Thursday 18 January 2018

हिम्मत

प्रोफेसर तुलसीराम जी ने अपनी चर्चित आत्मकथा 'मुर्दहिया' में लिखा है कि उनके गाँव के सवर्ण दलितो से लगभग मुफ्त में बेगारी करवाते थे । सुबह मुर्गे की बांग के साथ वे अपने खेतों  में दलितों को ले जाते थे और शाम के अँधेरा होने तक जी भर मेहनत करवाते थे । बदले में उन्हें एक सेर ( लगभग सवा किलो ) अनाज दिया जाता । आकल के दिनों में या जब घर में खाने को न रहता अथवा जिस दलित के पास छोटे खेत होते थे वे सवर्णो से अनाज उधार लेते थे तो सवर्ण उनसे एक सेर अनाज के बदले डेढ़ सेर अनाज वसूलते थे ।

अनाज तौलने के लिए जिस बाट का वे इस्तेमाल करते थे वह शुद्ध मानक नहीं होता था बल्कि हाथ से ही ईंट तोड़ के बाट बना लेते थे जो की मानक से बहुत कम होता था। किंतु, जब दलित अनाज  उधार चुकाने जाते तो सवर्ण असली बाट से तौलते।

इसलिए कभी कभी सवर्णो और अछूती में संघर्ष की स्थिति भी आ जाती थी। संघर्ष की स्थिति में एक तरफ सवर्ण होते जो तलवार, भाले, बरछे ,गंडासे आदि धारदार हथियारों से लैस रहते तो दूसरी तरफ अछूत केवल लाठी डंडा लिए जिससे उनका पिटना और घायल होने या मारे जाना निश्चित रहता।
किन्तु, ऐसे में अछूत महिलायें आगे आती। हाथो में मरी हुई गाय की सूखी हड्डी , टूटे हुए घड़ो में मैला, गर्ववती स्त्री के प्रसव के बाद जो गंदगी( मल- मूत्र , नार आदि) जिसे 'बियाना' कहते थे वह हांडियों में भर उठा लाती थीं, चुकी सवर्ण स्त्रियोँ के जब बच्चे पैदा होते तो दाई का काम दलित महिलाएं ही करती थी । जच्चा- बच्चा की मालिश यंहा तक की उनका मलमूत्र भी वही हांडियों में भर के फेंकती थी अतः उन्हें पता होता था कि वह हांडिया कँहा मिलेगी । लड़ाई शुरू होने से पहले दलित महिलाएं यह सब एकत्रित कर लेती थी ।  लड़ाई शुरू होते ही गांदगी भरी हांड़ी, मरे हुई गाय की हड्डियां आदि जोर जोर से सवर्णो के दल में  फेंकती जिससे सवर्णो में हड़कंप मच जाता। गाय की हड्डी छूना वे लोग महापाप समझते थे , बियाना की गंदगी और मल मूत्र पड़ते ही सवर्ण अपने भाले बरछे लेके उलटे पाँव चिल्लाते हुए भाग लेते । इस प्रकार अंत में जीत हमेशा दलितों की होती।

मैंने तुलसीराम जी की आत्मकथा में  दर्ज इस घटना का जिक्र क्यों किया? आप सोचिये जो आज तथाकथित क्षत्रिय ' जोहार' को अपनी शान समझ के उस पर जातीय गर्व कर रहे हैं यदि उनकी महिलाओं ने आग में कूदने की अपेक्षा वैसी ही वीरता , हिम्मत और युक्ति  दिखाई होती जैसी मुर्दहिया कि अछूत स्त्रियां दिखाती थी तब शायद जोहार न करना पड़ता क्षत्राणियों को। खिजली के सामने सूअर लेके खड़ी हो जातीं तो शायद वह उलटे पाँव भाग लेता.... पर अछूत स्त्रियों जैसी हिम्मत कँहा थी??


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