Friday, 16 March 2018

आयुर्वेद और ब्राह्मणिक विचारधारा-

जिन लोगों ने ब्रह्मणिक ग्रन्थो को पढ़ा होगा वे जानते होंगे की चकित्सको के बारे में कितनी घृणात्मक बाते की गई हैं। ब्राह्मण को चकित्सको के हाथों का छुआ अन्न तक लेना निषेध किया गया है। मनु महाराज तो यंहा तक कह देते हैं कि चकित्सक के हाथों का अन्न राद( मवाद) के तुल्य है।

देखें मनु स्मृति अध्याय 4, श्लोक 220 -' पुयं चिकित्सकस्यान्नं .....'

ऐसा ही मनु कई बार दोहराते हैं, देखें अध्याय 4, श्लोक 212में भी निर्देश देते हैं कि चिकित्सा कर्म में लिप्त व्यक्तियों का अन्न कदापि ग्रहण न करें।

गौतम धर्म सूत्र में भी ऐसा ही निर्देश दिया गया है कि ब्राह्मण को किसी शल्य चिकित्सक का अन्न ग्रहण नहीं करना चाहिए ( अध्याय 17, श्लोक सात) ।

चिकित्सक पेशे से इतनी घृणा क्यों थी ब्रह्मणिक व्यवथा को? जबकि आज आयुर्वेद  को ब्रह्मणिक व्यवस्था इसे वैदिक बताने पर लगी हुई है। यह जानने से पहले मैं आपका ध्यान एक और महत्वपूर्ण चीज की तरफ खींचना चाहता हूँ । वह चीज है तर्क, तर्क या बहस को ब्रह्मणिक ग्रन्थों में निषेध किया हुआ है , कठोउपनिषद घोषणा  करता है - ' नैषातर्कण मतिरापनेया ....'  अर्थात तर्क से उसे प्राप्त नहीं किया जा सकता । महाभारत के अनुशासन पर्व में बड़े ही कठोर शब्दो में तार्किक लोगो की निंदा की गई है , उन्हें कुत्ता कहा गया है ( अनुशासन पर्व , 37-12,13) । गीता भी तर्क - बुद्धि को निषेध करती है । गीता भी यह घोषणा करती है कि संदेह ( तर्क) करने वाले के लिए कृष्ण को नहीं प्राप्त कर सकते बल्कि उनके लिए न तो लोग में और न परलोक में ही सुख है ( देखें अध्याय 4 , श्लोक 40)

आदि शंकराचार्य जिन्होंने गीता का भाष्य सर्वप्रथम किया था वे भी तार्किकों को जम के भला बुरा कहते हैं। शंकर के अनुसार तार्किक सींग पूँछ रहित बैल है ,प्रश्नोउपनिषद में शंकर ने तार्किकों को मांसाहारी पशुओँ के समान तक बता दिया है। शंकर ने उसी तर्क की मान्यता दी है जो श्रुति यानी वेदो के वाक्यों को समझने के लिए प्रयोग हो । उनके अनुसार तर्क वह ही है जो श्रुति ( वेद) पर आधारित है, यह तत्व है वह तत्व नहीं है , यह कर्ता है वह कर्ता है जैसा तर्क करने वाले तार्किकों का घोर तिरस्कार किया है ।

अब वापस लौटते हैं अपने मूल विषय पर , आयुर्वेद के दो महत्वपूर्ण ग्रन्थ हैं , चरक संहिता और सुश्रुत संहिता ।चरक संहिता कहती है कि अपनी बुद्धि से तर्क वितर्क कर औषधियों का प्रयोग करना चाहिए या कहें कि चिकित्सा के लिए इस बात की अति आवश्यकता है कि वैध तर्क वितर्क कर के ही दवाई का प्रयोग करे। शारीरिक चिकित्सको और तकनीकी  शिल्पकारों का विश्व दृष्टिकोण ही इस बात पर टिका होता है कि वे तर्कसम्मत और  वाद-विवादी हों।

हम जानते हैं कि चिकित्सक आमजनमानस के कितने उपयोगी होते  हैं अतः निश्चय ही अतीत उनका आम जनमानस में अच्छा खासा प्रभाव भी रहा होगा । इसलिए ब्रह्मणिक  अंधविश्वास और श्रद्धा सम्मत शास्त्रों  के प्रचार प्रसार में  चिकित्सक एक बड़ी बाधा रहे होंगे  । इसी लिए चिकित्सको के प्रति  धर्मशास्त्रों,स्मृतियों  आदि में लगातार घृणा के नजरिये से देखा गया । आयुर्वेद का ज्ञान मूल रूप से स्वतंत्र तर्क- वितर्क , देह महत्व और सांसारिक परिदृश्य के उद्भव और विनाश के 'स्वभाववाद ' पर टिका हुआ था जो की अंधविष्वास, आत्मवाद, वर्ण समर्थित व्यवस्था के पैरोकारों के लिए एक दम से निषेध थीं।

