Sunday, 21 January 2018

शिव और सींग-

 डाक्टर तुलसीराम जी ने अपनी आत्मकथा ' मुर्दहिया' में अपनी दादी व गाँव की कुछ अन्य बुजुर्ग महिलाओं द्वारा एक पुरानी परम्परा का उल्लेख किया है। उनकी दादी व गाँव की अन्य बुजुर्ग दलित महिलाओं के पास मरे हुए बैलों आदि डांगरो के खाली सींग होते थे जिसमें वे सुई धागा, बटन, रेजगारी, जड़ी- बूटी  आदि छोटी छोटी वस्तुओं को संभाल के  रखती थीं।  पशुओँ के मरने के बाद उन्हें जंगली पशुओँ,गिद्धों आदि के खाने से पहले काट लिया जाता था और अच्छी तरह साफ कर के उनमे छोटी छोटी वस्तुओं को रखने के काम में लिया जाता था।


तुलसीराम जी ने बताया कि उन्हें बाद में पता चला की सींगों में सामान रखने की परंपरा की शुरुआत बौद्ध धम्म में हुई थी । त्रिपिटक में वर्णन है कि गोतम बुद्ध के महापरिनिर्वाण के करीब सौ साल बाद वैशाली में  विद्वान भिक्षुओं की दूसरी महासंगीति अर्थात बुद्ध के उपदेशों का संगायन हुआ तो उसमें बुद्ध के दस उपदेशों में संसोधन किये गए थे । जिसमें से की पहला ही संसोधन की भिक्षा के समय जानवरन की एक खाली सींग में नमक ले जाना । विनय पिटक में किसी भी बौद्ध भिक्षु को किसी प्रकार की खाद्य सामग्री या धन संचय करना निषेध था । इस संसोधन का मूल कारण यह था कि भिक्षा में अकसर नमक नहीं मिलता था, अतः भिक्षु लोगो को बिना नमक के ही खाना बना के खाना पड़ता था । इस व्यवहारिक समस्या से बचने के लिए यह संसोधन किया गया था । ताकि भिक्खु नमक मांग कर या खरीद कर सींग में रख  सके , सींग में संचय कर के रखने के पीछे भी यह कारण था कि वह मूल्यवान नहीं होती थी जिससे  भिक्खु उसे रख सकता था । तभी से सींग में संचय करने की यह बौद्ध परम्परा जारी हुई। तुलसीराम जी अपनी दादी द्वारा सींग में दवाइयाँ, सुई धागा , बटन आदि संचय करने की परंपरा से यह दावा करते हैं कि निश्चय ही  सदियों पूर्व उनके पूर्वज बौद्ध रहे होंगे।

जब तुलसीराम जी द्वारा वर्णित यह घटना पढ़ रहा था तो मेरे भी मस्तिष्क में बचपन की  कुछ पुरानी यादें ताज़ा हो गईं जिसको मैंने अपने गाँव में  देखा था। गाँव में कई घर थे जिनके यंहा सींग टंगे होते थे , एक सींग हमारे घर भी था जिसमे सुई धागा या दवाइयां तो नहीं नीम की पत्तियों की डंठले सुखा के रखी रहती थी । ये सूखी डंठले दांत खोदने( टूथपिक) के काम में लाई जाती थीं।
अतः, निश्चय ही हमारे पूर्वज भी कभी बौद्ध ही रहे होंगे और सींगों के प्रयोग की परंपरा उन्ही से आई होगी। यह बात मुझे अब पता चली है, अब यह परम्परा लुप्त हो गई है ।

अच्छा! अब एक महत्वपूर्ण बात , शिव तथाकथित हिन्दू देवता कहलाये जाते हैं किंतु वे काल्पनिक  हिन्दू देवता नहीं रहे होंगे बल्कि कभी बौद्ध परम्परा के रहे होंगे जिनका बाद में ब्रह्मणिकरण किया गया , शायद ऐसा उनकी आम जनमानस में पूजनीय मान्यता के कारण करना पड़ा होगा ब्राह्मणों को । ऐसा हुआ होगा की बौद्ध से हिन्दू बन जाने के बाद भी बड़ी संख्या में खासकर शूद्रों और निचली जातियों में' सिउ' यानी बौद्ध शिव को पूजना जारी रहा होगा , तभी शिव का वैदिकरण किया गया।

आप सब सोच रहे हैं कि मेरे इस दावे का स्रोत क्या है ? मैं ऐसा  दावा क्यों कर रहा हूँ की शिव  अर्थात 'सिउ' बौद्ध रहे होंगे?

