Tuesday 11 September 2018

आत्मा और मृत्यु -

पृथ्वी पर जब से जीवन की शुरुआत एक कोशीय जीव के रूप में हुई तब से जीवन को बचाये रखने की जद्दोजहद शुरू हो गई थी। जीवन को सुरक्षित रखने की प्रक्रिया में खुद को बचाने की प्रवृति उत्पन्न हुई।  मृत्यु से जीवन को बचाने और खुद को सुरक्षित रखने को प्रवृति जो करोड़ो साल पहले एक कोशीय जीव से आरम्भ वह विकास के विभिन्न चरणों से गुजरती हुई एक भय के रूप में मनुष्यों में स्थापित हुई । जिन जीवो में खुद को सुरक्षित रखने या जीवन को बचाये रखने की प्रवृति नही थी वे विलुप्त होते चले गए।

मृत्यु सिर्फ शरीर की समाप्ति भर नही बल्कि जीवन की समाप्ति है ,अतः जीवन को बचाने की प्रवृति का अधिकतम रूप हमे मौत के भय के रूप में प्रदर्शित होता है। मृत्यु द्वारा पूरी तरह से ख़त्म हो जाने का विचार हमारे मन में भयानक उथल पुथल मचा देता है। जीवन को बचा पाने की ललक, जीवन को जीते रहने का परिणाम हुआ की  मनुष्य ने ‘आत्मा’ की परिकल्पना की,जो मृत्यु से परे हो। मरने के बाद भी जीवित रहने की धारणा ही आत्मा की परिकल्पना है।

आत्मा की स्थापना के लिए मनुष्य में मौजूद ' चेतना' तत्व का सहारा लिया गया । चेतना ज्ञानेन्द्रियो का समूह है ,जिनसे विचार या बोध की भावना जैसे गुण प्रकट होते है । चेतना को आत्मा का रूप दिया गया जो मनुष्य के शरीर मे कंही रहता है और शरीर से अलग हौ। जो मरता नही और न ही नष्ट होता है चाहे शरीर नष्ट हो जाये तब भी। आत्मा के सहारे धर्मो को स्थापित किया गया या यूं कहें कि आत्मा को धर्मो की धुरी बनाया गया। यहूदी , ईसाई, इस्लाम धर्म के अनुसार  मृत्यु के बाद आत्मा क़यामत के दिन तक इंतज़ार करती है और उस दिन पाप और पुण्य के आधार पर स्वर्ग या नर्क में जाती है। किन्तु हिन्दू धर्म मे आत्मा परमात्मा का रूप है और वह कर्मो के अनुसार पुनर्जन्म लेके  योनियों में भटकती रहती है अंत मे मोक्ष प्राप्त कर परमात्मा में विलीन  हो जाती है।

आधुनिक जीव विज्ञान के अनुसार आत्मा नाम की कोई चीज नही है, इसी प्रकार आत्मा से संबंधित सभी धारणाएं जैसे पुनर्जन्म, स्वर्ग- नर्क, परमात्मा आदि को खारिज करती है। मॉडर्न बायलॉजी द्वारा विख्यात वैज्ञानिक फ्रांसिस क्रिक ने यह साबित करने का दावा किया आत्मा का अस्तिव नही होता , उन्होंने अपनी किताब 'विज्ञान द्वारा आत्मा की खोज' जो 1962 में लिखी थी उस पर उन्हें नोबल पुरस्कार भी मिला था  उसमे सिद्ध किया कि आत्मा मात्र कल्पना भर है। उनके अनुसार जीवन कोई वस्तु,शक्ति  या ऊर्जा नही बल्कि कुछ गुणों का संयोग भर है जैसे Metabolism, Reproduction, Responsiveness, Growth, Adaptation आदि।

