गणपति सम्बन्धी पौरणिक कथाएं जितना जटिल और गल्प भरी हुई हैं उतना ही उनका नाम सरल है, गणपति का शाब्दिक अर्थ हुआ गणों का पति अर्थात गणों का स्वामी या नायक। आइए जानते हैं कि क्या गणपति का कोई ऐतिहासिक चिंन्ह भी है या सिर्फ वह पौरणिक कथाओं के गल्प तक सीमित हैं?
वाजसनेयी संहिता के अपने भाष्य में महिधर ने व्यख्या की है " गणनाम गणरूपेण पालकम' अर्थात जो गणों या सैन्य दलों की रक्षा करता है। फ्लीट ने गण शब्द का अर्थ करते हुए कहा है 'गण शब्द का प्रमुख अर्थ है जनजातीय समूह और संगठन या परिषद। पाणिनि ने संघ शब्द की व्युत्पत्ति गण शब्द से बताया है।
गणपति के प्रमुख नामो में से कुछ नाम इस प्रकार है -विघ्नकृत, विघ्नेश, विघ्ननेश्वर ,विनायक आदि। इन सबका विशुद्ध शाब्दिक अर्थ है विघ्न डालने वाला । प्रचीन ब्रह्मणिक ग्रन्थो में गणपति के प्रति तिरस्कार और घृणा के भाव हैं। 'मानव गृह्य सूत्र ' में कहा गया है - शासन करने योग्य राजकुमार को राज्य नही मिलता, सभी गुण सम्पन कुमारियों को पति नही मिलते, संतान उतपन्न करने योग्य स्त्रियां भी बांझ रह जाती हैं, स्त्रियों की संतानों की मृत्यु हो जाती है ।"
देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय जी भी याज्ञवल्क्य का उदहारण देते हुए अपनी पुस्तक ' लोकायत' में कहते हैं कि " याज्ञवल्क्य के अनुसार रुद्र और ब्रह्मा ने बाधाएं उत्पन्न करने के लिए विनायक को गणों का मुखिया नियुक्त किया ।उसका आक्रांता स्वप्न में देखता है कि वह डूब रहा है ,लाल कपड़े पहने हुए सिर मुंडे लोग हैं। मांसाहारी पशुओ की सवारी कर रहा है, चांडालों , ऊंटों , कुत्तो, गधों आदि के साथ रह रहा है । "
गौर तलब है कि मनु ने शूद्रों का धन कुत्ते और गधे बताया है , और लाल वस्त्र पहना तथा सिर मुंडाना बौद्ध परम्परा रही है। तो क्या हम कह सकते हैं की गण वास्तव में शुद्र और बौद्ध रहे होंगे? जैसा कि पाणिनि ने भी कहा है कि गण का अर्थ संघ होता है। संघ बौद्ध परम्परा का हिस्सा था।
ब्रह्म वैवर्त पुराण में एक कथा आई है जिसमे गणपति एक दन्त होने की कथा इस प्रकार है , परशुराम और गणपति के बीच एक युद्ध हुआ था जिसमे परशुराम ने अपना कुल्हाड़ा गणपति पर मारा जिससे उनका एक दांत टूट गया । इस कथा में रोचक बात यह है कि परशुराम से उनका युद्ध, जैसा कि सभी जानते हैं कि परशुराम ब्राह्मणों और पुरोहितों के सर्वोच्च स्थिति के घोर समर्थक थे । क्या इसका तात्पर्य यह हुआ की गणपति के काल मे उनका सबसे प्रमुख शत्रु पुरोहित और ब्राह्मण वर्ग था? प्राचीन ब्रह्मणिक ग्रन्थों में जिस प्रकार गणपति के प्रति तिरस्कार और घृणा है उससे तो यही जाहिर होता है। बौद्ध और शूद्रों के प्रति जो घृणा और तिरस्कार ब्राह्मणिक ग्रन्थों में हैं उससे इसकी पुष्टि भी होती है की गणपति का सम्बंध जरूर बौद्ध धम्म से रहा होगा।
मनु ( 3/219) में तो ब्राह्मणो को गणो का अन्न तक खाने को निषेध कर देते है ।मनु सीधा शुद्रो और दलितों का अन्न खाने से मना करते है , यानि मनु के अनुसार गण शुद्र -अछूत और बौद्ध रहे होंगे ।
