Friday, 27 January 2017

ढाबा-5

" अरे शर्मा साहब!! आइये आइये ..... विराजिए महाराज! " केशव ने ढ़ाबे में प्रवेश करते हुए शर्मा जी देखते हुए कहा ।

शर्मा जी केशव को देख मुस्कुरा दिए और कंधे पर लटकाए  झोले को मेज पर रखते हुए सामने पड़ी कुर्सी पर विरजमान हो गए।

" कहिये शर्मा साहब! क्या हाल हैं? सब कुशल मंगल? भाभी जी अब तो नहीं पीटती?" केशव ने चुटकी ली और जोर से हँस दिया।
यूँ केशव को चुटकी लेते  हुए शर्मा जी को थोड़ा नागवार गुजरा और वे घूरने वाली नजरो से देखने लगी।
केशव ने उनके मुखमंडल पर नाराजगी की लकीरें देख हँसना बंद करते हुए कहा -" अरे ! मैं तो मजाक कर रहा था ..... " इतना कह केशव ने फिर दाँत निकाल दिए।

अभी शर्मा साहब कुछ बोलने ही वाले थे की केशव ने बीच में आवाज लगा दी -" छोटूSss .... दो चाय …."
छोटू को आर्डर दे वह शर्मा जी से मुखातिब हुआ ।

"और शर्मा साहब सब ठीक है न?'केशव ने पूछा

"सब ठीक है ...पर इस आरक्षण ने देश का बेडा गर्क कर रखा है " शर्मा जी ने उदास होते हुए कहा ।
"क्यों क्या हो गया?" केशव ने उत्सुकता से पूछा।
" योग्यता वाले पीछे रह जा रहें है और अयोग्य आगे आ रहे हैं" शर्मा जी ने गम्भीर होते हुए कहा ।
"कैसे" केशव ने मेज पर हाथ रखते हुए पूछा।
"कैसे क्या!वही आरक्षण के कारण कम अंक वाले आगे आ रहे हैं और अधिक अंक वाले पीछे धकेले जा रहे हैं.....दो दिन पहले भतीजे का एडमिशन करवाने गया था कॉलेज में पर 70%आने के बाद भी एडमिशन नहीं हो पाया जबकि आरक्षण वालो का 50%पर ही हो जा रहा था ।मैरिट वालो की ऐसी तैसी कर दिया है इस आरक्षण ने "शर्मा जी के अंदर का गुबार जैसे फट पड़ने वाला था ।

" ओह! मैरिट का मातम है!!अच्छा क्या आपको पता है कि भारत में ' थर्ड डिवीजन' और पासिंग मार्क्स 40%से घटा के  33% करने की मांग आप लोगों ने ही की थी? " केशव ने मुस्कुराते हुए कहा ।

शर्मा जी को जैसे झटका लगा हो उन्हें सहसा विश्वाश नहीं हुआ और तुरन्त ही कहा -" क्या बात करते हो ?? ऐसा क्यों हुआ था ?"
" ऐसा इस लिए हुआ था शर्मा जी की सन 1857 में ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में आधुनिक शिक्षा में केवल दो ही डिवीजन थी , फर्स्ट और सेकेंड ।
न्यूनतम अंक 40%होते थे पास होने के लिए ।
इससे सवर्णो पर गम्भीर संकट खड़ा हो गया था  क्यों की 1857 में मद्रास में पहला डिग्री कॉलेज खुला तो उसमे पढ़ने के लिए पर्याप्त विद्यार्थी ही नही मिल रहे थे जबकि पढ़ाने के लिए प्रोफेसर ब्रिटेन से आये थे ।
तब मद्रास के सवर्णो ने ब्रिटिश सरकार से गुहार लगाई की इंटरमीडिएट पास करने के लिए नई थर्ड डिवीजन शुरू की जाए और पासिंग मार्क्स 40% से घटा के 33% कर दिया जाए, ब्रिटिश सरकार ने सवर्णो की बात मान ली और तब से पासिंग मार्क्स 33%चली आ रही है ...." केशव इतना कह के रुक गया ।

थोड़ी देर ख़ामोशी छाई रही ,फिर केशव अपने बदन को ढीला छोड़ता हुआ बोला-
"तो शर्मा जी .... यह थी आपकी 'योग्यता'

