प्रागैतिहासिक काल से लेके आधुनिक काल तक के मानवीय सभ्यता विकास क्रम का मुख्य आधार भोजन की व्यवस्था रही है ,भोजन की उपलब्धता को सरल बनाने के क्रम में ही सभ्यताओं का विकास हुआ ।जो सभ्यताएं भोजन की उपलब्धता को जितना सरल बना सकी वे उतनी ही तेजी से विकसित होती रही और जो भोजन की व्यवस्था में पिछड़ गएँ वे लुप्त होते चले गएँ।
संसार के विभिन्न क्षेत्रों में व्यापक खुदाई के बाद जो पुरावशेष प्राप्त हुए हैं उनमें सबसे नीचे के स्तर पर पत्थरो के अनगढ़ टुकड़े मिले हैं जिनका शिकार करने के रूप मे इस्तेमाल होता था जिसे पाषण युग कहा जाता है । उस समय के मानव ने पत्थरो के औजार हथियार बनाये जिससे शिकार करने में आसानी होती थी , इन औजारों से वे कम मेहनत में भोजन ( शिकार) कर सकते थे ।
उसके बाद उत्तर-पाषण युग में पत्थरो के औजारों को और विकसित किया और सिमित रूप से कृषि करने लगे ,कांस्य और उसके बाद लोह युग आते मानव सभ्यता में निर्णयक मोड़ आया।
भोजन के लिए चरवाही संस्कृति पर निर्भर रहने वाली सभ्यता भी कृषि क्षेत्र में प्रवेश कर गई क्यों की धातुओ की खोज ने कृषि क्षेत्र में क्रन्तिकारी कार्य किया ,अब कृषि के द्वारा भोजन सुलभता और अधिक मिलने लगा जिसका संग्रह करना आसान होता था ।
भोजन की सुलभता ने जीवन आसान बना दिया तो वंश वृद्धि भी तेजी से होने लगी, जो समूह अब तक छोटे छोटे थे अब तेजी से बढ़ने लगे थे अतः कृषि के लिए अधिक जमीनों की आवश्यकता होने लगी परन्तु अधिक उपजाऊ जमीनों का पाना आसान न था क्यों की जंगलो को साफ़ कर उन्हें खेती योग्य बनाना सभी के बस का न था अतः दूसरे समूहों पर आक्रमण कर उनके खाद्य पदार्थ या दुग्ध -मांस के स्रोत पशुओं को लूटने और जमीनों पर अधिकार करना ज्यादा होने लगा ।
इसी क्रम में कई विदेशी जातियां भारत आईं, ऋग्वेद में आधे से अधिक ऋचाओं में गाय और अन्न मांगने की प्रार्थनाएं हैं।जब आर्यो का भारत पर आधिपत्य हुआ तो सबसे पहले यंहा के लोगो को अच्छा भोजन और भूमि से वंचित किया ।
एक सर्वमान्य तथ्य है कि यदि पौष्टिक भोजन किसी समुदाय को पीढ़ियों तक मिलता रहे तो कुछ पीढ़ियों बाद उसका वंश में आने वाली संताने बुद्धि,रंग और बल में उत्तम हो जाती हैं।
अब जरा गीता का अवलोकन कीजिये, गीता अध्याय 17 श्लोक 10 में कहा गया ' यातयामं ......मातसप्रियम'
अर्थात-सूखा ,सड़ा, बासी ,दुर्गन्धयुक्त ,जूठा और अपवित्र भोजन तामसी पुरुषो को प्रिय होता है ।
सड़ा ,बासी और जूठा आदि भोजन किसको प्रिय होता है? क्या कोई अपनी मर्जी से ऐसा भोजन करेगा?
