Wednesday, 29 March 2017

तंत्रवाद और सिंधु सभ्यता-

 नवरात्रों का मूल है दुर्गा पूजा ,दुर्गा  पूजा का संबंध तंत्रवाद से रहा  है या यूँ कहें कि दुर्गा पूजा तंत्रवाद का ही हिस्सा है तो गलत नहीं होगा ।बंगाल में दुर्गा पूजा पर तांत्रिक क्रियाएं प्रसिद्ध हैं, शाक्त मत जिसकी आराध्य देवियां है वह मूलरूप से तंत्रवाद ही है।

दुर्गा का ही एक प्रसिद्ध रूप है शाकम्भरी देवी, शाकम्भरी का अर्थ है ' शाक सब्जी अथवा जड़ी बूटी पैदा करने वाली या शाक सब्जियों और जड़ी बूटियों का पोषण करने वाली' ।

स्वयं शाकम्भरी देवी भी मार्कण्डेय पुराण के देवी माहात्म्य ( सर्ग-81 -93) में यह कहती हैं कि ' हे देवतो ,इसके बाद मैं जीवनपोषक साग सब्जियों के साथ सारे विश्व का पालन पोषण करुँगी ।साग सब्जी भारी वर्षा के दिनों में मेरे अपने शरीर से उत्पन्न होंगे तब मैं पृथ्वी पर शाकम्भरी के नाम से प्रसिद्ध होंगी '।

मार्कण्डेय पुराण में शाकम्भरी देवी का कथन कोई नई धारणा नहीं है बल्कि यह मान्यता अति प्राचीन  उस मान्यता को ही दोहराना था जिसमे पृथ्वी को माता कहा गया है । हम जानते हैं कि तंत्रवाद मातृसत्तामक (स्त्री पक्ष) की देन है जिसमे पुरुष लगभग नगण्य रहता है और स्त्री मुख्य केंद्र रहती है ।

वाम का अर्थ स्त्री भी होता है और वाममार्ग बिना तंत्रवाद के पूर्ण नहीं ।

पिछले लेख में मैंने चित्र सहित बताया था की हड़प्पा के उत्खनन से एक आयातकार मुद्रा  प्राप्त हुई है जिसपर एक नग्न स्त्री का चित्र है जो उल्टा बनाया गया है ।उसकी दोनों टांगे खुली हुई है और उसके गर्भ से एक पौधा निकल रहा है ।उस मुद्रा के ऊपर 6अक्षर बने हुए है जिसे अभी पढ़ा नहीं जा सका है किंतु संभवतः शाकम्भरी नाम पर कुछ प्रकाश डालते हैं।

तन धातु में स्त्रन प्रत्यय लगने से तंत्र शब्द बना है ,तन धातु का अर्थ है विस्तार करना या फैलाना ।
मूलतः  वंश का विस्तार या संतानों की वृद्धि   ही तंत्रवाद है।

देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय जी ने मोनियर विलियम्स का हवाला देके यह सिद्ध किया है कि हरिवंश पुराण और भागवत पुराण में तंत्र शब्द का प्रयोग ' संतानोत्पत्ति 'के अर्थ में किया गया है । यह बात आप  साधा।रण भाषा के संतान या तनय के अर्थ से भी जान सकते हैं।

तंत्रवाद के कुछ ठोस और भौतिक अवशेष सिंधु सभ्यता से प्राप्त हुए हैं ,जैसे शाकम्भरी की मुद्रा, स्त्री देवियों की मूर्तियां आदि। मार्शल तथा  प्राणनाथ जैसे वैज्ञानिकों ने इस बात की पुष्टि की है कि वास्तव के बहुत से आधार हैं कि सिंधु सभ्यता की अधिकांश कला और चित्रलिपि का तांत्रिक वस्तुओं के साथ गहरा संबंध है। सिंधु घाटी सभ्यता की संपत्ति पृथ्वी के उत्पादनों पर आधारित थी ,इसलिए स्वभाविक है कि कृषि चरण के विश्वास तंत्रवाद के रूप में विद्यमान रहे होंगे और धार्मिक क्रियाएं( जादू टोने द्वारा उत्पादकता में वृद्धि की मान्यता)  स्त्री द्वारा सम्पन्न होते रहे होंगे ।।हम इसका सबूत सिंधु मुद्रा में छपी उस चित्र में देखते हैं जंहा वृक्ष देवी ( शाकम्बरी) को प्रसन्न करने के लिए बकरे की बलि दी जा रही है और इस क्रिया को करवाने के लिए सात पूजारने नियुक्त हैं।

स्त्री का रजस्वला होना उत्पादकता की निशानी है अतः तांत्रिक क्रियाओं में रजस्वला का विशेष महत्व है/ था। हड़प्पा में स्त्री मूर्तियां मिली है जो लाल रंग से पुती हुई थी, लाल रंग रक्त अर्थात रजस्वला या उत्पादकता का प्रतीक । आज भी कई भील जातियां अपने खेतों में बीज बोने से पहले कोने में सिंदूर से रंगा हुआ पत्थर रख देते हैं ताकि उत्पादन अच्छा हो।सिंदूर प्रतीकात्मक होता है स्त्री के मासिक धर्म का अतः स्त्री का मासिक धर्म तंत्रवाद में पवित्र माना गया है।

किन्तु, जब पितृसत्तामक(वैदिक) समाज में स्त्री के हाथ से धार्मिक कार्य का नियंत्रण निकल गया तो उसके प्रति विरोधी पक्ष भी तैयार कर लिया गया । रजस्वला स्त्री अपवित्र घोषित कर दी गई , तंत्रवाद को अपमान की नजर से देखा जाने लगा।



Thursday, 23 March 2017

भगत सिंह और नास्तिकता

  " एक नया सवाल उठ खड़ा हुआ है , लोग कह रहें है कि मैं अपनी 'हैकड़ी' के कारण तथाकथित सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी और सर्वज्ञ ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करता ।यंहा तक की मेरे साथी श्री बी.के. दत्त कभी कभी मुझे निरंकुश कहा करते थे ,कुछ मित्रो को शिकायत है कि मैं अपने विचार दूसरों पर थोपता हूँ । कुछ लोग कह रहे हैं कि बम्ब काण्ड में लोकप्रिय होने के कारण मैं ' अहंकार' के कारण नास्तिक बन गया हूँ ।