मेरे इस दावे का कारण है शिव के गले में लटका सींग, बैसे ही सींग जैसा बौद्ध भिक्खु द्वितीय महासंगीति में हुए नियमो के संसोधन के बाद अपने पास नमक को संचय करने के लिए रखते थे । बाद में यह परम्परा हमारे पूर्वजो तक में रही।

शिव के गले में लटका नमक संचय करने वाला खाली सींग इस बात का प्रमाण है कि वे बौद्ध परम्परा से रहे होंगे जिनका बाद में ब्राह्मणीकरण हुआ ।

नोट- आप शिव के गले में लटका सींग देख सकते हैं।


Thursday, 18 January 2018

हिम्मत

प्रोफेसर तुलसीराम जी ने अपनी चर्चित आत्मकथा 'मुर्दहिया' में लिखा है कि उनके गाँव के सवर्ण दलितो से लगभग मुफ्त में बेगारी करवाते थे । सुबह मुर्गे की बांग के साथ वे अपने खेतों  में दलितों को ले जाते थे और शाम के अँधेरा होने तक जी भर मेहनत करवाते थे । बदले में उन्हें एक सेर ( लगभग सवा किलो ) अनाज दिया जाता । आकल के दिनों में या जब घर में खाने को न रहता अथवा जिस दलित के पास छोटे खेत होते थे वे सवर्णो से अनाज उधार लेते थे तो सवर्ण उनसे एक सेर अनाज के बदले डेढ़ सेर अनाज वसूलते थे ।

अनाज तौलने के लिए जिस बाट का वे इस्तेमाल करते थे वह शुद्ध मानक नहीं होता था बल्कि हाथ से ही ईंट तोड़ के बाट बना लेते थे जो की मानक से बहुत कम होता था। किंतु, जब दलित अनाज  उधार चुकाने जाते तो सवर्ण असली बाट से तौलते।

इसलिए कभी कभी सवर्णो और अछूती में संघर्ष की स्थिति भी आ जाती थी। संघर्ष की स्थिति में एक तरफ सवर्ण होते जो तलवार, भाले, बरछे ,गंडासे आदि धारदार हथियारों से लैस रहते तो दूसरी तरफ अछूत केवल लाठी डंडा लिए जिससे उनका पिटना और घायल होने या मारे जाना निश्चित रहता।
किन्तु, ऐसे में अछूत महिलायें आगे आती। हाथो में मरी हुई गाय की सूखी हड्डी , टूटे हुए घड़ो में मैला, गर्ववती स्त्री के प्रसव के बाद जो गंदगी( मल- मूत्र , नार आदि) जिसे 'बियाना' कहते थे वह हांडियों में भर उठा लाती थीं, चुकी सवर्ण स्त्रियोँ के जब बच्चे पैदा होते तो दाई का काम दलित महिलाएं ही करती थी । जच्चा- बच्चा की मालिश यंहा तक की उनका मलमूत्र भी वही हांडियों में भर के फेंकती थी अतः उन्हें पता होता था कि वह हांडिया कँहा मिलेगी । लड़ाई शुरू होने से पहले दलित महिलाएं यह सब एकत्रित कर लेती थी ।  लड़ाई शुरू होते ही गांदगी भरी हांड़ी, मरे हुई गाय की हड्डियां आदि जोर जोर से सवर्णो के दल में  फेंकती जिससे सवर्णो में हड़कंप मच जाता। गाय की हड्डी छूना वे लोग महापाप समझते थे , बियाना की गंदगी और मल मूत्र पड़ते ही सवर्ण अपने भाले बरछे लेके उलटे पाँव चिल्लाते हुए भाग लेते । इस प्रकार अंत में जीत हमेशा दलितों की होती।

मैंने तुलसीराम जी की आत्मकथा में  दर्ज इस घटना का जिक्र क्यों किया? आप सोचिये जो आज तथाकथित क्षत्रिय ' जोहार' को अपनी शान समझ के उस पर जातीय गर्व कर रहे हैं यदि उनकी महिलाओं ने आग में कूदने की अपेक्षा वैसी ही वीरता , हिम्मत और युक्ति  दिखाई होती जैसी मुर्दहिया कि अछूत स्त्रियां दिखाती थी तब शायद जोहार न करना पड़ता क्षत्राणियों को। खिजली के सामने सूअर लेके खड़ी हो जातीं तो शायद वह उलटे पाँव भाग लेता.... पर अछूत स्त्रियों जैसी हिम्मत कँहा थी??