हम जानते हैं कि भारत में शुद्र-अछुतो की क्या स्थिति रही है ,60% अछूत कही जाने वाली जातियां आज भी भूमिहीन हैं जिनके पास अपनी कोई भूमि नहीं है ये लोग गन्दी बस्तियों में रहने के लिए मजबूर है ।बच्चे कुपोषित है ।सड़ा और बासी खाने पर मजबूर है ,दूषित पानी पीने को मजबूर हैं।
ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की लिखी आत्मकथा 'जूठन' ऐसी ही कहानी बयां करती है जिसमे वो जूठन बटोर के खाने पर मजबूर होते हैं ।
गीता जैसी तथाकथित 'ईश्वर उवाच' किताब यह सुनिश्चित करती रही है की बहुसंख्यक दलित समाज अन्न को संग्रहित न कर पाए जिससे कंही उनके पेट न भर जाए और वो बुद्धि बल से मजबूत न हो जाएं।
मनु भी निर्देश देते हैं की शुद्र दलित भोजन न एकत्रित कर पाएं ,उनकी सम्पत्ति भोजन के भंडार नहीं अपितु टूटे मिटटी के बर्तन और कुत्ते -गधे हों ।
अतः यदि शोषितों को अपने हितों के लिए संघर्ष करना जारी रखना है तो भोजन की तरफ मुख्यतः ध्यान देना चाहिए।
फ़ोटो सभार गूगल
संसार के विभिन्न क्षेत्रों में व्यापक खुदाई के बाद जो पुरावशेष प्राप्त हुए हैं उनमें सबसे नीचे के स्तर पर पत्थरो के अनगढ़ टुकड़े मिले हैं जिनका शिकार करने के रूप मे इस्तेमाल होता था जिसे पाषण युग कहा जाता है । उस समय के मानव ने पत्थरो के औजार हथियार बनाये जिससे शिकार करने में आसानी होती थी , इन औजारों से वे कम मेहनत में भोजन ( शिकार) कर सकते थे ।
उसके बाद उत्तर-पाषण युग में पत्थरो के औजारों को और विकसित किया और सिमित रूप से कृषि करने लगे ,कांस्य और उसके बाद लोह युग आते मानव सभ्यता में निर्णयक मोड़ आया।
भोजन के लिए चरवाही संस्कृति पर निर्भर रहने वाली सभ्यता भी कृषि क्षेत्र में प्रवेश कर गई क्यों की धातुओ की खोज ने कृषि क्षेत्र में क्रन्तिकारी कार्य किया ,अब कृषि के द्वारा भोजन सुलभता और अधिक मिलने लगा जिसका संग्रह करना आसान होता था ।
भोजन की सुलभता ने जीवन आसान बना दिया तो वंश वृद्धि भी तेजी से होने लगी, जो समूह अब तक छोटे छोटे थे अब तेजी से बढ़ने लगे थे अतः कृषि के लिए अधिक जमीनों की आवश्यकता होने लगी परन्तु अधिक उपजाऊ जमीनों का पाना आसान न था क्यों की जंगलो को साफ़ कर उन्हें खेती योग्य बनाना सभी के बस का न था अतः दूसरे समूहों पर आक्रमण कर उनके खाद्य पदार्थ या दुग्ध -मांस के स्रोत पशुओं को लूटने और जमीनों पर अधिकार करना ज्यादा होने लगा ।
इसी क्रम में कई विदेशी जातियां भारत आईं, ऋग्वेद में आधे से अधिक ऋचाओं में गाय और अन्न मांगने की प्रार्थनाएं हैं।जब आर्यो का भारत पर आधिपत्य हुआ तो सबसे पहले यंहा के लोगो को अच्छा भोजन और भूमि से वंचित किया ।
एक सर्वमान्य तथ्य है कि यदि पौष्टिक भोजन किसी समुदाय को पीढ़ियों तक मिलता रहे तो कुछ पीढ़ियों बाद उसका वंश में आने वाली संताने बुद्धि,रंग और बल में उत्तम हो जाती हैं।
अब जरा गीता का अवलोकन कीजिये, गीता अध्याय 17 श्लोक 10 में कहा गया ' यातयामं ......मातसप्रियम'
अर्थात-सूखा ,सड़ा, बासी ,दुर्गन्धयुक्त ,जूठा और अपवित्र भोजन तामसी पुरुषो को प्रिय होता है ।
सड़ा ,बासी और जूठा आदि भोजन किसको प्रिय होता है? क्या कोई अपनी मर्जी से ऐसा भोजन करेगा?
हम जानते हैं कि भारत में शुद्र-अछुतो की क्या स्थिति रही है ,60% अछूत कही जाने वाली जातियां आज भी भूमिहीन हैं जिनके पास अपनी कोई भूमि नहीं है ये लोग गन्दी बस्तियों में रहने के लिए मजबूर है ।बच्चे कुपोषित है ।सड़ा और बासी खाने पर मजबूर है ,दूषित पानी पीने को मजबूर हैं।
ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की लिखी आत्मकथा 'जूठन' ऐसी ही कहानी बयां करती है जिसमे वो जूठन बटोर के खाने पर मजबूर होते हैं ।
गीता जैसी तथाकथित 'ईश्वर उवाच' किताब यह सुनिश्चित करती रही है की बहुसंख्यक दलित समाज अन्न को संग्रहित न कर पाए जिससे कंही उनके पेट न भर जाए और वो बुद्धि बल से मजबूत न हो जाएं।
मनु भी निर्देश देते हैं की शुद्र दलित भोजन न एकत्रित कर पाएं ,उनकी सम्पत्ति भोजन के भंडार नहीं अपितु टूटे मिटटी के बर्तन और कुत्ते -गधे हों ।
अतः यदि शोषितों को अपने हितों के लिए संघर्ष करना जारी रखना है तो भोजन की तरफ मुख्यतः ध्यान देना चाहिए।
फ़ोटो सभार गूगल
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