Sunday, 31 July 2016

हथियार- कहानी



वह तेजी से भाग जा रहा था , क्षत-विक्षत वस्त्र ।जगह जगह शरीर पर बने  ताजा घाव के निशान , पत्थरो और झाड़ियों के शूलों से घायल पाँव जिनमे से रिसता रक्त ।
पर इन सबकी परवाह न कर हांफता -लंगड़ाता बदहवास तेजी से भाग रहा था ।

भागते हुए वह एक नदी के तट पर पहुंचा , चमकते चन्द्रमा के प्रकाश में नदी के तट पर दूर तक फैले रेतीले कण ऐसे चमक रहे थे की जैसे चांदी बिखेर दी गई हो ।

नदी के तट पर जलधारा का लगभग शांत थी  परन्तु बीच में  बहाव अपेक्षाकृत तेज था फिर किसी इंसान को बहा देने के लिए पर्याप्त था।

वह भागता हुआ नदी के तट पर फैली रेतीली चाँदी को लगभग पार कर गया था , यूँ लग रहा था की वह तीव्र वेग से नदी में घुस जाना चाहता हो परन्तु अचानक उसके नंगे पैरो से तट पर उभरी एक शिला टकराई और वह धड़ाम से औंधे मुंह नदी के तट पर ही गिर गया ।

जिस जगह वह गिरा वह तट भूमि थोड़ी सी ऊंचाई पर थी , लगभग एक - डेढ़ फुट ऊँची । पानी के कटाव के कारण रेतीली मिटटी में यह ऊंचाई बन गई थी ।
गिरते ही घुटना शिला  से टकराया और एक भयानक पीड़ा भरी चीख निकल गई ।
उसे लगा की असहनीय पीड़ा से वह बेहोश होने वाला है , उसकी आँखे बंद होने लगी परन्तु आँखे बंद होने से पहले उसने अपने चेहरे का धुंधला बिम्ब नदी के जल में देखा जो जल में नृत्य करती लहरो पर बन बिगड़ रहा था । उसकी आँखे धीरे धीरे बंद होती चली गईं।

"उठो "
"उठो "
"ऊँss...हूँ " उसे कोई बुला रहा था ।आवाज उसके कानो में पड़ रही थी  आँख मीचते हुए आँखे खोली ।

सामने एक साया खड़ा था , आदम कद । उसका मुख चांदनी के विपरीत था अतः मुख पर गहन अँधेरा छाया था । वह साये का चेहरा पहचाने की कोशिश करने लगा पर पहचान न सका ।

"उठो" एक बार फिर साये के मुख से आदेशात्मक  स्वर निकला ।
वह न चाहते हुए भी उठ के बैठ गया ,उसे अनुभव हुआ की उसके घाव भर चुके हैं और पीड़ा गायब हो गई ।
यह चमत्कार कैसे हुआ ?
कौन है वह साया ?
उसने आगे बढ़ के साये को पकड़ लेना चाहा और उसका चेहरा देख लेना चाहा ,पर यह क्या वह तो साये की तरफ एक कदम भी न बढ़ा पाया ।ऐसा प्रतीत हो रहा था की उसके पैरो को रेतीली भूमि ने जकड़ लिया हो ।कई बार प्रयत्न करने के बाद भी जब वह अपनी जगह से एक इंच भी न हिल पाया तो वह वंही धम्म से घुटने पर बैठ गया ।

" कौन हैं आप ? अपना परिचय दीजिये ? " उसने घुटने पर बैठे बैठे ही  साये से प्रश्न किया ।
" तुम्हे यह जनाने की  अवाश्यकता नहीं " गज़ब की गंभीरता और स्थिरता थी उसकी वाणी में , मानो एक एक शब्द सम्मोहन में डूबा हुआ ।

" नदी में डूब आत्महत्या  क्यों करना चाहते थे तुम  ?" साये ने प्रश्न किया ।
" मैं आत्महत्या नहीं कर रहा था , मैं नदी पार कर उस तरफ के जंगल में जाना चाहता था " उसने शांत भाव से कहा ।
" क्यों? नदी का बहाव इतना तेज है की तुम उसे पार नही कर सकते ... क्या तुम्हे इसका भान न था ? ऐसा क्या हुआ तुम्हारे साथ ?" साये ने प्रश्न किया
" मैं नक्सलवादी बनना चाहता हूँ ,नदी  पार उन्ही के कैंप में जा रहा था ....मुझे अपनी सुध बुध नहीं थी " उसने जबाब दिया ।

" हम्म... नक्सली बनना चाहते हो... क्यों ?" साये ने सर्द लहजे पूछा

" वो लोग हमें मनुष्य ही नहीं समझते , हमारे घरो .... हमारे जंगलो ... हमारे पर्वतो पर कब्ज़ा जमा बैठे हैं ।
हमें अपने ही घरो से बेघर कर दे रहे हैं ..... हम उनके लिए असुर है " उसने भर्राये कंठ से कहा ।

"सुन रहा हूँ मैं ..... जारी रखो " साये ने सपाट लहजे में  कहा ।
" हमारे जंगल जमीन सब छीन के उनका दोहन कर रहे हैं ...विरोध करने पर हमें नक्सलवादी घोषित कर हम पर अत्याचार करते हैं "
" हमारी बस्तियों पर हमला कर उन्हें उजाड़ देते हैं .... हमारी बहन बेटियो को पकड़ के उन्हें नक्सलवादी बता  उनकी अस्मत से खेलते हैं "- कहते कहते उसकी भृकुटि तन गई , शिराओं में रक्त तीव्रता से बहने लगा ।
" हमारी बहन बेटियो को पकड़ उन पर तेजाब डाल दिया जाता है या भयानक और घ्रणित यातनाये दी जाती हैं.... योनियो में पत्थर डाल दिए जाते हैं  " कहते कहते क्रोध के आवेग से उसकी साँसे धौकनी सी चलने लगे ।

सांय सायं करती हवा उसके शरीर से टकरा रही थी , एक क्षण मुर्दा शांति के बाद वह फिर बोला।

" आज रात भी उन लोगो ने हमारे गाँव पर हमला किया , बच्चे बूढ़े क्या सब को अपना शिकार बनाया ... उनकी नजरो में सब नक्सली हैं ... गाँव का माहौल देख के मेरे पिता जी ने किसी  तरफ शहर में संस्था में भर्ती करवा दिया था ।उनकी मदद से मैंने कॉलेज की डिग्री ली , मैं गाँव कम ही आया जाया करता हूँ इसी डर से " - वह कहे जा रहा था और शांत भाव से  साया सुने जा रहा था ।

" दो दिन पहले ही मैं गाँव आया हूँ .... दो घंटे पहले घने अँधेरे में उन्होंने भारी तादाद में हमारे गाँव में हमला बोल दिया .... उन्हें शक था की गाँव में नक्सली छुपे हुए हैं ... उन्होंने कई लोगो को मार दिया और कइयों को पकड़ ले गए ।मुझे पर भी हमला किया ,  किसी तरह से अपनी जान बचा के भागा वंहा से " यह कह के वह मौन  हो गया और गर्दन झुका ली ।उसकी आँखों में बहते आंसू चन्द्रमा की रौशनी में साफ़ नजर आ रहे थे ।

" तो तुम नक्सली बनाना चाहते हो , गोली का बदला गोली से देना चाहते हो ?" साये ने प्रश्न किया

" हाँ हाँ ..यही करना चाहता हूँ ...सुना नहीं तुमने .. यही करना चाहता हूँ मैं तभी नदी पार कर के जंगल में जा रहा था ,नक्सलवादी बनने ।उनकी हर एक गोली का बदला गोली से दूंगा मैं ।अपने हर एक बेगुनाह आदिवासी भाई का बदला लूंगा उनसे " - कहते कहते उसने मुट्ठी भीच ली , जबड़े सख्त हो गए ।

" और एक दिन अपने भाइयों की तरह ही उनकी गोली का शिकार हो जाओगे ... यही तो वे लोग चाहते हैं " साये ने मुस्कुराते हुए कहा ।

" क...क..क्या मतलब ? क्या चाहते हैं वे लोग ?" उसने लड़खड़ाते हुई आवाज में पूछा

" यही की तुम्हारे जैसे नौजवान हथियार उठा लें और नक्सली बन जाए "साये ने उत्तर दिया ।
" ऐसा क्यों चाहेंगे वे लोग ? " उसने आश्चर्य से पूछा
" क्यों की नक्सली को हटाना उनके लिए आसान है ,वे जानते हैं की हथियारों के बल से तुम लोग कभी उनसे नहीं जीत सकते .... उनके पास तुम्हारे से सौ गुना सैनिक और हथियार है "

" तुम एक बार नक्सली बने तो देर सवेर तुम्हे वे गोली मार ही देंगे ..... फिर किस्सा ख़त्म .... हिंसा के कारण तुम्हरी बात दुनिया नहीं सुनेगी । हर हाल में हार तुम्हारी ही होनी है " साये के मुंह से निकली बाते रहस्य की नई परते खोल रही थी उसके लिए ।

" यदि तुम हथियार उठाओगे तो उनके दो सैनिक को मार दोगे या अधिक से अधिक आठ दस को , पर इससे दुनिया तुम्हे भी अपराधी समझेगी तुम्हारे प्रति सहानभूति जाती रहेगी लोगो की .... और यही वे चाहते भी है ।जब वे तुम्हे गोली मार के कब्ज़ा करेंगे तुम्हारे जंगल पर , जमीन पर तो तुम्हे भी हिंसा में शामिल होने के कारण कोई साथ न देगा तुम्हारा ... तुम्हारी सही बात भी गलत सिद्ध हो जायेगी " साया गंभीर आवाज में कहे जा रहा था ।

" फिर क्या हम चुप बैठ जाए और अपने पर अत्याचार सहते रहे? उसने पूछा
" नहीं ... हरगिज नहीं ... मैंने ऐसा नहीं कहा । तुम पढ़े लिखे हो तुम्हारे पास उनकी बन्दुक से भी ज्यादा ताकतवर हथियार है " साये ने कहा
" क्या ? कौन सा हथियार ? " उसने हैरानी से साये से पूछा
" कलम का हथियार .... कलम के आगे बंदूक की संगीन भी कुंद हो जाती है "

"चलाओ कलम और अपने ऊपर हो रहे अत्याचार अन्याय शोषण बदला लो ... लिखो .... सच लिखो ... दुनिया को बताओ उनका अन्याय और शोषण "
" बन्दुक की गोली एक वक्त में एक ही शरीर  पर  असर करती है पर कलम से निकली गोली हजारो लाखो लोगो के मस्तिष्क में असर करती है ... अतः लिखो ... बन्दुक का बदला लिख के दो " अब साये की वाणी में उत्तेजना थी ।

