धर्म क्या है और इसकी शुरुआत कैसे हुई यह जानने का उत्सुकता अधिकाशं लोगो में पाई जाती है ,अपने को बडे बड़े साधु संत और महात्मा कहलाने वाले लोग धर्म की दुकानदारी कर अपना बिजनेस खूब चमकाते आये हैं ।ये लोग धर्म को च्युंगम की तरह खींच तान के अपने अपने हिसाब से फिट करते रहे किन्तु धर्म की एक और सटीक परिभाषा न बता पाएं।
जंहा तक मैं समझ पाया हूँ, धर्म क्या है और इसकी शुरुआत कैसे हुई यह जानने के लिए मानव सभ्यता के विकास को जानना जरूरी है ।
मानव सभ्यता का विकास प्रकृति की वैसी ही स्वभाविक प्रक्रिया है जैसा की मानव का विकास । जिस प्रकार मानव का विकास उत्तरोत्तर होता गया , उसी प्रकार उसकी सभ्यता का विकास भी क्रमिक रूप से होता रहा। पर विकास की सीढ़ियों पर मानव ज्यो ज्यो ऊपर बढ़ता गया त्यों त्यों वह प्रकृति से दूर होता गया अत: उसके सभ्यता के विकास क्रम में भिन्नता बढ़ती गई । मानव सभ्यता के आरम्भ में मानव पूर्णत: प्रकृति पर निर्भर करता था । वह जंगली जानवरो की भांति नग्न अवस्था में रहता था । प्रकृति रूप से उतपन्न कंद मूल , फल , आदि खा के अपनी भूंख शांत करता था । रात्रि के समय कंदराओं , गुफाओं ,वृक्षो पर आश्रय लेता था । इस युग में न मनुष्य घर बनाता था और न आग जला पाता था ।
यह युग आदि युग कहलाता था , पर मानव और पशुओ में शारीरिक अंतर था वह सीधा हो सकता था जिससे वह पशुओ की तुलना से अधिक सुविधा जनक कार्यो को कर सकता था । उस का मष्तिष्क जल्दी सीख सकता था और अपने कार्यो में सुधार कर सकता था ।
परन्तु यह सुधार न तीव्र थी और न आश्चर्यजनक बल्कि बहुत धीमी और समय की लंबी दूरी तय कर के प्राप्त की गई ।मानव ने इस प्रक्रिया में पत्थरो के औजार से शिकार करनाऔर पशुओ की खालो से शरीर ढकने का हुनर सीख गया था । धर्म ने मानव जीवन में तब भी दख़ल दिया दिया था , पर वह प्राकृतिक घटनों जैसे की बिजली का चमकना , आग, मूसलाधार बारिश आदि से घबराता था क्यों ये सब चीजे उसे शिकार करने में रूकावट पैदा करती थी जिस कारण उसे कई कई दिनों तक भूखा रहना पड़ता ,उसका आश्रय छिन जाता । चुकी उतनी बुद्धि का विकास न होने के कारण इन प्राकृतिक घटनों का कारण नहीं समझ पाता था अलौकिक कारण समझता था ।
जब मनुष्य की बुद्धि और विकसित हुई तो खेती करने लगा और समाज में रहने लगा तब उसे भोजन खोजने की चिंता जाती रही, एक साथ रहने से सामजिक सुरक्षा भी मिलने लगी तब उसके पास बचने लगा । तब वह उन प्राकृतिक घटनों को जानने की चेस्टा करने लगा जो अभी तक उसके लिए ‘ अलौकिक’ बनी हुई थे । ऋग्वेद की स्तुतियाँ इस बात का प्रमाण है की तब मनुष्य यह नहीं समझ पाया था की इस प्राकृतिक घटनाओ के पीछे कारण क्या है ? सूर्य क्यों निकलता है, पानी कैसे बरसता है? आदमी मरता क्यों है? पृथ्वी कैसे बनी आदि प्रश्न अब भी उसके लिए अनसुलझे थे । तब उसने हर घटना के पीछे किसी अलौकिक देवता को मान लिया जैसे वर्षा कैसे होती है जब यह नहीं समझ पाया तो उस का कारण किसी ‘ वर्षा देवता :’का हाथ मान लिया ।
अब इस वर्षा देवता को खुश करने के लिए ‘ कुछ किया जाने लगा ‘ और यंही से शुरू हुआ धार्मिक विश्वास और कर्मकाण्ड ।
फिर क्या था पोथी की पोथी लिखी जाने लगी वर्षा देवता को खुश करने के लिए , कर्मकाण्ड , चढावे आदि का भी प्रवधान बना दिया गया । और यंहा से शुरू हुआ कुछ चतुर लोगो द्वारा जनता का देवताओ के नाम पर शोषण, उसके बाद और शोषण के लिए ईश्वर की रचना की गई ।
उसके बाद ‘ धर्म ‘ नाम के लचीले और लिजलिजे शब्द की रचना की गई और उन पोथियों को जिनकी रचना चतुर लोगो ने अपने जिज्ञासा और स्वार्थ के लिए किया था उसे धर्म का मूल बताया जाने लगा ‘ वेदों अखिलोधर्ममूलम’कहा जाने लगा ।
फिर उसके उपरांत भी जब पोथी को धर्म का मूल बता के बात नहीं बनती दिखी ( क्यों की यदि कोई वेद् पढ़ ले तो वह समझ सकता था की जिस वेदों वह धर्म का मूल बता रहें उसमें वास्तव में क्या लिखा है ) अत: पोल खुलने का भय सदैव बना रहता । तो, आगे यह कह दिया गया की ” स्मृतिशीले च तदविदाम , आचारश्चैव साधुनामात्मतुष्टिरेव”
अर्थात- धर्म का मूल वेद् हैं पर जी उसके जानकर हैं उसे जैसा याद हो या वह जैसा व्यव्हार करता हो वही धर्म है। है ने खेदजनक बात ,यदि वेदों का जानकार , बरलात्कारि,मुफ्तखोर, धूर्त, अपराधी भी हो तो उसका आचरण ही धर्म है । क्या ऐसे तथाकथित ‘ धर्म ‘ से मनुष्य उन्नति कर सकता है? क्या मानव मानव में समानता हो सकती है? क्या ऐसे धर्म से समाज का आचरण नैतिक और शुद्ध हो सकता है? शायद नहीं ….
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