जड़ी-बूटी चकित्सा वास्तव में उन आदिवासी लोगो की देन है जो जंगलों में रहते थे, जंगलों में रहने के कारण जड़ी बूटियों के उपयोग को वे पीढ़ी दर पीढ़ी भली भांति जानते और समझते थें।
ये परम्परा बौद्ध भिक्खुओ में भी आई, चुकी बौद्ध भिक्खुओ को धम्म प्रचार प्रसार के लिए दूर दूर तक प्रवास करना होता था ।रास्ते मे बीमार पड़ने पर अपना इलाज स्वयं ही करना होता था अतः जड़ी बूटियों का ज्ञान भली प्रकार जानना होता था।
कहा जाता है कि आयुर्वेद के जनक चरक थे, किंतु चरक से बहुत पहले और सिकंदर के आक्रमण से भी पहले बौद्ध भिक्खुओ ने जड़ी बूटियों का ज्ञान यूनान में फैला दिया था। इस बात को क्लीमेंट ( 150-218 ईसा) ने अपनी पुस्तक अलेक्जेंड्रिया में लिखा है।
हिजरी सन की दूसरी सदी में बौद्ध भिक्खुओ के चिकित्सा ज्ञान को अरब के लोगों ने ' बुदाशिफ़ /बुदाशिफ़ा 'के नाम के ग्रँथ में संग्रहित किया ।
रेगिस्तानी जमीन से आने वाले लोग कैसे जंगल की जड़ी बूटियों का ज्ञान रख सकते थे? जिन्होंने कुंए तक नही देखे थे वे जंगली जड़ीबूटियों का विस्तृत ज्ञान दें ऐसा संभव नही था। शायद इसी लिए आयुर्वेदिक साहित्य के दो महत्वपूर्ण ग्रँथ चरक संहिता और सुश्रुत में अजीबोगरीब नुस्खे दिए हुए हैं , आप कुछ नुस्खों का उदहारण देखिये-
1-प्रमेह रोग- इस रोग में मूत्र के साथ धातु या शक्कर गिरती है , इस के रोगी को दिए जाने वाले आहार का निर्देश करते हुए चरक संहिता में कहा गया है -
2- ये विष्किरा से प्रतुदा ...... चाप्यपूपान(चरक संहिता , चकित्सा स्थानम् ,अध्याय 6, श्लोक 19)
अर्थात प्रमेह से पीड़ित रोगियो को विष्किर( तितर की जाति का एक पक्षी) और प्रतुद(बाज,कौआ, तोता) पक्षी का मांस तथा जंगली पशु के मांस का रस( तरी) के साथ यव का भात और सत्तू का आहार करना चाहिए जिससे यह रोग ठीक हो जाए।
3-यक्ष्मा रोग(क्षय रोग) - इस रोग से पीड़ित को तितर, मुर्गा, आदि पक्षीयो का मांस घी में पका के खाने का विधान चरक ने किया है -
लावणाम्लकटूष्णश्च रसान् ....... कल्पयेत्( चरक संहिता, चकित्सा स्थानम् 8/66)
बहुत से लोग आयुर्वेदिक इलाज के गुण गाते हुए ऐलोपेथी को भला बुरा कहते हैं । उनकी नजर में आयुर्वेदिक दवाइयाँ रामबाण होती हैं और उनके सामने ऐलोपैथिक दवाइयाँ कचरे का ढेर। पर यह बात अलग है की बीमार होने पर वे लोग हास्पिटल में एडमिट होते हैं और ठीक ऐलोपैथिक दवाइयो से ही होते हैं। बाबा रामदेव के सहयोगी बालकृष्ण जीवन भर पंतजलि के आयुर्वेदिक दवाइयों से लोगो को मूर्ख बनाते रहें, कंल जब खुद बीमार हुए तो एम्स में भर्ती हुए । आयुर्वेदिक इलाज काम न आया।
यही आदिशंकराचर्य जी भी अपना इलाज आयुर्वेद से न कर पाए थे, दयानन्द सरस्वती जी जीवन भर आयुर्वेद के गुण गाते रहें पर अंत समय मे अंग्रेजी डॉक्टर के पास भागे। आयुर्वेद के नाम पर मूर्ख बनाने वालों से सावधान रहिये।