" और एक बात सुनो!...."साया अब और रहस्यमयी अंदाज में बोला।
"इस शोषण में तुम्हारे अपने लोग भी लिप्त रहते है जो सरकार से अनुदान तो ले लेते हैं स्कूल , सड़क, आदि सुधार के लिए पर करते कुछ नहीं .... वे चाहते नहीं की नक्सवाद की समस्या सुलझे ..... समस्या सुलझ गई तो पैसा मिलना बंद हो जायेगा न उन्हें "-साया अनजाने रहस्य खोल रहा था उसके लिए ।

साये की बातो का जादुई असर हो रहा था उस उस पर , उसने इस विषय में कभी सोचा ही न था ।पढ़ा लिखा था पर कलम को हथियार के रूप में प्रयोग करने का विचार ही न आया था कभी उसे , अपने लोगो की भी भूमिका से अनजान था इस समस्या में ।

वह आवेश में बोला " हाँ ... लिखूंगा .... जरूर लिखूंगा ... बन्दुक का जबाब लिख के दूंगा .... उनकी हिंसा का प्रतिउत्तर मैं कलम से दूंगा .... जरूर दूंगा "
" मैं लिखूंगा उनके शोषण और अन्याय के खिलाफ "
" जरूर लिखूंगा ...जो जो इसके दोषी है उनके खिलाफ लिखूंगा ।"
उसने मुट्ठी भीच के उदघोष  कर दिया ।
" मैं कलम चलाऊंगा हथियार की जगह "

साया उसके पास आया , अब उसने साये का चेहरा पूरा देखा ।साये के चेहरे को देख के उसकी आँखे आश्चर्य से फैलती चली गई ।
" तुम sss... "उसके मुंह से चीख निकल गई ।


उसने आँखे खोल दी , वह अब भी नदी के तट पर उसी तरह औंधा लेटा हुआ था ।एक पैर शिला पर था और दर्द से फटा जा रहा था । उसने हैरानी से इधर उधर देखा उसे कोई न दिखा । भोर की गौधुली वेला अपना पैर पसारने वाली थी , उसने नीचे देखा तो नदी के पानी में उसके चेहरे का प्रतिबिम्ब अब भी लहरो से बन बिगड़ रहा था ।

उस साया का चेहरा ठीक वैसा ही था जैसा नदी में उसके चेहरे का प्रतिबिम्ब बन बिगड़ रहा था ।

वह उठा और लंगड़ाते हुए चल दिया , शहर की ओर .... अब उसे पीड़ा का अहसास न रहा ,जख्मो को भूल चूका था ।

उसे अपना हथियार जो मिल चुका था ।

बस यंही तक थी कहानी ..



Wednesday, 27 July 2016

प्रेम की देवी - कहानी


"रति...."
"ऊँ...क्या?"

दूर तक फैली हुई खामोशी और शीतलता बिखेरता हुआ श्वेत उज्ज्वल चन्द्र , मानो आज ठहर सा गया हो ।
यूँ प्रतीति हो रहा था जैसे चन्द्र आज  सितारों के साथ अठखेलियां करता हुआ कुछ देर रुक के इस पल के आनंद की अनुभूति करना चाह रहा हो ।

चन्द्र और सितारों की इस तांका-झांकी  में शीतल हवा भी  मंद मंद गति से बह अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रही थी  ,लगता था की आज सारी प्रकृति इस पल की साक्षी बनने को आतुर थी ।

"रति....सुनो न !" भोला ने अपने सीने पर सर रख के  लेटी हुई रति के गहन काले और कोमल केशो को अपनी उंगलियो के बीच फंसा उन्हें उलझाने की असफल प्रयत्न करते हुए कहा ।
" हूंS... क्या ? ... " रति ने आँखे बंद करते हुए पूछा और करवट बदल भोला की तरफ अपना मुख कर लिया ।

भोला ने रति के मुख की तरफ नजरे डालीं , धवल चाँदनी मुख पर पड़ रही थी यूँ आभास हो रहा था की  जैसे चाँदनी चंद्र से नहीं अपितु रति के मुख से उज्वलित है । गोरा बेदाग चेहरा , बड़ी बड़ी ज्योतिर्मयी नेत्रो  में पतली काजल की धार , सुर्ख होठ ।
ऐसा जान पड़ता था की संगमरमर की किसी मूर्ति में प्राण फूँक दिए गए हों।
भोला मंत्रमुग्ध रति को देख रहा था ।

" अब बोलो भी ... क्या हुआ ? " रति की आवाज सुन भोला का सम्मोहन टूटा।

" कुछ नहीं , मैं सोच रहा हूँ की कंही मैं सपना तो नहीं देख रहा हूँ ....तुम्हारी जैसी लड़की क्या कभी मेरे जीवन में आ सकती है ?" भोला ने अजमंजस के भाव लिए पूछा ।

" क्या अब भी तुम्हे यकीं नहीं हो रहा है ? मैं तुम्हारी धड़कनो के इतने करीब हूँ ... फिर यही सवाल बार बार  क्यों ? " रति ने भोला के सीने पर मुट्ठी बना धीमे से मारते हुए कहा जैसे नारजगी प्रकट कर रही हो ।

" बस ऐसे ही , मुझे यह विश्वास करने में कठिनाई होती है की तुम जैसी लड़की भी कभी मेरे जीवन में आ सकती है ।तुम महलो में रहने वाली , जीवन को सुख देने वाली सभी वस्तुओं की स्वामिनी , कहानियो में आने वाली परियो जैसी सुंदर , शिक्षित , धन और सौभाग्य  की मालकिन .... बीसियो मुझ जैसे नौकर चाकर ..... शहर में जन्मी पली बढ़ी .... विदेशी स्कूल में शिक्षित " भोला एक साँस में सब कुछ बोल देना चाहता था

"और मैं ! क्या हूँ मैं ! एक मजदूर जो तुम्हारे निर्माण हो रहे भवन में दिहाड़ी मजदूरी करता है ...... गाँव के बेहद गरीब परिवार से .. मुश्किल से 10 वीं पास .... रंग रूप में भी अच्छा नहीं ..... तुम्हारा और मेरा मिलन कैसे होगा ?
मैं तो तुम्हारे पैर की जूती के बराबर भी नहीं " भोला बोलते जा रहा था , चिंताए की लकीरे उसके ललाट पर गहरी उभर आयीं थी ।

" कैसे होगा हमारा मिलन? क्या तुम मेरे साथ खुश रह पाओगी ? .... मेरे पास तुम्हे देने के लिए कुछ भी नहीं ... क्या तुम एक मजदूर की संगनी बन जीवन की कठोरता सह पाओगी ?" -  भोला रति के चेहरे को अपने दोनों हाथो में लेते हुए पूछा ।

रति की काजल से भरी बड़ी बड़ी आँखे और बड़ी हो गईं , सुर्ख होठो पर एक मुस्कान आ गई ।उसने लेटे लेटे ही भोला के गले में बाहें डाल  बोली-
" तुम भी न! सब ठीक हो जायेगा .... प्यार में कोई बड़ा छोटा नहीं होता ..... बेकार की बात मत सोचो अभी .... बस प्यार की महसूस करो .... मैं हूँ न तुम्हारे पास अभी " इतना कह रति ने जोर से भोला को आलिंगन भर लिया ।

भोला , सब भूल एक जादुई दुनिया में खो गया जंहा वह और रति भर थे ।वह रति जिससे वह बेइंतहा प्यार करता था , रति भी उससे प्यार करती थी बिना अमीरी गरीबी देखे ।

रति का नया बंगला बन रहा था , भोला उसी के निर्माण में मजदूरी करता था ।एक दिन रति साईट पर आई अपने पिता के साथ , भोला और रति की नजरे मिली ।
उसके बाद पहल रति ने किया , भोला तो सोच भी नहीं सकता था रति के बारे में तो पहल कैसे करने की हिम्मत करता ।

जब रति ने भोला से प्यार का इजहार किया तो भोला को साहसा  यकीं ही न आया था , पर रति के बार बार यकीं दिलाने पर उसने भी सोच लिया की शायद कभी कभी किस्से कहानियॉ की बाते सच हो जाती है जिनमे राजकुमारी किसी गरीब से प्यार करने लग जाती है ।

आज रात रति भोला के उस घर की छत पर थी  जंहा वह किराये पर रहता था ।यह एकांत में घर भी रति ने ही उसे दिलवाया था  तक़ी वह भोला के घर आ जा सके ।


दो महीने बाद ।

" अरे सर! आपने कुछ लिया नहीं ... प्लीज लीजिये ... वेटर !" यह आवाज थी रति की
" कैसी लगी नॉवेल सर? " रति ने मुस्कुराते हुए पूछा
" कंटेंट्स बहुत ही बढियां है .... क्या भावनाये डाली हैं तुमने राति .... परफेक्ट ... धूम मचा दिया तुमने " ये साहब थे एक बड़े साहित्यकार
" रति , सच कंहू .... मैंने इतने उपन्यास लिखे हैं .... इतने पदक जीते हैं पर जैसा तुमने इस उपन्यास की कहानी के किरदार में उतरी हो वह किसी से न हो सकेगा ...वेल डन ...रति .... आई एम प्राउड ऑफ़ यू ... देखना  तुम्हारा यह उपन्यास बिक्री के सारे रिकॉर्ड तोड़ देगा "- कविता जी जो की एक प्रख्यात लेखिका थी उन्होंने रति के तारीफ़ में कहा ।

ऐसा ही हर कोई कोई कह रहा था , लोग रति के उपन्यास की तारीफ करते नहीं थक रहे थे ।लेखको और साहित्यकारों का पूरा जमवाड़ा था , कई जानी मानी हस्तियां उपस्थित थीं ।ग्रैंड पार्टी थी ।

मौका था रति के नए उपन्यास के विमोचन का ।

रति एक बड़े से स्टेज पर माइक लेके  खड़ी थी , पीछे स्क्रीन पर उसके उपन्यास का टाइटल 'प्रेम की देवी' के साथ कहानी के अंश भी चलाये जा रहे थे ।

कहानी थी एक बहुत ही अमीर लड़की को एक गरीब मजदूर से प्यार हो जाता है , लड़की का प्यार सच्चा होता है और अपना सुख ,ऐशो आराम , सामजिक सम्मान  त्याग देती है ।सगे संबंधियो के विरोध को सहते हुए अपने प्यार को पाने के लिए सब कुछ छोड़ मजदूर प्रेमी के साथ चली जाती है , उसके बाद दोनों मिल के जीवन की कठिनाइयों से लड़ते हैं और  अंत वे दोनों अपने सच्चे प्यार से सब कुछ ठीक कर देते हैं ।

स्टेज पर रति एक बड़े लेखक से अपने उपन्यास की तरीफ़ सुन उसे हाथ जोड़ धन्यवाद दे ही रही थी की एक नौकर ने कान में आके धीरे से कुछ कहा ।

नौकर की बात सुन रति का चेहरा क्रोध  से लाल हो गया , वह बिना कुछ बोले चुपचाप स्टेज से उतर नौकर के पीछे हो ली ।