देवीप्रसाद जी मोनियर विलियम्स जैसे विद्वान का हवाला देते हुए कहते हैं कि" यद्यपि गणपति बाधाएं उत्पन्न करने वाले हैं किंतु साथ मे इसे दूर भी करते हैं इसलिए सभी कार्यो के आरम्भ में ' नमो गणेशाय विघ्नेश्वराय ' के साथ उनका स्मरण किया जाता है।जिसका अर्थ है कि मैं विघ्नों के देवता गणेश के सम्मुख नमन करता हूँ। यह बात तो सही है किंतु यह बात बदली हुई परिस्थितियों की है ,यानी ऐसा बाद में विकसति हुई गणपति संबंधी परिवर्तित भावनाओ के कारण हुआ। देवीप्रसाद जी कहते है कि गणपति की आरंभिक प्रतिमाओं में कुछ में उन्हें भयावह दानव के रूप में दिखाया गया है जो नग्नता के साथ साथ
आभूषण रहित दिखाया गया है जो संकेत हैं कि आरम्भ में गणपति के प्रति कैसी धारणाएं थीं।
कोडिंगटन ने अपने 'एशेन्ट इंडिया ' में गणपति की ऐसी प्रतिमा का उल्लेख किया है जो पूर्ण साज सज्जा के साथ है और इसका काल गुप्त काल के निकट है । कुमारस्वामी जैसे विद्वानों ने माना है कि गुप्त शासन से पहले इस प्रकार की गणेश की कोई प्रतिमा नही थी , गुप्त काल मे ही गणेश की प्रतिमाएं अचानक बनने लगी। गौर तलब है कि गुप्त राजाओं के शासन में ब्रह्मणिक ग्रँथ नए सिरे से लिखे जाने लगे थे तो यह संभवना रही है कि गणपति का बदला हुआ नया रूप गुप्त काल मे ही प्रकट हुआ हो।गणपति का ब्राह्मणीकरण इसी काल मे हुआ होगा।
आगे देवी प्रसाद जी फिर कहते है की मध्य काल के ग्रन्थो में गणेश ( गणपति) के हस्ती मुख , मूषक वाहन आदि कई तरह जिक्र है जबकि प्राचीन ग्रंथो में ऐसा नहीं है ।इसका उत्तर देते हुए वे कहते हैं की हस्ती सर टोटम (प्रतीक चिन्ह ) दर्शाता है । जैसा की हैम जानते है दुनिया भर में प्रत्येक काबिले का एक टोटम होता है जो पशु , पक्षी अथवा पेड़ पौधों पर हो सकता था ।जैसे जब यूनानी भारत आये तो उनका टोटम पंख फैलाये बाज था ।
भारत में भी टोटमवाद रहा है , मतंग( हाथी) राजवंश की स्थापना कोसल के बाद के काल की है ।मतंग राजवंश ने सिक्के चलवाए और एक विस्तृत राजसत्ता कायम की ।
मतंग राजसत्ता ललित विस्तार के अनुसार मौर्य राजाओ से पहले की है पंरतु हम यह नहीं कह सकते की मतंग राजसत्ता स्थापित होने से गणपति के देवत्य का स्थान प्राप्त हुआ होगा ।
परन्तु इससे यह सिद्ध होता है की हाथियो (टोटम) की राजसत्ता कभी रही होगी ।
अब केवल मतंग सत्ता ही नहीं हस्ती सत्ता नहीं रही होगी बल्कि शिलालेखो से पता चलता है की बहुत से हस्तिसत्ता भारत में रही जैसे खारवेल की रानी ने स्वयं को हस्ती की पुत्री बताया ।
एक और गौर करने लायक उदहारण देना चाहूँगा मैं आपको , की बौद्धों का और हाथियों का सम्बन्ध जग उजागर है । किद्वंतीयो के अनुसार गोतम के जन्म से पूर्व उनकी माता के सपने में हाथी आता है ।
अतः बाद के कई बौद्ध राजो जैसे मतंग आदि ने हाथी को अपना टोटम बनाया ।तो यह सिद्ध है की गणपति का जो हस्ती सर है वह दरसल बौद्ध राजाओ का टोटम रहा था, तो क्या माने की गणपति वास्तव में बौद्ध धम्म से सम्बंधित थें? । जो गण शब्द है जिसका अर्थ पाणिनि ने भी संघ किया है उसका सीधा संबंध बौद्ध अनुयायिओं से है? हम सांची स्तूप द्वार में बुद्ध की माता लुम्बनी को कमल आसन पर बैठे देखते है जिनके बगल में दो हाथी उनपर जल वर्षा कर रहे हैं, बिल्कुल इसी चित्र की कल्पना लक्ष्मी देवी के लिए की गई है।
तो क्या ब्राह्मणिक व्यवस्था में विघ्न डालने वाले ' विघ्नेश्वर' वास्तव में कभी बौद्ध संघ के नायक थें ?
