Saturday, 27 May 2017

क्या रामायण बुद्ध के बाद की रचना है?

  वाल्मीकि रामायण में जब हमुमान लंका में सीता जी की खोज करते हुए जाते हैं तो वो लंका का वैभव देख आश्चर्य करते हुए कहते हैं -

 स्वर्गोस्य देवलोकाsयमिन्द्रस्येयं पूरी भवते ( वाल्मीकि रामायण, सुंदर कांड ,सर्ग -9 श्लोक 31)

हमुमान लंका को स्वर्ग के समान कहते ,इंद्रलोक के जैसा वैभवशाली कह आश्चर्यचकित हो उठते हैं।
अब जानिए की लंका इंद्रलोक या स्वर्ग की तरह वैभवशाली क्यों थी। वाल्मीकि रामायण फिर कहती है -
' भूमिगृहांशचैत्यगृहान उत्पतन निपतंश्चापि'( सुंदर कांड , सर्ग 12, श्लोक 15
अर्थात हनुमान भूमिगृहों और चैत्यों पर उछलते कूदते हुए जाते हैं ।

चैत्य शब्द वाल्मीकि रामायण में बहुत बार आया है , अयोध्याकाण्ड में ही कम से कम तीन बार आ गया है।

अब जानिए चैत्य शब्द का अर्थ-
चैत्य- बुद्ध मंदिर ( संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ पेज 440)
चैत्य- चैत्यमायतने बुद्ध बिम्बे( मेडिनिकोष)
अर्थात चैत्य ,बौद्ध मंदिर को कहते हैं।

कहने का अर्थ हुआ की लंका निश्चय ही बौद्ध नगरी रही होगी जंहा बौद्ध चैत्य बहुतायत थे ।

इसके अलावा , अयोध्या कांड सर्ग 109 के 34 वें श्लोक में कहा गया है-


'यथा हि चोरः स तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि।
तस्माद्धि यः शक्यतमः प्रजानां स नास्तिके नाभिमुखो बुधः स्यात् '

जिसका अर्थ गीता प्रेस की वाल्मीकि रामायण में इस प्रकार दिया है- जिस प्रकार चोर दंडनीय होता है उसी प्रकार वेदविरोधी बुद्ध( बौद्ध मतावलंबी ) भी।

इसके अलावा 15 वीं शताब्दी के गोविंराजकृत व्याख्या में इस श्लोक में आये शब्द 'तथागत ' की व्याख्या करते हुए कहते हैं ' तथागत बुद्धतुल्यम'
अर्थात तथागत का अर्थ बुद्ध जैसा ।

सुरेंद्र कुमार शर्मा (अज्ञात) पुरातत्व वैज्ञानिक ई.बी. कॉडवेल का हवाला देके बताते हैं कि सुंदर कांड ,सर्ग 9 से 13 तक में रावण के अंतःपुर के रात्रिकालीन दृश्य का चित्रण है ,जो अश्वघोष रचित ' बुद्धचरितम( 5/57-61) के गोतम के अंत पुर के दृश्य का अनुकरण है जो की बुद्ध आख्यान का आवश्यक अंग है जबकि वाल्मीकि रामायण का अनावश्यक ।

रामायण में छेद वाली कुल्हाड़ी का जिक्र है, प्रसिद्ध पुरातत्व वैज्ञानिक डाक्टर हँसमुख धीरजलाल सांकलिया ने निष्कर्ष निकाला है कि ईसा पूर्व 300 से 500 से पहले भारत में छेद वाली कुल्हाड़ी का प्रयोग नहीं होता था।

तो, क्या हम यह कह सकते हैं कि रावण दरसल बौद्ध अनुयायी था ? और रामायण की रचना बुद्ध के बहुत बाद की है? शायद पहली ईसा से कुछ पहले या बाद की ?



Tuesday, 23 May 2017

जानिए क्या बुद्ध ही कृष्ण थे?

  अच्छा! क्या आपको लगता है कि चक्र एक अच्छा हथियार हो सकता है? फिर कृष्ण ने ऐसा हथियार क्यों चुना जो अच्छा नहीं था ? कंही चक्र  को जानबूझ के है 'हथियार ' तो नहीं बनाया गया है ?
यदि चक्र को हथियार के रूप में हम देखते हैं तो किंदवंतियो और कथाओं में कृष्ण ही एक अकेले  ऐसा पात्र लगते हैं जो चक्र का इस्तेमाल करते हैं  । कृष्ण के चक्र का नाम सुदर्शन था जिसका अर्थ होता है 'दिखने में अच्छा' या ' जिसको देख के अच्छा लगे' , क्या हथियार को देख के किसी को अच्छा लग सकता है ? हरगिज नहीं! हथियार तो संहारक होता है ,मृत्यु लाता है , भय लाता है । फिर कैसे वह 'सुदर्शन' हो सकता है?