रति नौकर के पीछे पीछे चलते चलते मुख्य बंगले के मुख्य द्वारा पर आ गई ।

मुख्य द्वारा पर दरबानो ने एक मैले कुचैले व्यक्ति को बैठा रखा था ।यह भोला था ।

भोला ने रति को देखा तो उसके चेहरे पर ऐसी मुस्कान आई जैसे बरसो के प्यासे को शीतल जल मिल गया हो ।
वह एक दम से खड़ा हो गया , कुछ कहने वाला ही था की रति ने उसको चुप रहने का इशारा किया और अपने पास आने का इशारा किया ।

रति आगे आगे चल रही थी और भोला उसके पीछे , कुछ् देर में रति एक खाली कमरे में पहुँची जो शायद स्टोर रूम था ।
" क्यों आये हो तुम यंहा ?"
"कितनी बार मना किया है की मुझ से मिलने की कोशिश मत किया करो .... लगता है की तुम्हारी अक्ल में नहीं आता है " रति ने गरजे हुए प्रश्न किया ।

" रति ! तुम तो कहती थी की मुझ से प्यार करती हो ... फिर अचानक तुम्हे यह क्या हो गया ? "
"मैं तुम्हारे वियोग में मरा जा रहा हूँ.... क्या तुम्हारा प्यार एक फ़रेब था ?" भोला ने अश्रुपूर्ण नेत्रो से कहा और पास आना चाहा।
" दूर से बात करो ...अपनी औकात में रहो ..मैंने कितनी बार कहा है की वह सब एक नाटक था " रति ने भोला को झिड़कते हुए कहा ।

" पर मुझ गरीब से क्यों ?यह नाटक मुझ से क्यों " भोला ने आह भर के पूछा ।
" देखो भोला! मैं आखरी बार साफ साफ़ कह देती हूँ ,इसके बाद तुम कभी मुझे नजर नही आना अन्यथा ... अन्यथा अपने अंजाम के तुम खुद जिम्मेदार होंगे "
" मुझे एक उपन्यास लिखना था जिसमे मुझे उपन्यास की नायिका की मनोवृति और भावनाये समझनी थी जो एक गरीब मजदूर से प्यार कर बैठती है " - रति बोले जा रही थी और भोला सब सुन रहा था
" मुझे उस नायिका की भावनाओ को रियलाइज करना था , इसी लिए तुम से प्यार का नाटक किया "
" मुझे भूल जाओ भोला! "

इतना कह रति ने अपने पर्स में से हजार हजार के 10-15 नोट निकाल के भोला के हाथ पर रख दिया । फिर कुछ सोच के उसने हाथ में पकड़ी अपना उपन्यास "प्रेम की देवी" पकड़ाते हुए बोली -
" यह लो ... पढ़ लेना ... 450 रूपये का मूल्य है तुम्हे फ्री में दे रही हूँ " इतना कह वह जोर से हंस दी ।

फिर तेजी से मुड़ी और कमरे से बाहर निकल गई , कुछ दूर जाने के बाद फिर वापस आई और बोली -
" भोला! यह लास्ट वार्निंग है तुम्हे .... दुबारा यंहा मत आना वरना अंजाम वाकई बहुत बुरा होगा तुम्हारे लिया " रति के चेहरे पर चेतवानी के साथ कठोरता थी ।

उसके बाद रति वापस अपने उपन्यास की विमोचन पार्टी में चली गई ।

भोला कुछ देर तक स्तब्द खड़ा रहा , उसने हाथ में पकडे रूपये एक तरफ फेंक दिए ।हाँ किताब सीने से लगा ली और बंगले से बाहर निकल गया ।

कुछ दिनों बाद।

रति एक प्रमुख  समाचार पत्र अपने उपन्यास की समीक्षा पढ़ रही थी  , उपन्यास के साथ उसकी बड़ी सी फोटो छपी थी ।बड़े बड़े लेखको की प्रसंशा पूर्ण टिप्पणियॉ थी उपन्यास के विषय में । बेस्ट सेलर का अवार्ड जीत लिया था रति के उपन्यास ने ।

उसका चेहरा ख़ुशी से दमक उठा ।

प्रसन्नता से उसने आँखे बंद कर ली , बड़ी सी मुस्कुराहट उसके चेहरे पर खिल गई ।उसने समाचार पत्र एक तरफ रख दिया और फोन उठा के किसी से एक और बड़ी पार्टी देने  की प्लानिंग करने लगी ,उपन्यास के हिट हो जाने के उपलक्ष्य में ।


उसी अख़बार के एक छोटे से कोने में यह खबर भी छपी  थी जिसमे एक अज्ञात मानसिक विक्षिप्त व्यक्ति की सड़क दुर्घटना में मृत्यु होना लिखा था , उस व्यक्ति के पास शरीर पर चीथड़े के अतिरिक्त सिर्फ रति का उपन्यास ही मिला था ।



बस यंही तक थी कहानी ....



Saturday, 23 July 2016

जानिए कलियुग का अर्थ

सुबह ऑटो में आते हुए बगल में बैठे हुए यूँ ही बात चीत के दौरान वर्तमान सामाजिक परिवेश पर बात होने लगी ।
बुजुर्ग ने वर्तमान सभी बुराइयो की जड़ को यह कहते हुए ख़त्म किया " यह कलयुग है ... कलयुग में ऐसा ही होना लिखा है "

मैं सोच में पड़ गया क्या वाकई कलयुग का दोष है ?
क्या समाज में व्याप्त बुराइयो का दोष कलयुग को जाता है ?क्या सतयुग में सब सही था ?

अब यह कलयुग क्या है ?

हिन्दू विचारधारा के अनुसार चार युग हैं , सतयुग , त्रेता युग , द्वापर युग , और चौथा कलयुग

सतयुग( वैदिक युग) , त्रेता युग (राम युग) , द्वापर युग(कृष्ण युग) और वर्तमान कलयुग , जो  सभी बुराइयो की जड़ है ।

युगों पर विचार करते हुए प्रसिद्ध लेखक डॉक्टर सुरेन्द्र कुमार ( अज्ञात ) कहते हैं -
प्रचलित युगों के विचार में प्राचीन हिन्दू धर्म ग्रन्थो में ' युगों 'वाले अर्थ नहीं मिलते । वेदों आदि में ये शब्द मिलते तो हैं पर उनका अर्थ द्युूत ( जुए ) से लिया गया है ।
जब जीते गए अक्षो ( पासो) की संख्या चार से विभक्त हो जाती थी तब तीन बचते थे उसे ' त्रेता' कहते थे । जब दो शेष रहे तब ' द्वापर' और जब चार से बाँटने पर एक शेष रहे तब ' कलि'कहा जाता था । (देखें - वैदिक कोश, संपादक डॉक्टर सूर्यकान्त ,बनारस विश्वविधालय प्रकाशन )

इन पासों में 'कृत' विजयी करने वाला था और कलि पराजयात्मक।

छांदोग्य उपनिषद चौथे प्रपाठक , पहले खंड के चौथे श्लोक में लिखा है " अथ कृताय विजितायाधरेया: संयन्त्येवमेनम "
जिसका भाष्य करते हुए आदि शंकराचार्य ने लिखा है -"चार चिन्हों वाला पासा कृत है और तीन , दो, और एक चिन्ह वाले पासे क्रमशः त्रेता, द्वापर, और कलि कहे जाते हैं "

इसी प्रकार अब ' युग ' शब्द का अर्थ देखेंगे -

हिन्दू विचारधारा के अनुसार चार युगों की मानव सौर वर्षो में अवधि इस प्रकार हैं -
सतयुग- 1728000
त्रेता युग- 1296100
द्वापरयुग- 8,64,000
कलियुग - 432000

क्या ऐसा संभव है की 172800 साल तक ऐसा कोई युग रहे जिसमें की सब निरोगी रहें , अपराध न हों , सब सुखी रहें सब अच्छा ही अच्छा हो ?
विश्व इतिहास में ऐसा कंही नहीं हुआ , पर हिन्दू विचारधारा  में यह कल्पना मिल जायेगी सतयुग के नाम पर ।

अब युग का अर्थ देखिये , पुनः सुरेन्द्र जी कहते हैं , युग का अर्थ पांच वर्ष की अवधि के लिए लिया गया है देखें -
" युगस्य पंचवर्षस्य कालज्ञान प्रचक्षते " ( वेदांगज्योतिष सूत्र 5)

यही अर्थ वराहमिहिर की पञ्च सिद्धान्तिका के अध्याय 12 श्लोक 1 में भी लिया गया है -

" पंचसनवत्सरम्य युगाध्यक्ष ..... पञ्च युगं वर्षाणि "

ऋग्वेद (3/26/3 ) में भी युग का अर्थ " अल्पकाल ' ही है ।

मनु स्मृति के अध्याय 9 के श्लोक 301 से 302 में राजा के राज काल की अवधि को युग कहा गया है देखें-

" सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग ये चारो युग राजा के ही चेष्टा विशेष (आचार विचार) से से होते है। अतएव राजा ही 'युग' कहलाता है ।

अब यह कलियुग के बुरे और सतयुग युग के अच्छे होने की भावना कँहा से आई ?इसके लिए पुनः हम डॉक्टर सुरेन्द्र कुमार जी के विचार देखेंगे ।

तीसरी चौथी शताब्दी के पल्लव राजाओं के शीला लेख में जो की तीसरी चौथी शताब्दी रहा था उनके शिलालेख में संस्कृत में उद्धत है -

" कलियुग्दोषावसन्न धर्मोद्वदरणनित्यसन्नद्वसन्न "

अर्थात- कलियुग के बुरे प्रभावो के कारण गर्त में पड़े धर्म को निकालने में तत्पर।

निश्चय ही युगों का सिद्धांत ईसा की पहली  या दूसरी सदी में हुआ होगा ।

अब यह युगों की कल्पना का कारण क्या रहा होगा ?

स्पष्ट है की सतयुग अच्छा और कलियुग बुरा है इसकी अवधारणा बौद्ध सम्राट असोक के बाद का है ।यह वह समय था जब वैदिक धर्म बुरी तरह परास्त हो चुका था ।
बौद्ध धर्म के बढ़ते प्रभाव ने वैदिक धर्म को मरणासन्न स्थिति में ला दिया था ।वैदिक धर्म कमजोर और असहाय हो गया था , यजमानो ने दान देना बंद कर दिया था समाज कटने लगा था उनसे जिस कारण उनकी जिविका और कर्मकांडो पर गहरा असर पड़ रहा था ।

तब धीरे धीरे अपनी कमजोरी और पराजय को ' समय' के मत्थे मढ़ने के लिए सतयुग आदि की कल्पना की गई ।
उनका मानना यह था की -
"आज हमारी बुरी स्थिति है वह हमारे दोषो के कारण नहीं अपितु 'कलियुग ' के प्रभाव  कारण है । हमारे नियम और ग्रन्थ बुरे नहीं है और न ही इनमे कोई दोष है यह सब तो ' कलियुग ' का प्रभाव है "


तो, मित्रो यंहा से हुई कलियुग को बुरा बनाने की कल्पना ..