किन्तु मैं समझ नहीं सका की एक आस्तिक को निजी हैकड़ी अथवा लोकप्रियता कैसे आस्तिक बने रहने से रोक सकती है? यदि ऐसा है तो दो ही बाते हो सकती हैं पहली यह की आदमी या तो स्वयं को ईश्वर का प्रतिद्वंदी समझने लगे या स्वयं को ही ईश्वर । लेकिन इन दोनों स्थितियों में वह सच्चा नास्तिक नहीं बन सकता ।

पहली स्थिति में वह अपने प्रतिद्वंदी के अस्तित्व को इंकार नहीं कर सकता ,दूसरी स्थिति में वह ऐसी सत्ता के अस्तित्व को स्वीकार कर लेता है जो अदृश्य रह के प्रकृति के तमाम क्रियाओं को निर्देशित करती है । दोनों ही स्थिति ज्यूँ की त्यों है ,उसका विश्वाश ज्यूँ का त्यों है । अतः न मैं पहली श्रेणी में आता हूँ न दूसरी श्रेणी में , मैं उस तथाकथित सर्वशक्तिमान परमात्मा के अस्तित्व से ही इंकार करता हूँ।

यह सरासर मिथ्या है कि लोकप्रियता के कारण मैंने हैकड़ी अथवा अहंकार से नास्तिक बना हूँ , बल्कि मैंने ईश्वर को तभी मानना बंद कर दिया था जब मैं एक अज्ञात नौजवान था ।

मेरे दादा, जिनके प्रभाव में मेरा लालन पालन हुआ कट्टर धार्मिक थे , अपनी शुरू की शिक्षा पूरी करने के बाद मेरा दाखिला लाहौर के डीएवी स्कूल में हुआ जंहा सुबह शाम की प्रार्थनाओं के अलावा भी मैं घंटो गायत्री मंत्र जपता रहता था ।उन दिनों में पूरा धार्मिक भगत था । मेरे पिता धार्मिक कट्टर तो नहीं है किंतु नास्तिक भी नहीं है ,वे रोज मुझे पूजा पाठ के लिए प्रोत्सहित किया करते थे ।हलाकि की उन्ही की सीखो के कारण मुझे आज़ादी के लिए अपनी जिंदगी बलिदान कर देने की हसरत जागी।


असहयोग आंदोलन के दिनों में मेरा  नेशनल कॉलेज में दाखिला हुआ , वंही जाकर मैंने उदारवादी ढंग से सोचना और सारी धार्मिक समस्याओं के बारे में यंहा तक की ईश्वर के बारे में भी बहस और आलोचना करना शुरू किया ।अब मैं बिना कटे- छँटे दाढ़ी और केश रखने लगा था ,मगर मैं सिख मत या किसी अन्य धर्म के मिथकों और सिद्धांतों में विश्वास कभी नहीं कर पाया था ।

जब क्रन्तिकारी दल की जिम्मेदारी कंधों पर आ गई तो जैसा की होना ही था प्रतिक्रिया इतनी जबरजस्त थी की कुछ समय तक तो दल का अस्तित्व ही असम्भव लगता था ,उत्साही साथी( नेता) हमारा मज़ाक उड़ाने लगे ।कुछ समय तक मुझे ऐसा लगा की मैं अपना कार्यकर्म व्यर्थ मान लूँ  ,मेरे क्रन्तिकारी जीवन में यह एक मोड़ था । मेरे दिमाग के हर कोने से आवाज आई की ' अध्यन करो... स्वयं को विरोधियो के तर्कों का सामना करने के लिए अध्यन करो .... अपनी बात के समर्थन में तर्को से लैस होने के लिए अध्यन करो!

मैंने अध्यन करना शुरू कर दिया , उसके बाद जो पूर्ववर्ती आस्थाओं, हिंसात्मक उपायों पर विश्वास, दूर होते चले गएँ औरउनके स्थान पर गंभीर विचारो ने ले लिया।
मैंने सशस्त्र क्रन्तिकारी नेता बाकुनिन को पढ़ा, मार्क्स को पढ़ा, लेनिन, त्रोत्सकी व् अन्य लोगो को खूब पढ़ा ,ये सब नास्तिक थे ।

1926 के अंत तक मैं इस बात का कायल हो गया कि सारी दुनिया को बनाने ,चलाने और नियंत्रित करने वाली सर्वशक्तिमान परमसत्ता  के अस्तित्व का सिद्धांत निराधार है।

मई 1927 में लाहौर में मेरी गिरफ्तारी हुई, एक दिन सी.आई.डी के तत्कालीन वशिष्ठ अधीक्षक मिस्टर न्यूमैन मेरे पास आये और काफी देर तक सहानभूति जताने के बाद उन्होंने कहा कि जैसा वो लोग मुझ से ब्यान चाहते है यदि मैंने नहीं दिया तो मजबूर होके काकोरी कांड के सिलसिले में हुई हत्याओं और शासन के विरुद्ध षंड्यंत्र ,दशहरा बम्मकाण्ड के सिलसिले में मुकदमा चलाना पड़ेगा,फिर उन्होंने मुझे बताया कि उनके पास मुझे फाँसी के फंदे तक पहुचाने का पर्याप्त सबूत हैं। मैं जानता था की मेरे निर्दोष होने के बाद भी पुलिस ऐसा कर सकती थी।


उसी दिन कुछ पुलिस अफसरों ने मुझे सुबह शाम दोनों समय नियमित प्रार्थना करने के लिए प्रेरित करना शुरू कर दिया । अब मैं ठहरा नास्तिक।मैंने अपने मन में फैसला लिया की क्या केवल सुख के दिनों में अपनी नास्तिका की शेखी बघारता हूँ या ऐसी कठिन परिस्थियों में भी अपने सिद्धांतों पर अटल रह सकता हूँ?
बहुत सोच के मैंने विचार किया कि मैं ईश्वर की प्रार्थना नहीं करूँगा, और मैंने एक बार भी प्रार्थना नहीं की ।यह एक असली परीक्षा थी जिसमे मैं पास हुआ । एक क्षण के लिए भी मेरे मन में ईश्वर के प्रति विचार नहीं आया , मैं पक्का नास्तिका था ।

