Sunday 21 June 2020

चार कंधों पर मोक्ष

कोरोना अपने काल के दौरान  आर्थिक, शारीरिक बर्बादी तो लाया ही है (हालांकि इस कोरोना के कारण मैंने अपने दो स्वंजनो को खो दिया फोटो उन्ही की हैं ) किंतु मैंने गौर किया है कि इसने अनजाने में भारत में प्रचलित कई महत्वपूर्ण पुरुषसत्तात्मक मान्यताओं को भी तोड़ दिया है, वह है शवयात्रा । शवयात्रा या अर्थी कह लीजिए इसका हिन्दू धर्म में एक महत्वपूर्ण स्थान है, अगर मैं कहूँ की हर व्यक्ति अपनी अंतिम यात्रा के लिए ही जीवन भर संघर्ष करता रहता है तो अतिश्योक्ति नही होगी। जीवन भर व्यक्ति इस श्रम और चाहत में लगा रहता है कि वह जब भी मरे उसके आस पास उसके रिश्तेदार हों, उससे प्रेम करने वाले हों। उसकी शवयात्रा में शामिल या अर्थी को कंधा देने वाले उसे अपने हों।

याज्ञवल्क्य स्मृति में शव के कर्मकांड को लेके पूरा अध्याय ही दिया हुआ है , मृतक के स्वजनों द्वारा ही कंधा देने का विधान है। पुरुषों के चार कंधों पर अंतिम यात्रा पूरी होगी , चारो कंधे अगर खुद के बेटों के हों तो मृतक सीधा स्वर्ग जाता है। स्त्रियो के लिए तो निश्चित है कि बेटा कंधा देगा तभी मोक्ष प्राप्त होगा , यदि चार बेटे है कंधा देने वाले तो समझिए कि उससे सौभग्यशाली कोई नही । पुरुषों / बेटों द्वारा कंधा देने की मानसिकता इतनी गहरी है कि यदि किसी दुश्मनी या अनबन हो जाये तो व्यक्ति कहता है ' तू मेरी अर्थी को कंधा मत देना' या फलाने व्यक्ति को मेरे मरने में भी न बुलाना । उसका आशय यही होता है कि  अमुक व्यक्ति उस व्यक्ति के शव को कंधा न देने पाए।

बेटों द्वारा शव को कंधा देने से मोक्ष प्राप्ति का ही लालच रहा है कि हिन्दू समाज में बेटों का महत्व सर्वोपरि है, बेटों के लालच में शताब्दियों से न जाने कितनी बेटियां कोख में या पैदा होते ही मार दी जाती रही हैं। स्त्रियां शव को कंधा नही दे सकती क्यों कि शास्त्रों के अनुसार वे ' अपवित्र' होती है । उनकी अपवित्रता का कारण उनका मासिक धर्म रहा है, मनु तो स्त्री को पापयोनि तक बता देते है।

तुलसीदास जैसे विद्वान स्त्रियो के आठ अवगुणों जो को हमेशा उनके साथ रहते हैं उसमें से अशौच को भी गिनते हैं । वे लिखते हैं-

नारि सुभाऊ सत्य सब कहहीं। अवगुन आठ सदा उर रहहीं।
साहस अनृत चपलता माया। भय अबिबेक असौच अदाया।।

इसी लिए हिन्दू समाज में स्त्रियो को अपवित्र मान के उन्हें शव को कंधा देना निषेध किया गया है, यदि स्त्रियां कंधा देने लगी तो मृतक/ मृतका को मोक्ष प्राप्त नही होगा।

कोरोना हॉस्पिटल में जिनकी मृत्यु हो रही है उनके शवो को परिवारजनों को नही सौंपा जा रहा है, हॉस्पिटल खुद एम्बुलेंस बुक , शव का दाह संस्कर कँहा होगा यह निश्चित करता है और शव को उस श्मशानघाट पर पहुंचा देता है।
न कोई शव को देखेगा और न ही कोई उसे छुएगा। एम्बुलेंस में ही दो अटेंडेंट होते हैं जो शव को चिता पर लिटा देते हैं।

शव का न तो कोई कर्मकांड( घर पर नहलाना आदि) , न कोई अर्थी ,न कोई कंधा देने वाला । चार बेटे तो क्या आठ बेटे हो तो भी बेकार, कंधा दे ही नही सकते। व्यक्ति जिस मोक्ष के तिकड़म में बेटियो को कोख में मार के या बेटियो को 'अपवित्र'समझ के उसे  अनदेखा करता रहा वह मोक्ष की तिकड़म भी काम नही आ रही है।

'चार कंधे' धरे के धरे रह जा रहे हैं। याज्ञवल्क्य ,मनु या तुलसीदास आज जिंदा होते तो उनकी कॉलर पकड़ के पूछा जाता कि जिस  ' चार बेटों के कंधों पर जाने के मोक्ष' के लिए तुमने न जाने कितनी कन्याओं को कोख में ही मरवा दिया वह मोक्ष कोरोना से मरने वालों को नही मिलेगा क्या