शर्मा जी ने अपने माथे पर बल दिया और कुछ बोलने ही वाले थे किन्तु  केशव ने कहना जारी रखा-" और सुनिए सर!! ...सन 1821 में ब्रिटिश सरकार ने पूना में एक संस्कृत विद्यालय खोला था ,इस विद्यालय में शिक्षकों के पद के लिए 100%आरक्षण ब्राह्मणों के लिए ही था ।सभी रिक्तियां ब्राह्मण के लिए ही सुरक्षित थी , यद्यपि उस विधालय में सभी जातियों के विद्यार्थियों के लिए प्रवेश की अनुमति थी किन्तु अध्यापक ब्राह्मणों ने इसका घोर विरोध किया और उसके बाद उस विद्यालय में केवल उच्च वर्ग के विद्यार्थियों का ही नामांक किया गया।...... शर्मा जी आपका आरक्षण तो सदियों पहले से चलता आ रहा है" केशव ने शर्मा जी की आँख में आंख डाल के कहा ।

शर्मा जी का चेहरा अब थोड़ा सर्द पड़ गया था , फिर भी केशव को खामोश देख उन्होंने तुरंत कहा -"किन्तु आरक्षण तो केवल दस साल के लिए था पर राजनेता इसे अपने फायदे के लिए बढ़ा देते हैं .... इसलिए आरक्षण की राजनीती बंद होनी चाहिए ताकि सभी को नौकरी मिल सके "

" आरक्षण का मतलब सिर्फ नौकरी पाना नहीं होता शर्मा जी,फिर यह गलत फहमी है कि आरक्षण दस साल के लिए ही था । अनुच्छेद 335 के तहत प्रदत्त नौकरियों में आरक्षण के लिए समीक्षा का प्रवधान नहीं है ,नौकरियों में आरक्षण तब तक रहेगा जब तक समाज में जातिवाद है ।हाँ अनुच्छेद- 330 और 332 के अंतर्गत दी जाने वाली राजनैतिक आरक्षण की सुविधा को प्रत्येक दस साल के बाद आवश्यकता अनुसार समीक्षा कर बढ़ाई जा सकती है।
आज देखिये यदि आरक्षित सीट्स न हों तो एक भी पार्टी दलितों को एक भी टिकट न दे....हर पार्टी आरक्षित सीट्स पर ही मज़बूरी वश टिकट देती है ।अगर ये सीट्स हटा दी जाएं तो एक भी दलित राजनीती में नहीं आ सकता। रही बात नौकरीं की तो रिपोर्ट देखिये अब भी ऊँची जातियो वाले ही हर पोस्ट पर काबिज है "

शर्मा जी थोड़ी देर चुप रहे फिर बोले-" देश में अब कोई जातीय भेदभाव नहीं करता और न ही छुआछूत जैसा कुछ है .... ये तो तुम लोग हो जो ऐसा प्रचारित करते हैं"

केशव शर्मा जी की बात सुन कुछ सोचता हुआ बोला- "अच्छा! शर्मा साहब क्या आप बता सकते हैं कि देश में कितने निम्न जाति के कहे जाने वाले लोग प्रमुख मंदिरों, मठो, अखाड़ों आदि के प्रमुख है ? अथवा महामंडलेश्वर या शंकराचार्य ,धर्मिक न्यास की उपाधि पर बैठे हैं? .... यदि समाज में जातिवाद ख़त्म है तो नाम बताइये दो चार शंकराचार्यो के जो अछूत जाति से आते हों?"

अब शर्मा जी का चेहरा लाल हो गया ,वे तुरंत जेब से मोबाईल निकाल उसे देखते हुए बोले-" अभी जल्दी में हूँ एक काम याद आ गया है .... सब आ के बताता हूं " इतना कह वे अपना झोला उठा तेजी से बाहर की तरफ निकल गए । पीछे से केशव ने आवाज लगाई -
"शर्मा जी ..... चाय तो पीते जाइये....."

