" एक नया सवाल उठ खड़ा हुआ है , लोग कह रहें है कि मैं अपनी 'हैकड़ी' के कारण तथाकथित सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी और सर्वज्ञ ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करता ।यंहा तक की मेरे साथी श्री बी.के. दत्त कभी कभी मुझे निरंकुश कहा करते थे ,कुछ मित्रो को शिकायत है कि मैं अपने विचार दूसरों पर थोपता हूँ । कुछ लोग कह रहे हैं कि बम्ब काण्ड में लोकप्रिय होने के कारण मैं ' अहंकार' के कारण नास्तिक बन गया हूँ ।
किन्तु मैं समझ नहीं सका की एक आस्तिक को निजी हैकड़ी अथवा लोकप्रियता कैसे आस्तिक बने रहने से रोक सकती है? यदि ऐसा है तो दो ही बाते हो सकती हैं पहली यह की आदमी या तो स्वयं को ईश्वर का प्रतिद्वंदी समझने लगे या स्वयं को ही ईश्वर । लेकिन इन दोनों स्थितियों में वह सच्चा नास्तिक नहीं बन सकता ।
पहली स्थिति में वह अपने प्रतिद्वंदी के अस्तित्व को इंकार नहीं कर सकता ,दूसरी स्थिति में वह ऐसी सत्ता के अस्तित्व को स्वीकार कर लेता है जो अदृश्य रह के प्रकृति के तमाम क्रियाओं को निर्देशित करती है । दोनों ही स्थिति ज्यूँ की त्यों है ,उसका विश्वाश ज्यूँ का त्यों है । अतः न मैं पहली श्रेणी में आता हूँ न दूसरी श्रेणी में , मैं उस तथाकथित सर्वशक्तिमान परमात्मा के अस्तित्व से ही इंकार करता हूँ।
यह सरासर मिथ्या है कि लोकप्रियता के कारण मैंने हैकड़ी अथवा अहंकार से नास्तिक बना हूँ , बल्कि मैंने ईश्वर को तभी मानना बंद कर दिया था जब मैं एक अज्ञात नौजवान था ।
मेरे दादा, जिनके प्रभाव में मेरा लालन पालन हुआ कट्टर धार्मिक थे , अपनी शुरू की शिक्षा पूरी करने के बाद मेरा दाखिला लाहौर के डीएवी स्कूल में हुआ जंहा सुबह शाम की प्रार्थनाओं के अलावा भी मैं घंटो गायत्री मंत्र जपता रहता था ।उन दिनों में पूरा धार्मिक भगत था । मेरे पिता धार्मिक कट्टर तो नहीं है किंतु नास्तिक भी नहीं है ,वे रोज मुझे पूजा पाठ के लिए प्रोत्सहित किया करते थे ।हलाकि की उन्ही की सीखो के कारण मुझे आज़ादी के लिए अपनी जिंदगी बलिदान कर देने की हसरत जागी।
असहयोग आंदोलन के दिनों में मेरा नेशनल कॉलेज में दाखिला हुआ , वंही जाकर मैंने उदारवादी ढंग से सोचना और सारी धार्मिक समस्याओं के बारे में यंहा तक की ईश्वर के बारे में भी बहस और आलोचना करना शुरू किया ।अब मैं बिना कटे- छँटे दाढ़ी और केश रखने लगा था ,मगर मैं सिख मत या किसी अन्य धर्म के मिथकों और सिद्धांतों में विश्वास कभी नहीं कर पाया था ।
जब क्रन्तिकारी दल की जिम्मेदारी कंधों पर आ गई तो जैसा की होना ही था प्रतिक्रिया इतनी जबरजस्त थी की कुछ समय तक तो दल का अस्तित्व ही असम्भव लगता था ,उत्साही साथी( नेता) हमारा मज़ाक उड़ाने लगे ।कुछ समय तक मुझे ऐसा लगा की मैं अपना कार्यकर्म व्यर्थ मान लूँ ,मेरे क्रन्तिकारी जीवन में यह एक मोड़ था । मेरे दिमाग के हर कोने से आवाज आई की ' अध्यन करो... स्वयं को विरोधियो के तर्कों का सामना करने के लिए अध्यन करो .... अपनी बात के समर्थन में तर्को से लैस होने के लिए अध्यन करो!