वाजसनेयी संहिता के अपने भाष्य में महिधर ने व्यख्या की है " गणनाम गणरूपेण पालकम' अर्थात जो गणों या सैन्य दलों की रक्षा करता है। फ्लीट ने गण शब्द का अर्थ करते हुए कहा है 'गण शब्द का प्रमुख अर्थ है जनजातीय समूह और संगठन या परिषद। पाणिनि ने संघ शब्द की व्युत्पत्ति गण शब्द से बताया है।
गणपति के प्रमुख नामो में से कुछ नाम इस प्रकार है -विघ्नकृत, विघ्नेश, विघ्ननेश्वर ,विनायक आदि। इन सबका विशुद्ध शाब्दिक अर्थ है विघ्न डालने वाला । प्रचीन ब्रह्मणिक ग्रन्थो में गणपति के प्रति तिरस्कार और घृणा के भाव हैं। 'मानव गृह्य सूत्र ' में कहा गया है - शासन करने योग्य राजकुमार को राज्य नही मिलता, सभी गुण सम्पन कुमारियों को पति नही मिलते, संतान उतपन्न करने योग्य स्त्रियां भी बांझ रह जाती हैं, स्त्रियों की संतानों की मृत्यु हो जाती है ।"
देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय जी भी याज्ञवल्क्य का उदहारण देते हुए अपनी पुस्तक ' लोकायत' में कहते हैं कि " याज्ञवल्क्य के अनुसार रुद्र और ब्रह्मा ने बाधाएं उत्पन्न करने के लिए विनायक को गणों का मुखिया नियुक्त किया ।उसका आक्रांता स्वप्न में देखता है कि वह डूब रहा है ,लाल कपड़े पहने हुए सिर मुंडे लोग हैं। मांसाहारी पशुओ की सवारी कर रहा है, चांडालों , ऊंटों , कुत्तो, गधों आदि के साथ रह रहा है । "
गौर तलब है कि मनु ने शूद्रों का धन कुत्ते और गधे बताया है , और लाल वस्त्र पहना तथा सिर मुंडाना बौद्ध परम्परा रही है। तो क्या हम कह सकते हैं की गण वास्तव में शुद्र और बौद्ध रहे होंगे? जैसा कि पाणिनि ने भी कहा है कि गण का अर्थ संघ होता है। संघ बौद्ध परम्परा का हिस्सा था।
ब्रह्म वैवर्त पुराण में एक कथा आई है जिसमे गणपति एक दन्त होने की कथा इस प्रकार है , परशुराम और गणपति के बीच एक युद्ध हुआ था जिसमे परशुराम ने अपना कुल्हाड़ा गणपति पर मारा जिससे उनका एक दांत टूट गया । इस कथा में रोचक बात यह है कि परशुराम से उनका युद्ध, जैसा कि सभी जानते हैं कि परशुराम ब्राह्मणों और पुरोहितों के सर्वोच्च स्थिति के घोर समर्थक थे । क्या इसका तात्पर्य यह हुआ की गणपति के काल मे उनका सबसे प्रमुख शत्रु पुरोहित और ब्राह्मण वर्ग था? प्राचीन ब्रह्मणिक ग्रन्थों में जिस प्रकार गणपति के प्रति तिरस्कार और घृणा है उससे तो यही जाहिर होता है। बौद्ध और शूद्रों के प्रति जो घृणा और तिरस्कार ब्राह्मणिक ग्रन्थों में हैं उससे इसकी पुष्टि भी होती है की गणपति का सम्बंध जरूर बौद्ध धम्म से रहा होगा।
मनु ( 3/219) में तो ब्राह्मणो को गणो का अन्न तक खाने को निषेध कर देते है ।मनु सीधा शुद्रो और दलितों का अन्न खाने से मना करते है , यानि मनु के अनुसार गण शुद्र -अछूत और बौद्ध रहे होंगे ।
देवीप्रसाद जी मोनियर विलियम्स जैसे विद्वान का हवाला देते हुए कहते हैं कि" यद्यपि गणपति बाधाएं उत्पन्न करने वाले हैं किंतु साथ मे इसे दूर भी करते हैं इसलिए सभी कार्यो के आरम्भ में ' नमो गणेशाय विघ्नेश्वराय ' के साथ उनका स्मरण किया जाता है।जिसका अर्थ है कि मैं विघ्नों के देवता गणेश के सम्मुख नमन करता हूँ। यह बात तो सही है किंतु यह बात बदली हुई परिस्थितियों की है ,यानी ऐसा बाद में विकसति हुई गणपति संबंधी परिवर्तित भावनाओ के कारण हुआ। देवीप्रसाद जी कहते है कि गणपति की आरंभिक प्रतिमाओं में कुछ में उन्हें भयावह दानव के रूप में दिखाया गया है जो नग्नता के साथ साथ