Monday, 15 January 2018

बल्ब की पीली रौशनी और स्त्री शिक्षा-

बात उन दिनों की है जब हमारी कॉलोनी में बिजली नहीं आई थी, घरो में मिट्टी के तेल के दिए या लैम्प जलते थे । किन्तु  जो एक - दो  सम्प्पन परिवार थे उन्होने अपने घरों में बिजली के  जेनरेटर की व्यवस्था की थी। ऐसे ही एक अन्य  सम्पन्न परिवार एक दिन अपने लिए नया जनरेटर खरीद लाया । फिर क्या था ,  जेनरेटर आते ही पूरा घर लट्टू वाले बल्बों की रोशनी से जगमगा गया । मकान मालिक ने घर की छत पर भी शौक़िया तौर पर एक बल्ब लगा लिया था, घर के बगल में एक खाली प्लॉट था जिसमे कॉलोनी के हम सब बच्चे दिन भर खेलते रहते थे।  छत पर लगा बल्ब जब रात में जलता तो खाली प्लॉट में उसकी भरपूर रौशनी जाती ,पूरा प्लॉट पीली रौशनी से जगमगा जाता। अब बच्चो को उस खाली प्लॉट में रात में भी खेलने अवसर मिल गया था , बच्चे बल्ब की रौशनी में देर रात तक खेलते रहते।

मकान मालिक को अपने बल्ब की रौशनी में बच्चो का खेलना रास नहीं आ रहा था , वह बच्चो को भगा तो सकता नहीं था और न ही अपनी ' बिजली वाला घर' का रुतबा ही कम  कर सकता था छत से बल्ब हटा के । क्यों की, बल्ब दूर से चमकता था जिससे अंजान लोगो को पता चले की यह 'पैसे वाले ' का घर है।

अपने बल्ब की रौशनी में बच्चो को खेलता देख कुढ़ता रहता , एक दिन वह एक ऐसा होल्डर ले आया जिसके ऊपर टीन का पंजा बना हुआ था । अब उसमे बल्ब लगाने के बाद रौशनी फैलती नहीं थी बल्कि उसी छत तक ही सीमित हो गई थी। रौशनी न होने के कारण हम बच्चों का रात में खाली प्लाट में खेलना बंद हो गया । उस व्यक्ति ने बिना किसी बच्चे को डांटे या भगाए खाली प्लॉट में उनका बंद कर दिया अपने रौशनी के स्रोत को अपने कब्जे में लेके।

अब इस घटाना का परिपेक्ष्य जानिये, मैंने इस घटना का जिक्र क्यों किया यह समझिये।

तथाकथित सनातन परंपरा में शूद्र ,अछूतों और स्त्रियोँ का उपनयन संस्कार नहीं होता । उपनयन संस्कार शिक्षा लेने का पासपोर्ट था , बिना पासपोर्ट यानि उपनयन  के आप शिक्षा जगत में प्रवेश नहीं कर सकते थे,शिक्षा का अर्थ वेद पढ़ना होता था । शूद्रों और अछूतों से वैमनस्यता तो समझ आती हैं किन्तु अपनी ही कुल की स्त्रियों को शिक्षा यानी वेद पढ़ने पर क्यों रोक दिया गया यह विचारणीय प्रश्न रहा है।

दरसल ,स्त्री को ब्याह के अपने घर जाना होता था । ऐसा भी होता था कि स्त्री किसी और वर्ण में विवाह कर लेती थी इसी कारण मनु ने उच्च वर्णीय स्त्री का विवाह शूद्र से करना घोरतम पाप माना है ।  अब ऐसे में यदि उच्च वर्ण के पुरुष अपनी स्त्रियों को उपनयन संस्कार  कर वेद पढ़ा देते तो भी यह सम्भावना बनी रहती की कंही स्त्री  शूद्र/ अछूत वर्णीय पुरुष के प्रेम में आ उससे विवाह कर लेती है तो वेद की शिक्षा उसके साथ उस शूद्र/ अछूत के घर भी चली जायेगी , वह अपने बच्चों या पति को वेद की शिक्षा दे उन्हें शिक्षित कर सकती थी।

फिर उच्च वर्ण के वर्चस्व का क्या होता?
फिर उस निषेधता और पाप का क्या होता जो वेद पढ़ने या सुनने तक लागू किया गया था ?

