दुर्गा
पूजा के विषय में देवीप्रसाद चट्टोपाध्य जी मत प्रकट करते हैं की जो प्रतिमा आज हम
देवी दुर्गा की देखते हैं अर्थात सिंहारुड़, दस हाथो वाली , त्रिशूल आदि शस्त्र धारणा
किये हुए वास्तव में दुर्गापूजा के मूलभूत सार के साथ इसका कोई वास्तविक धर्मिक सम्बन्ध
नहीं है ।वे प्रसिद्ध इतिहासकार बंदोपाध्याय का हवाला देते हुए कहते हैं की अभी एक
शताब्दी पहले बंगाल जो की दुर्गा पूजा का केंद्र है वंहा के
मूर्तिकारों को दस हाथो वाली , त्रिशूल धारी, सिंह सवार देवी के बारे में कुछ
पता नहीं था ।
यद्यपि
आज इस दस हाथो वाली त्रिशूल धारी मूर्ति की सवारी बड़े धूम धाम से निकाली जाती है किंतु
वास्तव में इसका दुर्गा की वास्तविक आराधना से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है यंहा तक की
इसका दुर्गा नाम कैसे पड़ा यह विषय भी आज के शोध कर्ताओ के लिए अच्छा विषय हो सकता ही
।
वास्तव
में दुर्गापूजा 'शाकम्भरी' पूजा या अनुष्ठान है , जो कृषि की उर्वरकता को बढ़ाने के
लिए तांत्रिक अनुष्ठान होता है जो 'पूर्ण घट' केंद्रित होता है ।
जैसा
की मैंने अपने पहले के लेखो में बताया है की कृषि स्त्रियों की खोज है अतः कृषि से
जुड़े जितने अनुष्ठान है वे स्त्रियों से जुड़े हुए हैं , कृषि और स्त्री को समान माना
गया है ।कृषि में उत्पादन की वृद्धि के लिए विश्व के अलग अलग देशो में कई प्रकार के
अनुष्ठान किये जाते रहे हैं ।
ट्रांसलविनिया
के एक जिले में सूखे के कारण जब सारी जमीन बुरी तरह झुलस जाती है तब कुछ लड़कियां एक
दम नग्न हो जाती हैं और खेतो में पहुँच के नृत्य करती है ,उनका विश्वास होता है की
इस अनुष्ठान से वर्षा होगी।
उत्तरी
अमरीका में जब आनाज को कीड़ा लगता है तो जिन स्त्रियों का मासिक धर्म चल रहा होता है
वे रात के एकांत में एक दम नग्न अवस्था में खेतो में चलती हैं ,प्लिनी ने इन हानिकारक
कीड़ो के प्रतिकारक के रूप में यह उपाय बताया
है। इसके पीछे विचार यही था की स्त्रियों के अंदर जो उर्वरक शक्ति होती है उसका प्रसार
हो और वह प्रसार कृषि तक आये ।ऐसा ही मत ग्रीस आदि देशो में भी प्रचलित रहा है ।
भारतीयो
में भी ऐसे तांत्रिक अनुष्ठान सम्बन्धी प्रथाए प्रचलित रही हैं , आप ऐसे अनुष्ठान क्रुक
की पुस्तक 'न्यूडिटी इन इण्डिया इन कस्टम एन्ड रिचुअल्स ' में पढ़ सकते हैं ।
'भारतीय
विद्या 'नाम की पुस्तक में जिक्र है की जब कभी उत्तरी बंगाल में सूखा पड़ता था तब राजवंशी
लोगो की स्त्रियां सब कपडे उतार देती थी और पूर्ण नग्न अवस्था में वरुण देवता के आवाह्न
के लिए नृत्य करती थीं।
गुजरात
में ऐसी रीतियों थीं , यह रीति विशेषकर कुर्मी, नोनिया , कहार , चमार , दुसाध , धामका
जातियो में थी जो श्रमिक थीं ।
आप
को एक दिलचस्प तथ्य और बताऊँ की हड़प्पा में
एक आयतकर पट्टी जिस पर एक नग्न स्त्री का चित्र बना है प्राप्त हुई है , जिसकी दोनों
टाँगे खुली हुई हैं ।यह चित्र उल्टा बनाया गया है जिसकी दोनों टाँगे खुली हुई हैं और
उसके गर्भ से एक पौधा निकल रहा है , इसके ऊपर 6 अक्षर खुदे हुए है जो शायद शाकम्भरी
नाम पर कुछ जानकारी देते हैं।
यह
चित्र निश्चय ही धरती को माता(स्त्री) की मान्यता को दर्शाता है ।यह चित्र धरती और
स्त्री को समान मान्यता की प्रबलता का द्योतक है जिसमे दोनों ही उत्पादन अथवा प्रजनन
करती हैं ।
बौद्ध
