Thursday, 14 September 2017

जानिए हिंदी का इतिहास- हिंदी दिवस विशेष

 हिंदी ....प्यारी हिंदी, कभी कभी सोचता हूँ की यदि हिंदी न होती तो क्या होता? इस मीठी सी ज़बान जिसमे खड़ी बोली भी है...उर्दू की नज़ाकत भी है ...पालि / प्रकृत के अपभ्रंश भी है  संस्कृत / अरबी के कठिन शब्द भी है अर्थात प्राचीन से लेके नवीन सभी भाषाओं को एक साथ पिरोने वाली  हिंदी न होती तो हम आज अपने विचारों को शब्दो का वह धरताल न दे पाते जो आज हम आसानी से दे पाते हैं।

तो चलिए, आज हिंदी दिवस के मौके पर हम अपनी प्यारी भाषा हिंदी के बारे में ज्यादा नहीं तो थोड़ा सा ही सही जानने का प्रयास करते है ।

हिंदी भाषा के उद्भव और विकास के सम्बन्ध में बहुत सी धारणाएं प्रचलित है जिसमे से  अधिकतर भाषा वैज्ञानिकों का दावा  है कि हिंदी का उद्भव दसवीं सदी के आस पास का है । अपभ्रंश शब्द की व्युत्पति और धम्म/ जैन रचनाकारो की अपभ्रंश रचनाओं से हिंदी के इतिहास का सम्बन्ध बताया जाता है । इसलिए, प्राकृत की अंतिम अपभ्रंश अवस्था से हिंदी भाषा का उद्भव स्वीकार किया जाता है । प्राकृत के अपभ्रंश से सातवीं -आठवी सदी में पद्य रचनाये प्रारम्भ हो गई थीं।

भाषा वैज्ञानिकों के अनुसार यह निर्णय करना कठिन है कि हिंदी भाषा का निश्चित तौर पर  प्रयोग कब किस जगह हुआ परन्तु इतना जरूर कहा जा सकता है कि प्रारम्भ में इसका प्रयोग खुसरो जैसे  मुसलमानो कवियो ने किया , हिंदी शब्द का अर्थ उनके लिए भारतीय भाषा था । आज हिंदी भाषा लगभग पूरे उत्तर भारत की मुख्य भाषा बन चुकी है।

वैसे यह कहा जाता है कि उर्दू हिंदी की जननी है किन्तु यह पूर्णतः गलत है, उर्दू का जन्म भी नहीं हुआ था तब से हिंदी प्रचलन में रही है। हिंदी की तीन शैलियां है , पहली ब्रजभाषी (शौरसेनी) शैली, दूसरी राजस्थनी और तीसरी खड़ी बोली।

हरिषेण ने अपनी' धम्म परिक्खा ' प्रकृत के अपभ्रंश के तीन कवि माने है ,  चतुर्मुख,स्वंभू और पुष्पदन्त हलाकि की स्वंभू के छोड़ के अन्य का कोई ग्रन्थ अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ है । स्वंभू ने अपनी प्रकृत अपभ्रंशिय रचनो को 'पद्वडिया' कहा था  , स्वंभू दसवीं सदी के राजा कर्ण सभा में कवि थे ।

दसवीं सदी में धनपाल नामक जैन कवि हुए जिन्होंनेअपनी अपभ्रंश रचनाओं को 'भविसयत्त ' कहा । उसके बाद कई जैन कवि हुए चरित काव्य प्रसिद्ध हुए जैसे सुदर्शनचिरायु ।


आठवीं - दसवीं सदी  में बौद्ध परम्परा से निकले सिद्धों और नाथों का बोलबाला रहा , यह वक्त था जब सिद्ध/ नाथ परम्परा से निकले मछेंद्रनाथ( मत्स्येन्द्र) और गोरक्खनाथ( गोरखनाथ ) का समय था । सिद्धों /नाथों काव्य की शैली सहजयानी की शैली रही है जिससे लगता है कि सिद्ध और सहजयानी कभी एक ही परम्परा से निकले थे। दसवीं सदी के  कश्मीरी आचार्य अभिनवगुप्त ने मच्छनाथ विभु की वंदना की है ,गोरखबानी प्रकृत अपभ्रंशसिय रही।

नरपति नाल्ह की बीसलदेवरासो ,हम्मीर रासो, पृथ्वीराज रासो जैसे काव्य बेशक ऐतिहासिक रूप से प्रमाणिक न हो किन्तु हिंदी के उद्भव में महत्वपूर्ण योगदान रहा है ।

