जनसंख्या मे हिस्से के प्रतिशत से कम नहीं होगा. ऐसा इसलिए करना पड़ा ताकि संस्थाएँ लाभों का एक तरफ़ा वितरण करके दलितों को उनके हिस्से से वंचित न कर दें, जैसा की परंपरागत तौर पर समाज मे होता आया।
कुछ विशेष कार्यक्रमों के अंतर्गत, जहाँ दलितों और शेष समाज के बीच अत्यधिक विशाल अंतर पाए गये, वहाँ विशेष संस्थागत कार्यक्रमों द्वारा इस खाई को पाटने के लिए अतिरिक्त संसाधन जारी किए गये, जिसके अंतर्गत साक्षरता का विस्तार, ग़रीबी-उन्मूलन कार्यक्रम, घर और खेती के लिए ज़मीन का आवंटन आदि शामिल हैं.
दलित समुदाय की बहुदिशीय सुरक्षा के उपाय करने के साथ साथ इस बात की निगरानी रखनी भी बहुत आवश्यक थी कि दलितों के लिए किए गये उपाय सही मे ज़मीनी हक़ीकत बन भी रहे हैं या नहीं और इस समुदाय के हिस्से के लिए जारी की गयी सुविधा उन तक पहुँच भी रही है या नहीं. इस उद्देश्य के साथ चार निगरानी संस्थाएँ / आयोग बनाए गये.
राष्ट्रीय अनुसूचित जाति व जनजाति आयोग की स्थापना स्वयं संविधान के अंतर्गत की गयी,
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना Proctection of Human Rights Act, 1993 के अंतर्गत हुई,
राष्ट्रीय महिला आयोग की स्थापना National Commission for Women Act, 1990 के अंतर्गत हुई,
राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग की स्थापना National Commission for Safai Karmacharis Act, 1993 के अंतर्गत हुई है.
मानवाधिकार आयोग और महिला आयोग, किसी विशेष जाति के लिए ना होकर देश के हर एक नागरिक के लिए स्थापित हुए हैं, लेकिन इनके कार्यक्षेत्र हमेशा ही दलित समुदायसे सबसे ज़्यादा जुड़े रहे, जिनका अधिकार हनन सबसे ज़्यादा होता आया।
उपरोक्त संवैधानिक प्रबंधों से स्पष्ट है की राज्य, दलितों के प्रति होने वाली हिंसा और इसके कारणों की जड़ को सामाजिक व्यवस्था और परंपरागत पदानुक्रमित संबंधों मे पाता है और इन तथ्यों को क़ानूनी रूप से स्वीकार करता है, जो दलितों को सामाजिक आधीनता और इनडिग्निटी से भरी जिंदगी मे झोंक कर अवसाद भरा जीवन जीने को मजबूर करते हैं।
यहाँ बताई गयी त्रि-स्तरीय पॉलिसी धीरे धीरे उन कारकों को ख़त्म करने मे सहायता करेगी जो दलितों के प्रति हिंसा के रूप में परिणत हो जाते हैं या कारण बनते हैं और इस तरह समय के साथ साथ समाज मे समानता का आगमन और प्रसार होगा, जो समय लेगा. बड़े सोच विचार के बाद सामाजिक समानता लाने के लिए बनाया गया ये मॉडेल, समय के साथ साथ अनुभवों के आधार पर और सुदृढ़ किया गया और सोशियल इंजिनियरिंग के द्वारा सुधार के लिए देशभर मे प्रयासरत है।
यह बात भी स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आती है की सामाजिक संबंधों को बंद करने की इस प्रक्रिया मे राज्य की भूमिका न केवल बेहद महत्वपूर्ण बल्कि निर्णायक रूप मे रही है. इसमे कोई शंका नहीं की राज्य को ये भूमिका, जागरूकता के साथ साथ एक सकारात्मक झुकाव से इन हाशिए पर रखे गये और वंचित (सुविधा विहीन और अधिकारहीन) समुदायों के पक्ष मे प्रयोग करनी थी, जब भी दुर्जेय और अभेद्य उच्च वर्ग इस वंचित समुदाय के सामने रुकावट बना खड़ा हो. राज्य के सामने स्पष्ट था की ये वंचित और शक्तिहीन समुदाय उच्च और शक्तिशाली (सुविधा संपन्न और अधिकार संपन्न) वर्ग के सामने लंबी समयावधि तक भी अपने दम पर अपने हक की लड़ाई लड़ने मे सक्षम नहीं हो पाएगा. इसलिए ऐसी उम्मीद की गयी थी की राज्य कार्यकारिणी, विधायिका और न्यायपालिका के संस्थान न्यायिक और संवैधानिक भावना का सम्मान करते हुए, राज्य की इस नीति का पालन करेंगे और उचित और आवश्यक प्रतिक्रिया देंगे।