केशव की बात सुन एक सैकिण्ड के लिए शर्मा जी रुके और गुस्से से केशव की तरफ देख फिर आगे बढ़ गएँ।

" छोटूss..... दोनों चाय इधर ले आया और कुछ खाने को भी "केशव मुस्कुराया और छोटू को आवाज लगाई ।

Thursday, 19 January 2017

चेतना/आत्मा



वैदिक विचारधारा में देह अर्थात शरीर को मलीन अथवा दूषित घोषित किया गया है ,इसी लिए आत्मा को अलग सत्ता माना गया है जो पवित्र होती है और शरीर के किसी कार्य में लिप्त नहीं मानी जाती।

दरसल शरीर की यही 'दुषिता' और ' आत्मा' की पवित्रता की धारणा शारीरिक श्रम में लगे लोगो के तिरस्कार और शोषण की जनक थी।

आत्मवाद के तहत जीवन जगत के कार्यो और अनुभवों को मिथ्या बताते हुए उत्पादन कर्म की जम के अवमानना की गई और  श्रमशील लोगो के प्रतिरोध के सभी सम्भवनाओं पर प्रतिबंध लगा दिया  गया था ।

वैदिक धर्म का एक मुख्य स्तम्भ पुनर्जन्म है ,कर्म फल के अनुसार आत्मा नए शरीर धारण करती है।
गीता का आधार ही आत्मा और कर्म फल है, वर्णविधान के अनुसार कर्म करते जाइये तभी आत्मा को मुक्ति मिलेगी  ।आत्मा देह से छुटकारा और पाप पुण्य के कर्मफल से मुक्त हो अंत में ब्रह्म में लीन हो जाती है।
आत्मवाद एक ऐसा मिथ था जिसके आधार पर भारत का एक तथाकथित उच्च वर्ण शूद्रों अछुतो पर घोर अत्याचार और अमानवीय उत्पीड़न को न्याय संगत सिद्ध करता आ रहा है।
उसका देह का तिरस्कार दरसल श्रम का तिरस्कार था , आप समझ सकते हैं कि एक श्रमिक की सबसे बड़ी पूंजी उसका शरीर ही होता है ।शरीर ही उसका अस्तित्व है जिसे शोषक  विचारधारा नकार रही है ।

जंहा ब्राह्मणिक विचारधारा आत्मा सँभालने की बात करते हैं वंही कबीर तन सँभालने की बात करते हैं।
वे कहते हैं-
सनकादिक नारद मुनि सेखा ।
तीन भी तन महि मन नहीं पेखा।।

कबीर किसी आत्मा की बात नहीं करते बल्कि देह और चेतना की बात ही स्वीकार करते हैं।
वे कहते हैं कि देह का छूटना चेतना के छूटने से भिन्न नहीं है, चेतना तभी तक है जब तक देह है ।देह से अलग कोई चेतना नहीं है ।

कुछ लोग चेतना को भौतिक ऊर्जा के होने का तर्क देते हैं,इसे  आत्मा के रूप में भी लेते है और कहते हैं कि जैसे ऊर्जा नष्ट नहीं होती वैसे चेतना या आत्मा भी नष्ट नहीं होती।

किन्तु यदि उन्होंने पढ़ा होता तो यह पता होता की चेतना भौतिक ऊर्जा नही है ।चेतना शरीर के साथ ही नष्ट हो जाती है जबकि ऊर्जा केवल रूपांतरित होती है।

बुद्ध कहते हैं- यह शरीर नित्य आत्मा नहीं है क्यों की यह नाशवान है और न ही भावना ,प्रत्यक्ष , मनोवृति और बुद्धि सब मिलकर आत्मा का निर्माण कर सकते हैं क्यों की यदि ऐसा होता तो यह भी कभी संभव न होता की चेतना  भी उसी तरह नाश की ओर अग्रसर होती है ..... " (अनत्तलक्खण सुत्त,महावग्ग)

इसके अलावा बुद्ध पुनः कहते हैं- यह सत्य है कि आदमी के जन्म के साथ चेतना (विज्ञान) की उत्पत्ति होती है और मरण के साथ चेतना का विनाश -( बुद्ध और उनका धम्म ,खंड 3 भाग 4)

ऐसा नही है कि चेतना (या जो इसे आत्मा कहता हो)को शरीर के साथ  नष्ट होने बात केवल अवैदिको ( अब्राह्मणिक) ने ही कही है , याज्ञवल्क्य ने भी इसी बात का संकेत दिया है ।