आभूषण रहित दिखाया गया है जो संकेत हैं कि आरम्भ में गणपति के प्रति कैसी धारणाएं थीं।
कोडिंगटन ने अपने 'एशेन्ट इंडिया ' में गणपति की ऐसी प्रतिमा का उल्लेख किया है जो पूर्ण साज सज्जा के साथ है और इसका काल गुप्त काल के निकट है । कुमारस्वामी जैसे विद्वानों ने माना है कि गुप्त शासन से पहले इस प्रकार की गणेश की कोई प्रतिमा नही थी , गुप्त काल मे ही गणेश की प्रतिमाएं अचानक बनने लगी। गौर तलब है कि गुप्त राजाओं के शासन में ब्रह्मणिक ग्रँथ नए सिरे से लिखे जाने लगे थे तो यह संभवना रही है कि गणपति का बदला हुआ नया रूप गुप्त काल मे ही प्रकट हुआ हो।गणपति का ब्राह्मणीकरण इसी काल मे हुआ होगा।
आगे देवी प्रसाद जी फिर कहते है की मध्य काल के ग्रन्थो में गणेश ( गणपति) के हस्ती मुख , मूषक वाहन आदि कई तरह जिक्र है जबकि प्राचीन ग्रंथो में ऐसा नहीं है ।इसका उत्तर देते हुए वे कहते हैं की हस्ती सर टोटम (प्रतीक चिन्ह ) दर्शाता है । जैसा की हैम जानते है दुनिया भर में प्रत्येक काबिले का एक टोटम होता है जो पशु , पक्षी अथवा पेड़ पौधों पर हो सकता था ।जैसे जब यूनानी भारत आये तो उनका टोटम पंख फैलाये बाज था ।
भारत में भी टोटमवाद रहा है , मतंग( हाथी) राजवंश की स्थापना कोसल के बाद के काल की है ।मतंग राजवंश ने सिक्के चलवाए और एक विस्तृत राजसत्ता कायम की ।
मतंग राजसत्ता ललित विस्तार के अनुसार मौर्य राजाओ से पहले की है पंरतु हम यह नहीं कह सकते की मतंग राजसत्ता स्थापित होने से गणपति के देवत्य का स्थान प्राप्त हुआ होगा ।
परन्तु इससे यह सिद्ध होता है की हाथियो (टोटम) की राजसत्ता कभी रही होगी ।
अब केवल मतंग सत्ता ही नहीं हस्ती सत्ता नहीं रही होगी बल्कि शिलालेखो से पता चलता है की बहुत से हस्तिसत्ता भारत में रही जैसे खारवेल की रानी ने स्वयं को हस्ती की पुत्री बताया ।
एक और गौर करने लायक उदहारण देना चाहूँगा मैं आपको , की बौद्धों का और हाथियों का सम्बन्ध जग उजागर है । किद्वंतीयो के अनुसार गोतम के जन्म से पूर्व उनकी माता के सपने में हाथी आता है ।
अतः बाद के कई बौद्ध राजो जैसे मतंग आदि ने हाथी को अपना टोटम बनाया ।तो यह सिद्ध है की गणपति का जो हस्ती सर है वह दरसल बौद्ध राजाओ का टोटम रहा था, तो क्या माने की गणपति वास्तव में बौद्ध धम्म से सम्बंधित थें? । जो गण शब्द है जिसका अर्थ पाणिनि ने भी संघ किया है उसका सीधा संबंध बौद्ध अनुयायिओं से है? हम सांची स्तूप द्वार में बुद्ध की माता लुम्बनी को कमल आसन पर बैठे देखते है जिनके बगल में दो हाथी उनपर जल वर्षा कर रहे हैं, बिल्कुल इसी चित्र की कल्पना लक्ष्मी देवी के लिए की गई है।
तो क्या ब्राह्मणिक व्यवस्था में विघ्न डालने वाले ' विघ्नेश्वर' वास्तव में कभी बौद्ध संघ के नायक थें ?
प्राचीन जानकारियां देने के लिए आपको बहोत बहोत धन्यवाद।
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