मैंने अध्यन करना शुरू कर दिया , उसके बाद जो पूर्ववर्ती आस्थाओं, हिंसात्मक उपायों पर विश्वास, दूर होते चले गएँ औरउनके स्थान पर गंभीर विचारो ने ले लिया।
मैंने सशस्त्र क्रन्तिकारी नेता बाकुनिन को पढ़ा, मार्क्स को पढ़ा, लेनिन, त्रोत्सकी व् अन्य लोगो को खूब पढ़ा ,ये सब नास्तिक थे ।
1926 के अंत तक मैं इस बात का कायल हो गया कि सारी दुनिया को बनाने ,चलाने और नियंत्रित करने वाली सर्वशक्तिमान परमसत्ता के अस्तित्व का सिद्धांत निराधार है।
मई 1927 में लाहौर में मेरी गिरफ्तारी हुई, एक दिन सी.आई.डी के तत्कालीन वशिष्ठ अधीक्षक मिस्टर न्यूमैन मेरे पास आये और काफी देर तक सहानभूति जताने के बाद उन्होंने कहा कि जैसा वो लोग मुझ से ब्यान चाहते है यदि मैंने नहीं दिया तो मजबूर होके काकोरी कांड के सिलसिले में हुई हत्याओं और शासन के विरुद्ध षंड्यंत्र ,दशहरा बम्मकाण्ड के सिलसिले में मुकदमा चलाना पड़ेगा,फिर उन्होंने मुझे बताया कि उनके पास मुझे फाँसी के फंदे तक पहुचाने का पर्याप्त सबूत हैं। मैं जानता था की मेरे निर्दोष होने के बाद भी पुलिस ऐसा कर सकती थी।
उसी दिन कुछ पुलिस अफसरों ने मुझे सुबह शाम दोनों समय नियमित प्रार्थना करने के लिए प्रेरित करना शुरू कर दिया । अब मैं ठहरा नास्तिक।मैंने अपने मन में फैसला लिया की क्या केवल सुख के दिनों में अपनी नास्तिका की शेखी बघारता हूँ या ऐसी कठिन परिस्थियों में भी अपने सिद्धांतों पर अटल रह सकता हूँ?
बहुत सोच के मैंने विचार किया कि मैं ईश्वर की प्रार्थना नहीं करूँगा, और मैंने एक बार भी प्रार्थना नहीं की ।यह एक असली परीक्षा थी जिसमे मैं पास हुआ । एक क्षण के लिए भी मेरे मन में ईश्वर के प्रति विचार नहीं आया , मैं पक्का नास्तिका था ।
इस परीक्षा में पास होना कोई आसान काम नहीं था , आस्तिकता मुश्किलों को आसान कर देती है ,आदमी ईश्वर से बड़ी जबरजस्त राहत और दिलासा पा सकता है ।
किन्तु नास्तिकता या यथार्थवाद में इंसान को खुद पर भरोसा करना होता है , आंधी तूफ़ान के बीच अपने पैरों पर खड़ा रहना बच्चो का खेल नहीं ।
परीक्षा की ऐसी घड़ियों में हैकड़ी या अहंकार हो तो कर्पूर की तरह उड़ जाता है और आदमी प्रचलित विश्वासों को ठुकराने की हिम्मत नहीं कर पाता ।
मैं जानता हूं की मुक़दमे का फैसला क्या होना है , हफ्ते भर में वह सुना दिया जायेगा । इस ख्याल से ज्यादा राहत की उम्मीद क्या हो सकती है कि मैं जिस उद्देश्य के लिए अपने प्राणों का बलिदान करने जा रहा हूँ ?