कहीं ऐसा ना हो कि सरकारी तंत्र एक उदासीन या पक्षपात पूर्ण तरीके से कार्य करने लगें, इस पर निगरानी रखने के लिए विशेष निगरानी तंत्रों की स्थापना की गयी ताकि नीतिगत प्रतिबद्धता और इसके पालन के उद्देश्य से बनाई गयी व्यवस्था अपने नियत रास्ते से भटके नहीं।
इस रण नीति में ये भी आशा और आदर्शवादी दृष्टिकोण संजोया हुआ थी की बहुसंख्यक हिंदू समाज भी स्वयं अपनी ज़िम्मेदारी समझ कर एक उदार और मानवीय नीति और लोकतांत्रिक प्रक्रिया अपनाते हुए ज़रूरी सहयोग देगा और स्वयं को इन आधारों पर खुद को बदलकर एक संपूर्ण और सकारात्मक सामाजिक बदलाव मे अपना सहयोग प्रदान करेगा. इस प्रकार ये उम्मीद की गयी थी की सोशियल इंजिनियरिंग के इस प्रयास द्वारा अन्य समुदायों के दलित, उत्पीड़ित और शोषित समुदायों के प्रति चले आ रहे रवैये और व्यावहारिक प्रतिक्रिया मे व्यापक और सकारात्मक परिवर्तन देखने को मिलेंगे।
मानवाधिकार आयोग की इस रिपोर्ट के आगे के भागों मे विस्तार से इस बात की जाँच की गयी है और कारण बताए हैं कि इस त्रि-आयामी रणनीति के अभीष्ट उद्देश्य संपादित/कार्यान्वित हुए, ज़मीनी हक़ीकत बने भी कि नहीं या फिर अनुसूचित जातियों के खिलाफ परंपरागत जारी हिंसा, जो कि धीरे धीरे और चुपचाप अस्पृश्यता के पालन द्वारा, तरह तरह की बाधाएँ लादकर और निर्योग्यताएँ थोप कर, भेदभाव करके, पक्षपातो और छुवा छूत आधारित परंपराएँ जारी रखकर तथा प्रत्यक्ष रूप से शारीरिक हिंसा करके और उनके प्रति जघन्य अपराध जैसे हत्या, नरसंहार, बलात्कार, आगज़नी आदि द्वारा सतत रूप से अन्य समुदायों द्वारा जारी रहती है। ताकि जाति आधारित सामाजिक व्यवस्था को लागू रखा जा सके और इसमे होने वाले परिवर्तनों के खिलाफ बहुत ही सख़्त प्रतिरक्षा दलितों के मन मे भय बैठाकर स्थापित रखी जा सके, वो वैसे ही जारी रही या कम हुईं.
अगर इस पॉलिसी का पालन नहीं हुआ है तो कभी आगे ये भी बताया जाएगा की राज्य की इस त्रि-आयामी पॉलिसी के कार्यान्वयन और इसे समाज मे लागू करने के रास्ते मे कौन सी बाधाएँ आई और इनके पालन मे क्या कुछ सही नहीं रहा. समय मिला तो इस विषय पर भी बात की जाएगी की संविधान और राज्य की पॉलिसी मे निहित इस प्रकार की आशा को बहुसंख्यक हिंदू समाज ने अपनी इन घ्रिणित परंपराओं को छोड़कर उदारवादी और मानवतावादी और जनतांत्रिक सामाजिकता को अपनाने मे कितनी उत्सुकता दिखाई ताकि भारतीय सभ्यता भी दुनिया की विकसित सभ्यताओं के स्तर को प्राप्त कर सके और यह भी चर्चा की जाएगी कि क्या “राज्य -नागरिक समाज इंटरफेस” ने इस मुद्दे पर सकारात्मक सामाजिक बदलाव के लिए ज़रूरी सदभाव दर्शाया या नहीं!!
धन्यवाद!
Source: Human Right Commission Report by K. B. Saxena (For Govt. of India)