वाल्मीकि रामायण में जब हमुमान लंका में सीता जी की खोज करते हुए जाते हैं तो वो लंका का वैभव देख आश्चर्य करते हुए कहते हैं -
स्वर्गोस्य देवलोकाsयमिन्द्रस्येयं पूरी भवते ( वाल्मीकि रामायण, सुंदर कांड ,सर्ग -9 श्लोक 31)
हमुमान लंका को स्वर्ग के समान कहते ,इंद्रलोक के जैसा वैभवशाली कह आश्चर्यचकित हो उठते हैं।
अब जानिए की लंका इंद्रलोक या स्वर्ग की तरह वैभवशाली क्यों थी। वाल्मीकि रामायण फिर कहती है -
' भूमिगृहांशचैत्यगृहान उत्पतन निपतंश्चापि'( सुंदर कांड , सर्ग 12, श्लोक 15
अर्थात हनुमान भूमिगृहों और चैत्यों पर उछलते कूदते हुए जाते हैं ।
चैत्य शब्द वाल्मीकि रामायण में बहुत बार आया है , अयोध्याकाण्ड में ही कम से कम तीन बार आ गया है।
अब जानिए चैत्य शब्द का अर्थ-
चैत्य- बुद्ध मंदिर ( संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ पेज 440)
चैत्य- चैत्यमायतने बुद्ध बिम्बे( मेडिनिकोष)
अर्थात चैत्य ,बौद्ध मंदिर को कहते हैं।
कहने का अर्थ हुआ की लंका निश्चय ही बौद्ध नगरी रही होगी जंहा बौद्ध चैत्य बहुतायत थे ।
इसके अलावा , अयोध्या कांड सर्ग 109 के 34 वें श्लोक में कहा गया है-
'यथा हि चोरः स तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि।
तस्माद्धि यः शक्यतमः प्रजानां स नास्तिके नाभिमुखो बुधः स्यात् '
जिसका अर्थ गीता प्रेस की वाल्मीकि रामायण में इस प्रकार दिया है- जिस प्रकार चोर दंडनीय होता है उसी प्रकार वेदविरोधी बुद्ध( बौद्ध मतावलंबी ) भी।
इसके अलावा 15 वीं शताब्दी के गोविंराजकृत व्याख्या में इस श्लोक में आये शब्द 'तथागत ' की व्याख्या करते हुए कहते हैं ' तथागत बुद्धतुल्यम'
अर्थात तथागत का अर्थ बुद्ध जैसा ।
सुरेंद्र कुमार शर्मा (अज्ञात) पुरातत्व वैज्ञानिक ई.बी. कॉडवेल का हवाला देके बताते हैं कि सुंदर कांड ,सर्ग 9 से 13 तक में रावण के अंतःपुर के रात्रिकालीन दृश्य का चित्रण है ,जो अश्वघोष रचित ' बुद्धचरितम( 5/57-61) के गोतम के अंत पुर के दृश्य का अनुकरण है जो की बुद्ध आख्यान का आवश्यक अंग है जबकि वाल्मीकि रामायण का अनावश्यक ।
रामायण में छेद वाली कुल्हाड़ी का जिक्र है, प्रसिद्ध पुरातत्व वैज्ञानिक डाक्टर हँसमुख धीरजलाल सांकलिया ने निष्कर्ष निकाला है कि ईसा पूर्व 300 से 500 से पहले भारत में छेद वाली कुल्हाड़ी का प्रयोग नहीं होता था।
तो, क्या हम यह कह सकते हैं कि रावण दरसल बौद्ध अनुयायी था ? और रामायण की रचना बुद्ध के बहुत बाद की है? शायद पहली ईसा से कुछ पहले या बाद की ?
स्वर्गोस्य देवलोकाsयमिन्द्रस्येयं पूरी भवते ( वाल्मीकि रामायण, सुंदर कांड ,सर्ग -9 श्लोक 31)
हमुमान लंका को स्वर्ग के समान कहते ,इंद्रलोक के जैसा वैभवशाली कह आश्चर्यचकित हो उठते हैं।
अब जानिए की लंका इंद्रलोक या स्वर्ग की तरह वैभवशाली क्यों थी। वाल्मीकि रामायण फिर कहती है -
' भूमिगृहांशचैत्यगृहान उत्पतन निपतंश्चापि'( सुंदर कांड , सर्ग 12, श्लोक 15
अर्थात हनुमान भूमिगृहों और चैत्यों पर उछलते कूदते हुए जाते हैं ।
चैत्य शब्द वाल्मीकि रामायण में बहुत बार आया है , अयोध्याकाण्ड में ही कम से कम तीन बार आ गया है।
अब जानिए चैत्य शब्द का अर्थ-
चैत्य- बुद्ध मंदिर ( संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ पेज 440)
चैत्य- चैत्यमायतने बुद्ध बिम्बे( मेडिनिकोष)
अर्थात चैत्य ,बौद्ध मंदिर को कहते हैं।
कहने का अर्थ हुआ की लंका निश्चय ही बौद्ध नगरी रही होगी जंहा बौद्ध चैत्य बहुतायत थे ।
इसके अलावा , अयोध्या कांड सर्ग 109 के 34 वें श्लोक में कहा गया है-
'यथा हि चोरः स तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि।
तस्माद्धि यः शक्यतमः प्रजानां स नास्तिके नाभिमुखो बुधः स्यात् '
जिसका अर्थ गीता प्रेस की वाल्मीकि रामायण में इस प्रकार दिया है- जिस प्रकार चोर दंडनीय होता है उसी प्रकार वेदविरोधी बुद्ध( बौद्ध मतावलंबी ) भी।
इसके अलावा 15 वीं शताब्दी के गोविंराजकृत व्याख्या में इस श्लोक में आये शब्द 'तथागत ' की व्याख्या करते हुए कहते हैं ' तथागत बुद्धतुल्यम'
अर्थात तथागत का अर्थ बुद्ध जैसा ।
सुरेंद्र कुमार शर्मा (अज्ञात) पुरातत्व वैज्ञानिक ई.बी. कॉडवेल का हवाला देके बताते हैं कि सुंदर कांड ,सर्ग 9 से 13 तक में रावण के अंतःपुर के रात्रिकालीन दृश्य का चित्रण है ,जो अश्वघोष रचित ' बुद्धचरितम( 5/57-61) के गोतम के अंत पुर के दृश्य का अनुकरण है जो की बुद्ध आख्यान का आवश्यक अंग है जबकि वाल्मीकि रामायण का अनावश्यक ।
रामायण में छेद वाली कुल्हाड़ी का जिक्र है, प्रसिद्ध पुरातत्व वैज्ञानिक डाक्टर हँसमुख धीरजलाल सांकलिया ने निष्कर्ष निकाला है कि ईसा पूर्व 300 से 500 से पहले भारत में छेद वाली कुल्हाड़ी का प्रयोग नहीं होता था।
तो, क्या हम यह कह सकते हैं कि रावण दरसल बौद्ध अनुयायी था ? और रामायण की रचना बुद्ध के बहुत बाद की है? शायद पहली ईसा से कुछ पहले या बाद की ?