ओह! कितना पढ़ना पड़ता है जरा सी बात के लिए ।



Tuesday, 19 July 2016

चिंगारी- कहानी



सवेरे के आठ बजे  होंगे , कलुआ नंगे पाँव  काँधे पर कपडे का झोला लटकाये हुए हाथ में सफेदे के पेड़ की एक पतली सी टहनी जो उसने एक छोटे सफेद के पेड़ से तोड़ी थी लिए मस्ती में खेतो के बीच में बनी पगडड्डी पर चला जा रहा था ।

झबरा , कलुआ का कुत्ता उसके आगे पीछे चल रहा था ।चल क्या रहा था दौड़ रहा था ,झबरा दौड़ के कलुआ से आगे हो जाता तो कलुआ आवाज़ लगा देता ।
" झबरा"
झबरा फ़ौरन वंही ठिठक के वापस कलुआ के निकट आ जाता ।

कलुआ खेतो को पार कर बाग़ में पहुँच गया। एकाएक किसी भारी और कर्कश पुकार सुन उसके कदम जड़ हो गएँ ।

"ओ रे ..... चमरा के .... एहर आ त ..." यह कर्कश और भारी भरकम आवाज थी ठाकुर योगेश्वरप्रताप  की ।पूरा गाँव उन्हें ' ठाकुर दादा' कह संबोधित करता था चाहे छोटा हो या बड़ा । हाथ में चांदी के मुठ वाली छड़ी , बड़ी बड़ी मूंछे ।रुआब ऐसा की किसी नीची जाति को भर नजर देख लें तो वह भय से धरती  में समा जाये ।

कलुआ ने देखा की ठाकुर दादा कुछ दूरी पर खड़े उसे ही पुकार रहे थे ।

" पाय लागू ठाकुर दादा ... " कलुआ यूँ ठाकुर दादा  द्वारा अपने को बुलाये जाने पर  घबरा गया तुरन्त सफेदे की टहनी हाथ से छूट गई ,  कंधे पर लटके झोले को एक तरफ करता हुए भाग के पैर छुए ।

कलुआ के पैर छुए जाने के बाद भी कोई प्रतिक्रिया दिए बिना बड़ी बढ़ी भौहें तानते हुए अपनी  छड़ी से कलुआ के झोले को कुरेदते हुए बोले -

" कँहा जा रहा है रे ? इत्ते जल्दी जल्दी ?"
" वो दद्दा ....वो..... पढ़ने जा रहे है हम...." कलुआ ने बड़ी मुश्किल से थूक सटकते हुए कहा

इतना सुनते ही ठाकुर साहब का पारा चढ़ गया ,वे  छड़ी अपने सर तक उठा  मारने के अंदाज में बोले-
" तोहरी महतारी का  ....कुकुर क औलाद .... ससुरा पढ़ने जा रहा है .... बड़ा कलेक्टर साहब बनेगा "

" ससुरे घुरवा से कित्ती दफे कहें है की ई पढाई लिखाई नीची जात वालन के लिए नाही है ..... पर मानत नाही ... लागत है की इन ससुरन क इनकी आउकात दिखावेक पड़ी"
" सुन रे ... बहुत पढ़ लियो तू ....परसो से हमारे खेतों में धान क रोपाई सुरु है ... आपने माई बाप के साथ खेत पर
आ जइयो ... नाही त मार मार के सब कलेक्टरगिरि दुइ मिनट में झाड़ देंगे " ठाकुर दादा ने छड़ी से कलुआ को धक्का देते हुए आदेशात्मक शब्दों में कहा ।

" ज....जी.... ठाकुर दद्दा " छड़ी के धक्के के वेग से पीछे होते हुए कलुआ ने गर्दन झुकाये हुए कहा ।

और कह भाग लिया ।

कलुआ की उम्र होगी लगभग 13 साल, गाँव से 3 किलो मीटर दूर मिडिल स्कूल के सातवीं कक्षा छात्र। पुरे चमरौटी में एक वही लड़का था जो अभी तक पढ़ रहा था वर्ना उसकी उम्र के अधिकतर बच्चे ठाकुर दादा के खेतो पर मज़दूरी करते थे ।

कलुआ भागता हुआ सीधा विद्यालय पहुंचा ।

कक्षा में अध्यापक  पंडित ओंकेश्वर उपाध्याय  जी बैठे थे ।
" क्यों रे कलुआ फीस लाया है क्या ? ससुरो सरकार तो वैसे ही कॉपी किताब मुफ़्त देती है ऊपर से वजीफा भी तुम्हे ..... फ़ीस नाम मात्र लेती है वह भी समय पर नहीं दी जाती है तुम से "मास्टर साहब जैसे फट पड़ना चाह रहे हो ।
"बावली सरकार ....अछूतो को पढ़ा के अफसरी करवाना चाहती है ...उँह...हमारे बराबर बैठेंगे ये बदजात  " मास्टर साहब ने चश्मे से झांकते हुए अपने ह्रदय में छुपे भविष्य के असली भय को प्रदर्शित किया ।

किन्तु कलुआ ने बिना कुछ बोले जेब से कुछ सिक्के निकाल के मास्टर जी को देने की कोशिश की ।

" दूर ... दूर ...दूर रख ... जा पहले हैंडपंप से इन्हें धो के ला .... मुझे भी छूत चढ़ाएगा बदजात " मास्टर साहब एक दम उछलते हुए बोले ।

घुरहु , कलुआ का बाप और सगुनी कलुआ की माँ ।दोनों ही ठाकुर दादा के खेतो में मजदूरी कर पेट पालते थे ।उनका सपना था की कलुआ थोडा बहुत और पढ़ ले तो शहर जा कोई नौकरी कर इस मजदूरी से मुक्त हो ।

शाम को कलुआ ने आ सुबह की घटना बताई ।घुरहु और सगुनी के माथे पर बल पड़ गए ।घोर विपदा आन पड़ी  , ठाकुर दादा के आदेश की अवेहलना अर्थात मौत को दावत देना या भूखों मरना था ।
अब तक तो किसी तरह कलुआ की पढाई चल रही थी ठाकुर दादा की नज़रो से बच के पर लगता है की अब न हो पायेगा ।

" बाबा ...मैं पढ़ना चाहता हूँ ... मैं मजदूरी करने नहीं जाऊंगा ठाकुर दादा के खेतों में " कलुआ ने भरे कंठ से कहा ।
" ऊँ.... हां ..ठीक है .... हम कौनो उपाय सोचते हैं " घुरहु ने शून्य की तरफ निहारते हुए कहा ।

उस रात किसी ने चिंता के मारे कुछ न खाया।

निर्धारित दिन पर घुरहु और सगुनी ठाकुर दादा के खेत में धान रोपने पहुँच चुके थे , गाँव के सभी काम करने लायक स्त्री पुरुष बच्चे भी मजदूरी करने के लिए अपनी अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहे थे ।

सगुनी और घुरहु खेत में काम करने में लीन थे , ठाकुर दादा अपने दो कारिंदो के साथ काम का जायज लेते हुए घुरहु के पास पहुंचे ।घुरहु उन्हें देख नजरे नीची कर जल्दी जल्दी हाथ चलाने लगा।ठाकुर दादा घुरहु पर एक नज़र डाल आगे बढ़ गए । घुरहु और सगुनी ने राहत की सांस ली ।

तभी एकाएक ठाकुर दादा रुक गए  और वापस घुरहु के पास आ कड़क आवाज में पूछा -
" काहे रे घुरवा ? तोर लरिका काहे नहीं आवा?
घुरहु और सगुनी को जैसे साँप सूंघ गया हो इस प्रश्न पर , वे मूरत बन खड़े हो गए।

फिर सगुनी  साहस कर बोली-" व्...वो ठाकुर दादा .... बीमार है ..ज्वार से तप रहा है ओकर  बदन ..."
" हाँ ठाकुर दादा.... हम ओके नीम का काढ़ा पिला सुते के लिए कह आये हैं ... हम दोनों उका हिस्से का भी काम कर लेंगे " घुरहु  ठाकुर साहब के कदमो में दंडवत लोट लगाते हुए गिड़गिड़ाया ।

ठाकुर साहब का इस बात कोई असर न हुआ ।
" रामबाबूsss.... तनिक उठा के लावा ई चमरा के लौंडे को .... उकी बिमारी अब्बे दूर करते हैं"
सगुनी और घुरहु का चेहरा फक्क पड़ गया ।

कुछ ही देर में कलुआ को खींचता हुआ रामबाबू ले आया । ठाकुर साहब ने कलुआ के बाल पकड़ नोच लिए और कितने चांटे मारे किसी ने गिने नहीं ।खेत में काम करने वाले अपना काम छोड़ अपनी जगह मूरत बने सब देख रहे थे पर किसी की हिम्मत न हुई की एक शब्द ही निकाल दे मुंह से ।

" ससुरे .. ज्यादा चर्बी चढ़ गई है तुम लोगन में .... परसो ही आदेश दिए थे की बस्ता फेंक के हमरे खेत में आ जाना ... का समझे थे की हम बावले है ... भूल जायेंगे ?
तड़ाक ...
तड़ाक ..
तड़ाक..
छड़ी बरसाते हुए ठाकुर दादा का गुस्सा जैसे कलुआ को निगल लेना चाहता था ।कलुआ का शरीर रक्त रंजीत होता जा रहा था ।

सगुनी कलुआ की यह हालत देख के बेहोश हो चुकी थी , घुरहु लाचारी से छाती पीट रहा था ।

तरुण कलुआ ठाकुर दादा की छड़ी की मार से बेहोश हो चुका था , पर अब भी ठाकुर दादा उसे छोड़ने की इच्छा में न थे ।वे अब भी गलियां और छड़ी की बौछार लगाये हुए थे ।

अचानक वह हुआ जिसकी स्वयं ठाकुर दादा को भी आस न थी ।अकल्पनिक ।

झबरा दौड़ता हुआ आया और अपने जबड़े में ठाकुर दादा का छड़ी वाला हाथ भर लिया ।कुछ ही क्षण में ठाकुर दादा का हाथ बुरी तरह से चबा लिया था , छड़ी छोड़ अब वे दर्द से बिलबिला उठे ।

जंहा इंसानो का समूह ठाकुर दादा के भय से चित्र बना हुआ था वंही उनके जुल्म से लड़ने एक जानवर रण में कूद पड़ा था ।

कारिंदो को जैसे होश आया हो वे  लाठी ले झबरा पर टूट पड़े ।

पर झबरा की इस हरकत से गाँव वालो में कुछ अप्रत्यक्षित
सा असर हुआ था , उनके मुखो पर जो अब तक ठाकुर साहब का भय था वह गायब हो गया था ।