इतिहास में बुद्ध  के साथ भी चक्र जुड़ा हुआ है , बुद्ध ने धम्म चक्र ( धम्म चक्क -पवत्तन) चलाया था जिसके द्वारा आधी दुनिया में बौद्ध धम्म फैला दिया । उनके धम्म  चक्र के दर्शन इतने सु-दर्शन थे की लोग अनायास ही खिंचे चले आते थे ।

कंही बुद्ध का ही धम्म चक्क ही तो कृष्ण का सुदर्शन चक्र तो नहीं था?

कृष्ण के भाई बलराम जिसे शेषनाग का अवतार समझा जाता है वह द्योतक है कि कृष्ण का नागों से घनिष्ठ सबंध था।


बुद्ध का भी आदिवासी नाग जाति से घनिष्ठ उन्होंने नागों को अपने धर्म में दीक्षित किया । मुचलिन्द नाम के नाग जाति के व्यक्ति ने उनकी प्रकृतिक के प्रोकोप से उनकी रक्षा की थी। नालन्दा और संकस्या जैसे प्रमुख बौद्ध विहारों में नागों के प्रति विशेष श्रद्धा रखी जाति थी और इनका उत्थान नाग पूजा स्थलों से हुआ था।


कंही बुद्ध के प्रिय नागजाति के मुचलिन्द ही तो बलराम नहीं थे?


कृष्ण के जीवन के अंतिम समय उनके अपने सगे संबंधियों यानि  यदुवंश का नाश हो जाता है ,कौरव सहित सभी सगे सम्बन्धिय युद्ध में मारे जाते हैं । कृष्ण बिलकुल अकेले किसी अज्ञात जगह पर अपनी जीवन लीला समाप्त करते हैं।

बुद्ध की मृत्यु भी एक गुमनाम देहात में हुई ,परिचारिका के लिए केवल एक भिक्षु उनके साथ था ।उस समय तक युद्ध में उनके सगे संबंधियों यानि  शाक्य काबिले का नाश हो चुका था । उनके दोनों सरंक्षक राजाओं की दयनीय स्थति में मृत्यु हो चुकी होती है। जैसे कृष्ण के हितैषी कौरव और पांडवो की  ।

कंही बुद्ध को ही कृष्ण का चोंगा तो नही पहना दिया गया ?

क्या कहते हैं आप सब?

अगले लेख में कुछ और रोचक तथ्यों के साथ ...

Saturday, 20 May 2017

जानिए कौन थी ऑस्ट्रिक जातियां-


 प्राचीन सभ्यताओं में एक अति प्राचीन सभ्यता रही थी आग्नये सभ्यता( ऑस्ट्रिक, नाग, द्रविण , कोल , किरात आदि )  यह सभ्यता आर्यो के आने से पहले भारत में व्यापक रूप से मौजूद थी । हिन्दू सभ्यता में मौजूद बहुत सी प्रथाएं आग्नये संस्कृति की ही देन है , जैसा की उदहारण के लिए चंद्रमा को देख तिथि गिनने की कला आग्नये संस्कृति की ही देन है । अमावस्या के लिए ' कुहू' और पूर्णिमा के 'राका' शब्द आग्नये शब्द भंडार से ही लिए गए हैं। कई इतिहासकारों का मत है की चावल की खेती भी उन्ही की देन है और चावल को देख के  पुनर्जन्म की परिकल्पना भी आग्नये संस्कृति की देन है जिसे बाद में आर्यो ने अपनाया और विकसित किया गया  । रामधारी सिंह दिनकर , सुनीति बाबू जैसे इतिहासकारों का यंहा तक कहना है कि गंगा शब्द आग्नये शब्द भंडार से ही आया है । आग्नये परिवार की अनेक भाषाएं भारत से लेके दक्षिणी चीन तक बिखरी हुई हैं , उनमे से कई नदी को गंग ही कहते हैं ।उत्तरी भारत के कई ग्रामीण तो नदी का पर्याय ही गंगा समझते है , आग्नेय भाषाओं में नदी के लिए ' कग, घंघ ' जैसे शब्द है।


इतिहासकार कहते हैं कि भारत में हाथी पालना, पक्षी पालना का आरंभ आग्नये जातियो ने ही किया था , भारत का निम्न कहा जाने वाला विशाल समुदाय आग्नये समुदाय से ही आया है ।
हिन्दू पुराणों में जो कथा किंदवंतियो का भंडार है वह आग्नये सभ्यता से ही आया है ।
आर्यो, द्रविड़ो , कोल , किरात वंश जब आपस में मिले होंगे तो एक दूसरे की लोक कथाएं भी एक दूसरे के घरों में प्रवेश करने लगी होंगी।