इस परीक्षा में पास होना कोई आसान काम नहीं था , आस्तिकता मुश्किलों को आसान कर देती है ,आदमी ईश्वर से बड़ी जबरजस्त राहत और दिलासा पा सकता है ।
किन्तु नास्तिकता या यथार्थवाद में इंसान को खुद पर भरोसा करना होता है , आंधी तूफ़ान के बीच अपने पैरों पर खड़ा रहना बच्चो का खेल नहीं ।
परीक्षा की ऐसी घड़ियों में हैकड़ी या अहंकार हो तो  कर्पूर की तरह उड़ जाता है और आदमी प्रचलित विश्वासों को ठुकराने की हिम्मत नहीं कर पाता ।

मैं जानता हूं की मुक़दमे का फैसला क्या होना है , हफ्ते भर में वह सुना दिया जायेगा । इस ख्याल से ज्यादा राहत की उम्मीद क्या हो सकती है कि मैं जिस उद्देश्य के लिए अपने प्राणों का बलिदान करने जा रहा हूँ ?

एक हिन्दू राजा बन के पुनर्जन्म लेने का विश्वास कर सकता है ,मुसलमान या ईसाई जन्नत में सुख भोगने का इनाम अपनी क़ुरबानी और तकलीफों के बदले कर सकता है ।
मगर मैं किस चीज की उम्मीद करूँ?  मैं जानता हूँ की जब मेरे गले में फांसी का फंदा डाल के पैरों के नीचे से तख्ता खींचा जायेगा तो सब कुछ समाप्त हो जायेगा। वही मेरा अंतिम क्षण होगा । मेरा, अथवा मेरी आत्मा का सम्पूर्ण अंत उसी समय हो जायेगा । बाद के लिए कुछ नहीं रहेगा ।

मैंने बिना इहलोक या परलोक में कोई पुरस्कार पाने , बिलकुल अनासक्त भाव से अपना जीवन आज़ादी के उद्देश्य के लिए अर्पित किया है "

   ( भगत सिंह जी की कलम , मैं नास्तिक क्यों हूँ लेख से छोटा सा अंश)



Friday, 17 March 2017

जानिए क्या है 'पुनः जीवित 'होने का रहस्य -


 रात को जब सब बैठे थे तो गाँव से जुडी कई बातें चल निकली , इन्ही बातों के दौरान माँ ने बताया कि उनकी एक दादी थीं जो मर के जिन्दा हो गई थी और जिन्दा होने के बाद उन्होंने बताया कि वो यमराज के दरबार से वायस आ गई क्यों की तब उनका मरने का समय नहीं आया था।

शायद ऐसे किस्से आपने भी कभी न कभी किसी बुजुर्ग से सुने ही होंगे की उनके ज़माने में फला आदमी मर कर जिन्दा हो गया था , क्या वाकई ऐसा होता है कि कोई मर के जिन्दा हो जाए? कोई तथाकथित यमराज के दरबार से वापस आ जाये क्यों की उसका समय नहीं आया था मरने का?

ऐसी कहानियों के आधार पर लोग लोग परलोक, यमलोक या स्वर्ग नर्क को सिद्ध करते थे , दरसल ये कहानियां वह होती थी जो उन्होंने अपने जीवन में कभी सुनी होती थी ।

धार्मिक और मज़हबी रूप से मृत्यु एक रहस्मय घटना है जिसमे आत्मा शरीर से निकल जाती है ,अधिकतर धर्म -मज़हब इसी आत्मा का शरीर से निकल के परमात्मा के समक्ष पेश होने के आधार पर ही केंद्रित हैं ।

आम अर्थों में मृत्यु का अर्थ होता है ,सांस का रुक जाना ,दिल की धड़कन का रुक जाना , किसी भी बाहरी स्पर्श का व्यक्ति पर कोई असर न होना  ऐसी स्थिति में जबड़ा डीला पड़ जाता है और आँखे खुली रह जाती हैं ।तब व्यक्ति को मारा हुआ मान लिया जाता है।

किन्तु,वैज्ञानिक आधार  मृत्यु को एक नहीं बल्कि दो रूपो में समझा जाता है ।
एक तो क्लिनिकल मृत्यु और दूसरा बायोलॉजिकल मृत्यु।

क्लिनिकल मृत्यु का अर्थ होता है दिल की धड़कन और सांस लेने की प्रक्रिया का किसी कारण से रुक जाना। इस परिस्थिति में यदि व्यक्ति को 5 मिनट के भीतर ऑक्सीजन दे दी जाए तो या किसी केस में  छाती पर विशेष प्रकार से चोट की जाए तो फेफड़े व दिल पुनः क्रियाशील हो सकते हैं। विज्ञान के अनुसार यह मृत्यु की स्थिति नहीं है और इसे टाला जा ससकता है ।

जो 'मर के जिन्दा ' हुए लोग यमराज, नर्क स्वर्ग , परलोक आदि की कहानियां सुनाते है दरसल वे सब मामले 'क्लिनिकल मौत'के ही मामले होते हैं। 'मर चुके' लोगों को जैसे ही फिर से पर्याप्त ऑक्सीजन मिलती है वे फिर से जीवित हो उठते हैं और अपने अनुभवों को वैसा ही सुनाते हैं जैसा उन्होंने अपने जीवन में दूसरों से सुन रखा होता है।

एक बात और गौर कीजिए की धार्मिक लोग कहते हैं कि ईश्वर एक है तो जितने ऐसे 'पुर्नजीवित' के मामले मिलते हैं उसमे ऐसा कोई हिन्दू नहीं मिलता जो यह कहता हो की वह अल्लाह के दरबार से वापस आया हो या ऐसा कोई मुस्लिम नहीं मिलता जो यमराज के दरबार से वापस आया हो ।

डाक्टर रेमण्ड मूडी और डाक्टर एलिजाबेथ कुबलर जैसे मनोवैज्ञानिकों ने कई दशकों तक इस तरह के 'पुनः जीवित'लोगो का अध्ययन किया और उन मरणासन्न अनुभवों को लिपिबद्व किया ।
तथाकथित ' पुनः जीवित' लोगो ने अपने अंतिम 4-5 मिन्ट्स के अनुभवों के बारे में जो बताया उसे मनोवैज्ञानियो ने पांच अवस्थाओं में बांटा है।