पुरोहित वर्ग की समस्या यह थी की चिकित्सा कर्म में सब लोगो से मेलजोल रखना पड़ता है ,चिकित्सक सबको स्पर्श भी करेगा और और सबसे मिलेगा भी जो ब्राह्मणवाद की व्यवस्था को बिलकुल भी रास नहीं आ सकता था । यह व्यवहार सेवाकर्मियों ( शूद्र/ अछूत) को काबू करने में बाधक था इसलिए ब्रह्मणिक व्यवस्था ने सबसे पहले चिकित्सा कर्म को निषेध किया।

अब एक प्रश्न आपके दिमाग में उपज रहा होगा की यदि आयुर्वेद वैदिक व्यवस्था की खोज नहीं थी तो किसकी थी? चिकित्सा का कार्य जब ब्राह्मण के लिए निषेध था तो आयुर्वेद उनके द्वारा प्रतिपादित कैसे हो सकता है?

इसका जाबाब खोजने के लिए हमें फिर से मनु महाराज की शरण में जाना होगा । मनु महाराज अध्याय दस ,श्लोक 46-47में  कहते हैं -

ये द्विजानामपसदा ...... वनिकपथ'

अर्थात-जो द्विजातियों में नीच हैं और जो अपध्वंस (वर्णसंकर) से पैदा हुए हैं , वे द्विजो के लिए निंदित  घोषित कर्मो को कर  के अपनी जीविका करें ।सूत का काम है रथ जोतना, अश्व साधना आदि, अम्बष्टो का कर्म चिकित्सा करना, स्त्री कार्य वैदेहक, और वाणिज्य कार्य मागध करें।

आपने देखा की चिकित्सा कार्य नीच कहे जाने वाले और वर्णसंकर जाति के  अम्बुष्टो के लिए निर्धारित किया गया , जिसका अन्न भी खाना ब्राह्मण के लिए मवाद के समान था।  कई इतिहासकार बताते हैं कि अम्बुष्ट भारत की एक जनजाति थी । निश्चय ही आयुर्वेद उन्ही की खोज थी जिसका बाद में ब्रह्मनिकरण हुआ ।

किन्तु ...किन्तु... एक और आश्चर्य की बात आपको बताता हूँ, ऋग्वेद में एक देवता अश्विन कुमार है जिसके बारे में कहा जाता है कि वह चिकित्सक था जिसे बाद के शास्त्रों में अपवित्र घोषित कर के उसका स्थान नीचे कर दिया गया । मंडल दस में चिकित्सको का आभार भी व्यक्त किया गया  है। तब यह कैसे हुआ की  वेद में चिकित्सा देवता को बाद के ब्रह्मणिक ग्रन्थो में अपवित्र और वर्ण संकर  घोषित कर दिया गया?

दरसल जब वैदिक यंहा आये तो उन्हें यंहा के लोगो से युद्ध करना पड़ा था , वैदिक असुरों का युद्धों से ऋग्वेद भरा पड़ा है। इंद्र ने असुर नरेश शंबर के सौ नगरों को नष्ट किया आदि युद्धों के वर्णन है । असुरों से रक्षा के लिए प्रार्थनाएं भी की गई हैं। जाहिर सी बात है युद्ध में वैदिक भी घायल होते होंगे , ऐसे में उनको भी चिकित्सा की जरूरत होती होगी। वो अपने उपचार के लिये जनजाति अम्बुष्टो आदि की सहायता लेते होंगे , अतः ऋग्वेद जो प्रारंभिक काल था उसमें उनकी प्रशंसा की गई। बाद के काल में जैसे जैसे ब्रह्मणिक व्यवस्था मजबूत होती गई होगी चिकित्सकों ( अम्बुष्टों) की जो की मूल रूप से जनजाति थे उनकी स्थिति वर्ण व्यवस्था के अनुसार नीचे गिरती गई होगी अंत में  वे अपवित्र घोषित कर दिए गए होंगे। आयुर्वेद  शुद्ध भौतिकतावाद है जिसमे देह - काया का महत्व है जिसमे आत्मा - ईश्वर का कोई स्थान नहीं होता ,  आप सब को बताने की जरूरत नहीं की भारतीय भौतिकतावादी दर्शन किसका था ।हाँ बाद में ईस
का ब्राह्मणीकरण हुआ ....

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