प्रचीन भारत के जनसमूहों में एक लंबी और गौरवशाली विचारधारा रही है जिसने अपनी साफगोई ,निर्भीकता और विज्ञानसम्मत तर्क के बल पर अडम्बकारी और शोषक ब्राह्मणिक दृष्टिकोण के लिए जबरजस्त चिंता बनाये रखी जब तक की शोषणकारी शक्तियों ने उन्हें नष्ट नहीं कर दिया ।
लोकायत( चार्वाक दर्शन) विचारधारा भी उनमें से एक रही जिसका निर्ममता से दमन किया गया और लुप्त कर दिया गया ।
लोकायत के विषय में कहा गया है -लोकेषु आयत: लोकायत: अर्थात लोगो में प्रचलित ।
हलाकि वेदों और उपनिषदों में आद्य भौतिकतावादी चिंन्ह सर्वत्र विद्यमान है किन्तु लोकायत भौतिकतावाद से भिन्न रही । वैदिक साहित्य में ऐसे नास्तिक मतों का उल्लेख है जो किसी काल्पनिक आत्मा -परमात्मा का खंडन का 'भूत' को ही अंतिम सत्य सत्य मानते थे ।लोकायत विचारधारा मूल भारतीय चिंतन परम्परा में निरंतर मान्य किन्तु वैदिक वैचारिक परम्परा के लिए हमेशा खतरा बनी रही।
बौद्ध ग्रन्थ 'दिव्यवादन' में लोकायत को ऐसा दर्शन बताया गया है जो सामान्य लोगो में प्रचलित था ।
आदि शंकराचार्य ने लोकायत मातानुयायिओ को साधारण जन (प्राकृत जना:) बताया है।
मनुस्मृति के भाष्यकार मेधातिथि ने अपने भाष्य में उल्लेख किया है कि लोकायत नाम का शास्त्र था ।उन्हीने न्याय और हेत्वाभास शास्त्रों के रूप लोकायत नाम का शास्त्र बताया है।
दासगुप्त ने बताया है कि लोकायत नाम का कोई ग्रन्थ था जिस पर 150 ईसापूर्व से पहले या तीन सौ वर्ष से भी पूर्व कम से कम एक भाष्य लिखा गया था ।
उन्होंने आगे उल्लेख किया है कि यह नास्तिक मत कि इस जन्म के बाद कोई जीवन नहीं है और मृत्यु के साथ चेतना नष्ट हो जाती है उपनिषद काल में अच्छी तरह स्थापित हो चूका था ।उपनिषद इसी मत का खंडन करना चाहते थे।
वृहदारण्यक उपनिषद में याज्ञवल्क्य ने ऐसे ही एक नास्तिक मत का उल्लेख किया है।
दीघनिकाय के 'समज्ज फल सुत्त' में लोकायतों के उपदेश का विस्तार से वर्णन मिलता है, अजित केशकंबली ,पूरन कश्यप, मस्करीन गोसाल आदि के विचार लोकायत के ही विचार थे।
माधव ने अपने सर्वदर्शनसंग्रह में लोकायत के होने की बात मानी है।
न्यायमंजरी में चार्वाकों के मत का उल्लेख है कि जंहा शरीर रहता है वँहा तक एक तत्व सभी अनुभवों का भोक्ता और दृष्टा के रूप में रहता है किंतु मृत्यु के बाद ऐसा कोई तत्व नहीं रहता।
इस तरह से विभिन्न वैदिक और अवैदिक ग्रन्थो में लोकायत अर्थात चार्वाक दर्शन का उल्लेख है , लोकायतों के तर्क का मुख्य बिंदु यह था कि चेतना तभी तक है जब तक शरीर रहता है शरीर न होने पर चेतना का कोई अस्तित्व नहीं रहता ।इसलिए यह चेतना शरीर का कार्य होना चाहिए ।
'अग्निहोत्र,तीनो वेद ,सन्यासी बनकर तीन काष्ठ खंड लेना ,शरीर पर भस्म पोत लेना ये बुद्धि और पौरुष से रहित व्यक्तियों की जीविका के साधन है "
'चार तत्वों भूमि,जल ,अग्नि,वायु से ही चेतना की उतपत्ति होती है जिस प्रकार चावल आदि पदार्थो के मिश्रण मद शक्ति उत्तपन होती है'
'न तो कोई स्वर्ग है न मोक्ष, और न कोई परालौकिक आत्मा "
'ज्योतिष्टोम यज्ञ में मारा गया पशु यदि स्वर्ग जायेगा तो यजमान स्वयं अपने पिता को इस तरह स्वर्ग क्यों नहीं पहुंचा देता? '