बूढ़ा केशनाथ जो ठाकुर दादा के खेतो में मजदूरी करता था वह कीचड़ भरे खेत में  से दौड़ता हुआ बाहर आया और सभी गाँव वालो को क्रोध में धिक्कारते हुए बोला-

" मुई गए का तुम सब लोग? इतना जुल्म हो रहा है अउर  तुम  तमाशा देख रहे हो ? अरे हम से अच्छा तो यह जानवर है जो जुल्म के खिलाफ लड़ रहा है ....धिक्कार है तुम लोगन को मानुष होने पर .... सोचो यही ठाकुर दादा रहा जिसके कारण तुम लोगन के छोटे छोटे बच्चों को पढ़ाई छोड़ इ के खेत में मजूरी करे का मजबूर होना पड़ा ..."
" अरे!अपने बच्चन क मुक्ति चाहत हो तो ढहा दो आज यह ठकुराई की दीवार ..." केशनाथ सम्मोहनि वाणी सख्त भाव भंगिमा लिए आवाहन कर रहा था ।

उसकी एक एक बात लोगो के हिरदय में कील की तरह धंस रही थी।

फिर क्या था!! चिंगारी जो वर्षो से दबी थी आग बन गई , देखते ही देखते सैकड़ो हाथो ने धान छोड़ कीचड़ और लाठिया उठा लिया ।

कारिंदे भाग गए , ठाकुर दादा को उन्ही के कीचड़ भरे खेत में घसीट लिया गया ।जंहा वे अपने छक श्वेत वस्त्रो पर एक धब्बा तक बर्दाश्त न करते थे वंही आज पूरा का पूरा कीचड़ में ही लपेट दिया गया था उन्हें ।

पूरी चमरौटी टोले ने ठाकुर दादा का बहिष्कार कर दिया , कोई भी उनके खेत में मजदूरी करने न जाता ।खेत सूख गए।
फसल बर्बाद हो गई थी अतः कुछ ही दिनो में घर खाली हो गया , खाने को लाले पड़  गए ।धीरे धीरे खेत बंजर हो गए और जीने के लिए ठाकुर दादा को उन्हें एक एक कर बेचना पड़ा ।

चमरौटी टोले वालो ने एकता कर दूसरे गाँव में मजदूरी खोज ली थी । सब ने अपने बच्चों को मजदूरी छुड़ा विद्यालय में दाखिल करवा दिया था ।

केशनाथ की शिकायत पर मास्टर साहब का तबादला हो गया था ।


ठाकुर दादा बाग़ में पेड़ के नीचे टूटी खाट पर बैठे अब भी कलुआ और अन्य बच्चों को मस्ती में पाठशाला जाते हुए
देखते , पर देख के निगाह ऊपर कर लेते ।

आज कलुआ ने 12 पास कर ली ... और वह शहर जा रहा आगे पढ़ने .... चमरौटी के अन्य बच्चे भी जल्द ही 12 पास कर शहर जायेंगे ।



Saturday, 16 July 2016

निकम्मा -कहानी



" पकड़ो ...पकड़ो ... पकड़ लो .."
" बच के न जाए पकड़ो रे ..."
" पकड़ साले को ..."

बढ़ी हुई दाढ़ी और गंदे से कपड़ो में एक पतला सा व्यक्ति बदहवाश तेजी से भागा जा रहा था , उसके पीछे पागल कुत्तो की तरफ भागती भीड़ में से ऐसी ही आवाजें आ रही थी ।
वह थका हुआ लग रहा था इसलिए बहुत ज्यादा तेजी से नहीं भाग पा रहा था , भीड़ द्वारा पकडे जाने का भय उसकी निस्तेज आँखों में साफ़ झलक रहा था पर वह बिना रुके भागे जा रहा था ।

भीड़ और उसमे फ़ासला निरंतर कम और कम होता जा रहा था ।

अचानक वह व्यक्ति बुरी तरह थक जाता है और धड़ाम से गिर जाता है । भीड़ उसे घेर लेती है , फिर क्या था वहशी भीड़ उस पर टूट पड़ती है ।कोई लात मार रहा था तो कोई थप्पड़ ।
" क्या हुआ भाई ? कौन है यह ?" किसी राह चलते ने भीड़ से पूछा
"बच्चा चोर है ... साला बच्चा चुरा रहा था ...." जबाब आया
" बच्चा चुरा रहा था !!!.... मारो साले को...." राह चलता हुआ व्यक्ति भी भीड़ में शामिल हो गया ।
" नहीं नहीं ... मैं बच्चा चोर नहीं हूँ ... म..म..मेरी बातो सुनो" पिटने वाले व्यक्ति ने हाथ जोड़ते हुए कहा
" साले झूठ बोलता है ...." पर भीड़ कँहा सुन रही थी ,इतना कह भीड़ फिर उस व्यक्ति पर टूट पड़ी

यह पिटने वाला तथाकथित 'बच्चा चोर' था सुनील ।

आज से लगभग साल भर पहले ।

" मेरी बात सुनो विनीता ... मेरी बात तो सुनो ... एक बार और मौका तो दो " लगभग गिड़गिड़ाते हुए सुनील ने कहा
" क्या सुनू? कब तक सुनू?.... चार साल से ज्यादा हो गए सुनते सुनते .. तुम कभी नहीं सुधरोगे " विनीता ने गुस्से में अपना सामान पैक करते हुए कहा
" म.... मैं जल्द ही कोई काम खोज लूंगा ... एक बार और मौका तो दो " सुनील ने विनीता के हाथ से कपडे छीनते हुए कहा
"देखो सुनील अब मैं तुम्हारे साथ और नहीं रह सकती .... चार साल होगये यही सुनते सुनते ... हमारा बच्चा दो साल का हो गया है ... पर तुम्हे कोई परवाह नहीं.... तुम बस इधर उधर निकम्मों की तरह घूमते रहो ... मैं जा रही हूँ .. बस!!" विनीता ने जोर लगा के सुनील के हाथ से कपडा छीन लिया ।

" अच्छा ! आज मैं निकम्मा हो गया , पर शादी के समय तो निकम्मा नहीं था ....मेरा बिजनेस था तब तुम मुझ से बहुत प्यार करती थीं .... आज जब मेरा बिजनेस डूब गया और मैं कंगाल हो गया तो तुम मुझे छोड़ के जा रही हो " सुनील ने ताने मारने के अंदाज में कहा
" बिजनेस ? कब का डूब गया तुम्हारा वो बिजनेस  तीन साल से खाली हो तुम .... एक एक पैसे को तरस गई हूँ मैं
, ऊपर से शराब भी पीने लगे हो .... कल को हमारा बच्चा बड़ा होगा तो कैसे परवरिश करेंगे हम? न तो खुद कोई काम करते हो और न मुझे नौकरी करने देते हो " विनीता भी आज सब कुछ कहने के मूड में थी ।
" बच्चे की पढाई लिखाई सब कैसे करेंगे? ..... दो फ्लोर के फ़्लैट से एक मुर्गी के दड़बे जैसे  कमरे में सिमट गए हम  हैं ... किसी दिन तुम यह भी बेच दोगे अपने निक्कमेपन और शराब की आदत में "
" बस अब और नहीं ... मैं जा रही हूँ " विनीता ने सूटकेस बंद करते हुए कहा ।

" पर बच्चे को तो मेरे पास छोड़ दो " सुनील फिर गिड़गिड़ाया ।
" बच्चे को छोड़ दूँ??पागल हो गए हो क्या ? तुम्हारा खुद का तो तुम्हे होश रहता नहीं .... नशे में धुत्त रहते हो ..... बच्चा संभालोगे ? " विनीता की आवाज में आश्चर्य और गुस्सा था ।
"पर ... मैं सुधर जाऊंगा ... मैं तुम्हारे और बच्चे के बिना नहीं जी सकता " सुनील ने लगभग रोते हुए कहा ।

" तुम नहीं सुधरोगे .... कभी नहीं .... तुम्हे निकम्मेपन और हराम की खाने की आदत पड़ गई है ... तुम नहीं सुधर सकते .... अब तलाक ही लेके रहूंगी तुम से " विनीता का क्रोध बढ़ता गया ।

तड़ाक !!.... जोरदार थप्पड़ सुनील ने विनीता को जड़ दिया ।
" बहुत बोलने लग गई हो तुम ....तुम्हारी माँ ने तुम्हे बिगाड़ के रख दिया है ....देख लूंगा उसको भी... उसकी तो #$% " सुनील ने गुस्से अपनी सास को गलियां दी ।

" खबरदार जो मेरी माँ को गाली दी .... गाली और मार के सिवाय तुम किसी को दे भी क्या सकते हो " थप्पड़ खा के भी विनीता जरा भी विचलित न हुई ।

विनीता ने बच्चे को एक हाथ से गोद में उठाया और दूसरे हाथ से सूटकेस पकड़ तेजी से बाहर निकल गई।

पीछे सुनील रोता रहा ।

उसके बाद विनीता अपनी माँ घर रहने लगी , उसने कोर्ट में तलाक के लिए अर्जी लगा दी थी ।
इस बीच सुनील कई बार विनीता से मिलने की कोशिस करता रहा पर सफल न हुआ , सिर्फ कोर्ट की तारीख पर ही उससे देख पाता पर विनीता उसकी तरफ देखती भी न थी ।
उसे अपने बच्चे से बहुत प्यार था , वह बच्चे से मिलने की कोशिश करता पर कभी सफल न हो पाता ।

आज से 6 महीने पहले कोर्ट में विनीता का तलाक मंजूर हो गया था , चुकी सुनील तीन साल से बेरोजगार था ही शराबी और हो गया था इसलिए केस विनीता ने जीत लिया था ।

कोर्ट ने बच्चे को विनीता को सौंप दिया था ।विनीता अब सुनील के साये से भी बच्चे को दूर रखती थी , अगर वह कभी अपने बच्चे को देखने भी जाता विनीता के घर तो उसके सास -ससुर , साले आदि उसे दुत्कार के भगा देते ।

कुछ दिन पहले सुनील ने सुना की विनीता की शादी कंही और पक्की कर दी गई है और वह बच्चा भी साथ ले जायेगी ।

सुनील को बहुत मानसिक आघात लगा , वह और शराब पीने लगा था । चौबीसो घण्टे नशे में रहता ताकि बच्चे की ययाद भुला सके । उसका शरीर सूख के पतला दुबला हो गया था , दाढ़ी बढ़ गई थी शायद ही कोई पहचान पाता की यह वही पहले वाला सुंदर और बलिष्ठ सुनील है ।

एक दम भिखारी और पागलो वाली हालत हो गई थी उसकी ।

पर वह बच्चे की याद न भुला सका , वह अपनी ससुराल में चक्कर काटने लगा की जिस दिन उसका बच्चा दिख गया उसी दिन उसे लेके भाग जायेगा।

आज के  दिन उसे मौका मिल ही गया, बच्चा बहार खेल रहा था उसकी विनीता दरवाजे पर बैठी थी ।
सुनील अचानक आया और अपने बच्चे को उठा भागने लगा ।उसकी पीठ विनीता की तरफ थी , बच्चा यूँ अपने को उठाने पर जोर से चिल्लाया । बच्चे के चिल्लाने की आवाज से विनीता का ध्यान उस पर पड़ा , वह जोर से चिल्लाई ।

" मेरा बच्चा .... चोर ... चोर ... बचाओ "

इतना सुनते ही भीड़ उसके पीछे थी ।

सुनील घबरा गया और अपने पीछे आती भीड़ देख के उसने बच्चे को छोड़ दिया और भागने लगा ।
विनीता ने भाग के बच्चे को अपने गोद में ले लिए और घर की तरफ भाग आई ।

सुनील भाग रहा था और भीड़ उसके पीछे थी ।
सुनील पकड़ा गया था ।
" मारो ... मारो.... "
" बच्चा चोर .... साला"
" बचने न पाये ...."