याज्ञवल्क्य मैत्रेयी को बताते हैं की "तत्वों से  उपज कर मनुष्य फिर इन्ही में विलुप्त हो जाता है ,मृत्यु के पश्चात कोई चेतना नहीं रहती "( वृहदारण्यक उपनिषद, 2/4/12)

तो,मित्रो अब आप और स्पष्ट  समझ गए  होंगे की किस प्रकार आत्मा-परमात्मा और अब चेतना को लेके नई नई धूर्तताएँ पूर्व में गढ़ी और अब भी गढ़ी जा रही हैं ।
दरसल इसके पीछे जो सिद्धान्त काम करता है वह है श्रम को तिरस्कृत करना और श्रमशील को कल्पनाओं में उलझाये रखना।

 तो!आप कब मुक्त हो रहे हैं इन से?

Saturday, 14 January 2017

धर्म



धर्म क्या है और इसकी शुरुआत कैसे हुई यह जानने का उत्सुकता अधिकाशं लोगो में पाई जाती है ,अपने को बडे बड़े साधु संत और महात्मा कहलाने वाले लोग धर्म की दुकानदारी कर अपना बिजनेस खूब चमकाते आये हैं ।ये लोग धर्म को च्युंगम की तरह खींच तान के अपने अपने हिसाब से फिट करते रहे किन्तु धर्म की एक और सटीक परिभाषा न बता पाएं।

जंहा तक मैं समझ पाया हूँ, धर्म क्या है और इसकी शुरुआत कैसे हुई यह जानने के लिए मानव सभ्यता के विकास को जानना जरूरी है ।


मानव सभ्यता का विकास प्रकृति की वैसी ही स्वभाविक प्रक्रिया है जैसा की मानव का विकास । जिस प्रकार मानव का विकास उत्तरोत्तर होता गया , उसी प्रकार उसकी सभ्यता का विकास भी क्रमिक रूप से होता रहा। पर विकास की सीढ़ियों पर मानव ज्यो ज्यो ऊपर बढ़ता गया त्यों त्यों वह प्रकृति से दूर होता गया अत: उसके सभ्यता के विकास क्रम में भिन्नता बढ़ती गई । मानव सभ्यता के आरम्भ में मानव पूर्णत: प्रकृति पर निर्भर करता था । वह जंगली जानवरो की भांति नग्न अवस्था में रहता था । प्रकृति रूप से उतपन्न कंद मूल , फल , आदि खा के अपनी भूंख शांत करता था । रात्रि के समय कंदराओं , गुफाओं ,वृक्षो पर आश्रय लेता था । इस युग में न मनुष्य घर बनाता था और न आग जला पाता था ।
यह युग आदि युग कहलाता था , पर मानव और पशुओ में शारीरिक अंतर था वह सीधा हो सकता था जिससे वह पशुओ की तुलना से अधिक सुविधा जनक कार्यो को कर सकता था । उस का मष्तिष्क जल्दी सीख सकता था और अपने कार्यो में सुधार कर सकता था ।

परन्तु यह सुधार न तीव्र थी और न आश्चर्यजनक बल्कि बहुत धीमी और समय की लंबी दूरी तय कर के प्राप्त की गई ।मानव ने इस प्रक्रिया में पत्थरो के औजार से शिकार करनाऔर पशुओ की खालो से शरीर ढकने का हुनर सीख गया था । धर्म ने मानव जीवन में तब भी दख़ल दिया दिया था , पर वह प्राकृतिक घटनों जैसे की बिजली का चमकना , आग, मूसलाधार बारिश आदि से घबराता था क्यों ये सब चीजे उसे शिकार करने में रूकावट पैदा करती थी जिस कारण उसे कई कई दिनों तक भूखा रहना पड़ता ,उसका आश्रय छिन जाता । चुकी उतनी बुद्धि का विकास न होने के कारण इन प्राकृतिक घटनों का कारण नहीं समझ पाता था अलौकिक कारण समझता था ।