धर्म और हिन्दू धर्म दोनों में धरती को स्त्री माना गया है और शाकम्भरी नाम इंगित है
जैसे बुद्ध शाक्य वंशीय थे , शाक्य का अर्थ साग सब्जी अथवा पेड़ पौधे होता है ।
हिन्दू
ग्रन्थ मार्कंडेय पुराण , सर्ग 92, श्लोक 43-44 में कहा गया है-
"हे देवताओ! इसके बाद मैं जीवन पोषक साग सब्जियों
के साथ सारे विश्व का पालन पोषण करुँगी ।साग सब्जियों वर्षा के बाद मेरे शरीर से उत्तपन्न
होंगे , तब मैं पृथ्वी पर शाकम्बरी के नाम से प्रसिद्ध होंगी "
इस
हड़प्पा में मिले धरती ( शाकम्बरी ) चित्र के
विषय में मार्शल का कहना है " धरती को उसके गर्भ से उगे हुए एक पौधे के साथ प्रस्तुत
करने वाला यह चित्र अनूठा है किन्तु धरती को स्त्री के रूप में प्रस्तुतिकरण अप्राकृतिक
नहीं है बल्कि ऐसा विश्व की कई सभ्यताओ में मान्यता रही है "
अब
हम आते है अपने मूल लेख पर अर्थात दुर्गा पूजा पर , जैसा की मैंने बताया है की अभी
लगभग कुछ सदी पहले बंगाल में सिंह सवार , त्रिशूल धारी दुर्गा के विषय में वंहा के
मूर्तिकार नहीं जानते थे ।दुर्गा पूजा के समय एक घट रखा होता है जो तांत्रिक अनुष्ठान
का द्योतक है , मुख्य अनुष्ठान इसी घट की होती है ।
घट
पूर्ण जल से भरा मिटटी का एक पात्र होता है , जो इस प्रकार रखा जाता है -पांच प्रकार
के आनाज (पंच शाक्य) मिटटी की एक चपटी तथा चौकोर आकार की पट्टिका पर बिखेरे जाते हैं
।फिर मिटटी के एक पात्र को पानी से भरकर उसके ऊपर रखा जाता है ।दही और चावल मिलाकर
इस पात्र पर रख दिया जाता है ,घट ( घड़ा) के गर्दन के चारो ओर लाल रंग का सूत बांध दिया
जाता है ।इसके खुले मुख को पांच प्रकार की पत्तियो से ढँक देते हैं , फिर एक मिटटी
का ढक्कन इन पत्तियो पर रख दिया जाता है और इस ढक्कन के ऊपर चावल और सुपारी रखते हैं
।
चावल
वाले इस ढक्कन पर फिर ओर एक फल अधिकतर हरा नारियल रखा जाता है , इस नारियल पर सिंदूर
लगाया जाता है ।घड़े पर गीले सिंदूर से मानव चित्र बनाते हैं इसे सिंदूर पुत्तलि कहा
जाता है ।
मैं
आपको चित्र दे रहा हूँ ताकि आप अच्छी तरह समझ सकें।
जिस
पट्टिका पर घट रखा जाता है उस पर एक रेखाकृति बनी होती है जिसे सर्वतोभद्र मण्डलम्
कहा जाता है , यह रेखाचित्र तंत्रवाद का प्रसिद्ध चित्र है जिसे यंत्र कहा जाता है
।इसके बीच आठ पंखडियो वाले कमल का चित्र होता है जिसे अष्ट दल पद्म कहा जाता है , अब
याद कीजिये बौद्ध धर्म का आष्टांगिक मार्ग को।
तंत्रवाद
में यह कमल मुखयतः स्त्री की योनि का प्रतिकात्मक चिन्ह है अब समझिये की सर्वतोभद्र
मण्डलम् के ऊपर पूर्ण घट रखने का क्या महत्व है ।
पौधो
और फलों को स्त्री की योनि के संपर्क में लाया जाता है , यही विचार स्वयं पूर्ण घट
भी प्रदर्शित करता है ।यह घड़ा स्त्री गर्भ है , जो सिंदूर से मानव आकृति बनाई जाती
है वह शिशु है , सिंदूर और लाल सूत रजस्वला का संकेत है ।
तंत्र
के जरिये यह उस विश्वास का द्योतक है की मानव प्रजनन क्रिया या स्त्री प्रजनन क्रिया
शक्ति के अनुकरण या संसर्ग से प्रकृति की उत्पादकता निश्चित होती है या वृद्धि होती
है । दुर्गा पूजा में सिंदूर का प्रयोग होता जिसे रंग खेला भी कहा जाता ,रंग खेला वास्तव में स्त्री के रजस्वला का द्योतक है अच्छी प्रजनन शक्ति की कामना |
अत: दुर्गा
पूजा का मूल महत्व यही है , यह कृषि सम्बन्धी जादू टोना मात्र है ।दुर्गा जी के हाथो में घट देखिये \
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