' वेदों के रचियेता भांड ,धूर्त और निशाचर हैं '
आदि विचार लोकायत मत के ही थे , अतः आप समझ सकते हैं कि लोकायतों को क्यों लुप्त किया गया।
लोकायत( चार्वाक दर्शन) विचारधारा भी उनमें से एक रही जिसका निर्ममता से दमन किया गया और लुप्त कर दिया गया ।
लोकायत के विषय में कहा गया है -लोकेषु आयत: लोकायत: अर्थात लोगो में प्रचलित ।
हलाकि वेदों और उपनिषदों में आद्य भौतिकतावादी चिंन्ह सर्वत्र विद्यमान है किन्तु लोकायत भौतिकतावाद से भिन्न रही । वैदिक साहित्य में ऐसे नास्तिक मतों का उल्लेख है जो किसी काल्पनिक आत्मा -परमात्मा का खंडन का 'भूत' को ही अंतिम सत्य सत्य मानते थे ।लोकायत विचारधारा मूल भारतीय चिंतन परम्परा में निरंतर मान्य किन्तु वैदिक वैचारिक परम्परा के लिए हमेशा खतरा बनी रही।
बौद्ध ग्रन्थ 'दिव्यवादन' में लोकायत को ऐसा दर्शन बताया गया है जो सामान्य लोगो में प्रचलित था ।
आदि शंकराचार्य ने लोकायत मातानुयायिओ को साधारण जन (प्राकृत जना:) बताया है।
मनुस्मृति के भाष्यकार मेधातिथि ने अपने भाष्य में उल्लेख किया है कि लोकायत नाम का शास्त्र था ।उन्हीने न्याय और हेत्वाभास शास्त्रों के रूप लोकायत नाम का शास्त्र बताया है।
दासगुप्त ने बताया है कि लोकायत नाम का कोई ग्रन्थ था जिस पर 150 ईसापूर्व से पहले या तीन सौ वर्ष से भी पूर्व कम से कम एक भाष्य लिखा गया था ।
उन्होंने आगे उल्लेख किया है कि यह नास्तिक मत कि इस जन्म के बाद कोई जीवन नहीं है और मृत्यु के साथ चेतना नष्ट हो जाती है उपनिषद काल में अच्छी तरह स्थापित हो चूका था ।उपनिषद इसी मत का खंडन करना चाहते थे।
वृहदारण्यक उपनिषद में याज्ञवल्क्य ने ऐसे ही एक नास्तिक मत का उल्लेख किया है।
दीघनिकाय के 'समज्ज फल सुत्त' में लोकायतों के उपदेश का विस्तार से वर्णन मिलता है, अजित केशकंबली ,पूरन कश्यप, मस्करीन गोसाल आदि के विचार लोकायत के ही विचार थे।
माधव ने अपने सर्वदर्शनसंग्रह में लोकायत के होने की बात मानी है।
न्यायमंजरी में चार्वाकों के मत का उल्लेख है कि जंहा शरीर रहता है वँहा तक एक तत्व सभी अनुभवों का भोक्ता और दृष्टा के रूप में रहता है किंतु मृत्यु के बाद ऐसा कोई तत्व नहीं रहता।
इस तरह से विभिन्न वैदिक और अवैदिक ग्रन्थो में लोकायत अर्थात चार्वाक दर्शन का उल्लेख है , लोकायतों के तर्क का मुख्य बिंदु यह था कि चेतना तभी तक है जब तक शरीर रहता है शरीर न होने पर चेतना का कोई अस्तित्व नहीं रहता ।इसलिए यह चेतना शरीर का कार्य होना चाहिए ।
'अग्निहोत्र,तीनो वेद ,सन्यासी बनकर तीन काष्ठ खंड लेना ,शरीर पर भस्म पोत लेना ये बुद्धि और पौरुष से रहित व्यक्तियों की जीविका के साधन है "
'चार तत्वों भूमि,जल ,अग्नि,वायु से ही चेतना की उतपत्ति होती है जिस प्रकार चावल आदि पदार्थो के मिश्रण मद शक्ति उत्तपन होती है'
'न तो कोई स्वर्ग है न मोक्ष, और न कोई परालौकिक आत्मा "
'ज्योतिष्टोम यज्ञ में मारा गया पशु यदि स्वर्ग जायेगा तो यजमान स्वयं अपने पिता को इस तरह स्वर्ग क्यों नहीं पहुंचा देता? '
' वेदों के रचियेता भांड ,धूर्त और निशाचर हैं '
आदि विचार लोकायत मत के ही थे , अतः आप समझ सकते हैं कि लोकायतों को क्यों लुप्त किया गया।
No comments:
Post a Comment