एक हिन्दू राजा बन के पुनर्जन्म लेने का विश्वास कर सकता है ,मुसलमान या ईसाई जन्नत में सुख भोगने का इनाम अपनी क़ुरबानी और तकलीफों के बदले कर सकता है ।
मगर मैं किस चीज की उम्मीद करूँ? मैं जानता हूँ की जब मेरे गले में फांसी का फंदा डाल के पैरों के नीचे से तख्ता खींचा जायेगा तो सब कुछ समाप्त हो जायेगा। वही मेरा अंतिम क्षण होगा । मेरा, अथवा मेरी आत्मा का सम्पूर्ण अंत उसी समय हो जायेगा । बाद के लिए कुछ नहीं रहेगा ।
मैंने बिना इहलोक या परलोक में कोई पुरस्कार पाने , बिलकुल अनासक्त भाव से अपना जीवन आज़ादी के उद्देश्य के लिए अर्पित किया है "
( भगत सिंह जी की कलम , मैं नास्तिक क्यों हूँ लेख से छोटा सा अंश)
किन्तु मैं समझ नहीं सका की एक आस्तिक को निजी हैकड़ी अथवा लोकप्रियता कैसे आस्तिक बने रहने से रोक सकती है? यदि ऐसा है तो दो ही बाते हो सकती हैं पहली यह की आदमी या तो स्वयं को ईश्वर का प्रतिद्वंदी समझने लगे या स्वयं को ही ईश्वर । लेकिन इन दोनों स्थितियों में वह सच्चा नास्तिक नहीं बन सकता ।
पहली स्थिति में वह अपने प्रतिद्वंदी के अस्तित्व को इंकार नहीं कर सकता ,दूसरी स्थिति में वह ऐसी सत्ता के अस्तित्व को स्वीकार कर लेता है जो अदृश्य रह के प्रकृति के तमाम क्रियाओं को निर्देशित करती है । दोनों ही स्थिति ज्यूँ की त्यों है ,उसका विश्वाश ज्यूँ का त्यों है । अतः न मैं पहली श्रेणी में आता हूँ न दूसरी श्रेणी में , मैं उस तथाकथित सर्वशक्तिमान परमात्मा के अस्तित्व से ही इंकार करता हूँ।
यह सरासर मिथ्या है कि लोकप्रियता के कारण मैंने हैकड़ी अथवा अहंकार से नास्तिक बना हूँ , बल्कि मैंने ईश्वर को तभी मानना बंद कर दिया था जब मैं एक अज्ञात नौजवान था ।
मेरे दादा, जिनके प्रभाव में मेरा लालन पालन हुआ कट्टर धार्मिक थे , अपनी शुरू की शिक्षा पूरी करने के बाद मेरा दाखिला लाहौर के डीएवी स्कूल में हुआ जंहा सुबह शाम की प्रार्थनाओं के अलावा भी मैं घंटो गायत्री मंत्र जपता रहता था ।उन दिनों में पूरा धार्मिक भगत था । मेरे पिता धार्मिक कट्टर तो नहीं है किंतु नास्तिक भी नहीं है ,वे रोज मुझे पूजा पाठ के लिए प्रोत्सहित किया करते थे ।हलाकि की उन्ही की सीखो के कारण मुझे आज़ादी के लिए अपनी जिंदगी बलिदान कर देने की हसरत जागी।
असहयोग आंदोलन के दिनों में मेरा नेशनल कॉलेज में दाखिला हुआ , वंही जाकर मैंने उदारवादी ढंग से सोचना और सारी धार्मिक समस्याओं के बारे में यंहा तक की ईश्वर के बारे में भी बहस और आलोचना करना शुरू किया ।अब मैं बिना कटे- छँटे दाढ़ी और केश रखने लगा था ,मगर मैं सिख मत या किसी अन्य धर्म के मिथकों और सिद्धांतों में विश्वास कभी नहीं कर पाया था ।
जब क्रन्तिकारी दल की जिम्मेदारी कंधों पर आ गई तो जैसा की होना ही था प्रतिक्रिया इतनी जबरजस्त थी की कुछ समय तक तो दल का अस्तित्व ही असम्भव लगता था ,उत्साही साथी( नेता) हमारा मज़ाक उड़ाने लगे ।कुछ समय तक मुझे ऐसा लगा की मैं अपना कार्यकर्म व्यर्थ मान लूँ ,मेरे क्रन्तिकारी जीवन में यह एक मोड़ था । मेरे दिमाग के हर कोने से आवाज आई की ' अध्यन करो... स्वयं को विरोधियो के तर्कों का सामना करने के लिए अध्यन करो .... अपनी बात के समर्थन में तर्को से लैस होने के लिए अध्यन करो!
