Monday, 15 January 2018

बल्ब की पीली रौशनी और स्त्री शिक्षा-

बात उन दिनों की है जब हमारी कॉलोनी में बिजली नहीं आई थी, घरो में मिट्टी के तेल के दिए या लैम्प जलते थे । किन्तु  जो एक - दो  सम्प्पन परिवार थे उन्होने अपने घरों में बिजली के  जेनरेटर की व्यवस्था की थी। ऐसे ही एक अन्य  सम्पन्न परिवार एक दिन अपने लिए नया जनरेटर खरीद लाया । फिर क्या था ,  जेनरेटर आते ही पूरा घर लट्टू वाले बल्बों की रोशनी से जगमगा गया । मकान मालिक ने घर की छत पर भी शौक़िया तौर पर एक बल्ब लगा लिया था, घर के बगल में एक खाली प्लॉट था जिसमे कॉलोनी के हम सब बच्चे दिन भर खेलते रहते थे।  छत पर लगा बल्ब जब रात में जलता तो खाली प्लॉट में उसकी भरपूर रौशनी जाती ,पूरा प्लॉट पीली रौशनी से जगमगा जाता। अब बच्चो को उस खाली प्लॉट में रात में भी खेलने अवसर मिल गया था , बच्चे बल्ब की रौशनी में देर रात तक खेलते रहते।

मकान मालिक को अपने बल्ब की रौशनी में बच्चो का खेलना रास नहीं आ रहा था , वह बच्चो को भगा तो सकता नहीं था और न ही अपनी ' बिजली वाला घर' का रुतबा ही कम  कर सकता था छत से बल्ब हटा के । क्यों की, बल्ब दूर से चमकता था जिससे अंजान लोगो को पता चले की यह 'पैसे वाले ' का घर है।

अपने बल्ब की रौशनी में बच्चो को खेलता देख कुढ़ता रहता , एक दिन वह एक ऐसा होल्डर ले आया जिसके ऊपर टीन का पंजा बना हुआ था । अब उसमे बल्ब लगाने के बाद रौशनी फैलती नहीं थी बल्कि उसी छत तक ही सीमित हो गई थी। रौशनी न होने के कारण हम बच्चों का रात में खाली प्लाट में खेलना बंद हो गया । उस व्यक्ति ने बिना किसी बच्चे को डांटे या भगाए खाली प्लॉट में उनका बंद कर दिया अपने रौशनी के स्रोत को अपने कब्जे में लेके।

अब इस घटाना का परिपेक्ष्य जानिये, मैंने इस घटना का जिक्र क्यों किया यह समझिये।

तथाकथित सनातन परंपरा में शूद्र ,अछूतों और स्त्रियोँ का उपनयन संस्कार नहीं होता । उपनयन संस्कार शिक्षा लेने का पासपोर्ट था , बिना पासपोर्ट यानि उपनयन  के आप शिक्षा जगत में प्रवेश नहीं कर सकते थे,शिक्षा का अर्थ वेद पढ़ना होता था । शूद्रों और अछूतों से वैमनस्यता तो समझ आती हैं किन्तु अपनी ही कुल की स्त्रियों को शिक्षा यानी वेद पढ़ने पर क्यों रोक दिया गया यह विचारणीय प्रश्न रहा है।

दरसल ,स्त्री को ब्याह के अपने घर जाना होता था । ऐसा भी होता था कि स्त्री किसी और वर्ण में विवाह कर लेती थी इसी कारण मनु ने उच्च वर्णीय स्त्री का विवाह शूद्र से करना घोरतम पाप माना है ।  अब ऐसे में यदि उच्च वर्ण के पुरुष अपनी स्त्रियों को उपनयन संस्कार  कर वेद पढ़ा देते तो भी यह सम्भावना बनी रहती की कंही स्त्री  शूद्र/ अछूत वर्णीय पुरुष के प्रेम में आ उससे विवाह कर लेती है तो वेद की शिक्षा उसके साथ उस शूद्र/ अछूत के घर भी चली जायेगी , वह अपने बच्चों या पति को वेद की शिक्षा दे उन्हें शिक्षित कर सकती थी।

फिर उच्च वर्ण के वर्चस्व का क्या होता?
फिर उस निषेधता और पाप का क्या होता जो वेद पढ़ने या सुनने तक लागू किया गया था ?

अतः सबसे अच्छा तरीका था कि जैसे उस मकान मालिक ने अपने घर की रौशनी को अपनी छत तक सीमित कर दिया था वैसे ही उपनयन संस्कार कर केवल  पुरुषो तक सीमित कर दिया जाए । न स्त्री के पास शिक्षा जायेगी और न उस शिक्षा का दूसरे वर्ण में जाने का खतरा रहेगा।

उस पर भी शिक्षा यानी वेद को श्रुति बना कर दिमाग में रखना था , न लिखित होगी न स्त्री इसे चुरा के पढ़ पायेगी।

बड़ी खतरनाक युक्ति थी यह शिक्षा का प्रसार को अपने तक सीमित रखने की , जिसे स्त्रियां शायद आज तक समझ नहीं पाईं ।

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