ये परम्परा बौद्ध भिक्खुओ में भी आई, चुकी बौद्ध भिक्खुओ को धम्म प्रचार प्रसार के लिए दूर दूर तक प्रवास करना होता था ।रास्ते मे बीमार पड़ने पर अपना इलाज स्वयं ही करना होता था अतः जड़ी बूटियों का ज्ञान भली प्रकार जानना होता था।
कहा जाता है कि आयुर्वेद के जनक चरक थे, किंतु चरक से बहुत पहले और सिकंदर के आक्रमण से भी पहले बौद्ध भिक्खुओ ने जड़ी बूटियों का ज्ञान यूनान में फैला दिया था। इस बात को क्लीमेंट ( 150-218 ईसा) ने अपनी पुस्तक अलेक्जेंड्रिया में लिखा है।
हिजरी सन की दूसरी सदी में बौद्ध भिक्खुओ के चिकित्सा ज्ञान को अरब के लोगों ने ' बुदाशिफ़ /बुदाशिफ़ा 'के नाम के ग्रँथ में संग्रहित किया ।
रेगिस्तानी जमीन से आने वाले लोग कैसे जंगल की जड़ी बूटियों का ज्ञान रख सकते थे? जिन्होंने कुंए तक नही देखे थे वे जंगली जड़ीबूटियों का विस्तृत ज्ञान दें ऐसा संभव नही था। शायद इसी लिए आयुर्वेदिक साहित्य के दो महत्वपूर्ण ग्रँथ चरक संहिता और सुश्रुत में अजीबोगरीब नुस्खे दिए हुए हैं , आप कुछ नुस्खों का उदहारण देखिये-
1-प्रमेह रोग- इस रोग में मूत्र के साथ धातु या शक्कर गिरती है , इस के रोगी को दिए जाने वाले आहार का निर्देश करते हुए चरक संहिता में कहा गया है -
2- ये विष्किरा से प्रतुदा ...... चाप्यपूपान(चरक संहिता , चकित्सा स्थानम् ,अध्याय 6, श्लोक 19)
अर्थात प्रमेह से पीड़ित रोगियो को विष्किर( तितर की जाति का एक पक्षी) और प्रतुद(बाज,कौआ, तोता) पक्षी का मांस तथा जंगली पशु के मांस का रस( तरी) के साथ यव का भात और सत्तू का आहार करना चाहिए जिससे यह रोग ठीक हो जाए।
3-यक्ष्मा रोग(क्षय रोग) - इस रोग से पीड़ित को तितर, मुर्गा, आदि पक्षीयो का मांस घी में पका के खाने का विधान चरक ने किया है -
लावणाम्लकटूष्णश्च रसान् ....... कल्पयेत्( चरक संहिता, चकित्सा स्थानम् 8/66)
बहुत से लोग आयुर्वेदिक इलाज के गुण गाते हुए ऐलोपेथी को भला बुरा कहते हैं । उनकी नजर में आयुर्वेदिक दवाइयाँ रामबाण होती हैं और उनके सामने ऐलोपैथिक दवाइयाँ कचरे का ढेर। पर यह बात अलग है की बीमार होने पर वे लोग हास्पिटल में एडमिट होते हैं और ठीक ऐलोपैथिक दवाइयो से ही होते हैं। बाबा रामदेव के सहयोगी बालकृष्ण जीवन भर पंतजलि के आयुर्वेदिक दवाइयों से लोगो को मूर्ख बनाते रहें, कंल जब खुद बीमार हुए तो एम्स में भर्ती हुए । आयुर्वेदिक इलाज काम न आया।
यही आदिशंकराचर्य जी भी अपना इलाज आयुर्वेद से न कर पाए थे, दयानन्द सरस्वती जी जीवन भर आयुर्वेद के गुण गाते रहें पर अंत समय मे अंग्रेजी डॉक्टर के पास भागे। आयुर्वेद के नाम पर मूर्ख बनाने वालों से सावधान रहिये।