हम जानते हैं कि कृषि की खोज स्त्रियों ने की थी जो की बाद में पुरुष के आधीन हो गया । धरती को स्त्री की संज्ञा इस लिए भी दी गई की वह भी स्त्री की भांति प्रजनन( कृषि/ प्रकृति )की उत्पादन क्रिया करती है । विश्वास यह था कि प्रकृति की उत्पादन क्रिया स्त्री की प्रजनन क्रिया से जुडी हुई है इसलिए विश्व के विभिन्न जनजातीयों में कृषि सम्बंधित मुख्य अनुष्ठान क्रियाएं स्त्री सम्बंधित ही रही हैं।
सारे भारत में वर्षा की पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होने सम्बंधित अनुष्ठान(जादू- टोने) लगभग स्त्रियों द्वारा ही सम्पन्न होते रहे हैं , कई विद्वानों ने यह तथ्य भी जुटाएं है कि प्राचीन जनजातियों में धर्मिक कार्य और पूजा अर्चना स्त्रियों द्वारा ही सम्पन्न होते थे।
कालांतर में जब पुरुष ने चरवाही छोड़ कृषि पर अपना वर्चस्व बनाया तो स्त्री के आधीन देवियों शक्तियों को न केवल पुरुष सत्ता के लिए खतरनाक माने जाने लगा बल्कि उन्हें अशौचकारी अर्थात अछूत भी समझा जाने लगा ।
आप इससे समझिये की लाल रंग मासिक धर्म कर प्रतीक है ,इसे गेरुआ रंग भी दे दिया जाता है ।
पिछड़े तबके खासकर जनजातियां ,कई पिछड़ी जनजातियों के कृषि कर्म में गेरुआ रंग को बहुत शुभ और शगुन के रूप में माना जाता है । बुआई जैसे कृषि कर्म करने से पहले उत्तरी भारत के कई भील जाति के लोग खेत के एक कोने में एक पत्थर के टुकड़े को सिंदूर रंग के रख देते हैं ।उनका विश्वास होता है कि इससे कृषि उत्पादन बढ़ता है ।
हम जानते हैं कि स्त्री के मासिक चक्र के दौरान होने वाला रक्त स्त्राव मानव प्रजनन का आधार होता है और यह मासिक चक्र स्त्री देहं की स्वाभाविक क्रिया है ।
चुकी कृषि की खोज का श्रेय स्त्रियों को जाता है तब पिछड़े तबकों में जिनमे स्त्री का संबंध कृषि से बना उसके प्रजननशीलता की प्रत्येक अत्यंत पवित्र और पूजनीय मानी जाती रही ।
इसका उदहारण हम तंत्रवादी अनुष्ठानों में देख सकते हैं जंहा स्त्री शरीर विशेष होता है , दरसल ये अनुष्ठान आदिम स्तर कृषि उत्पादन ( जीविकोपार्जन) के जादू टोने थे । आज विज्ञानं के आधार पर ये अनुष्ठान बेशक अंधविश्वास प्रतीत होते हों किन्तु आदिम समय में ये मनोविज्ञान और भौतिक सामर्थ का प्रतीक थे जो स्त्री की विशेष महत्वता को दर्शाते है इसलिए स्त्री की प्रजनन प्रक्रिया का केंद्र रहना स्वभाविक था ।बंगाल के दुर्गा पूजा उत्सव के दौरान सिन्दूर खेला तंत्रिकवाद का ही एक हिस्सा रहा है।
गौरतलब है कि ब्राह्मणिक ग्रन्थो में स्त्री का रजोस्त्राव को इतना दूषित माना गया है कि उसका देवस्थलों पर जाना निषेध तो है ही घरो की रसोई में जाने से लेके शैय्या पर बैठना तक निषेध है।
जबकि इसके उलट निचली और अछूत कही जाने वाली जातियों के कृषि कर्मकांडो में स्त्री के रक्त स्त्राव को पवित्र और उत्पादन वृद्धि का प्रतीक माना गया है ।
इसके अतिरिक्त तंत्रवाद में मासिक चक्र के रक्त या स्त्री की प्रजनन अंग को महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता है जबकि ब्राह्मणिक विचारधारा में इस महत्व को उलट दिया गया ।
कबीर जैसे अनेक निचली जाति के संतो ने इस ब्राह्मणिक 'सूतक' का खंडन जोरदार ढंग से किया है ।इसी ब्राह्मणिक 'सूतक'अथवा 'अशौच' की अवधारणा और निषेध की मान्यता के चलते स्त्रियां उपनयन ,वेदाध्यन , पितृ संपत्ति आदि अधिकारों से वंचित होने के कारण पूरी तरह से पुरुषों पर आश्रित होती चलीं गईं उन्हें शूद्रों की श्रेणी में रख दिया गया ।
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