अतः सबसे अच्छा तरीका था कि जैसे उस मकान मालिक ने अपने घर की रौशनी को अपनी छत तक सीमित कर दिया था वैसे ही उपनयन संस्कार कर केवल  पुरुषो तक सीमित कर दिया जाए । न स्त्री के पास शिक्षा जायेगी और न उस शिक्षा का दूसरे वर्ण में जाने का खतरा रहेगा।

उस पर भी शिक्षा यानी वेद को श्रुति बना कर दिमाग में रखना था , न लिखित होगी न स्त्री इसे चुरा के पढ़ पायेगी।

बड़ी खतरनाक युक्ति थी यह शिक्षा का प्रसार को अपने तक सीमित रखने की , जिसे स्त्रियां शायद आज तक समझ नहीं पाईं ।

Sunday, 14 January 2018

जातीय सरनेम और दलित-


भारत में अपने नाम के पीछे जाति आधारित सरनेम लगाना एक प्रचलित परम्परा रही है , किसी भी व्यक्ति के नाम के पीछे सरनेम उसके जातिय गर्व का सूचक होता है । यह जातिय सरनेम लगाने की प्रथा अधिकतर सवर्ण हिन्दुओ में मिलती है जो इस सरनेम के सहारे अपनी जाति का उद्घोष करता है , जैसे , शर्मा, त्रिवेदी, चतुर्वेदी, कश्यप, माहेश्वरी, ठाकुर, राजपूत, गुप्ता , अग्रवाल, आदि । कई लोग अपने गोत्र का सरनेम लगाते हैं, जोकि जाति आधारित होती है । ऐसा भी प्रचलन है कि अधिकतर सवर्ण अपने पुरे नाम के स्थान पर ‘ शर्मा जी’, ‘ वर्मा जी’ , गुप्ता जी, ठाकुर साहब आदि सरनेम से ही खुद को संबोधित करवाना ज्यादा पसंद करते हैं। ऐसा जातीय कुल के गर्व की मानसिकता के तहत भी होता जंहा खुद के नाम की जगह जाति ज्यादा महत्व होती है ।

मैं यंहा इस मुद्दे को अभी आप लोगो से दूर रखूँगा की ये जातीय सरनेम लगाने की शुरुआत कैसे हुई क्यों की प्रचीन काल से लेके मध्यकाल तक बहुत कम उदहारण मिलते हैं जब जातिय सरनेम का लोगो ने प्रयोग किया हो , जैसे – इंद्र, वृत्त,शंभर, गार्गी,कृष्ण, कौत्स, चार्वाक, राम, अर्जुन, सुयोधन( दुर्योधन), एकलव्य, हनुमान, तुलसीदास, कबीर, रैदास, मीरा आदि ऐसी चर्चित लोग रहें जो बिना जातिगत सरनेम के ही आज तक प्रसिद्ध हैं ।

किन्तु, यंहा एक बात है की यह तय हैं की जातिगत सरनेम लगाने की जो प्रथा का प्रारम्भ हुआ होगा वह निश्चय ही उच्च जाति से शुरू हुआ होगा , क्यों की उनके पास जातिय अभिमान था । दलित वैसे ही हीन और अछूत समझे जाते थे तो वे जातिसूचक सरनेम लगा के जातीय अभिमान प्रदर्शित कर ही नहीं सकते थे, अतः यह निस्चित है कि जातीय सरनेम लगाने की परंपरा भारत में तथाकथित उच्च वर्णीय लोगो द्वारा ही आरम्भ की गई होगी।

तब यह प्रश्न है की आज दलित जाति के लोग सरनेम क्यों लगाते है ?

