Sunday, 14 May 2017

नगरीय सभ्यता और ग्रामीण सभ्यता-

 बौद्ध धर्म का मजबूत स्तंभ उसका ' संघ' था , यह संघ व्यापारियों और शिल्पियों का संघ था जिसमे कई श्रेणियां होती थी और उस श्रेणी के प्रमुख को सेट्ठ कहते थे ।यह श्रेणियां मुख्यतः व्यापार पर आधारित होती थी जिनकीं  संघ में मजबूत भागीदारी होती थी।

यदि हम यह कहें कि बौद्ध धर्म को फलने- फूलने में जो कारक थे वे यही श्रेणियां थी तो गलत न होगा , इन्ही के अनुदान पर मठ और विहार का भरण पोषण होता था । चुकी श्रेणियां व्यापर पर निर्भर थी और व्यापार नगरीय सभ्यता पर ।

व्यापर का संचालन सुचारू रूप से नगरों में ही चल सकता है। हम देख सकते हैं कि सिन्दू सभ्यता भी नगरीय सभ्यता थी, वँहा व्यपार ही और शिल्प ही मुख्य उद्योग था ।  सिन्धु सभ्यता का व्यपारिक रिश्ते बेबीलोन , सीरिया  आदि प्राचीन नगरीय सभ्यताओं
से थे , सिन्धु घाटी उत्खनन से कई सील मोहरे मिली हैं जो व्यापर के लिए उपयोग होती थीं।

वैदिक संहिताओं में ' ग्राम' शब्द कई बार आया है किंतु 'नगर' शब्द का प्रयोग नहीं मिलता। विद्वानों के अनुसार वैदिक संहितो और  धर्म सूत्रों में वैदिक सभ्यता ग्राम सभ्यता है। पुराणों में जरूर नगरों का जिक्र है किंतु नगरों के निर्माता आर्य नहीं बल्कि मय वंशीय हैं जिन्हें अवैदिक अर्थात दानव/असुर कहा गया है।

यह निश्चित है कि आर्यो के ग्राम सभ्यता के कारण ही जाति प्रथा इतनी मजबूत हो गई , अपने पूर्वजो का धंधा छोड़ के दूसरा धंधा चुन लेना जितना आसान नगरीय सभ्यता में आसान होता है उतना ग्राम सभ्यता में नहीं। यह  सिद्धान्त आप आज भी देख सकते हैं कि शहरो में जातीय बंधन कमजोर होता है जबकि गाँवों में यह कठोरता से लागू हो जाता है ।आर्य व्यवस्था ग्रामीण व्यवथा थी इसलिए यह इतनी मजबूत और टिकाऊ हो सकी।

आर्य के प्रमुख देवता इंद्र का एक नाम पुरिन्द्र भी है जिसका अर्थ होता है नगरों ( घनी आबादी वाले शहर/ दुर्ग को नष्ट करने वाला । ऋग्वेद में बाकायदा  इंद्र अनार्य राजा शंबर के नगरों को नष्ट करता हुआ भी बताया गया है।

नगर के व्यापारियों को 'पणि' कहा गया है ऋग्वेद में , पणियों को लालची और धनी बताया गया है जो इंद्र के सामने नहीं टिकते थे । पणियों / शिल्पियों/ कारीगरों  की नगरों से ही संचालित होता था । गौर तलब है कि आर्य सभ्यता में शिल्पी/ कारीगर भी शूद्र श्रेणी में घोषित किये गए थे, जबकि बौद्ध संघ के श्रेणी में इनका मजबूत संघ होता था ।

शिल्प, कला- कौशल, कारीगरी तथा उद्योग नगरीय सभ्यता के लक्षण है ,बिना नगरीय सभ्यता के इनका विकास नही हो सकता । सिंधु सभ्यता के विध्वंश और और फिर बौद्ध सभ्यता के नष्ट किये जाने के बाद भारत वर्ष में नगर संस्कृति को प्रधानता किसी भी समय नही मिली । आर्य संस्कृति का ग्राम या देहात आधारित अर्थशास्त्र का निरन्तर बने रहना जातीय भेद की कठोरता में अधिक से अधिक सहायक हुआ ।

फ़ोटो सिंधु सभ्यता में व्यापार के लिए प्रयोग होने वाली सील-

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