डाक्टर तुलसीराम जी ने अपनी आत्मकथा ' मुर्दहिया' में अपनी दादी व गाँव की कुछ अन्य बुजुर्ग महिलाओं द्वारा एक पुरानी परम्परा का उल्लेख किया है। उनकी दादी व गाँव की अन्य बुजुर्ग दलित महिलाओं के पास मरे हुए बैलों आदि डांगरो के खाली सींग होते थे जिसमें वे सुई धागा, बटन, रेजगारी, जड़ी- बूटी आदि छोटी छोटी वस्तुओं को संभाल के रखती थीं। पशुओँ के मरने के बाद उन्हें जंगली पशुओँ,गिद्धों आदि के खाने से पहले काट लिया जाता था और अच्छी तरह साफ कर के उनमे छोटी छोटी वस्तुओं को रखने के काम में लिया जाता था।
तुलसीराम जी ने बताया कि उन्हें बाद में पता चला की सींगों में सामान रखने की परंपरा की शुरुआत बौद्ध धम्म में हुई थी । त्रिपिटक में वर्णन है कि गोतम बुद्ध के महापरिनिर्वाण के करीब सौ साल बाद वैशाली में विद्वान भिक्षुओं की दूसरी महासंगीति अर्थात बुद्ध के उपदेशों का संगायन हुआ तो उसमें बुद्ध के दस उपदेशों में संसोधन किये गए थे । जिसमें से की पहला ही संसोधन की भिक्षा के समय जानवरन की एक खाली सींग में नमक ले जाना । विनय पिटक में किसी भी बौद्ध भिक्षु को किसी प्रकार की खाद्य सामग्री या धन संचय करना निषेध था । इस संसोधन का मूल कारण यह था कि भिक्षा में अकसर नमक नहीं मिलता था, अतः भिक्षु लोगो को बिना नमक के ही खाना बना के खाना पड़ता था । इस व्यवहारिक समस्या से बचने के लिए यह संसोधन किया गया था । ताकि भिक्खु नमक मांग कर या खरीद कर सींग में रख सके , सींग में संचय कर के रखने के पीछे भी यह कारण था कि वह मूल्यवान नहीं होती थी जिससे भिक्खु उसे रख सकता था । तभी से सींग में संचय करने की यह बौद्ध परम्परा जारी हुई। तुलसीराम जी अपनी दादी द्वारा सींग में दवाइयाँ, सुई धागा , बटन आदि संचय करने की परंपरा से यह दावा करते हैं कि निश्चय ही सदियों पूर्व उनके पूर्वज बौद्ध रहे होंगे।
जब तुलसीराम जी द्वारा वर्णित यह घटना पढ़ रहा था तो मेरे भी मस्तिष्क में बचपन की कुछ पुरानी यादें ताज़ा हो गईं जिसको मैंने अपने गाँव में देखा था। गाँव में कई घर थे जिनके यंहा सींग टंगे होते थे , एक सींग हमारे घर भी था जिसमे सुई धागा या दवाइयां तो नहीं नीम की पत्तियों की डंठले सुखा के रखी रहती थी । ये सूखी डंठले दांत खोदने( टूथपिक) के काम में लाई जाती थीं।
अतः, निश्चय ही हमारे पूर्वज भी कभी बौद्ध ही रहे होंगे और सींगों के प्रयोग की परंपरा उन्ही से आई होगी। यह बात मुझे अब पता चली है, अब यह परम्परा लुप्त हो गई है ।
अच्छा! अब एक महत्वपूर्ण बात , शिव तथाकथित हिन्दू देवता कहलाये जाते हैं किंतु वे काल्पनिक हिन्दू देवता नहीं रहे होंगे बल्कि कभी बौद्ध परम्परा के रहे होंगे जिनका बाद में ब्रह्मणिकरण किया गया , शायद ऐसा उनकी आम जनमानस में पूजनीय मान्यता के कारण करना पड़ा होगा ब्राह्मणों को । ऐसा हुआ होगा की बौद्ध से हिन्दू बन जाने के बाद भी बड़ी संख्या में खासकर शूद्रों और निचली जातियों में' सिउ' यानी बौद्ध शिव को पूजना जारी रहा होगा , तभी शिव का वैदिकरण किया गया।
आप सब सोच रहे हैं कि मेरे इस दावे का स्रोत क्या है ? मैं ऐसा दावा क्यों कर रहा हूँ की शिव अर्थात 'सिउ' बौद्ध रहे होंगे?