हुआ यूँ की मुगलो के समय तक कोई भी दलित उनके दरबार में उच्च पद प्राप्त ही नहीं कर पाया था या मुग़ल दलितों को अपने दरबार में किसी उच्च पद पर नहीं रखते थे पर जैसे ही अंग्रेजो का राज आया , दलितों को भी अंग्रेज छोटी मोटी नौकरी पर रखने लग गए या जो थोडा पढ़ा लिखा दलित होता था उसे थोड़ी उच्च पद पर रख लेते थे । उन्ही कार्यालयो में उच्च जाति के लोग भी काम करते थे जो पर्याय आपस में संबोधित करने के लिए , गुप्ता जी, पंडित जी, शर्मा जी, पांडे जी, आदि सरनेम से पुकारते थी । वंही दलित जाति का व्यक्ति बिना सरनेम के काम करता था , लोग उसको उसके नाम से ही पुकारते थे । कभी कभी तो उच्च जाति के लोग दलित जाति वे वयक्ति का नाम बिगड़ के या शोर्ट में नाम लेते जैसे किसी का नाम नन्दलाल हो तो लोग उसे ‘ नंदू’ कह देते, चंद्रप्रकाश हो तो ‘चंदू’ , रामलाल हो तो ‘ रामू’ कह कर पुकार देते थे ।

नाम के साथ सरनेम न होना दलित जाति से सम्बंधित माना जाता था, दलितों में यह भावना जागी की कंही सरनेम न होने के कारण उसकी आने वाली पीढ़ियों को भी न उसी तरह पुकारा जाए जैसे उसे पुकारा जाता है । तो यंहा से शुरू हुई दलितों में भी सरनेम लगाने की भावना।
शुरू में दलितों ने गुस्से वाले, आज़ादी वाले सरनेम लगाये जैसे – बैचैन, आक्रोशित, जख्मी , आज़ाद, अनजाना, निर्भीक, परदेसी, बागी, विद्रोही, अशांत आदि।

फिर दूसरे दौर में जब थोडा समाज के हालात बदले तो सरनेम को सुन्दर और अर्थपूर्ण बनाया गया जैसे – राकेश, शशी, सुमन, प्रियदर्शी, पुष्पांकर, कँवल, भास्कर, आदि।
कुछ दलितों ने गाँव, शहर या राष्ट्र से संबोधित नाम भी रखे जैसे – भारती, माधोपुरी, देहलवी, आदि।

उसके बाद एक दौर ऐसा भी आया जब दलितों में शिक्षा का प्रसार और थोडा बढ़ा ,सवर्णों के थोड़े निकट आये , धार्मिक पुस्तके पढ़ने की आजादी मिली तो उन्होंने रामायण, गीता आदि को खरीद के पढ़ना शुरू किया , माथे पर तिलक लगा के मंदिरो के घंटे भी बजाये पर उच्च जातियो की तरफ से घृणा ही मिली और जाति आधारित नामो से पुकारना नहीं छूटा।

कई दलितों ने सवर्णों की इस जातीय घृणा से बचने के लिए अपने नाम के पीछे शर्मा, चौहान, भार्गव, आदि उच्च जातीय नाम भी लगये पर कुछ काम न आया । क्यों की भारत में सामने वाला आपकी केवल जाति से ही संतुष्ट नहीं होता बल्कि गाँव, शहर , रिस्तेदार सब के बारे में जब तक पूछ न ले तब तक वह चैन से नहीं रहता । फिर कंही न कंही पकडे ही जाते तो और तिरस्कार झेलना पड़ता ।
पर ऐसा भी था की कई दलितों ने सीधी सीधी प्रतिक्रिया की अपनी जातिगत सरनेम लगाये और जैसे – जाटव, चमार, वाल्मीकि, पासी , दुसाध, खटीक आदि ।बाबा साहब अम्बेडकर के बाद बौद्ध धर्म में आस्था रखने वाले दलितों ने बौद्ध धर्म से सम्बंधित उपनाम लगये जैसे – सिद्धार्थ, गौतम, मौर्य, आन्नद, अशोक आदि।
पर इतना सबकुछ प्रयत्न करने के बाद भी जातिगत भेदभाव दलितों के साथ जस का तस है ।

जाति एक ऐसी लाइलाज बीमारी बन गई है जिसने इस देश का बहुत नुकसान किया है और हिन्दू धर्म को मरणांसन्न पर पंहुचा दिया , इसे रोकने के लिए सबसे अच्छा उपाय है की सभी देशवासियो को जातिगत सरनेम लगाना छोड़ना होगा।