दिनकर जी तो आगे बढ़ के यंहा तक कहते हैं कि राम कथा की रचना के लिए आग्नये जाति के बीच प्रचलित लोक कथाओं का सहारा लिया गया है ।पाम्पा पुर के वानरों और लंका के राक्षसों की जो विचित्र कल्पनाये मिलती है उनका आधार आग्नये लोगो की लोक कथाएं ही रही होंगी।

लोक कथाएं और किद्वंतिया पहले ग्रामीण लोगो में  फैलती है उसके बाद साहित्य में सम्लित होती है।
बौद्ध जातकों की जो कथाएं हैं वे लोक कथाओं से ऊपर उठ के बौद्ध साहित्य तक पहुंची और उसके बाद पुराणों ने उनकी नकल की ,इसी कारण पुराणों और बौद्ध जातक कथाओं में कई समानता मिलती है ।

इतिहासकारो के अनुसार देवर - देवरानी, जेठ जेठानी की प्रथा आग्नये सभ्यता की देन है । सिंदूर प्रयोग और अनुष्ठानों में  नारियल पान रखने की प्रथा भी आग्नये सभ्यता की देन है । सिंदूर रजस्वला
का प्रतीक होता था जो की कृषि अनुष्ठानों में प्रजन का द्योतक था । सिंदूर के बारे में सुरेंद्र मोहन भट्टाचार्य अपने ' पुरोहित दर्पण' में साफ़ कहते हैं कि सिंदूर प्रथा आर्यो की प्रथा नहीं थी बल्कि आर्यो ने आर्येतर जाति से ग्रहण किया है। सिंदूर का न कोई वैदिक नाम है और न सिंदूर दान का कोई मन्त्र । सिंदूर मूलतः नाग लोगो की वस्तु है।

अवतारों में मत्स्य, वरहा, कच्छ की कल्पनाये आर्यो ने आग्नये जातियो से आई हो इसमें कोई बड़ी बात नहीं क्यों की आर्यो ने इन्हें अपना तो लिया था किंतु इनका महत्व उनके लिए विशेष नहीं रहा ।
एक बात और ध्यान दीजिए की ब्राह्मणों का सारा कठोरतम पहरा वेदों पर ही रहा ,उसने शूद्र और  स्त्रियों को वेदों से दूर रखा जबकि पुराणों पर ऐसी कठोरता नहीं बैठाई।
निश्चय पुराणों की कहानियों में ऐसे मिश्रण थे जो अर्योत्तर जातिओं से आये थे इसलिए ब्रहामण उन्हें अपना नही मानता था ।



Sunday, 14 May 2017

नगरीय सभ्यता और ग्रामीण सभ्यता-

 बौद्ध धर्म का मजबूत स्तंभ उसका ' संघ' था , यह संघ व्यापारियों और शिल्पियों का संघ था जिसमे कई श्रेणियां होती थी और उस श्रेणी के प्रमुख को सेट्ठ कहते थे ।यह श्रेणियां मुख्यतः व्यापार पर आधारित होती थी जिनकीं  संघ में मजबूत भागीदारी होती थी।

यदि हम यह कहें कि बौद्ध धर्म को फलने- फूलने में जो कारक थे वे यही श्रेणियां थी तो गलत न होगा , इन्ही के अनुदान पर मठ और विहार का भरण पोषण होता था । चुकी श्रेणियां व्यापर पर निर्भर थी और व्यापार नगरीय सभ्यता पर ।

व्यापर का संचालन सुचारू रूप से नगरों में ही चल सकता है। हम देख सकते हैं कि सिन्दू सभ्यता भी नगरीय सभ्यता थी, वँहा व्यपार ही और शिल्प ही मुख्य उद्योग था ।  सिन्धु सभ्यता का व्यपारिक रिश्ते बेबीलोन , सीरिया  आदि प्राचीन नगरीय सभ्यताओं
से थे , सिन्धु घाटी उत्खनन से कई सील मोहरे मिली हैं जो व्यापर के लिए उपयोग होती थीं।

वैदिक संहिताओं में ' ग्राम' शब्द कई बार आया है किंतु 'नगर' शब्द का प्रयोग नहीं मिलता। विद्वानों के अनुसार वैदिक संहितो और  धर्म सूत्रों में वैदिक सभ्यता ग्राम सभ्यता है। पुराणों में जरूर नगरों का जिक्र है किंतु नगरों के निर्माता आर्य नहीं बल्कि मय वंशीय हैं जिन्हें अवैदिक अर्थात दानव/असुर कहा गया है।