पहली अवस्था में मर रहा व्यक्ति एक दम शांत हो जाता है ,ऐसा लगता है कज डर और दुःख की भावना उससे दूर जा चुकी है ।उसके अंदर अपनत्व और प्रेम की भावना का संचार तेजी से होता है।

दूसरी अवस्था- इस अवस्था में सुनने की शक्ति बहुत अधिक हो जाती है ,व्यक्ति को लगता है कि वह अपने शरीर से बाहर आ रहा है और अपने मरे हुए शरीर को ऊपर से देख रहा है।

तीसरी अवस्था- इस अवस्था में व्यक्ति बहुत विशाल काले आसमान के भीतर प्रवेश कर रहा  है, वह बहुत तेज गति से जैसे कोई उल्का पिंड हो उस तरह बदलो में प्रवेश कर रहा है।
कई लोगो को ऐसा अनुभव हुआ की वे भयंकर तूफ़ान में घिर गएँ हो और चारो तरफ अँधेरा ही अँधेरा हो ,कुछ को ऐसा लगा की वे किसी अँधेरी सुरंग में घुस गएँ हो ।

चौथी अवस्था- इस अवस्था में बहुत सी चमकदार और सुनहरी सफ़ेद रौशनी दिखाई देती है जिसमे सब कुछ साफ़ साफ़ दिखाई देता है ,मानो चाँदनी से नहाई हुई । इस अवस्था में ऐसा लगता है कि जैसे सब कुछ पीछे छूट गया हो ,मोह माया से व्यक्ति मुक्त हो गया हो।

पांचवी और अंतिम अवस्था- इस अवस्था में व्यक्ति उस स्थान में प्रवेश करता हुआ अनुभव करता है जंहा से रौशनी आती दिखाई देती है ।यंहा उसे अपने प्रियजन अथवा रिस्तेदार दिखाई देते हैं जो उससे पहले मर चुके होते हैं । कई लोगो को यमराज या ईश्वर का दरबार दिखाई देता है कइयों को सुंदर प्रकृतिक दृश्य दिखाई देते हैं ।

इस अवस्था में ऐसी तनाव मुक्त स्थिति होती है जैसा व्यक्ति ने जीवन में कभी अनुभव नहीं किया होता है ।अतः इस स्थिति को व्यक्ति परमान्नद सा अनुभूत करता है । यही कारण है जब व्यक्ति 'पुर्नजीवित ' होता है तो उसे परम् आन्नद की अनुभूति से निकल जाने का दुःख होता है और वह कुछ मिनटों तक मानसिक स्थिर होने में लगते हैं ।

इन अनुभवों का विश्लेषण करने वाले वैज्ञानिकों ने माना है कि दिल की धड़कन बंद हो जाने के कारण मस्तिष्क को ऑक्सीजन मिलनी बंद हो जाती है  इसके कारण आदमी कल्पना के चित्र बनाने लगता है जिसे मतिभ्रम कहा जाता है ।वह जो कुछ भी देखता और समझता है वह छलावा मात्र होता है जो उसके द्वारा सुनी सुनाई बातों पर निर्भर होता है।

क्लिनिकली मृत व्यक्ति को जो कुछ पांच अवस्थाओं में अनुभव होता है उसे ' हैल्युसिनेशन' अर्थात दृष्टि व् श्रवण भ्रम कहा जाता है  जो शरीर के अंदर जैविक व् रासायनिक असंतुलन के कारण होता है  ।इसमें सब कुछ कल्पना के आधार पर होता है न की किसी दैविक ।

वैज्ञानिकों ने कहा है कि अंतिम पांचवी अवस्था जिसमे व्यक्ति ईश्वर आदि से मिलाने या  परम अनान्द दैवीय अनुभूति का दावा करता है उस हैल्युसिनेशन की स्थिति को कई नशीली दवाईओ से भी क्रिएट किया जा सकता है ।
सभ्य समाज के लिए नशा हानिकारक है और किसी भी व्यक्ति को नशा नहीं करना चाहिए  किंतु एल एस डी नामक की नशीली दवाई लेने पर व्यक्ति ऐसे ही परमान्नद कर सकता है।

कई तथाकथित योगी और धर्म के धंधेबाज ऐसे हैल्युसिनेशन( श्रवण / दृष्टि भ्रम)  द्वारा परमानन्द का दावा करते हैं अपने भक्तों के बीच । किन्तु हैल्युसिनेशन चाहे तथाकथित योग से हो या नशीली दवाइयों से है तो वह भ्रम और कल्पना ही ....अतः ऐसी झूठी कल्पनाये निंदनीय और समाज के लिए खतरनाक होती हैं।




Saturday, 11 March 2017

प्रचार तंत्र

   "तदस्य स्वविषये कार्तान्तिक-नैमित्तक -मौहोर्तिक
  पौराणिक इक्षणिक -गूढ़ पुरुषा:...............
.  परस्य विषये......
  दैवतप्रश्न निमित्तवाय.....
  विजयं ब्रुयू:,…...नक्षत्रे  दर्षयेयु:"
       
         -अर्थशास्त्र - 13/171/1

चुकी मेरा काम ही कस्टमर डीलिंग का है तो दिन भर किसी न किसी कस्टमर से राजनैतिक मुद्दे पर थोड़ी बहुत बात हो ही जाती है। मेरी शॉप दिल्ली के उत्तर - पूर्वी जिला में है जो बिलकुल उत्तर प्रदेश से सटा हुआ है ,मैं खुद भी मूल रूप से उत्तर प्रदेश का हूँ तो वंहा की घटनाएं चाहे राजनैतिक जो या सांस्कृतिक कंही न कंही  प्रभावित करती हीं हैं।