Sunday, 7 January 2018

जानिए क्या है वाममार्ग-

बहुत से लोग वामपंथ के बारे में बात करते हैं , खासकर सनातनी पंथ के लोग वामपंथ को हिक़ारत के नज़रों से देखते आएं हैं अथवा शत्रुभाव से देखते आएं हैं  अतः कई ऐसे मित्र होंगे जो वामपंथ के बारे में बाते तो सुनते हैं किन्तु वामपंथ क्या है इसके बारे में नहीं जानते होंगे, इसलिए पेश है एक छोटा सा लेख वामपंथ या वामाचार के विषय में ताकि अनभिज्ञ लोग वामपंथ के विषय में मुख्य बिंदुओं को जान सकें।

वामाचार एक ऐसा दर्शन है जिसे सनातनी विद्वान् उलटी धारा की साधना या दर्शन मानते हैं। वामपंथ का दार्शनिक आधार है कि जीव शिव और शक्ति से निर्मित है ,उसी से छूटकर जीव माया के प्रभाव में बह के जन्म ग्रहण करता है अतः यदि जीव मोक्ष् प्राप्त करना चाहे तो उसे उलटकर उस उद्गम की ओर जाना चाहिए जंहा से माया नि:सृत हुई है।

जब जीव शिव  और शक्ति में निहित था तब वह सच्चिदानंद स्वरूप और अद्वैत की स्थिति में था उससे छूटने के बाद वह द्वैत में आया। अतः संसार में वह कुछ वस्तुओँ को प्रिय और कुछ को अप्रिय समझता है इसी प्रिय और अप्रिय लगने के भाव से विधि और निषेधता के नियम बने हैं जो की बिलकुल कृत्रिम हैं । दरसल संसार का कोई भी कृत करणीय या करणीय नहीं है , मनुष्य के जीवन में कोई भी क्रिया ऐसी नहीं जो पाप या पुण्य का कारण हो ।
वामाचार का की मुख्य धारणा यह है कि कर्म और अकर्म के भेद को कैसे मिटाया जा सकता है , कर्तव्य और अकर्तव्य की भिन्नता को कैसे समाप्त किया जा सकता है । संसार की सभी वस्तुएं शिव और शक्ति में निहित है अतः संसार की कोई वस्तु घृणा योग्य नहीं है , वामाचार में साधना की सच्ची सफलता इस बात पर निर्भर है कि घृणा को कैसे अघृणा में बदल सकें।
स्थूल को भी सूक्ष्म स्तर पर ले जा के उसे आत्मसात कर सकें।

वामाचार के घृणित से अघृणित बनाने की साधना का सबसे बढ़िया नमूना औघड़ पंथ में हुआ , एक अच्छा सिद्ध औघड़ साधक उसे कहा गया जो मल और मिठाई में अंतर न करे। वामाचार की साधना इस बात पर जोर देती है कि संसार से मुक्ति का उपाय उससे भागना नहीं बल्कि उसे सर्वरूप में स्वीकार करना है। जो चीज मनुष्य को नीचे गिराती है वही मनुष्य को ऊपर भी उठाती है जैसे सीढ़ी नीचे उतारती है तो ऊपर भी ले जाती है ऐसा वाम साधना का विश्वास रहा है। शायद इसीलिए वाम मार्ग में पंच मकर साधना का प्रचलन हुआ  , पंच मकर पूजने के कारण वामपंथ को दूषित समझा गया जबकि तंत्रवाद में पंच मकर पूजा का जो अर्थ वह ऐसा नहीं समझा गया ।

पहली सीढ़ी में अवश्य ही मद्य, मांस, मीन, मुद्रा और मैथुन का सेवन या पूजन किन्तु दूसरी सिद्धि की दूसरी सीढ़ी पंच मकर नही है । तीसरी सीढ़ी योग प्रधान है ।दक्षिणपंथी( सनातनी) नेति अर्थात elimination पर विश्वास करते हैं जबकि वाममार्ग उदात्तीकरण अर्थात sublimation की प्रक्रिया में विश्वास करते हैं। जीव जब शिव- शक्ति से विमुक्त होके 'हंस' की स्थिति में है , हंस उलटकर जब तक  संह अर्थात ' सोSहम ' की वृति में नही पहुँच जाता तब तक वह सांसारिक बंधनों से मुक्त नहीं होगा।





Saturday, 6 January 2018

मरने के बाद की दुनिया?-


मनुष्य के मरने के बाद क्या होता है ? क्या इस दुनिया के अलावा भी ऐसी कोई अलौकिक दुनिया है जंहा मरने के बाद इंसान की आत्मा पहुँचती है? मरने के बाद उस आत्मा का क्या होता है? क्या वह दूसरी दुनिया ठीक वैसी ही जैसी यंहा की दुनिया?