जब मनुष्य की बुद्धि और विकसित हुई तो खेती करने लगा और समाज में रहने लगा तब उसे भोजन खोजने की चिंता जाती रही, एक साथ रहने से सामजिक सुरक्षा भी मिलने लगी तब उसके पास बचने लगा । तब वह उन प्राकृतिक घटनों को जानने की चेस्टा करने लगा जो अभी तक उसके लिए ‘ अलौकिक’ बनी हुई थे । ऋग्वेद की स्तुतियाँ इस बात का प्रमाण है की तब मनुष्य यह नहीं समझ पाया था की इस प्राकृतिक घटनाओ के पीछे कारण क्या है ? सूर्य क्यों निकलता है, पानी कैसे बरसता है? आदमी मरता क्यों है? पृथ्वी कैसे बनी आदि प्रश्न अब भी उसके लिए अनसुलझे थे । तब उसने हर घटना के पीछे किसी अलौकिक देवता को मान लिया जैसे वर्षा कैसे होती है जब यह नहीं समझ पाया तो उस का कारण किसी ‘ वर्षा देवता :’का हाथ मान लिया ।
अब इस वर्षा देवता को खुश करने के लिए ‘ कुछ किया जाने लगा ‘ और यंही से शुरू हुआ धार्मिक विश्वास और कर्मकाण्ड ।
फिर क्या था पोथी की पोथी लिखी जाने लगी वर्षा देवता को खुश करने के लिए , कर्मकाण्ड , चढावे आदि का भी प्रवधान बना दिया गया । और यंहा से शुरू हुआ कुछ चतुर लोगो द्वारा जनता का देवताओ के नाम पर शोषण, उसके बाद और शोषण के लिए ईश्वर की रचना की गई ।

उसके बाद ‘ धर्म ‘ नाम के लचीले और लिजलिजे शब्द की रचना की गई और उन पोथियों को जिनकी रचना चतुर लोगो ने अपने जिज्ञासा और स्वार्थ के लिए किया था उसे धर्म का मूल बताया जाने लगा ‘ वेदों अखिलोधर्ममूलम’कहा जाने लगा ।

फिर उसके उपरांत भी जब पोथी को धर्म का मूल बता के बात नहीं बनती दिखी ( क्यों की यदि कोई वेद् पढ़ ले तो वह समझ सकता था की जिस वेदों वह धर्म का मूल बता रहें उसमें वास्तव में क्या  लिखा है ) अत: पोल खुलने का भय सदैव बना रहता । तो, आगे यह कह दिया गया की ” स्मृतिशीले च तदविदाम , आचारश्चैव साधुनामात्मतुष्टिरेव”

अर्थात- धर्म का मूल वेद् हैं पर जी उसके जानकर हैं उसे जैसा याद हो या वह जैसा व्यव्हार करता हो वही धर्म है। है ने खेदजनक बात ,यदि वेदों का जानकार , बरलात्कारि,मुफ्तखोर, धूर्त, अपराधी भी हो तो उसका आचरण ही धर्म है । क्या ऐसे तथाकथित ‘ धर्म ‘ से मनुष्य उन्नति कर सकता है? क्या मानव मानव में समानता हो सकती है? क्या ऐसे धर्म से समाज का आचरण नैतिक और शुद्ध हो सकता है? शायद नहीं ….




Thursday, 5 January 2017

जानिए क्या है महिलाओं से अभद्रता का कारण ?


आने कई बार बच्चो के व्यवहार को नोटिस किया होगा की जिस काम को मना करो बच्चे उसी काम को करने के लिए लालायित रहते हैं।

जैसे यदि उन्हें कहो की मिट्टी में मत खेलो तो वे मिट्टी में ही खेलने की कोशिश करेंगे,अमुक चीज मत खाओ तो उनकी कोशिश रहेगी की नजर बचा के उस चीज को खा लें ।
कहने का अर्थ है कि जिस कार्य के लिए उन्हें डांटा जाता है वे जिज्ञासावश उसी काम को करने की कोशिश करते हैं।वे उत्सुकता से उस काम को कर अपनी जिज्ञासा शांत करने की कोशिश करते हैं जिस काम के लिए बड़े उन्हें मना करते हैं।

मैं एक सरकारी विद्यालय में पढ़ा हुआ हूँ ,जंहा दो पालियों में पढाई होती थी ।सुबह की पाली में लड़कियां और दोपहर की पाली में लड़के ।
जब लड़कियों का विद्यालय का समय समाप्त होता तो उसके बाद लड़को की कक्षाएं लगती ।
लड़के और लड़कियों का आपस में बात करना तो बहुत दूर एक दूसरे से  मिलना भी नहीं होता था ।