यह निश्चित है कि आर्यो के ग्राम सभ्यता के कारण ही जाति प्रथा इतनी मजबूत हो गई , अपने पूर्वजो का धंधा छोड़ के दूसरा धंधा चुन लेना जितना आसान नगरीय सभ्यता में आसान होता है उतना ग्राम सभ्यता में नहीं। यह  सिद्धान्त आप आज भी देख सकते हैं कि शहरो में जातीय बंधन कमजोर होता है जबकि गाँवों में यह कठोरता से लागू हो जाता है ।आर्य व्यवस्था ग्रामीण व्यवथा थी इसलिए यह इतनी मजबूत और टिकाऊ हो सकी।

आर्य के प्रमुख देवता इंद्र का एक नाम पुरिन्द्र भी है जिसका अर्थ होता है नगरों ( घनी आबादी वाले शहर/ दुर्ग को नष्ट करने वाला । ऋग्वेद में बाकायदा  इंद्र अनार्य राजा शंबर के नगरों को नष्ट करता हुआ भी बताया गया है।

नगर के व्यापारियों को 'पणि' कहा गया है ऋग्वेद में , पणियों को लालची और धनी बताया गया है जो इंद्र के सामने नहीं टिकते थे । पणियों / शिल्पियों/ कारीगरों  की नगरों से ही संचालित होता था । गौर तलब है कि आर्य सभ्यता में शिल्पी/ कारीगर भी शूद्र श्रेणी में घोषित किये गए थे, जबकि बौद्ध संघ के श्रेणी में इनका मजबूत संघ होता था ।

शिल्प, कला- कौशल, कारीगरी तथा उद्योग नगरीय सभ्यता के लक्षण है ,बिना नगरीय सभ्यता के इनका विकास नही हो सकता । सिंधु सभ्यता के विध्वंश और और फिर बौद्ध सभ्यता के नष्ट किये जाने के बाद भारत वर्ष में नगर संस्कृति को प्रधानता किसी भी समय नही मिली । आर्य संस्कृति का ग्राम या देहात आधारित अर्थशास्त्र का निरन्तर बने रहना जातीय भेद की कठोरता में अधिक से अधिक सहायक हुआ ।

फ़ोटो सिंधु सभ्यता में व्यापार के लिए प्रयोग होने वाली सील-

Saturday, 13 May 2017

समझदार - कहानी

बाहर से किसी के दरवाज़े के खटखटाने की आवाज़ आई तो सुमित झट से पढ़ना छोड़ चारपाई से उतरा और जोर से आवाज़ लगाई -
"आ रहा हूँ मम्मी.....'

बाहर सुधा थी, सुमित की मां।

सुमित ने दरवाजा खोला तो सच में सुधा ही थी , सुधा ने मुस्कुरा के पूछा -
" क्या कर रहे थे? '
" होमवर्क कर रहा था .... " सुमित ने पहले सुधा की तरफ देखा और फिर सुधा के हाथ में थमी हुई पन्नी को गौर से देखा , एक क्षण के लिए उसकी आँखों में चमक आ गई और दूसरे ही क्षण गायब हो निराशा में बदल गई।

सुधा ने उसके चेहरे की उदासी पढ़ ली थी , वह तुरंत अपने हाथ में पकड़ी हुई पन्नी को आगे करते हुए बोली-
" इमरती लाइ हूँ तेरे लिए .... तुझे बहुत पसंद है न!" सुधा ने  प्लास्टिक की थैली पकड़ाते हुए कहा ,किन्तु न जाने क्यों  सुमित की आँखों से आँखे नहीं मिलाई । सुधा ने अपना हैंडबैग खूंटी पर टांगा और तौलिया ले सीधा बाथरूम में चली गई।

सुमित ने इमरती की थैली खोल के देखी तक नही ,थैली को अलमारी में पटक वह गुस्से फिर चारपाई पर जा के किताब खोल के पलटने लगा ।

सुधा बाथरूम के झरोखे से उचक के सुमित की सारी हरकत देख रही थी। एक दर्द भरी बेबसी की आह उसके मुंह से बरबस ही निकल गई, दो आंसू की बूंदे आँखों से लुढ़क के बालों से झरते पानी में मिल के अस्तित्वविहीन हो गए थे।

बाथरूम से निकल के सुधा खाना बनाने लगी , सुमित अब भी चारपाई पर  बैठा किताब में नजरें गड़ाया था किंतु सुधा को पता था कि सुमित पढ़ नहीं रहा है बल्कि गुस्से और उदासी में कंही गुम था।