इतिहासकारो के अनुसार हिंदी के वास्तविक जनक अमीर खुसरो कहे जाते हैं,उनकी रचनो में तात्कालिक प्रचलित  खड़ी बोली को हिंदीकाव्य भाषा में  प्रयोग किया गया जिससे हिंदी प्रतिष्ठित हो पाई।सबसे पहले ख़ुसरो ने दिल्ली के आस पास प्रचलित खड़ी बोली को साहित्यक सर्जन का काम किया । उस समय मुसलमान अपनी कवितायेँ फ़ारसी में तो हिन्दू अपनी संस्कृत में सिद्ध / नाथ संत  अथवा जैन डिंगल या अपभ्रंश में । अमीर खुसरो ने इनसे इतर प्रचलित जन भाषा हिंदी में अपनी रचनाएं की और उर्दू के लिए रहा खोल दी।

यही नहीं ख़ुसरो के सच्चे भारतीय थे उस का उल्लेख अपनी मसनवी में 'नुहे- सिपह्न' ( नौ आकाश) में भारत की प्रशंसा की है जो की उस समय सल्तनत की साम्प्रदायिक नीतियां भारत के खिलाफ थी पर उन्होंने इसकी परवाह नहीं की । मुसलमान भारत के प्रति अपनी भक्ति अर्पित करें यह बात उस समय मुस्लिम समाज में अच्छी नहीं समझी जाती थी। उस समय भारत को दारुल -हरब कहा जाता था।
ख़ुसरो की दोहे, मुकरनियां , पहेलियां खूब प्रसिद्ध हुए , ख़ुसरो निजामुद्दीन औलिया के शिष्य थे । जब निजामुद्दीन की मृत्यु हुई तो उन्होंने अपनी पीड़ा एक दोहे में व्यक्त की जो आज तक प्रसिद्ध है-

गोरी सोवत सेज पर ,मुख पर डाले केस।
चल ख़ुसरो घर आपनो, रैन भई सब देस।।

हिंदी को आगे ले जाने में निर्गुण और सगुण काव्यधाराओं ने भी बहुत महत्व पूर्ण भूमिका निभाई। निर्गुनिया संतो ने तो ख़ासकर क्यों की कबीर ,रैदास जैसे संतो की भाषा ही जनभाषा थी । कहा यह जाता है की निर्गुणसंत काव्य धारा सिद्धों/ नाथों और जोगियो से निकली है जो कभी बौद्ध थे ।

हिंदी निर्गुण संत काव्यधारा के प्रमुख संत कबीर हुए,
कबीर जुलाहा जाति के थे , कबीर सिद्ध परम्परा से आते थे जिनके पूर्वज निम्न जाति के थे और हाल ही में मुसलमान बने थे । इतिहासकारो का मानना है कि कबीर के पूर्वज अस्पृश्य कोरी जाति के थे , कोरी जाति ही मुस्लिम जुलाहे बनते थे।

अपनी रचनाओं से पाखण्ड, अंधविश्वास , जातीय भेद भाव , ब्रहामणिक विधानों या मज़हब के आडम्बरो पर जितना कबीर ने प्रहार कियाहै  उतना किसी ने नहीं किया । यह दिगर की बात थी की अनपढ़ कबीर के ज्ञान के आगे बड़े बड़े मुल्ला पंडित कंही नहीं ठहरते थे। कबीर कहते हैं-

हिन्दू कहत है राम हमारा ,मुसलमान रहमाना
आपस में दोउ लड़े मरत है भेद न कोई जाना।।

प्रेम सिर्फ ईश्वर भक्ति नहीं है बल्कि वह अपने आप में स्वतंत्र मूल्य रखता है इस अनुभूति की पहली हिंदी कविता कबीर ने ही लिखी है-

प्रेम न बारी उपजै, प्रेम न हाट बिकाये,
राजा परजा जेहि ,सीस देई ले जाए।
यह तो घर है प्रेम का ,खाला का घर नाहि,
सीस काटि भुइयां धरो, तब पैठो घर माहिं।
सीस काटि भुइयाँ धरो, ता पर राखों पाँव,
दास कबीरा यों कहैं, ऐसा हो तो आव।

प्रेम की इतनी पीड़ा की अनुभूति की जो भंगिमा कबीर सहज भाव से कहते हैं उतनी अनुभूति आज तक नहीं रची गई।हाँ , मीरा कुछ वँहा तक पहुँचती हैं मीरा कहती हैं-