कल उत्तर प्रदेश में बीजेपी की अप्रत्यक्षीत जीत के बारे में जो वँहा के लोगो ने बताया  वह यह की जीत का सबसे बड़ा कारण था हिन्दुओ की सपा - बसपा से नाराजगी। नाराजगी का कारण था कि हिंदुओं के मन में यह बात बैठा दी गई है की सपा- बसपा मुस्लिम तुष्टिकरण करने वाली पार्टियां हैं । यदि ये पार्टियां फिर सत्ता में आईं तो उत्तर प्रदेश पाकिस्तान बन जायेगा । कैराना - अखलाख आदि मुद्दे को गर्मा के  बीजेपी ने पहले ही अपनी रणनीति तैयार कर ली थी , उसने रणनीति पर स्पष्ट काम किया  और हिन्दुओ का विश्वास जीतने के लिए उसने एक भी सीट मुस्लिम को नहीं दी ।

यह एक बहुत बड़ा रिस्क था किंतु उसको जो छवि बनानी थी हिन्दुओ में उसने बना ली थी। वह लोकसभा के नतीजों के आकंड़े को मान के चल रही थी की वह जीतना भी नरम रुख अपनाने का दिखावा कर ले मुसलमानों के प्रति मुसलमान उसे वोट नहीं देंगे ,तो बेकार में सीट्स क्यों ख़राब करना किसी मुस्लिम को उम्मीदवार खड़ा कर के?

अब लेख को आगे बढ़ाने से पहले  ऊपर दिए अर्थशास्त्र के श्लोक का अर्थ जानिए,
कौटिल्य धर्म की राजनीती करने वाले राजा के बारे में निर्देश देते हैं -

' राजा को इस तरह आश्चर्यमयी बातों को उस के सहायक तथा दैवज्ञ ( भविष्यवक्ता ) , नैमित्तिक( शुभ अशुभ बताने वाले) , पौराणिक( कथावाचक) , गुप्तचर आदि सर्वत्र राज्य में प्रचारित करें । शत्रु के राज्य  को पराजित करने के लिए राजा को  चमत्कारिक  और कष्टों से मुक्तिदाता , उसके दैवीय सेना व् उसके दिव्यकोष की सनसनी उसके गुप्तचर फैला देंवे।

यह सर्वज्ञात है कि बीजेपी धर्म की राजनीती करती है और मोदी अभी उसे सर्वेसर्वा अर्थात राजा हैं।लोकसभा चुनाव में "हर हर मोदी" जैसे नारों से मोदी जी ने खुद को हिन्दुओ का रहनुमा प्रचारित करना शुरू कर दिया था । इस काम के लिए उन्होंने कौटिल्य के सुझाये सभी निर्देशों का पालन बखूबी किया  प्रचार तंत्र( टीवी) का , शसक्त आईटी फ़ौज खड़ी की जो फोटो एडिट कर ,झूठी खबरों को  सोशल मीडिया को खूब प्रचारित करती रही ।
चुकी इन झूठी खबरों को तात्कालिक रूप से प्रमाणित नहीं किया जा सकता अतः जब तक लोगो को सच बात पता चलती तब तक बहुत देर हो गई होती ।

इन सच्ची- झूठी खबरों का नतीजा यह हुआ की एक अंधी फ़ौज मोदी को अपना भगवान् मानने लगी या यूँ कहिये की कल्कि अवतार जो आते ही मुसलमानों को ख़त्म कर देगा ।
धारा 370 को ख़त्म कर देगा।
बांग्लादेशियों को लात मार के निकाल देगा।
जुमले फेंके गए।
आदि भावनात्मक मुद्दों को खूब उछाला गया , रही सही कसर खुद मुसलमानों ने अपनी कट्टरता से पूरी कर दी ।मोदी और उनकी टीम भी यही चाहती थी की मुस्लिम अधिक से अधिक  कट्टर हों तकी
वो उन्हें विलेन बना खुद को हिन्दुओ का रक्षक घोषित कर सकें।

कैराना जैसे घटनाओं को ऐसा उछाला गया ,जैसे पूरे उत्तर प्रदेश से हिन्दुओ का पलायन होने लगा है । न्यूज वालो को अपना हिस्सा मिल गया था ,अब बस उन्हें स्तुतिगान करना था ।

तीन तलाक का मुद्दा मिडिया ने ऐसे उठाया की हिंदुओ को लगने लगा की जैसे वह मुस्लिम समस्या न होके उनकी समस्या हो ,जबकि मौजूद जातिप्रथा के खिलाफ जूं तक नहीं रेंगती ।
हिन्दुओ को ऐसा प्रतीत हुआ की तीन तलाक मुस्लिम महिलाओं का न होके हिन्दुओ महिलाओं का हो रहा है अतः भारत में ' शरीयत'लागू होने से बचाने के लिए ध्रुवीकरण होने लगा।

विधानसभाओं के ठीक पहले नोटबन्दी कर विपक्षियों की आर्थिक स्वांस नली काट कर उन्हें मृत बना दिया गया , तरीका फिर वही कौटिल्य वाला अपनाया गया प्रचार तंत्र के सहारे जनता को यह समझा दिया गया कि नोटबंदी देश की भलाई यनीं पाकिस्तान ( मुस्लिम) के आतंकवाद के खिलाफ है।
अभी आम भारतीय टीवी की खबरो पर ही भरोसा करता है , पोषित न्यूज वाले दिन रात दिखाने लगे की नोटबंदी से पाकिस्तान को हरा रहे हैं ।जनता में '"देशभक्ति(?) की भावना जगा मुख्य काम यनीं विपक्षियों की आर्थिक स्थिति खराब करने का काम बखूबी पूरा हो चुका था ।

विपक्ष निश्चित ही मोदी के मायावी प्रचार तंत्र से अभी दस साल पीछे चल रहा है ,वह ठीक से कोई भी लूपहोल को जनता के बीच प्रभावी रूप से नहीं रख पाया।
यंहा तक की चुनावी रुख और जनता का रुझान किस तरफ है यह ठीक से आकलन कर ही नहीं पाया या करना ही नहीं चाहा।

मायावती जी जैसी नेत्री की हालत और भी ख़राब हो गई मोदी के इस प्रचार तंत्र में । वो ऐसी नेत्री रही जो बिना किसी मिडीया प्रचार के चुनाव में कूदी जबकि आज लगभग हर घर में टीवी है और लोग न्यूज देखते है । अब यह उनकी नोटबन्दी  से  आर्थिक स्थिति बिगड़ना कहें या स्वयं का मीडिया से दूर रहना जिस कारण वो प्रचार तंत्र और जुमलेबाजी में पिछड़ गईं।