सुनील पर कितने लात घुसे पड़े कोई गिनती नहीं थी , वह बेहोश हो चुका था पर भीड़ जो पहले से ही अपने अपने दुखो से फ्रेस्टेड होती है उसे सुनील के रूप में अपने गुस्से को उतारने का साधन मिल गया था ।

कुछ ही मिनटो में सुनील का शरीर शांत और निढल हो गया ।
पुलिस के आने से पहले उसकी मौत हो चुकी थी ।
भीड़ ने उसका निकम्मापन हमेशा के लिए दूर कर दिया था ।


बस यंही तक थी कहानी ......



Monday, 11 July 2016

ढाबा - भाग 4



"शर्मा साहब नमस्कार ......ईधर ..." केशव ने हाथ हिलाते हुए कहा
" ओहो!यंहा कोने में हो .... नमस्कार "शर्मा जी ने  ढाबे में प्रवेश करते और  सामने रखे स्टूल पर धम्म से बैठते हुए कहा ।
"  जगह ही यंही मिली आज.....  सब ठीक है न घर पर ? आज तो नहीं मारा भाभी जी ने ?" केशव ने हँसते हुए कहा ।

"सब ठीक है .....मूड वैसे ही खराब है ... तू और खराब मत कर " शर्मा जी थोडा उखड़ से गए ।
"क्या हुआ मालिको?..... कोई परेशानी?'  केशव ने सीरियस हो पूछा और छोटू को आवाज लगाते हुए कहा -
"दो चाय .....और दो मट्ठी ...छोटू "

अब शर्मा जी ने बात आगे बढ़ाई।

"यार!देख तू तो जानता ही है की मैं जातिवाद नहीं मानता , मैं चाहता हूँ की जातिवाद ख़त्म हो जाए " शर्मा जी ने पूछने वाले अंदाज में कहा ।
" बिलकुल ..... यह तो अच्छी बात है " केशव ने जबाब दिया
" पर यार मैं वर्ण व्यवस्था को सही मानता हूँ ... वर्ण व्यवस्था समाज के लिए जरुरी है और हर समाज में वर्ण व्यवस्था है , हमारे ऋषि मुनियो ने जो वर्ण व्यवस्था का निर्माण किया था वह बहुत सोच समझ के और समाज को व्यवस्थित प्रकार से चलाने के लिए किया था " शर्मा साहब ज्ञान देने मूड में थे ।
" ठीक है जी !!!!... आगे ?" केशव भी ज्ञान लेने के मूड में था।

"देख भाई!,पहले के ज़माने में वर्ण व्यवस्था जन्माना नहीं थी , कोई भी  किसी भी वर्ण में जन्म ले अपने  कर्म के अनुसार वर्ण बदल सकता था .... जैसे वाल्मीकि शुद्र के घर जन्म लेके अपने कर्मो के कारण ब्राह्मण कहलाये " शर्मा जी ने बड़े आत्मविश्वास से कहा
" पर शर्मा साहब , वाल्मीकि तो जन्माना ब्राह्मण थे .....खुद वाल्मीकि रामायण में शुरू में ही लिखा.. उसमे चैक कीजिय वे खुद को प्रचेता के दसवें पुत्र और नारद के भाई बताते हैं ... आपने तो पढ़ी होगी ? " केशव ने प्रश्न वाचक शब्दों में कहा ।

शर्मा साहब को शायद इस जबाब की अपेक्षा न थी अतः थोडा हड़बड़ा गए -
"अ..हाँ ..हाँ बहुत साल पहले पढ़ी थी ... अभी ध्यान नहीं चैक कर के बता दूंगा ...पर वर्ण व्यवस्था अच्छी थी , जैसे जो शिक्षा में प्रांगत हो वह ब्राह्मण , जो युद्ध कला में प्रांगत हो वह क्षत्रिय , जो व्यापार में धन कमाने का इच्छुक हो वह वैश्य और जो इन तीनो कलाओ में अनाड़ी हो वह शुद्र " शर्मा जी लौ में थे अपनी
" केशव कुछ उदहारण देखो.... ऐतरेय ऋषि एक दासी पुत्र थे जो बाद में ब्राह्मण हुए और उन्होने उपनिषद तक लिख दिया .... इसी प्रकार अग्निवेश्य का नाम आता है जिनके वंशधर क्षत्रिय से ब्राह्मण हुए ...और आगे सुनो ... दिवोदास जो की क्षत्रिय थे उनका पुत्र ब्रह्मऋषि हुआ ... बहुत से उदहारण है और .." शर्मा जी कहे जा रहे थे

" और तो और केशव ऋग्वेद के पहले मंडल के सूक्त 112 में एक मन्त्र देखो ' कारुरहं ततोभीष्गुपलप्रक्षिणी ..... परिस्त्रव' अर्थात: हे सोम! मैं मंत्रकर्ता ऋषि हूँ  मेरे पिता चकित्सक है और मेरी माता पत्थर पर अनाज पीसती है ।जिस प्रकार गौ नाना प्रकार चरगाह में चरती है उसी प्रकार हैम लोग विभिन्न व्यवसाय कर धनोपर्जन करते हैं " अब तो शर्मा जी ने पुरे ग्रन्थ खोल दिए

केशव मुस्करा रहा था ।

"तो देखा केशव , वैदिक काल में कोई भी वर्ण बदल सकता था .... ब्राह्मण से शुद्र हो सकता था और शुद्र से ब्राह्मण " शर्मा साहब केशव को मुस्कुराता देख अपनी जीत पक्की समझ रहे थे

" शर्मा साहब ! चलिए आपकी बात मान लेता हूँ .... पर यह बताइये की फिर वर्ण व्यवस्था जन्माना कब हुई ? यानि शुद्र का बेटा शुद्र और ब्राह्मण का बेटा ब्राह्मण ?

शर्मा साहब गहरी सोच में पड़ गए , थोड़ी देर सोचने के बाद बोले -
" यह सब मलेच्छ लोगो के कारण हुआ है उन्होंने ही हिन्दु धर्म को भ्रष्ट किया है " शर्मा साहब एक दम उत्तेजित हो बोले ।
" ब्राह्मणो जायमानोहि ..... गुप्तये ..... मनु महाराज कहते हैं अध्याय 1के श्लोक 99 में  कह रहे है ...यानि ब्राह्मण जन्म लेते ही पृथ्वी के समस्त जीवो में श्रेष्ठ हो जाता है .... अब बताइये जो जन्म लेते ही श्रेष्ठ हो जाये वह कोई भी कर्म कर ले हेय कैसे बनेगा?" अब केशव ने प्रश्न किया ।

शर्मा साहब फिर सोचने लगे और बोले -" यह सब  मिलावटी हैं .....मैक्समूलर जैसे अंग्रेजो ने मिलावट कर दी है कई ग्रन्थो में "
" ओह! चलो ठीक .. माना मिलावट कर दी होगी , पर शुद्रो दलितों  का उपनयन संस्कार क्यों बंद कर दिया गया ? क्या वह भी अंग्रेजो ने बंद करवाया ?बिना उपनयन संस्कार के गुरुकुल में प्रवेश निषेध था और बिना गुरुकुल में प्रवेश के पढाई कैसे संभव था ?

शर्मा साहब को समझ नहीं आ रहा था की क्या बोले वे बेचैनी से ढाबे में रखे मर्तबानो को देखने लगे ।फिर कुछ सोच के बोले-
"वर्ण व्यवस्था दूसरे देशो में भी है .... वंहा के समाज में भी वर्ण के अनुसार बंटा हुआ है .... अमेरिका जैसे देशो में भी "
" न! वंहा वर्ण नहीं बल्कि नस्ल यानि race है , काला -गोरा भेदभाव आदि नस्लीय है पर वर्ण में यदि शुद्र गोरा भी हुआ तो भी वह शुद्र ही रहेगा और यदि ब्राह्मण काला भी हुआ तो शीर्ष पर रहेगा "

"प....पर..." शर्मा साहब ने कुछ कहना चाहा
" अब मेरी बात सुनिए शर्मा साहब ..." केशव ने बीच टोकते हुए कहा ।
" आपके वर्ण व्यवस्था के अनुसार शुद्र /अछूत को न तो विद्या ग्रहण करने का अधिकार है ,न उसे अपनी रक्षा करने के लिए हथियार उठाने का अधिकार है,न ही अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए व्यापार करने का अधिकार है ।तो!, अब प्रश्न यह उठता है की यदि तीनो वर्णों में (ब्राह्मण,क्षत्रिय, वैश्य) अपना कम सही से नहीं करता है तो क्या होगा? " केशव ने प्रश्न किया

"क्या मतलब ? मैं समझा नहीं ...." शर्मा जी ने आँखे गोल करते हुए पूछा ।

"मतलब की यह जैसे की, मान लीजिये ब्राहमण अपना काम सही से नहीं करता और वह दोनों वर्णों को शिक्षा देने से इंकार कर देता है फिर क्या होगा? या शिक्षा के बहाने उन्हें अन्धविश्वास और पाखंड की तरह धकेल देता है तो क्या होगा?" केशव अपनी लौ में कहे ही जा रहा था , कहते कहते उसने सोचने वाले अंदाज में आँखे बंद कर ली ।फिर कुछ क्षण आँखे बंद किये किये ही बोलना शुरू किया

"इसी प्रकार क्षत्रिय हथियार के बल पर सभी का शोषण करता है तो क्या होगा?या मान लीजिये ब्रहमण,क्षत्रिय,वैश्य तीनो साधन और शक्ति सम्पन्न हैं और अपनी ताकत का नाजायज फायदा उठा के शुद्र जिसके पास न विद्या है , न हथियार हैं , न धन है उसका शोषण करते हैं तो शुद्र क्या करेगा?
शुद्र न तो पढ़ा लिखा है, न ताकतवर है और न धन है उसके पास ऐसी स्थिति में वह कैसे मुकाबला करेगा ऊपर के तीनो वर्णों का? उसे जीवन भर गुलामी करनी पड़ेगी ऊपर के तीनो वर्णों की , अन्याय अत्याचार सहना पड़ेगा।
फिर एक दिन इन्ही शुद्रो में से किसी को अछूत बना दिया जायेगा" केशव अब भी आँखे बंद किये हुए बोले जा रहा था ।

अचानक ठक की आवाज से उसका ध्यान टूटा , उसने आँखे खोल के देखा तो सामने छोटू दो चाय के गिलास मेज पर रख रहा था ।"ठक" की आवाज मेज पर गिलास रखने की ही थी ।
केशव ने चौंक के पूछा - "शर्मा जी कँहा चले गए ?"
" शर्मा जी तो थोड़ी देर पहले ही चले गए .... एक चाय ले जाऊं क्या ? छोटू ने बताते हुए प्रश्न किया।

"चले गए !!..... नहीं ले मत जा .. मैं ही पी लेता हूँ शर्मा जी की भी " इतना कह केशव हँस दिया ।




Saturday, 9 July 2016

मर्द-कहानी -भाग 2


कहानी के पिछले भाग में अब तक आपने पढ़ा की नन्दू केशव को हरा  कुश्ती प्रतियोगिता जीत के पुरे जिले का नामी पहलवान बन जाता है ।
एक दिन चौराहे पर चाय के स्टाल पर उसे बिंदिया मिलती है जो उसी के गांव थी ।नन्दू अपनी मोटरसाइकिल पर उसे गाँव तक लिफ्ट देता है , रास्ते में अचानक ब्रेक लगने से दोनों करीब आ जाते हैं ।

अब आगे ...