मैंने अध्यन करना शुरू कर दिया , उसके बाद जो पूर्ववर्ती आस्थाओं, हिंसात्मक उपायों पर विश्वास, दूर होते चले गएँ औरउनके स्थान पर गंभीर विचारो ने ले लिया।
मैंने सशस्त्र क्रन्तिकारी नेता बाकुनिन को पढ़ा, मार्क्स को पढ़ा, लेनिन, त्रोत्सकी व् अन्य लोगो को खूब पढ़ा ,ये सब नास्तिक थे ।
1926 के अंत तक मैं इस बात का कायल हो गया कि सारी दुनिया को बनाने ,चलाने और नियंत्रित करने वाली सर्वशक्तिमान परमसत्ता के अस्तित्व का सिद्धांत निराधार है।
मई 1927 में लाहौर में मेरी गिरफ्तारी हुई, एक दिन सी.आई.डी के तत्कालीन वशिष्ठ अधीक्षक मिस्टर न्यूमैन मेरे पास आये और काफी देर तक सहानभूति जताने के बाद उन्होंने कहा कि जैसा वो लोग मुझ से ब्यान चाहते है यदि मैंने नहीं दिया तो मजबूर होके काकोरी कांड के सिलसिले में हुई हत्याओं और शासन के विरुद्ध षंड्यंत्र ,दशहरा बम्मकाण्ड के सिलसिले में मुकदमा चलाना पड़ेगा,फिर उन्होंने मुझे बताया कि उनके पास मुझे फाँसी के फंदे तक पहुचाने का पर्याप्त सबूत हैं। मैं जानता था की मेरे निर्दोष होने के बाद भी पुलिस ऐसा कर सकती थी।
उसी दिन कुछ पुलिस अफसरों ने मुझे सुबह शाम दोनों समय नियमित प्रार्थना करने के लिए प्रेरित करना शुरू कर दिया । अब मैं ठहरा नास्तिक।मैंने अपने मन में फैसला लिया की क्या केवल सुख के दिनों में अपनी नास्तिका की शेखी बघारता हूँ या ऐसी कठिन परिस्थियों में भी अपने सिद्धांतों पर अटल रह सकता हूँ?
बहुत सोच के मैंने विचार किया कि मैं ईश्वर की प्रार्थना नहीं करूँगा, और मैंने एक बार भी प्रार्थना नहीं की ।यह एक असली परीक्षा थी जिसमे मैं पास हुआ । एक क्षण के लिए भी मेरे मन में ईश्वर के प्रति विचार नहीं आया , मैं पक्का नास्तिका था ।
इस परीक्षा में पास होना कोई आसान काम नहीं था , आस्तिकता मुश्किलों को आसान कर देती है ,आदमी ईश्वर से बड़ी जबरजस्त राहत और दिलासा पा सकता है ।
किन्तु नास्तिकता या यथार्थवाद में इंसान को खुद पर भरोसा करना होता है , आंधी तूफ़ान के बीच अपने पैरों पर खड़ा रहना बच्चो का खेल नहीं ।
परीक्षा की ऐसी घड़ियों में हैकड़ी या अहंकार हो तो कर्पूर की तरह उड़ जाता है और आदमी प्रचलित विश्वासों को ठुकराने की हिम्मत नहीं कर पाता ।
मैं जानता हूं की मुक़दमे का फैसला क्या होना है , हफ्ते भर में वह सुना दिया जायेगा । इस ख्याल से ज्यादा राहत की उम्मीद क्या हो सकती है कि मैं जिस उद्देश्य के लिए अपने प्राणों का बलिदान करने जा रहा हूँ ?
एक हिन्दू राजा बन के पुनर्जन्म लेने का विश्वास कर सकता है ,मुसलमान या ईसाई जन्नत में सुख भोगने का इनाम अपनी क़ुरबानी और तकलीफों के बदले कर सकता है ।
मगर मैं किस चीज की उम्मीद करूँ? मैं जानता हूँ की जब मेरे गले में फांसी का फंदा डाल के पैरों के नीचे से तख्ता खींचा जायेगा तो सब कुछ समाप्त हो जायेगा। वही मेरा अंतिम क्षण होगा । मेरा, अथवा मेरी आत्मा का सम्पूर्ण अंत उसी समय हो जायेगा । बाद के लिए कुछ नहीं रहेगा ।
मैंने बिना इहलोक या परलोक में कोई पुरस्कार पाने , बिलकुल अनासक्त भाव से अपना जीवन आज़ादी के उद्देश्य के लिए अर्पित किया है "
( भगत सिंह जी की कलम , मैं नास्तिक क्यों हूँ लेख से छोटा सा अंश)
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