मायावती मान के चल रही थीं की दलित उनके साथ है किन्तु इस बार वो आकलन करने में चूक गईं। उमके वोट बैंक में कब सेंध लग गई यह उन्हें पता भी न चला ।
रही सही कसर मुसलमानों को 100 के करीब और इतनी ही ब्राह्मणों को सीट्स देके पूरी कर ली।

मुसलमान अव्वल तो उनके साथ थे ही नहीं बल्कि सपा के साथ थे और ब्राह्मण कभी उनके हुए ही नहीं ।ऐसी ही हालात लोकसभा में हुई थी उनकी ब्राह्यणों को सीट्स देके , पता नहीं क्यों वे तब भी नहीं चेती।

भाजपा ने पहले ही मुसलमान विरोधी माहौल बना के हिन्दुओ को अपने पक्ष में किया हुआ था ,उस पर उसने " जय भीम-जय मीम"की अफवाह उड़ा के रहे सही  ओबीसी और गैर जाटव वोट भी खिसका दिया । इन्हें लगा की कंही मायावती जी ओवैसी के साथ गठबंधन न कर लें,आखिर मुस्लिम विरोध तो था ही ।मायावती जी भी इस अफ़वाह का खंडन जोर शोर से नहीं कर पाएं .... शायद 100 मुस्लिम कैंडिडेट्स का प्रेम या खोने का डर था ।बाद में यही चुप्पी ले डूबी ।


कुल मिला के जमाना प्रचार तंत्र का है ,प्रचार कीजिये मोदी जी की तरह फिर चाहे केवल 'जुमला' ही क्यों न हो ।विपक्षी दल जितना जल्दी समझ जाएं उनके लिए बेहतर हैं।

Thursday, 9 March 2017

प्यार- कहानी

 " मेरी बात मान ले राकेश !लड़की अच्छी है, आख़िर बहुत लंबी उम्र होती है .…जिंदगी अकेले काटना बहुत मुश्किल होता है" माँ ने  रसोई से दूध का गिलास ला मेज पर रखते हुए कहा।

"माँ! फिर तुम  शुरू हो गईं"राकेश ने गिलास मे रखे दूध को निप्पल में डालते हुए थोड़ा झुंझुला के कहा ।

"तेरे भले के लिए ही कह रही हूँ ....मैं कब तक रहूंगी यंहा? और फिर अभी नमिता सिर्फ दो साल की है ...कैसे सँभालेगा तू अकेला? " अब नाराज़ होने की बारी माँ की थी।

राकेश खामोश रहा और चुपचाप नमिता के मुंह में दूध का निप्पल लगाए उसे देखता रहा ।

कुछ देर चुप रहने के बाद मां राकेश के पास आई और कंधे  पर प्यार से हाथ रखते हुए कहा ।
"देख राकेश! मैं मानती हूँ की बहुत प्यार करता था तू विभा से ...पर मेरे बच्चे! अब विभा को गए डेढ़ साल हो गएँ ,मैं मानती हूँ की उसे भूलना तेरे आसान न होगा पर सिर्फ उसकी यादो के सहारे जिंदगी तो नहीं कटेगी न....बच्ची का मुंह देख और शादी के लिए हाँ कर दे,तू नहीं संभाल पायेगा इस दुधमुंही बच्ची को"

राकेश ने माँ की तरफ देखा और फिर नमिता की तरफ, नमिता अब भी दूध पीने में मग्न थी।

"नहीं माँ, मैं नहीं करूँगा अब शादी । मेरी विभा की आखरी निशानी ही मेरे जीवन का मकसद बनेगी,मैं किसी और से अपने प्यार का बंटवारा नही कर सकता "रमेश ने नमिता को चूमते हुए सर्द लहज़े में जबाब दिया ।

माँ के मुंह से कोई शब्द न निकला ,वह लाचार सी राकेश को देखती रही।
कुछ दिन बाद वो वापस गाँव अपने पति यानी राकेश के पिता के पास लौट गईं। जाती भी क्यों न आखिर गाँव में खेती के अलावा नौकरी भी है पति की अतः राकेश के पास ज्यादा दिन नहीं रुक सकती थी।

बचे सिर्फ राकेस और डेढ़ साल की नमिता ।

जब से विभा की मौत हुई तब  से राकेश ही उसकी मां बन गया था । समय समय पर दूध गर्म कर के पिलाना, डायपर बदलना आदि सभी काम वह स्वयं करता ।

इस काम के लिए उसने पहला ऑफिस जंहा उसे अच्छी सैलरी मिलती थी वह छोड़ दिया और एक ऐसे ऑफिस में लगभग आधी सैलरी में काम करने लगा ताकि उसे नमिता के लिए अधिक समय मिल सके ।

समय निकलता गया, नमिता पहले घुटनो से फिर पैरों से दौड़ने लगी । नमिता को स्कूल फिर कॉलेज तक लाते लाते राकेश ने न जाने कितनी राते और दिन अकेले दर्द से सही पर नमिता को इस बात का कभी अहसास नहीं होने दिया  , काम और फिर नमीता की देखभाल करते करते समय से पहले ही बूढ़ा लगने लगा था वह।

इस बीच माँ बाप का साथ भी छूट गया । गाँव की सब जमीन जायजाद बेच के राकेश ने शहर में ही प्रोपर्टी खरीद ली थी , यह नमीता की ही जिद थी की उसका एक फ्लैट किसी पॉश एरिये में हो ।
पॉश एरिये में फ्लैट महंगा था अतः केवल गाँव की जमीन बेचने से भर काम न चला बल्कि अपनी सारी जमा पूंजी भी लगा देने के साथ पुराना घर भी बेचना पड़ा तब जा के फ्लैट ख़रीदा गया ।


नमीता बहुत खुश थी।

करीब एक साल बाद.....