बिरिहन भुअंगम तन डसा ,किया करेजे घाव
बिरिहिन् अँग न मोडिया ,जित चाहो तित खाव।

यंहा थोड़ा दक्खिनी हिंदी का जिक्र करना जरुरी होगा,दक्खिनी हिंदी का अर्थ दक्षिण की हिंदी नहीं बल्कि भौगोलिक दृष्टि से इतिहास में इस क्षेत्र को दखन कहा जाता रहा है और इसके अंतर्गत महारास्ट्र , आंध्र प्रदेश और कर्नाटक के कई क्षेत्र आते हैं।भाषा शास्त्रियों के अनुसार खड़ी बोली को ऊँगली पकड़कर चलना सिखाया है । राहुल सांस्कृतयायन के अनुसार खड़ी बोली हिंदी के कवि सबसे पहले दक्खिनी कवि ही थे ,दक्खिनी कवियों में अधिकतर सूफ़ी मत के कवि रहे हैं जिनमे की जानम( 1582) गेसू दराज( 1343) जैसे प्रमुख रहे हैं । डाक्टर सुनीत कुमार चाटुजर्या लिखते हैं कि 1690 में औरंगजेब दक्खिन में था तब बंगाल के एक मुसलमान प्रवास करता हुआ उससे मिलने आया । उसने बादशाह से कहा कि वह उसे अपना मुरीद बना लें तब औरंगजेब ने देशज पद्य की पंक्तियां कह के उसे फटकारा-

टोपी लेंदे, बावरी देंदे , खरे निलज्ज।
चूहा खान्दा बावली, तू कल बंधे छज्ज।।

औरंगजेब घोर साम्प्रदायिक है किंतु उसके मुंख से हिंदी शब्द निकलते हैं ।

दोस्तों,हिंदी का एक लंबा आए समृद्ध  इतिहास रहा है जिसको इस छोटे से लेख में वर्णन करना नामुमकिन है इसके लिए पोथियाँ कम् पड़ जाएँगी ।अतः इतने पर ही विराम देना चाहूंगा।

हिंदी का इतिहास बौद्धों, जैनियों, सिद्धों/ नाथों / जोगियो से होता हुआ हम्मीर,ख़ुसरो, रासो, विद्यापति, कबीर, रविदास, मीरा ,गुरुनानक, धर्मदास, मुहम्मद जायसी, उस्मान, रसखान, रहीम, तुलसीदास, हरिदासी(सखी संप्रदाय) , सूरदास,गोबिंदस्वामी, नरहरि, मुबारक, भूषण, भिखारीदास, खुमान, दरिया साहिब, पलटू दास, तथा आधुनिक काल के हिंदी साहित्यकारों / नाटककारों तक पहुंचा जिन्होंने इसे नई ऊंचाइयां दी ।जिनमे कुछ आधुनिक हिंदी साहित्यकारों के नाम इस प्रकार है -

भारतेंदु, महावीर प्रसाद द्ववेदी,मैथलीशरण गुप्त, निराला, सुभद्रा कुमारी चौहान, रामधारी सिंह दिनकर, हरी शंकर परसाई, राहुल सांस्कृत्यायन, मुंशी प्रेमचंद, आचार्य हजारी प्रसाद, आचार्य चतुरसेन, डी डी कौशाम्बी, अमृतलाल नागर, मुक्ति बोध, धर्म वीर भारती, नागार्जुन, रेणु, भीष्म साहनी, रामव्रक्ष बेनी पुरी, मुद्राराक्षस, रंगेय राघव, पुष्पा मैत्रीय,रामविलास शर्मा,उषा प्रिवन्दा,  ओमप्रकाश वाल्मीकि,माधव मुक्तिबोध, शिवदान सिंह चौहान, हमीदुल्ला, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, शरद जोशी, तुलसी राम( मुर्दहिया) , राजेंद्र प्रसाद सिंह( सासाराम कालेज) , कँवल भारती जैसे अनगिनत हिंदी साहित्यकार शामिल हैं। जिनका नाम याद नहीं रहा उन से विनम्र क्षमा चाहता हूँ, यदि पाठक गण चाहे तो नाम वे अन्य नाम सुझाव कर सकते हैं।


आप सभी को हिंदी दिवस की ढेरों बधाइयाँ...आशा है कि हिंदी यूँ ही बढ़ती रहेगी और जन जन तक फैलती रहेगी ...



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