खाना बनाने के बाद सुधा ने सुमित को खाना परोसा, पर सुमित अब भी खामोश और उदास था । अनमने ढंग से उसने एक रोटी खाई और उठ गया , जब सुधा ने इसका कारण पूछा तो उसने कहा कि उसे ज्यादा भूंख नही है और सुधा के आने से पहले ही उसने मैगी बना के खा ली थी।

पर सुधा जानती थी की सुमित झूठ बोल रहा था ।
सुधा ने भी अनमने ढंग से एक-आध रोटी खाई और बाकी खाना उठा के रख दिया।

थोड़ी देर में सुधा और सुमित अपने अपने बिस्तर पर थे , बहुत देर तक सुधा सोने की कोशिश करती रही पर नींद उसकी आँखों से जैसे कोसो दूर हो। उसकी आँखों में दर्द के साथ उसकी पुरानी यादें ऐसे घूमने लगी जैसे कोई फिल्म की रील चला दे।

तीन  साल पहले तक सुमित के पिता रतनलाल  एक सिलाई कारीगर थे और एक फैक्ट्री में काम करते थे । सब कुछ अच्छा चल रहा था कि अचानक पता चला की रतनलाल को टीबी की बीमारी है । खांसते- खांसते मुंह से खून तक आ जाता था , बीमारी का इलाज करवाते करवाते घर का सब कुछ बिक गया यंहा तक की सुधा के तन के जेवर तक ।
फैक्ट्री से एडवांस कर्ज भी लिया किन्तु कोई फायदा न हुआ अतः एक दिन रतनलाल सुधा और सुमित को छोड़ के चल बसे।

सुमित उस समय पांचवी कक्षा में था ।घर का खर्चा , सुमित की पढाई और फैक्ट्री से एडवांस लिए कर्जे को चुकाने के लिए सुधा ने फैक्ट्री में काम करना शुरू कर दिया । चूंकि सुधा कारीगर नहीं थी अतः  कम वेतन में धागा काटने का काम मिला।
लगभग आधा वेतन एडवांस लिए रुपयों की भरपाई में कट जाता और जो बचाता उससे घर का खर्च और सुमित की पढाई बड़ी मुश्किल से हो पाती।

" सुमित! नींद नहीं आ रही है क्या?" सुधा ने करवट बदलते सुमित से पूछा ।
" हूँ! आ रही है ..... " सुमित ने धीरे से जबाब दिया।
" बहुत जरुरी है क्या सुमित तेरे लिए क्या वह फोन? " सुधा ने लेटे लेटे फिर पूछा।
"मेरे सारे दोस्तों के पास है , वो लोग इंटरनेट भी चलाते हैं जिसमे पढाई की सभी चीजे मिल जाती है ।गेम भी खेलते हैं ....." पहले तेजी से कह और फिर माध्यम स्वर में अपनी बात पूरी की सुमित ने ।

" हूँ.... "सुधा ने आँख बंद किये हुए कहा ।

" हूँ क्या? आप पिछले चार महीने से कह रही हैं कि दिला दूंगी पर रोज टाल देती हैं।..... वह संतोष है न ! अब तो उसके पास भी बड़ा सा फोन आ गया है । फोन में कोर्स से जुडी तरह तरह चीज़ो को देखता है । टीचर ने जो प्रोजेक्ट दिया था वह भी उसने इंटरनेट से देख के मुझ से पहले पूरा कर लिया है.....अब मैं कोई छोटी क्लास में नही हूँ .... आठवी में आ गया हूँ .... अब मुझे इंटरनेट वाले फोन की जरूरत है ,पर आप हैं कि समझती नहीं" सुमित ने जैसे अपने दिल का गुबार निकाल दिया हो।

"हूँह.... " सुधा ने फिर गहरी सांस लेते हुए कहा ।
"फिर वही हुँह...... आप इसके अलावा कुछ नहीं कह सकती.....पापा होते न तो मैं आपसे कहता भी नहीं , वो मुझे कब का दिला चुके होते" -सुमित ने झल्लाते हुए कहा और चादर से मुंह ढक के सो गया।

सुधा ने कुछ नहीं कहा बस छत की तरफ एक टक देखती रही। यंहा तो घर का खर्च और पढाई का खर्च ही नहीं पूरा हो पा रहा था उस पर 8-10 हजार का फोन कैसे लेके दे सुमित को ? एडवांस भी देना बंद कर दिया था फैक्ट्री मालिक ने , कोई जानकार भी नहीं था उसका जो इतनी रकम उसे उधार देता। बेबसी के कारण उसकी आँखों से आंसुओ की धार बह रही थी जो नीचे बिछी चादर को ऐसे गीला कर रही थी जैसे गिलास भर पानी उड़ेल दिया हो।

