शाम से ही घने -श्याम मेघों का जमवाड़ा आसमान में शुरू हो गया था , कई दिनों की बदन झुलसाउ गर्मी के बाद काले मेघों का दीदार नैसर्गिक आंनद की अनुभूति करवा रहा था ।
तक़रीबन डेढ़ -दो घण्टे जी भर के उमड़ने -घुमड़ने बाद काले मेघों ने अपने कंधे पर लादे वजन को कम करना आरंभ कर दिया , कंधे से मुक्त हुई जल की बूंदे धरा से मिलने के लिए बैचैनी यूँ भागीं जैसे अपने प्रीतम से मिलने कोई प्रेमिका।
झमा-झम वर्षा ....
मैंने दुकान में से झांक के बाहर देखा तो भगदड़ सी मची हुई थी, लोग वर्षा से बचने के लिए इधर-उधर छुपने की जगह तलाश रहे थे। जिसको जंहा जगह वंही छुपने की कोशिश कर रहा था , मानो वर्षा की बूंदे न होके आग के गोले हों जो उन्हें जला के भस्म कर देंगे अथवा वे खुद कागज़ के बने हों बस पानी पड़ते ही गल जायेंगे।
कुछ ही देर में मेरी दुकान के शैल्टर के नीचे बारिश से बचने के लिए काफी लोग एकत्रित हो गएँ थे ।
मुझ से रुका नहीं जा रहा था , मन कर रहा था कि भाग के बाहर जाऊं और बारिश में खूब नहाऊं। न जाने कितने दिन बीत गए थे वर्षा की बूंदों को अपनी हथेलियों से पकडे हुए । पानी में छप-छप पैर मार के किसी छोटे बच्चे की तरह उछले हुए।
कुछ देर अपने को नियंत्रित किया ,किन्तु स्ट्रीट लाइट की पीली रौशनी में गिरती बूंदों की चमक ने आख़िर अपना काम कर ही दिया । मैंने तुरन्त अपने हैल्पर से दुकान बन्द करने को कहा । पहले तो वह तैयार न हुआ ,कहने लगा की ऐसी बारिश में दुकान बंद कर के कैसे घर जाएंगे? भीग जायेंगे।
मैं मुस्कुरा के कहा "बेवकूफ़ !आज भीगना ही तो है ..... इतना रूमानी मौसम रोज नहीं होता"।
वह मुझे आश्चर्य से देखने लगा ,फिर थोड़ा जोर देने पर दुकान का शटर डाउन कर दिया ।
मैंने अपना मोबाइल और पर्स एक प्लास्टिक की थैली में रखा और शटर का ताला लगा के सड़क पर खड़ी मोटरसाइकिल के पास आ गया।
शैल्टर के नीचे खड़े लोग मुझे देखने लगे थे ,जैसे कह रहे हों " बेटे भीग ले .... बीमार पड़ेगा तब पता चलेगा "
मैंने लोगो को चिढ़ाने वाले अंदाज में उनकी तरफ देखा जैसे कह रहा हूँ " डरपोक!" और मोटरसाइकिल में किक मार के चलता बना ।
बारिश में मोटरसाइकिल चलाते हुए भीगने का मजा ही कुछ और होता है खास कर तब जब लोग अपनी मोटरसाइकिल्स को किनारे लगा के किसी पेड़ या छज्जे के नीचे दुबके पड़े हों। आप उन पर उपहास की दृष्टि डालते हुए उनके सामने से हुर्र- हुर्र करती हुई अपनी मोटरसाइकिल पर निकल जाएं।
लगभग एक किलोमीटर की दूरी ऐसे ही गर्व से भीगते और बारिश का जम के मजा लेते हुए निकाल गया। रास्ते में एक नाला पड़ता है , जिसकी दीवार के सहारे कई बंजारों ने अपनी अस्थाई झोपड़ियां बनाई हुई है ।
जैसे ही उन झोपड़ियों के पास पहुंचा अचानक मेरी नजर एक झोपड़ी पर पड़ी। देखा तो एक स्त्री और उसके तीन छोटे छोटे बच्चे जो की दस साल से कम ही रहे होंगे बारिश में भीग के अपनी झोपडी की छत पर फटा हुआ तिपाल बिछा रहे हैं । अंदर पूरा सामान गीला हो चुका था , तेज बारिश के कारण झोपड़ी की सड़ चुकी प्लास्टिक तिरपाल जो छत का काम करती थी बुरी तरह से टपकने लगी थी जिससे सारा सामान भीग गया । झोड़पी के बाहर कच्चा चूल्हा भी टूट चुका था। स्त्री और उसके बच्च चिंता में भीगते हुए फ़टी हुई तिरपाल से अपने सामान को खराब होने की नाकामयाब कोशिश कर रहे थें। मैं सोचने लगा की ये लोग क्या खाएंगे और कैसे सोयेंगे रात में यदि बारिश यूँ ही पड़ती रही तो?
एक दूसरी झोपडी में सड़क का गंदा पानी घुस गया था ,जिसे पूरा परिवार गिलास और टूटे हुए कटोरों से निकालने की कोशिश कर रहा था । वे झोपडी स जितना पानी निकालते उससे अधिक वापस अंदर जा रहा था।
ऐसा ही हाल लगभग हर झोपडी का था । मैं काफी देर तक यूँ ही खड़ा उन अस्थाई झोपडी वाले बंजारों बारिश से लड़ने की जद्दो-जहद को देखता रहा । बारिश उनके लिए एक अभिशाप थी।
अब बारिश की बूंदे मुझे अंगारे लगने लगे थे , ये अंगारे मेरे बदन के साथ -साथ मेरे हिर्दय को भी भस्म किये जा रहे थे । अब मैं चाह रहा था कि बारिश उसी क्षण बंद हो जाये।