उनके अनुसार ये गुण जटिल कार्बन यौगिकों के मिश्रण द्वारा प्रदर्शित होते हैं जिन्हे कोशिका के नाम से जाना जाता है और सबसे सरल कोशिका जिसे हम जानते हैं वह है वायरस ।अपनी सहज प्रवृति  की वजह से यदि ये कोशिकाएं एक दुसरे के साथ सहयोग में आती है और किसी वातावरण में साथ में रहती है तो वे एक संगठन बनाती है जिसे हम जीव कहते है। यदि कोशिकाएं एक दूसरे से असहयोग करती है तो वह कैंसर कहलाती हैं।जब ज़्यादा से ज़्यादा कोशिकाएं एक दुसरे के सहयोग में आती हैं और जटिल संगठन का निर्माण करती हैं तो हमें और दुसरे जीव प्राप्त होते हैं जैसे की कीड़े, सरीसृप, बंदर, मनुष्य आदि।

मनुष्य के शरीर मे लगभग 38 लाख कोशिकाएं हैं जो रोज मरती और रोज नई बनती हैं, मनुष्य इन्ही कोशिकाओं का समूह है ।हर कोशिका में जीवन होता है। तो इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि हमारे अंदर 38 लाख आत्माएं रहती हैं!!मनुष्य के मरने के 24 घण्टे बाद उसके त्वचा की कोशिकाएं मरनी शुरू हो जाती हैं  दो दिन बाद हड्डियों की और तीन दिन बाद रक्त धमनियों की यही कारण है कि मरने के तुरंत बाद भी अंगदान सम्भव होता है।

 मानव शरीर कि कोशिकाएं अधिकतम 50  गुना विभाजित हो सकती हैं जिसे हेफलिक सीमा(Hayflick Limit) कहते हैं। जब हम बच्चे होते हैं तो कोशिका विभाजन कि दर काफी ऊँची होती है, फिर समय के साथ यह दर काफी धीमी हो जाती है और अंत मे कोशिका विभाजन बिल्कुल ही रुक जाता है जिससे मृत्यु होने की प्रक्रिया होती है। पर ऐसा नही है कि संसार मे सभी जीव मरते ही है, कई जीव जैसे जैली फिश अपनी कोशिकाओं  को विभाजित कर अमर रहती है जब तक कि कोई बाहरी कारण उसकी मृत्यु का कारण बने।

उपनिषदों ( देंखे छान्दोग्य उपनिषद 8-3-3) में आत्मा का केंद्र ह्रदय को माना गया है ,आत्मा हृदय में रहती है ' स वा आत्मा ह्रदय ' । किन्तु , 1964 में जेम्स हार्डी ने मनुष्य के ह्रदय की जगह चिंपांजी के ह्रदय का प्रत्यारोपण कर यह सिद्ध किया कि आत्मा हृदय में नही रहती।

दरसल मृत्यु के स्वभाविक प्रक्रिया है किंतु धर्म के धंधेबाजों ने इसे भय के रूप में परिभाषित कर इसे भयानक तो बना ही  दिया है बल्कि इससे स्वर्ग नरक जोड़ के अपनी धूर्तता भी सिद्ध की ।  अपने स्वजनों के मरने पर इंसान फूट फूट के रोता है जबकि धर्म / मजहब के अनुसार आत्मा की मृत्यु ही नही होती ,तो रोने का औचित्य क्या? दरसल इंसान धर्म/ मज़हब के झूठ को जानता है इसलिए उसे अपने स्वजनों के दुबारा जन्नत/ स्वर्ग में मिलने का विश्वास नही रहता ।

सोचिए की अगर इस्लामिक आतंकवादियों जो जन्नत के लालच में खुद को बम्ब से उड़ा लेते हैं या दूसरों को मार देते हैं यदि उन्हें यह हकीकत पता होती कि मरने के बाद कोई रूह नही होती तो शायद लाखो बेगुनाहों की जान बच गई होती। अगर आत्मा नाम की कल्पना नही की गई होती तो ऐसा होता कि हम मानते की हर व्यक्ति धीरे धीरे खत्म हो रहा है तो आपस मे प्रेम की संभवना बहुत अधिक होती।


1 comment:

  1. वैज्ञानिक और विज्ञान स्तर पर एकदम सटीक आकलन।

    धन्यवाद आपको।

    🙏

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