सुबह सुधा उठी और सुमित के लिए नाश्ता बना के स्कूल भेज दिया उसके बाद खुद भी फैक्ट्री के लिए निकल गई।


शाम को सुधा आई तो उसके हाथ में नए फोन का एक पैकेट था , जैसे ही सुमित ने फोन का पैकेट देखा तो मारे ख़ुशी के उसके मुंह से चीख निकल गई और वह सुधा से लिपट गया । सुधा हलके से मुस्कुरा दी ।
सुमित ने पैकेट खोल के देखा तो उसमें नया फोन था ठीक वैसा ही जैसा उसके दोस्त के पास था ।

सुमित के ख़ुशी का ठिकाना न था।

दो दिन बाद।

"सुमित! तू फोन क्यों नहीं चला रहा है? फोन कँहा है तेरा?" सुधा ने सुमित से पूछा।
" फोन तकिये के नीचे रखा हुआ है" सुमित ने लापरवाही से कहा।

सुधा ने फोन देखने के लिए तकिया उठा के देखा तो उसके मुंह से आश्चर्य से चीख निकल गई।
तकिये के नीचे फोन नहीं उसका मंगलसूत्र रखा हुआ था । वह मंगल सूत्र जो उसने सुमित के फोन खरीदने के लिए बेंच दिया था ।

सुमित ने पास आके कहा " मम्मी ! तुमने मेरे  फोन के लिए इसे बेंच दिया था न! यह आपके लिए कितना कीमती है यह मैं जानता हूँ.... पापा की यह आखरी निशानी है न! आपने इसे कितने दुःखो के बाद भी नहीं बेचा था ......मुझे आज सब पता चल गया इसलिए मैंने फोन वापस कर दिया और आपका मंगलसूत्र फिर उसी दुकान से खरीद लाया जंहा आप इसे बेच के आई थी....मैं इतना भी जिद्दी नहीं हूँ । मैं बिना फोन के पढ़ सकता हूँ , मुझे नहीं चाहिए इंटरनेट - सिंटरनेट ...." इतना कह सुमित सुधा से लिपट गया और रोने लगा।

इस बार सुधा की आँखों में ख़ुशी के आंसू थे , सुमित अब वाकई समझदार हो गया था ।

बस यंही तक थी कहानी....


Wednesday, 10 May 2017

और बुद्ध का घर छोड़ना.....


बुद्ध के बारे में यह भ्रंति फैली हुई है की बुद्ध शव को देख दुखो से घबरा के अपनी पत्नी और पुत्र को छोड़ के घर से भाग गए थे ? पर ,यह केवल मिथ्या बात है इसमें सच्चाई नहीं ।

बुद्ध का नाम गोतम  (जिसका  अर्थ होता है बेल )था और वे सक्क ( संकृत में शाक्य)  जनजाति से थे ।   गोतम का जन्म भी सक्को के टोटम पांच पेड़ो(साल) के झुरमुट के नीचे हुआ था, ये साल के झुरमुट उनकी मातृदेवी लुम्बनी को समर्पित थें ।शायद इसी कारण उनका नाम गोतम अर्थात बेल (लता) रखा गया था। गोतम का संस्कृत का सिद्धार्थ नाम बहुत बाद में दिया गया है, जब अश्वघोष जैसे  ब्राह्मणो ने बौद्ध धर्म अपना के पालि साहित्यों को संकृत में अनुवाद करना शुरू कर दिया था ।


 गोतम के  पिता सक्क ( सक्क का अर्थ है साग- सब्जी सम्बन्धी)  गणराज्य के पूर्व अध्यक्ष भी रह चुके थे , खेती करते थे ,हल चलाते थें( देखें डी डी कोसंबी की पुस्तक प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता )।


। शाक्य  गणराज में शाक्यों का अपना एक संघ था और राज्य के सभी फैंसले यह संघ ही करता था । संघ का नियम था की गण राज्य के प्रत्येक युवक को 20 साल का होने पर संघ का सदस्य बनना पड़ता था  । अत: सिद्धार्थ को भी 20 साल का होने पर सदस्य बनाया गया । सिद्दार्थ 8 साल तक संघ के सक्रीय सदस्य रहें ।
शाक्य गणराज के पूर्व में कौलिय गणराज्य था और रोहिणी नदी दोनों राज्यो की विभाजक रेखा थी , अक्सर नदी के पानी को लेके दोनों राज्यो में झड़प होती रहती थी ।