बहुत से लड़के जो मिडिल की कक्षाओं में प्रवेश कर चुके थे वे लड़कियों के प्रति आकर्षित थे  ।लड़कियों से बात करने के लिए उत्सुक होते , उनसे बात करने की यत्न करते जिसके लिए वे लड़कियों की छुट्टी होने से पहले ही विद्यालय के गेट के आस पास खड़े हो जाते थे ।

बचपन से ही लड़कियों से दूर रहने के कारण उन लड़कों में लड़कियों के प्रति एक अलग सी उत्सुकता और जिज्ञासा पनप गई थी, लड़कियां जैसे उनके लिए दूसरे ग्रह से आई हों ।वे लड़कियों से बात करने , उन्हें देखने -छूने और मित्रता करने के लिए बहुत हद तक विक्षिप्त से रहते ।

कई बार उन लड़कों की यह विक्षिप्तता छेड़खानी के रूप में उभर के आती थी , लड़कियों की स्कर्ट उठा के भाग जाना उनके लिए आम बात होती  ।
निश्चित  ही उनकी वह हरकते उन्हें मानसिक सुख देती थी की इस बहाने उन्होंने लड़कियों को छुआ तो ।

किन्तु जब मैं को-एड प्राइवेट विद्यालयों में पढ़ने वाले छात्रों को देखता या मिलता तो उनमें लड़कियों के प्रति यह उत्सुकता बहुत कम मिलती । वे सहज रहते लड़कियों को लेके ,उनमे वैसी विक्षिप्तता न के बराबर ही मिलती जो सरकारी विद्यालय में लड़कियों से अलग पढ़ने वाले बहुत से छात्रों में मिलती ।


दो दिन पहले मैं आगरा ताज़महल देखने गया , वंहा भारतीय लोगो के अलावा अच्छी खासी भीड़ विदेसी  सैलानियों की थी ।
उन विदेशी  सैलानियों में दो बेहद खूसूरत लड़कियां थी जो ताजमहल के अंदर अपना फोटो शूट कर रहीं थी ।
एक लड़की ने स्कार्ट पहनी हुई थी जो कमर से थोड़ी नीचे थी, टॉप भी छोटा सा पहना था ।कुल मिला के पेट और कमर का पूरा हिस्सा दिख रहा था ।
लडकिया अपने में मग्न फोटो शूट कर रहीं थी ,विदेशी सैलानी उन पर जरा सा भी नजर नहीं डाल रहे थे किंतु भारती पुरुषो के लिए यह किसी अजूबे से कम नहीं था ।
अधितर लोगो की नज़रे लड़की की कमर पर टिकी हुई थी ,लड़के तो खड़े होके निहारने लगे उनका वश चलता तो जरूर उस लड़की को छू के देखते।

कुछ देर के लिए भीड़ सी एकत्रित हो गई ,आखिर  लडकिया असहज हो के वँहा से चली ही गईं।

अभी हाल में हुई बेंगलुरु की घटना चर्चा में है ,बैंगलुरु जैसी घटनाएं भारत के हर गली मोहल्ले में लगभग रोज ही घटित होती हैं।
हर घटना के प्रकाश में आने के बाद सरकारे और जनता कड़े कानून की बात करती हैं किन्तु ऐसी घटनाएं न रुकी है न रुकेंगी क्यों की हम जड़ तक पहुँच ही नहीं पा रहे हैं इन घटनाओं के पीछे की मानसिकता को ।

हमारी शिक्षा प्रणाली और सामाजिक परिवेश ऐसा है कि हम लड़को के लिए लड़कियों को किसी अजूबे से कम नहीं बना देते हैं,आपस में बात करने से लेके साथ पढ़ने तक पर ढेरो पाबंदी लग जाती है ।

जैसा मैंने ऊपर बच्चो वाला उदहारण दिया है कि जिस चीज को मना करो बच्चो में उसके प्रति उत्सुकता बढ़ती जाती है , यही हाल यंहा भी है उत्सुकता धीरे धीरे समय के अनुसार विक्षिप्तता में बदलती जाती है फिर उस विक्षिप्त के सामने चाहे कम कपडे वाली महिला हो या बुर्के में उससे कोई  फर्क नहीं पड़ता उस पर ।