अँधेरा घना हो गया था पर मोटरसाईकिल चल नहीं बल्कि रेंग रही थी ,नन्दू रास्ते को और लंबा कर देना चाहता था ।
दोनों मन ही मन एक ही चीज चाह रहे थे  , नन्दू कंही अँधेरे कोने में  मोटरसाइकिल रोक लेना चाहता था और बिंदिया रुकवा लेना चाहती थी पर कह दोनों ही न पा रहे थे ।इसी उधेड़बुन में वे गाँव में प्रवेश कर गए ।

अब बिंदिया नन्दू से अलग हो गई थी , नन्दू ने बिंदियाँ के घर के आगे मोटरसाइकिल रोकी ।

बिंदियाँ के घर के बरामदे में लालटेन जल रही थी जिसकी माध्यिम रौशनी पुरे बरामदे  फैली हुई थी ।बिंदियाँ मोटरसाइकिल से उतर के खड़ी हो गई , उसका घूँघट सरक के कंधो पर कब आ गया था उसे पता ही नहीं चला ।

लालटेन की मद्धिम रौशनी में उसका दूधिया चेहरा ऐसा चमक रहा था जैसे अमावश्या की काली रात में पूरा चंद्रमा निकल आया हो ।

नन्दू ने अब उसे पूरा देखा ।

बड़ी आँखे , पतले ओंठ , दूध में पड़े केसर जैसा रंग, चाँद सा चमकता और शीतलता देता चेहरा  जिसकी भीनी भीनी साँसों से वह पुरे रास्ते मदहोश था , छरहरा बदन ,  ये साँचे में ढले उभार जो पूरे रास्ते उसकी पीठ में धँस उसके तन  और मन को क्षत-विक्षत कर रहे थे ।

नन्दू सिर्फ यही कह सका अपने मन में "सौंदर्य की देवी है यह तो "।

बिंदिया भी नन्दू के पहलवानी के गठीले बदन को देख के मंत्रमुग्ध हो रही थी ।विशाल और बलिष्ठ भुजाएं , चौड़ी छाती .....शायद ऐसा ही मर्द कभी वह चाहती थी ।

तभी किसी की आहट ने दोनों को अपने अपने विचारो की दुनिया से खींच धरातल पर ला दिया था ।
सामने केवलराम और उसकी पत्नी खड़े थे । बिंदियाँ को देख केवलराम बोले-
" बिंदिया तू आ गई बेटी.... माफ़ करना मेरी तबियत खराब हो गई थी इसलिए आ नहीं सका तुझे लेने "
" कोई बात नहीं पिता जी .... " बिंदिया ने सास ससुर के  पैर छूते हुए जबाब दिया ।

नन्दू को केवलराम जानते थे जब बिंदिया ने उन्हें बताया की कैसे उसने उसकी मदद की और यंहा तक सामान के साथ छोड़ा तो केवलराम ने बहुत आभार जताया ।

नन्दू बिंदिया को उसके घर छोड़ के आ तो गया था पर अपना दिल और दिमाग वंही छोड़ आया था ।वह अजीब रोमांच और उत्तेजना जो बिंदिया के शरीर के स्पर्श से महसूस किया था वह भूले से भी नहीं भुलाया जा रहा था उस से ।इधर बिंदिया का भी हाल यही था , रात बहुत बेचैनी से कटी दोनों की ।

सुबह नन्दू फिर किसी बहाने से बिंदिया के घर के आगे से निकला की बिंदिया से मुलाकात हो जाए ।बिंदिया मिली और मुस्कुरा भी दी , उसकी आँखे बता रही थी की सोई नहीं थी रात भर वह ।पर दोनों में कोई बात न हो पाई क्यों की उसकी सास घर पर ही थी ।

कई दिनों तक नन्दू ऐसे ही वियोग में  किसी न किसी बहाने से बिंदिया के घर के चक्कर लगता । बिंदिया भी यही चाहती थी , उसने मौन स्वीकृति दे दी थी नन्दू को पर मौका नहीं मिल रहा था दोनों को ।

एक दिन जब नन्दू बिंदिया के घर आगे से निकल रहा था की बिंदियाँ ने उसे बुलाया और धीरे से बताया की  आज उसके सास ससुर किसी रिस्तेदार के घर जायेंगे अतः रात में अकेली रहेगी।

नन्दू को तो जैसे कोहिनूर हीरा मिल गया हो यह खबर सुन के वह उत्तेजना , उमंग , उल्लास , उत्साह न जाने कितने भावो को ले रात का इंतेज़र करने लगा ।

तय समय पर नन्दू बिंदियाँ के घर पर पहुँच गया, चारो तरफ अँधेरा होने के कारण किसी को पता भी न चला की बिंदिया के दरवाजे पर कौन है ।
बिंदियां ने दरवाजा खोला और नन्दू को भीतर खींच के दरवाजा बन्द कर लिया ।

सामने चारपाई पर बिस्तर बिछा हुआ था , बिस्तर पर नई चादर बिछी थी उसे देख ऐसा लग रहा था मानो वह अपने मैले होने का बेसब्री से इन्तेजार कर रही हो ।

नन्दू अपनी बेसब्री छुपा न पाया , उसने बिंदियाँ को बाहों में खींच लिया ।उस चुभन का अहसाह जो उसने मोटरसाइकिल पर पीठ पर लिया था अब वही चुभन वह अपनी छाती पर महसूस कर रहा था ।वह उस चुभन को और अंदर और अंदर तक महसूस करना चाहता था इसलिए उसने बिंदिया को अपनी बाँहो के घेरे में पूरा जकड़ लिया  , बिंदिया भी जैसे उसके बलिष्ठ भुजाओ और चौड़े सीने में समा जाना चाहती थी ।

अब उन्हें अपने तन के वस्त्र भी भारी लगने लगे थे, अतः वे उस भार से मुक्त हो गए ।नन्दू ने बिंदिया को गोद में उठा लिया था और बिस्तर पर पटक दिया ।दोनों तरफ की उत्तेजनाएं चरम पर थीं , यूँ लग रहा था  जैसे की बरसो शांत पड़ा समुन्दर आज ज्वारभाटा ला सभी तटबंधनो को नेस्तनाबूत कर देना चाहता हो ।

उत्तेजना तो चरम पर थी नन्दू की पर उससे वह नहीं हो पा रहा था जिसकी चाहत बिंदिया को थी , नन्दू लाख कोशिश करने के बाद भी बिंदियां को वह आनंद नहीं दे पा रहा था जो बिंदिया चाह रही थी ।उसके अंग में उत्तेजना पैदा नहीं हो पा रही थी ,शुरू में उसे लगा की शायद ऐसा पहली बार करने के कारण हो रहा हो पर कई बार कोशिश करने के बाद भी वह नाकामयाब रहता है ।

अब उसे तो खीज हो ही रही थी बिंदियाँ को भी गुस्सा आ रहा था , उसकी हालत वैसी ही थी जैसे की किसी बंजर भूमि पर काले घने बदल छाए पर बिना बरसे चले जाएँ ।

बहुत कोशिस करने के बाद भी नन्दू नाकामयाब रहता है , इधर सुबह होने वाली थी ।  खीज, गुस्से और कुंठा में बिंदिया ने अपने कपडे पहनते हुए कहा -
" नामर्द हो तुम .... छी:... मैं तो तुम्हे  मर्द समझती थी पर तुम तो नमार्द निकले .... शरीर सांड सा पर किसी काम का नहीं ..... आज के बाद मुझे अपनी शक्ल मत दिखाना ...नामर्द कंही का .. चल भाग यंहा से ...हिजड़ा '  नन्दू की असफलता से बिंदिया में जो खीज और गुस्सा उपज गया था वह अब शब्दों का लावा बन फूट पड़ा था ।

बिंदियाँ के एक एक शब्द मानो नन्दू के कानो को पिघला दे रहे थे , उसने लड़खड़ाते कदमो से अपने कपडे पहने और बहार निकल गया । उसके बाहर निकलते ही बिंदियाँ ने गुस्से में दरवाजा बन्द कर लिया ।

नन्दू लड़खड़ाते हुए कदमो से घर की तरफ बढ़ रहा था , उसके कानो में बिंदियाँ की आवाज अब भी गूंज रही थी ।
"नामर्द"
"नामर्द"
"हिजड़े"
"मैं नामर्द हूँ ... नहीं..... नहीं ... मैं मर्द हूँ ...  मर्द हूँ ... मैं .... मैं किसी से नहीं हारता "वह चिल्लाया ।

बदहवासी में उसके मुंह से झाग निकलने लगा , शायद वह मानसिक संतुलन खो चुका था ।वह एक क्षण के लिए रुका और दूसरी तरफ हो लिया । यह रास्ता गाँव से बाहर बाग़ की तरफ जाता था ।
उसने रास्ते में पड़ने वाले एक छप्पर से रस्सी निकाल ली।

सुबह गाँव वालो को नन्दू की लाश एक पेड़ से लटकी हुई मिली ।
पुरे जवार के लोगो में शोक और कुतूहल था ,आखिर उनके 'मर्द'ने आत्महत्या क्यों की ?

बस यंही तक थी कहानी ....



Thursday, 7 July 2016

मर्द -कहानी - भाग 1


"पकड़ पकड़ ...हाँ ...हाँ..शाबाश..."
"टांग पकड़...पकड़ ले ....पकड़ ले "
"दे पटखनी .....हाँ ..हाँ ऐसे ही ..पछाडी मार"
"अरे यार!...कैंची फंसा ... कैंची ....केशव "
"पटक नंदू .... पटक दे ... उठा के पटक दे "
"शाबास ! केशव ... धोबी पछाड़ लगा ..."