ऐसे कई प्रश्न और जिज्ञासाएँ  इंसान के मस्तिष्क में प्रचीन काल से उमड़ते- घुमड़ते रहें है । साधारण मनुष्य के  इन्ही  स्वभाविक जिज्ञासाओं और प्रश्नो की महत्वता का लाभ उठाते हुए धूर्त लोगो ने इनके उत्तर में कई काल्पनिक कहानियां गढ़ लीं । स्वर्ग- नर्क , जन्नत - दोज़ख आदि  काल्पनिक स्थानों का निर्माण किया गया , आत्मा या रूह  नाम की काल्पनिक चीज की व्याख्या को और विस्तृत किया गया ।

जिस चीज को मनुष्य पृथ्वी पर अच्छी और वैभवशाली समझता है उसके मिलने की कल्पना स्वर्ग / जन्नत में कर दी गई और जिस चीज को हेय , भय या दुःख का कारण समझता है उसे नर्क/ दोज़ख में रख के साधारण जन को आतंकित करता रहा।

मरने के बाद आत्मा कँहा जाती है , मरने के बाद दूसरी दुनिया कैसी होती है जैसी काल्पनिक शंकाओं से सिर्फ अनपढ़ ही नहीं ग्रसित है अपितु विदेशो में पढ़े लिखे युवा भी इन धार्मिक/ मज़हबी मिथकीय प्रश्नो में उलझ के अवसादित रहते हैं, दो दिन पहले अख़बार में एक घटना पढ़ी जो की दिल्ली के बुराड़ी में रहने वाले युवक के साथ घाटी । नवदीप नाम के युवक ने घर की दूसरी मंजिल से कूद के ख़ुदकुशी कर ली, नवदीप स्वीडन में रह के पढाई कर रहा था उसके माता- पिता भी विदेश में अच्छी पोस्ट पर हैं ।

कई दिनों से 25 वर्षीय नवदीप मरने के बाद की जिंदगी को लेके अवसादित था , वह जानना चाहता था कि मरने के बाद तथाकथित आत्मा कँहा जाती है।वो मौत के बाद ज़िंदगी के होने और ना होने को लेकर इन दिनों कुछ ज़्यादा ही जिज्ञासु हो गया था। वो हर पल मरने के बाद इंसान को होनेवाले तजुर्बे के बारे में जानना समझना चाहता था और इसी कोशिश में उसने ना सिर्फ़ कई किताबें पढ़ीं, बहुत से लोगों से बात की, बल्कि इंटरनेट पर भी लाइफ़ आफ्टर डेथ को लेकर रिसर्च करता रहा और अंत में अपने मामा के घर से कूद के उसने आत्महत्या कर ली।

यह बेहद दुःखद है कि एक होनहार अल्पआयु में ही काल्पनिक प्रश्नो के चंगुल में  फंस के अपना जीवन समाप्त कर देता है।

वास्तव में आत्मा नाम की कोई चीज नहीं है और न ही मरने के बाद वह किसी अन्य दुनिया में जाती है। बुद्ध ने आत्मा 62 प्रकार की कल्पनाओं को परीक्षा के आधार पर मिथ्या सिद्ध किया  ' सबबासकसुत्त '  में श्रावस्ती के जेतवन में अनाथ पिंडक के विहार में उन्होंने कहा था कि '"इस क्षणिक आत्मा को अपरिवर्तनीय , नित्य, समझना तथा ऐसा समझना कि वह सदा से थी और सदा रहेगी , एक भ्रांति है.... भ्रांति की खाई है"





Wednesday, 3 January 2018

अंग्रेजी सेना में अछूत जातियां-


पुणे के कोरेगांव विवाद के बाद यह प्रश्न भी उठाया जा रहा है कि महारो ( अछूतों) ने अंग्रेजी सेना में भर्ती होना क्यों स्वीकार किया ? वे अंग्रेजो की सहायता क्यों कर रहे थे ? पेशवाओं के खिलाफ अंग्रेजो के साथ क्यों थे जबकि पेशवा भारतीय ही थे । भारतीय होके भारतीय के खिलाफ क्यों लड़ रहे थे ?