परन्तु एक बार पानी को लेके शाक्यों और कोलिय किसनो में गंभीर झड़प हुई , बात युद्ध तक अ पहुची । शाक्य सेनापति ने कौलियो के विरुद्ध युद्ध छेड़ने के लिए संघ की अनुमति प्राप्त करने के लिए सभा बुलाई । सभा में युद्ध करने का प्रस्ताव पारित हो गया , अंत में सेनापति ने सभी सदस्यों से एक बार फिर पूछा की युद्ध से किसी को आपत्ति तो नहीं है ?
इस पर गोतम  ने खड़े होके युद्ध पर आपत्ति करते हुए कहा की यह मामला बैठ के भी सुलझाया जा सकता है , युद्ध से युद्ध के बीज बो उठते है और स्थाई हल नहीं निकलता ।

गोतम  ने कहा कीकौलिय हमारे पडोसी है और झगडे का सही कारण पता कर उसका निवारण किया जाए इसके लिए  पांच सदस्यों की एक कमेटी बनाई जाये जो दोनों पक्षो के मसलो को शांति पूर्वक हल करे।
इस तरह गोतम  के विरोध करने पर सभा अगले दिन तक के लिए स्थगित कर दी गई ।
अगले दिन सेनापति ने अनिवार्य सैनिक भर्ती का प्रस्ताव रखा , गोतमने उसका विरोध किया और कहा की न वे अनिवार्य सैनिक बनेंगे और न ही युद्ध में भाग लेंगे ।

इस पर संघ ने गोतम  पर तीन दण्डो का प्रवधान रखा
1- फांसी
2- देश निकाला परिव्राजकके रूप में
3- परिवार के लोगो का सामाजिक बहिस्कार तथा सम्पति जब्त

तब गोतम  ने संघ से प्रार्थना की कि कृपया परिवार का सामजिक बहिस्कार न करें और न ही उनकी सम्पति छीने , अपराधी मैं हूँ इसलिए चाहे मुझे देश निकाला दे दें या फांसी पर चढ़ा दें ।

उनकी इस बात पर संघ में काफी विचार विमर्श हुआ , अत: यह निर्णय लिया गया की गोतम  को  परिव्राजक के रूप में देश निकाला दे दिया जाए ।
घर आके गोतम ने यह बात अपने परिवार वालो को बताइये तो वे बहुत दुखी हुए,पत्नी  कच्चाना ( बाद में संस्कृत में यशोदा/ यशोदरा)साथ आना चाहती थी पर गोतम  ने समझाया की यह संघ की निति के विरुद्ध है और उन्हें अकेले ही देश छोड़ना होगा । अंत में गोतम अपनी पत्नी कच्चना और परिवार वालो को समझाने में सफल हो जाते हैं ।

उसके बाद कपिलवस्तु में उनका प्रब्रज्य संस्कार के बाद गोतम  ने अपनी यात्रा आरम्भ की और अनोमा नदी की ओर चल पड़े( अनोमा नदी जिसे वर्तमान में आमी नदी कहा जाता है वह मेरे गांव से मुश्किल से 15 किलो मीटर की दूरी पर है) ।

और.... वंहा से शुरू हुआ गोतम  के बुद्ध बनने सफर।

अपने पिता की मृत्यु पर बुद्ध कपिलवस्तु वापस लौटे , उसके बाद उनकी माता और पत्नी कच्चना भी बौद्ध संघ में शामिल हुईं और भिक्षुणी बनी। थेरी गाथाओं में लगभग 75 भिक्षुणीयो का उल्लेख है जिसमें कच्चाना और रुक्मिन देइ (संस्कृत में महामाया किया गया) शामिल है ।

Monday, 1 May 2017

अमेरिकी मजदूर दिवस और भारतीय सेवक

वर्णव्यवस्था धर्म में तथाकथित  तीनो उच्च वर्णो की सेवा करने का कर्तव्य सबसे निचले अर्थात शूद्र वर्ण के लिए निर्धारित किया गया है।
किसान, शिल्पी, दासों आदि को शूद्रों की श्रेणी में रखा गया है, व्यास स्मृति में एक लंबी सूची दी हुई है कि कौन से श्रमिक( कामगार) शूद्रों की श्रेणी में आते हैं।

मनुस्मृति कहती है कि शूद्र चाहे खरीदा हो या न खरीदा हो वह तीनो उच्च वर्णो का सेवक है ।

वर्ण व्यवस्था में अपने को सबसे शीर्ष पर बैठाने वाला यह जानता था कि वह नँगा नही घूम सकता कपडा तो पहनना ही होगा। जूता ,चप्पल तो पहनना ही होगा ।खाना खाने के लिए बर्तन की जरूरत तो होगी ही , यज्ञ के लिए घी की जरूरत तो होगी ही। घर भी चाहिए रहने के लिए, घर को साफ़ भी रखना होगा ,कपडे भी धोने ही होंगे ।