"पापा अगर मैं शादी करुँगी तो उसी से वर्ना आत्महत्या कर लुंगी "नमीता ने सुबकते हुए कहा ।
"पर नमीता हम तो अभी ठीक से उसे जानते भी नहीं..... मुझे वह लड़का सही नहीं लगता " राकेश ने गुस्से से कहा ।
"आपको तो अच्छा लगेगा ही नहीं ... अरे आप क्या जानो प्यार क्या होता है ? मेरी माँ होती तो ऐसा नहीं होने देती ... आप को तो कोई मतलब ही नहीं मेरी खुशियों से "इतना कह नमीता गुस्से से चिल्लाने लगी और फिर फूट के रो पड़ी।

राकेश स्तब्ध बहुत देर तक खड़ा रहा ,फिर नमीता के पास आ के बोला-" बेटी मैं तेरे भले के लिए कह रहा हूँ .....जब वह लड़का अपने पिता के साथ रिस्ते की बात करने आया था तो दहेज में यह फ्लैट मांग रहा था "
"अरे झूठ मत बोलिये वह आपसे अपने लिए नहीं मांग रहा था बल्कि वह कह रहा था कि आप यह फ्लैट मेरे नाम कर दें .... आखिर आपके बाद तो  मुझे ही मिलने वाला है न ....तो इसमें गलत क्या कहा उसने ? .... मुझे लगता है कि आप मुझे कुछ देना ही नहीं चाहते " नमीता का गुस्सा इस बार और अधिक था ।

राकेश कुछ न बोला बस नमीता की बाते सुने जा रहा था।


कुछ दिन बाद नमीता की शादी हुई , विदाई के वक्त राकेश ने नमीता के हाथ में फ्लैट ट्रांसफर के कागज़ात थमा दिए । कागज़ात देख के नमीता बहुत खुश हुई और बोली-
"पापा आप टेंशन न लें ... आप का ही घर है आप जींतने दिन चाहे यंही रहिये"

राकेश मुस्कुरा दिया , ईधर नमीता की डोली उठी उधर राकेश का बैग ।

बैग में सिर्फ एक जोड़ी कपडे और उसकी पत्नी विभा की तस्वीर के अलावा कुछ न था ।
राकेश चल दिया था एक अनजान सफर में।


बस यही तक थी कहानी....


 picture from Google -



Wednesday, 8 March 2017

ईश्वर पर विश्वास

 " इत्ती जल्दी जल्दी कँहा भागे जा रहे हो केशव बाबू?" पांडे जी ने  अचानक सामने प्रकट होते हुए कहा ।
"नमस्कार शर्मा जी ! दुकान पर ही जायेंगे और कँहा ठिकाना है " केशव ने मुस्कुराते हुए कहा ।
"नमस्ते !... हमने सुना है कि आज कल नास्तिकता का बहुत जोर से प्रचार कर रहे हो" मुंह में भरे गुटखे की पीक से बगल में खड़े बिजली के खम्बे को कलात्मक लाल रंग देते हुए कहा पांडे  जी ने ।

उनकी बात सुन केशव मुस्कुरा दिया ।

" अरे मुस्कुराइये नहीं..... जबाब दीजिये, का भगवान् पर बिलकुलअ विस्वास नहीं करते हो?.... देवी देवता कौनो पर तनिक भी विस्वास नाही? " पांडे जी ने उत्सुकता से पूछा।

केशव फिर मुस्कुराया और बोला " आप करते हैं क्या?"

"ये लो! काहे नहीं करते हैं !..... हम सबसे ज्यादा विस्वास भगवान् पर ही करते हैं.... इंहा तक की अपने से भी ज्यादा ...... विस्वास का नाम ही तो भगवान् ईश्वर है । आदमी को विस्वास होना चाहिए भगवान् उसे स्वयं ही अपना लेते हैं" पांडे जी ने अब लंबी जिरह के मूड में लग रहे थे ।ऐसा लग रहा था कि वो पूरी तैयारी कर के आएं है जिरह करने ।

" तो आप बहुत विश्वास करते हैं ईश्वर पर ? " केशव ने फिर पूछा।

"ये लो! अभी कहे तो हैं कि पूरा विस्वास है हमें ईश्वर पर ।ई दुनिया ईश्वर के विस्वास पर ही तो चल रही है .... शास्त्रों में लिखा है कि दुनिया में सब झूठ है बस एक ईश्वर ही सत्य है ....यो भूतं च भव्‍य च सर्व यश्‍चाधि‍ति‍ष्‍ठति‍। स्‍वर्यस्‍य च केवलं.... इस पुरे ब्रह्माण्ड में केवल वही परमात्मा है ..." पांडे जी ने अब मुंह में दबाये गुटखे को पूरी तरह उगलते हुए कहा ।ऐसा लग रहा था कि वे आज ठान के ही आये थे की वे अपने ज्ञान की गोलियों से छलनी कर ही देंगे।
" हरि पर विस्वास से ही तो जीत होती है , अब देखो प्रह्लाद ने ईश्वर पर विश्वास किया था तो ईश्वर ने उसे मृत्यु से बचा लिया था ..... ईश्वर पर विस्वास करो तो चमत्कार होते हैं... तुम्हारी तरह नहीं की बस कह दिया की ईश्वर नहीं है और सब खत्म" पांडे जी ने व्यंगात्मक लहजे में कहा और मुस्कुरा दिए।

" तो पाण्डे जी आपको अपने ईश्वर पर बहुत विश्वास है ?" केशव ने फिर पूछा।
"अबे एक ही प्रश्न काहे दोहरा रहे हो बार बार ? कह तो दिया अथाह और अडिग विश्वास है ईश्वर पर" पाण्डे जी ने थोड़ा झुंझलाते हुए कहा ।