हलाकि ऐसे प्रश्न करने वाले असल में सिर्फ अपनी धूर्तता का ही परिचय देते है , जबकि मुगल सल्तनत को कायम करने वाले हिंदू ही थे जो हिंदुओं के खिलाफ लड़ रहे थे । कौन नही जानता की अक़बर की सेना और सेनापति तथाकथित  उच्च जाति  हिन्दू ही थे जो दूसरे हिन्दू राजाओं से लड़ रहे थे।
अंग्रेजो के मददगार सिंधिया आदि  उच्च वर्ण के हिन्दू ही थे।

अंग्रेजो के आगमन से पहले अछूत जातियां अछूत रहने में ही संतुष्ट थीं, अछूतों के भाग्य में हिन्दू ईश्वर ने पैदा होने से पहले ही ' अस्पृश्य' होना लिख दिया था , उच्च वर्ण के हिन्दुओ ख़ास कर ब्राह्मणों ने उस पर धार्मिक मोहर लगा दी थी । धर्म का सहारा लेके ,धर्म के ठेकेदारों द्वारा अछूतों के साथ वैसा ही आचरण करा जाता था जैसा अमानवीय व्यवहार धर्म ग्रन्थो में दर्ज किया गया इसलिये उससे छुटकारा पाना असंभव ही था।

फिर अंग्रेज आएं, ईस्ट इंडिया कंपनी को उनकी फ़ौज के लिए सिपाहियों की आवश्यकता थी ,यह भाग्य कहें कि कुछ और जिन अछूतों को हिन्दू छू भर लेने से अपवित्र हो जाते थे उन्हें अंग्रेजो अपनी सेना में भर्ती किया । अछूत वीर योद्धा रहे थे प्राचीन काल में किन्तु उच्च जाति द्वारा उन्हें संसाधनहीन कर देने से पीढियां सुप्त अवस्था में आती गई, अंग्रेजी सेना में भर्ती होके वह पौरुष फिर से जागा जिसका नतीजा भीमा कोरेगांव युद्ध में देखने को मिला।

ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में भारतीय सैनिकों तथा उनके बच्चों के लिए अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था थी , अछूतों को सेना में जो शिक्षा मिली उससे उनको बहुत लाभ हुआ , यह अभूतपूर्व था। इस शिक्षा से उन्हें सोचने , समझने की नई दृष्टि और दिशा मिली । अछूतों की चेतना जागी कि उनकी दुर्दशा उनके माथे की लकीर नही है बल्कि यह धूर्तो की करतूत है , उनका अस्पर्श्य होना किसीं ईश्वर  द्वारा उनके माथे की भाग्य रेखाएं नही बल्कि यह कलंक है। इससे उन्हें अपने पर बड़ी लज्जा आई, ऐसा अनुभव उन्हें पहले कभी नही हुआ था ,इसलिए उनसे छुटकारा पाने की तड़प उनमे जागी। तब उन्होंने समझा की जातिवाद एक सामाजिक समस्या है, इससे छुटकारा पाने का संघर्ष तब आरम्भ हुआ ।

अगर अंग्रेज न आते और अछूतों को अपनी सेना में भर्ती कर उन्हें शिक्षा से रूबरू न करवाते तो शायद आज भी अछूत गले में हांड़ी और पीछे झाड़ू बाँध के चल रहे होते, आज जो धूर्त अछूतों के अंग्रेजी सेना में भर्ती होने का ताने दे रहे हैं शायद अछूतों की वही स्थिति से खुश थे।

कोरेगांव युद्ध महारो ने भारितयो के खिलाफ नहीं बल्कि जातिवादी भेडियो के खिलाफ लड़ा था जिनके राज में अछूतों को पीढ़ियों से मानसिक, आर्थिक और शारीरिक रूप से रोज नोच नोच के खाएं जा रहे थे।