मेरे इस दावे का कारण है शिव के गले में लटका सींग, बैसे ही सींग जैसा बौद्ध भिक्खु द्वितीय महासंगीति में हुए नियमो के संसोधन के बाद अपने पास नमक को संचय करने के लिए रखते थे । बाद में यह परम्परा हमारे पूर्वजो तक में रही।
शिव के गले में लटका नमक संचय करने वाला खाली सींग इस बात का प्रमाण है कि वे बौद्ध परम्परा से रहे होंगे जिनका बाद में ब्राह्मणीकरण हुआ ।
नोट- आप शिव के गले में लटका सींग देख सकते हैं।
तुलसीराम जी ने बताया कि उन्हें बाद में पता चला की सींगों में सामान रखने की परंपरा की शुरुआत बौद्ध धम्म में हुई थी । त्रिपिटक में वर्णन है कि गोतम बुद्ध के महापरिनिर्वाण के करीब सौ साल बाद वैशाली में विद्वान भिक्षुओं की दूसरी महासंगीति अर्थात बुद्ध के उपदेशों का संगायन हुआ तो उसमें बुद्ध के दस उपदेशों में संसोधन किये गए थे । जिसमें से की पहला ही संसोधन की भिक्षा के समय जानवरन की एक खाली सींग में नमक ले जाना । विनय पिटक में किसी भी बौद्ध भिक्षु को किसी प्रकार की खाद्य सामग्री या धन संचय करना निषेध था । इस संसोधन का मूल कारण यह था कि भिक्षा में अकसर नमक नहीं मिलता था, अतः भिक्षु लोगो को बिना नमक के ही खाना बना के खाना पड़ता था । इस व्यवहारिक समस्या से बचने के लिए यह संसोधन किया गया था । ताकि भिक्खु नमक मांग कर या खरीद कर सींग में रख सके , सींग में संचय कर के रखने के पीछे भी यह कारण था कि वह मूल्यवान नहीं होती थी जिससे भिक्खु उसे रख सकता था । तभी से सींग में संचय करने की यह बौद्ध परम्परा जारी हुई। तुलसीराम जी अपनी दादी द्वारा सींग में दवाइयाँ, सुई धागा , बटन आदि संचय करने की परंपरा से यह दावा करते हैं कि निश्चय ही सदियों पूर्व उनके पूर्वज बौद्ध रहे होंगे।
जब तुलसीराम जी द्वारा वर्णित यह घटना पढ़ रहा था तो मेरे भी मस्तिष्क में बचपन की कुछ पुरानी यादें ताज़ा हो गईं जिसको मैंने अपने गाँव में देखा था। गाँव में कई घर थे जिनके यंहा सींग टंगे होते थे , एक सींग हमारे घर भी था जिसमे सुई धागा या दवाइयां तो नहीं नीम की पत्तियों की डंठले सुखा के रखी रहती थी । ये सूखी डंठले दांत खोदने( टूथपिक) के काम में लाई जाती थीं।
अतः, निश्चय ही हमारे पूर्वज भी कभी बौद्ध ही रहे होंगे और सींगों के प्रयोग की परंपरा उन्ही से आई होगी। यह बात मुझे अब पता चली है, अब यह परम्परा लुप्त हो गई है ।
अच्छा! अब एक महत्वपूर्ण बात , शिव तथाकथित हिन्दू देवता कहलाये जाते हैं किंतु वे काल्पनिक हिन्दू देवता नहीं रहे होंगे बल्कि कभी बौद्ध परम्परा के रहे होंगे जिनका बाद में ब्रह्मणिकरण किया गया , शायद ऐसा उनकी आम जनमानस में पूजनीय मान्यता के कारण करना पड़ा होगा ब्राह्मणों को । ऐसा हुआ होगा की बौद्ध से हिन्दू बन जाने के बाद भी बड़ी संख्या में खासकर शूद्रों और निचली जातियों में' सिउ' यानी बौद्ध शिव को पूजना जारी रहा होगा , तभी शिव का वैदिकरण किया गया।
आप सब सोच रहे हैं कि मेरे इस दावे का स्रोत क्या है ? मैं ऐसा दावा क्यों कर रहा हूँ की शिव अर्थात 'सिउ' बौद्ध रहे होंगे?
मेरे इस दावे का कारण है शिव के गले में लटका सींग, बैसे ही सींग जैसा बौद्ध भिक्खु द्वितीय महासंगीति में हुए नियमो के संसोधन के बाद अपने पास नमक को संचय करने के लिए रखते थे । बाद में यह परम्परा हमारे पूर्वजो तक में रही।
शिव के गले में लटका नमक संचय करने वाला खाली सींग इस बात का प्रमाण है कि वे बौद्ध परम्परा से रहे होंगे जिनका बाद में ब्राह्मणीकरण हुआ ।
नोट- आप शिव के गले में लटका सींग देख सकते हैं।