" गुस्सा न होइये बस ऐसे ही पूछ रहे हैं..." केशव ने मुस्कुराते हुए कहा।
"4 दिन बाद होली है पांडे जी .... ऐसा कीजिये की इस बार आप अपने अडिग विश्वास के साथ होलिका में बैठ जाइए ... देखिये की आप का विश्वास पक्का है कि नहीं और जैसे हरि ने प्रह्लाद को बचाया था उसके विश्वास के कारण वैसे आपको आपके ईश्वर बचाते हैं कि नहीं !..... यदि आप को आपके ईश्वर ने बचा लिया तो पूरी दुनिया में आपका नाम हो जायेगा और लोग फटा फट आस्तिक बन जायेंगे... आस्तिक ही क्या वो हिन्दू बन जायेंगे.... सोचिये पूरी दुनिया आपके इस कृत्य से आस्तिक बन जायेगी..... आप बैठिए इस बार होलिका में और साबित कर दीजिये  अपने ईश्वर के विश्वास को....मैं अभी मिडिया वालो को बुलाता हूँ आपके इस महान विश्वास के प्रदर्शन के लिए ... आपका कितना नाम हो जायेगा दुनिया में .. " केशव ने गंभीर किन्तु मुस्कुराते हुए कहा ।


पाण्डे जी के चेहरे से हवाइयां उड़ चुकी थीं.... उन्होंने गले में लटके गमछे से मुंह पोछा और कुछ देर खामोश रहने के बाद हड़बड़ाते हुए जेब से फोन निकाला और कान पर लगाते हुए बोले।

" ठीक है ! आ रहा हूँ बस रास्ते में ही हूँ"

इतना कह वे तेजी से निकल गएँ।


Saturday, 4 March 2017

भोजन और अछूत जाति

 प्रागैतिहासिक काल से लेके आधुनिक काल तक के मानवीय सभ्यता विकास क्रम का मुख्य आधार भोजन की व्यवस्था रही है ,भोजन की उपलब्धता को सरल बनाने के क्रम में ही सभ्यताओं का विकास हुआ ।जो सभ्यताएं भोजन की उपलब्धता को जितना सरल बना सकी वे उतनी ही तेजी से विकसित होती रही और जो भोजन की व्यवस्था में पिछड़ गएँ वे लुप्त होते चले गएँ।

संसार के विभिन्न क्षेत्रों में व्यापक खुदाई के बाद जो पुरावशेष प्राप्त हुए हैं उनमें सबसे नीचे के स्तर पर पत्थरो के अनगढ़ टुकड़े मिले हैं जिनका शिकार करने के रूप मे इस्तेमाल होता था जिसे पाषण युग कहा जाता है । उस समय के मानव ने पत्थरो के औजार हथियार बनाये जिससे शिकार करने में आसानी होती थी , इन औजारों से वे कम मेहनत में भोजन ( शिकार) कर सकते थे ।
उसके बाद उत्तर-पाषण युग में पत्थरो के औजारों को और विकसित किया और सिमित रूप से कृषि करने लगे ,कांस्य और उसके बाद लोह युग आते मानव सभ्यता में निर्णयक मोड़ आया।
भोजन के लिए चरवाही संस्कृति पर निर्भर रहने वाली सभ्यता भी कृषि क्षेत्र में प्रवेश कर गई क्यों की धातुओ की खोज ने कृषि क्षेत्र में क्रन्तिकारी कार्य किया ,अब कृषि के द्वारा भोजन सुलभता और अधिक मिलने लगा जिसका संग्रह करना आसान होता था ।

भोजन की सुलभता ने जीवन आसान बना दिया तो वंश वृद्धि भी तेजी से होने लगी, जो समूह अब तक छोटे छोटे थे अब तेजी से बढ़ने लगे थे अतः कृषि के लिए अधिक जमीनों की आवश्यकता होने लगी परन्तु अधिक उपजाऊ जमीनों का पाना आसान न था क्यों की जंगलो को साफ़ कर उन्हें खेती योग्य बनाना सभी के बस का न था अतः दूसरे समूहों पर आक्रमण कर उनके खाद्य पदार्थ या दुग्ध -मांस के स्रोत पशुओं को लूटने  और जमीनों पर अधिकार करना ज्यादा होने लगा ।

इसी क्रम में कई विदेशी जातियां भारत आईं, ऋग्वेद में आधे से अधिक ऋचाओं में गाय और अन्न मांगने की प्रार्थनाएं हैं।जब आर्यो का भारत पर आधिपत्य हुआ तो सबसे पहले यंहा के लोगो को अच्छा भोजन और भूमि से वंचित किया ।

एक सर्वमान्य तथ्य है कि यदि पौष्टिक भोजन किसी समुदाय को पीढ़ियों तक मिलता रहे तो कुछ पीढ़ियों बाद उसका वंश में आने वाली संताने बुद्धि,रंग और बल में उत्तम हो जाती हैं।

अब जरा गीता का अवलोकन कीजिये, गीता अध्याय 17 श्लोक 10 में कहा गया ' यातयामं ......मातसप्रियम'
अर्थात-सूखा ,सड़ा, बासी ,दुर्गन्धयुक्त ,जूठा और अपवित्र भोजन तामसी पुरुषो को प्रिय होता है ।

सड़ा ,बासी और जूठा आदि भोजन किसको प्रिय होता है? क्या कोई अपनी मर्जी से ऐसा भोजन करेगा?
हम जानते हैं कि भारत में शुद्र-अछुतो की क्या स्थिति रही है ,60% अछूत कही जाने वाली जातियां आज भी भूमिहीन हैं जिनके पास अपनी कोई भूमि नहीं है ये लोग गन्दी बस्तियों में रहने के लिए मजबूर है ।बच्चे कुपोषित है ।सड़ा और बासी खाने पर मजबूर है ,दूषित पानी पीने को मजबूर  हैं।

ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की लिखी आत्मकथा 'जूठन' ऐसी ही कहानी बयां करती है जिसमे वो जूठन बटोर के खाने पर मजबूर होते हैं ।

गीता जैसी तथाकथित 'ईश्वर उवाच' किताब यह सुनिश्चित करती रही है  की बहुसंख्यक दलित समाज अन्न को संग्रहित न कर पाए जिससे कंही उनके पेट न भर जाए और वो बुद्धि बल से मजबूत न हो जाएं।
मनु भी निर्देश देते हैं की शुद्र दलित भोजन न एकत्रित कर पाएं ,उनकी सम्पत्ति भोजन के भंडार नहीं अपितु टूटे मिटटी के बर्तन और कुत्ते -गधे हों ।

अतः यदि शोषितों को अपने हितों के लिए  संघर्ष करना जारी रखना है तो भोजन की तरफ मुख्यतः ध्यान देना चाहिए।

फ़ोटो सभार गूगल