वैदिक विचारधारा में देह अर्थात शरीर को मलीन अथवा दूषित घोषित किया गया है ,इसी लिए आत्मा को अलग सत्ता माना गया है जो पवित्र होती है और शरीर के किसी कार्य में लिप्त नहीं मानी जाती।
दरसल शरीर की यही 'दुषिता' और ' आत्मा' की पवित्रता की धारणा शारीरिक श्रम में लगे लोगो के तिरस्कार और शोषण की जनक थी।
आत्मवाद के तहत जीवन जगत के कार्यो और अनुभवों को मिथ्या बताते हुए उत्पादन कर्म की जम के अवमानना की गई और श्रमशील लोगो के प्रतिरोध के सभी सम्भवनाओं पर प्रतिबंध लगा दिया गया था ।
वैदिक धर्म का एक मुख्य स्तम्भ पुनर्जन्म है ,कर्म फल के अनुसार आत्मा नए शरीर धारण करती है।
गीता का आधार ही आत्मा और कर्म फल है, वर्णविधान के अनुसार कर्म करते जाइये तभी आत्मा को मुक्ति मिलेगी ।आत्मा देह से छुटकारा और पाप पुण्य के कर्मफल से मुक्त हो अंत में ब्रह्म में लीन हो जाती है।
आत्मवाद एक ऐसा मिथ था जिसके आधार पर भारत का एक तथाकथित उच्च वर्ण शूद्रों अछुतो पर घोर अत्याचार और अमानवीय उत्पीड़न को न्याय संगत सिद्ध करता आ रहा है।
उसका देह का तिरस्कार दरसल श्रम का तिरस्कार था , आप समझ सकते हैं कि एक श्रमिक की सबसे बड़ी पूंजी उसका शरीर ही होता है ।शरीर ही उसका अस्तित्व है जिसे शोषक विचारधारा नकार रही है ।
जंहा ब्राह्मणिक विचारधारा आत्मा सँभालने की बात करते हैं वंही कबीर तन सँभालने की बात करते हैं।
वे कहते हैं-
सनकादिक नारद मुनि सेखा ।
तीन भी तन महि मन नहीं पेखा।।
कबीर किसी आत्मा की बात नहीं करते बल्कि देह और चेतना की बात ही स्वीकार करते हैं।
वे कहते हैं कि देह का छूटना चेतना के छूटने से भिन्न नहीं है, चेतना तभी तक है जब तक देह है ।देह से अलग कोई चेतना नहीं है ।
कुछ लोग चेतना को भौतिक ऊर्जा के होने का तर्क देते हैं,इसे आत्मा के रूप में भी लेते है और कहते हैं कि जैसे ऊर्जा नष्ट नहीं होती वैसे चेतना या आत्मा भी नष्ट नहीं होती।
किन्तु यदि उन्होंने पढ़ा होता तो यह पता होता की चेतना भौतिक ऊर्जा नही है ।चेतना शरीर के साथ ही नष्ट हो जाती है जबकि ऊर्जा केवल रूपांतरित होती है।
बुद्ध कहते हैं- यह शरीर नित्य आत्मा नहीं है क्यों की यह नाशवान है और न ही भावना ,प्रत्यक्ष , मनोवृति और बुद्धि सब मिलकर आत्मा का निर्माण कर सकते हैं क्यों की यदि ऐसा होता तो यह भी कभी संभव न होता की चेतना भी उसी तरह नाश की ओर अग्रसर होती है ..... " (अनत्तलक्खण सुत्त,महावग्ग)
इसके अलावा बुद्ध पुनः कहते हैं- यह सत्य है कि आदमी के जन्म के साथ चेतना (विज्ञान) की उत्पत्ति होती है और मरण के साथ चेतना का विनाश -( बुद्ध और उनका धम्म ,खंड 3 भाग 4)
ऐसा नही है कि चेतना (या जो इसे आत्मा कहता हो)को शरीर के साथ नष्ट होने बात केवल अवैदिको ( अब्राह्मणिक) ने ही कही है , याज्ञवल्क्य ने भी इसी बात का संकेत दिया है ।
याज्ञवल्क्य मैत्रेयी को बताते हैं की "तत्वों से उपज कर मनुष्य फिर इन्ही में विलुप्त हो जाता है ,मृत्यु के पश्चात कोई चेतना नहीं रहती "( वृहदारण्यक उपनिषद, 2/4/12)
तो,मित्रो अब आप और स्पष्ट समझ गए होंगे की किस प्रकार आत्मा-परमात्मा और अब चेतना को लेके नई नई धूर्तताएँ पूर्व में गढ़ी और अब भी गढ़ी जा रही हैं ।
दरसल इसके पीछे जो सिद्धान्त काम करता है वह है श्रम को तिरस्कृत करना और श्रमशील को कल्पनाओं में उलझाये रखना।
तो!आप कब मुक्त हो रहे हैं इन से?
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