किन्तु, वह न तो पहनने के लिए जूते ही बना सकता था ,न कपडे, न बर्तन और न ही यज्ञ के लिए घी । न ही वह घर की सफाई कर सकता था,न मरे हुए पशु ही उठा सकता था न खेत में अन्न ही उगा सकता था ।हल की मुठिया तक पकड़ना उसने अपने लिए पाप घोषित किया हुआ था ।जीवन की  सब कामो के लिए स्वयं घोषित शीर्ष उच्च वर्ण को दूसरों पर निर्भर रहना होता था ,अगर वह जरूरत के लिए हर चीज ख़रीदे तो उसके लिए धन की जरूरत होती । धन बिना परिश्रम के नहीं कमाया जा सकता और परिश्रम को उसने शूद्रता घोषित किया हुआ था ।

तब उसने अपनी सभी जरूरतों के लिए 'दान व्यवस्था' लागू करवाई, दान केवल शीर्ष वर्ण को ही दिया जा सकता था श्रमिको को नही। श्रमिक तो बिना खरीदे गुलाम थे ।

कृष्ण तक कहते हैं कि सभी को अपने वर्णधर्म का पालन करना चाहिए यही उनका( ईश्वर) का बनाया नियम है ,शूद्र का वर्ण धर्म सेवा करना है।

शूद्रों को सेवा के लिए किसी तरह मेहनताना मिले ऐसा धार्मिक व्यवस्था नही थी। शूद्र को सेवा पिछले जन्म के 'पापो'के कारण करनी थी इसलिए उसे अपनी सभी सेवाये जैसे जूते, कपडे, अन्न, सफाई,बर्तन , घी आदि मुफ्त देनी थी । इस सेवा के बदले धर्मसूत्र कहता है कि सेवादारों को सवर्णो के उतरे कपडे , जूठन , टूटे बर्तन आदि ही मिलनी थी ।

सेवक धन रख के कंही सम्पन्न न हो जाए और वह तथाकथित उच्च वर्णो की सेवादारी से मुखर न हो जाए इसलिए मनु महाराज निर्देश देते हैं कि स्त्री के साथ सेवक भी धन नही रख सकते थे।

सब अमानवीय यातनाएं सहने के बाद भी सेवको(शूद्रों) ने कभी अपनी स्थिति के प्रति रोष क्यों नहीं प्रकट किया?क्या कारण रहा की सेवक वर्ग अपने शोषण के प्रति कोई आंदोलन नहीं खड़ा कर पाया ?

निश्चय ही इसका कारण धर्म रहा , धर्म की घुट्टी ऐसी पिला दी गई थी की शूद्र वर्ग सेवा करना  ही अपना कर्तव्य समझता रहा । उसे यह अहसास दिला दिया गया था कि वह जो सेवक(शूद्र) योनि मे पैदा हुआ है वह उसके पिछले जन्मों के पापो नतीजा है ,यदि वह इस जन्म में बिना न नुकार के सवर्णों की सेवा करता है तो अगले जन्म में वह भी सवर्ण बनेगा । सेवक स्वयं और बाल बच्चे समेत अपने मालिक का सेवक होता , काम का कोई घण्टा निर्धारित न था । 24 घण्टे मालिक की सेवा में उपस्थित रहना पड़ता था ,क्या पता कब मालिक उन्हें बुला लें!

अमेरिका में वर्णव्यवस्था नहीं थी न ही वँहा के सेवको को यह धर्म का यह भय था कि यदि इस जन्म में अपने मालिको से अपने अधिकारों की मांग रखेगा तो अगले जन्म में फिर सेवक बनेगा। इसलिए वँहा के सेवको(मजदूरों) में चेंतना का विकास हुआ और अपने शोषण के विरुद्ध उठ खड़े हुए ।
उन्होंने आंदोलन किया अपने हको को लेके ,अपने काम करने के घण्टे निर्धारित करवाये ।

सोचिये यदि अमेरिकी मजदूरों में अपने हकों को लेके चेंतना का विकास न हुआ होता और वह आंदोलन भारत न पहुंचता तो  भारतीय सेवक आज भी धर्म के उसी 24x7 के नियम पर काम कर रहे होते , उन्हें पता ही नही होता की काम करने के भी घण्टे निर्धारित होते हैं।

खैर, अपने मजदूर भाइयो को मज़दूर दिवस की हार्दिक बधाई....
फ़ोटो सभार गुगल