पूरा अखाडा इन्ही जोशीले कानफोड़ू शोर से गूंज रहा था , अखाड़े में दो पहलवान केशव और नन्दू जमे हुए थे । कभी केशव ऊपर होता तो कभी नन्दू ,दोनों एक दूसरे पर अपना हर दाँव आजमा ले रहे थे ,पर कोई भी हार मानने को तैयार न था । कुश्ती नन्दू और केशव में हो रही थी पर लग रहा था की जैसे दर्शको में हो रही हो , इतना जोश भरा हुआ था दर्शको में की आपस में लड़ने भिड़ने को तैयार थे ।

केशव था नानकपुरा  गाँव का और नंदू था दल्लुपुर का । बसन्त पंचमी को होने वाली वर्षीक कुश्ती थी , इस कुश्ती में पुरे जिले के पहलवान भाग ले रहे थे ।एक एक कर के इधर नन्दू बाकी प्रतिद्वंदी  को हराता रहा तो उधर केशव , आख़िरत में ये दोनों ही बचे थे जिनके बीच अब फ़ाइनल मुकाबला हो रहा था । चुकी कुश्ती जिले स्तर पर थी इसलिए गणमान्य लोगो के आलावा छोटे बड़े हजारो लोग इस कुश्ती को देखने जुटे थे। नानकपुरा और दल्लूपुरा गाँव तो पूरा खाली हो गया था सभी लोग भोर होने से पहले ही काम छोड़ दंगल वाले स्थान पर आगे वाली पंक्ति में जगह घेरे बैठे थे ।

केशव ने नन्दू को कमर से पकड़ के उठा के पटखनी लगा दी , नन्दू की पीठ जमीन  से लगने वाली ही थी की उसने हिम्मत करते हुए अपनी एक टांग उठा के केशव की गर्दन तक ले गया और पूरी ताकत से धक्का दिया ।एक झटके में केशव नन्दू से दूर जा गिरा ।

दोनों पहलवान क्रुद्ध सांडो  की तरफ एक दूसरे से टकरा रहे थे पर ऐसा लग रहा था की आज हार जीत का फैसला नहीं हो पायेगा , दर्शक उतने ही पागल हुए जा रहे थे ।
"केशव....केशव"
"नन्दू ...नन्दू"
कान फाड़ देने शोर ....

अचानक शोर थम गया , भीड़ में  कुछ में कुछ क्षण पिन ड्राप साइलेन्स छा गया ।
सब आश्चर्य से खड़े हो गए ।
नन्दू ने केशव को चित कर दिया था।

लोगो का हुजूम नंदू नंदू चिल्लाने लगा ।

दल्लूपुरा निवासी जैसे ख़ुशी से पागल ही हो गए, लोगो का हुजूम अखाड़े में ही घुस गया और नन्दू को कंधे पर उठा नाचने लगा ।

एक बड़ी सी ट्रॉफी और दस हजार नगद जीत लिए था नन्दू ने और इनसे भी ज्यादा कीमती पूरे जिले का सबसे बड़े पहलवान का ख़िताब भी ।

दल्लूपुरा निवासी बैंड बाजे के साथ नन्दू को गाँव लेके आये , हर घर में आज उसी की चर्चा थी ।इस कुश्ती को जीतने के बाद नन्दू पूरे गाँव का हीरो बन गया था ।
लोग कहते की "मर्द हो तो नन्दू जैसा "  ।

अब दल्लूपुरा में' मर्दानगी ' की पहचान नन्दू बन गया था ।

नंदू भी इस 'मर्द' के तगमे से फुला न समाता,सीना चौड़ा तो था ही , अब यह 'उपाधी' मिलने से और सीना फूल गया था उसका ।

दो चार चेले चपाटे हमेशा उसकी जी हजुरी में लगे रहते , मजाल था की पुरे जवार में कोई उससे आँख मिला के भी बात कर ले ।नन्दू चलता भी तो पुरे अकड़ के साथ था ।

एक दिन शाम को गाँव से  बाहर  चौराहे पर बनी एक चाय/पान के खोखे पर बैठे नन्दू और उसका साथी भूरा चाय की चुस्की ले रहे थे की उन्होंने देखा की जीप से एक महिला सवारी उतरी जिसके साथ दो  बैग्स थे ।
बैग्स निश्चय ही भारी थे क्यों की महिला को मुश्किल हुई थी उन्हें उतारने में ।

महिला ने बैग्स रखते ही घूंघट कर लिया था अतः उसका चेहरा साफ़ नहीं दिख रहा था । छोटा सा चौराहा होने के कारण सवारियां कम ही मिलती थी वंहा , इस लिए एक आध ही रिक्शेवाले वाले ही रहते थे ।

अब तक अँधेरा होने लगा था, वह महिला एक मात्र रिक्शेवाले से कंही चलने के लिए कह रही थी पर रिक्शेवाला मना कर रहा था ।
महिला की व्याकुलता उसके हावभाव से साफ पता चल रही थी ।

भूरा बहुत देर से यह सब देख रहा था , उसने जा के पता किया की माजरा क्या है ।
उस घूँघट वाली महिला ने बताया की वह दल्लूपुर गाँव  ही घर था उसका , सामान ज्यादा है इसलिए रिक्शा करना चाह रही थी पर रिक्शेवाला रिक्शा खराब होने की दलील दे रहा था ।

भूरा ने यह बात आ के नन्दू को बताई ।

" अपने गाँव की ही है ....रात भी होने वाली है कैसे जायेगी ?" नन्दू ने खुद अपने से ही प्रश्न किया ।
भूरा को यूँ महिला के बारे में चिंता करता देख नन्दू से रहा नहीं गया , आखिर उसने भी सोच ही लिया की रात में अकेली महिला 4 किलोमीटर गांव तक  पैदल कैसे जायेगी
वह भी इतने भारी सामान के साथ? ।

वह महिला के पास गया और बड़ी ही आत्मीयता से  बोला -
" मैं भी दल्लूपुरा गाँव का ही रहने वाला हूँ, रात होने वाली है और यंहा कोई गाँव तक जाने का साधन भी नहीं मिलेगा इस समय .... यदि आप बुरा न माने तो आप मेरे साथ चल सकती हैं ... मेरी मोटरसाइकिल पर ... मैं आपको गाँव तक छोड़ दूंगा ।"

" पर....' महिला ने शंका भरे शब्दों में कहा
" देखिये ,मैं तो आपकी मदद करना चाह रहा हूँ ... आप मुझे गलत मत समझिये ... बाकी आपकी इच्छा है " नन्दू ने बीच में टोकते हुए कहा ।

महिला परेशान तो थी ही , उसने एक क्षण सोचा और फिर सहमति में सर हिला दिया ।

भूरा ने मोटरसाइकिल के दोनों तरफ महिला के बैग्स को अच्छी तरह बाँध दिया ।नन्दू ने मोटरसाईकिल स्टार्ट की तो महिला पीछे बैठ गई ,महिला ने अब भी घूंघट किया हुआ था ।
नन्दू महिला को लेके चल दिया ,भूरा पैदल ही आ रहा था ।

थोड़ी देर चलने के बाद नन्दू के मन में उस महिला को जानने की और इच्छा हुई , उसने अपना गला साफ़ करते हुए पूछा -
"दल्लूपुरा में किस घर से हैं आप ? "
" केवलराम जी के घर से .... मैं उनकी बहु हूँ "
"केवलराम जी की बहु हैं आप .... यानी रतिलाल की पत्नी !... वो तो फ़ौज में है न ?"
"जी .... माँ की तबियत ख़राब थी इसलिए तीन महीने से मयके में ही थी .... वंही से वापस आ रही हूँ  "

तभी अचानक सामने सड़क पर एक बड़ा गड्ढा देख नन्दू ने मोटरसाइकिल के तेज ब्रेक लगाये , यूँ अचानक ब्रेक लगने से महिला का संतुलन बिगड़ गया और वह नन्दू की पीठ से टकराई ।

महिला के वक्ष नन्दू की पीठ में धंस से गए थे , नन्दू के शरीर में जैसे करन्ट सा दौड़ गया हो।नसों में सिहरन सिहरन पैदा हो  गई ।दिमाग अजीब सा महसूस करने लगा था , धड़कने एक दम से तीव्र ।

नन्दू जब 8 साल का रहा होगा तभी से उसके पिता जी ने उसे अखाड़े के गुरु जी को सौंप दिया था ।उनकी इच्छा थी की नन्दू भी एक बड़ा पहलवान बने और जवार भर में नाम कमाए ।

गुरु ने नन्दू को लंगोट पहनाते समय सबसे पहली शपथ यही दिलवाई की जब तक वह पहलवानी करेगा तब तक लंगोट का पक्का रहेगा , किसी महिला को छूना तो दूर उसके साये से भी दूर रहेगा ।

नन्दू आज तक अपनी शपथ और लंगोट का पक्का था ।
पर आज जैसे ही वह महिला नन्दू से टकराई अचानक उसके मन में यह क्या हो गया जिसे वह समझ नहीं पा रहा था ।

आगे भी सड़क पर छोटे बड़े कई गड्ढे थे अतः महिला ने अपना संतुलन बनाने के लिए अपना एक हाथ घुमा के नन्दू की कमर को जोर से पकड़ लिया ।

अब महिला का शरीर नन्दू के शरीर से बिलकुल सट गया था , नन्दू महिला की भीनी सांसो की खुशबु  के साथ उसके  वक्षो की हलकी चुभन साफ  मासूस कर रहा था ।
नन्दू मानो इस दुनियां में हो ही नहीं , किसी महिला के निकट वह पहली बार आया था ।उसका रोम रोम रोमांचित और स्वर्गीय आनंदित हो रहा था ।

उसने अपने मन पर कठिनाई से काबू करते हुए और  लड़खड़ाते स्वर में आगे पूछा -
"क...क...क्या नाम है अ...आपका?"
"बिंदिया..." महिला ने सकुचाते हुए जबाब दिया ।

ऐसा नही था की सिर्फ नन्दू ही बिंदिया के शरीर के स्पर्श को पा रोमांचित हो रहा था बल्कि बिंदिया की मानसिक स्थिति भी कुछ ऐसी ही थी ।बिंदिया के पति रतिलाल को भी फ़ौज की नौकरी की मज़बूरी के चलते शादी के एक हफ्ते बाद ही उसे छोड़ के जाना पड़ा ।

बिंदिया अभी ठीक से तृप्त भी न हो पाई थी रतिलाल से की बिछोह का दर्द सहना पड़ा । बिंदिया की अतृप्त इच्छाओं की नदी जो रतिलाल के जाने के बाद आठ महीने से  जम के जो बर्फ जैसी ठंढी और सख्त हो गई थी वह नन्दू के शरीर के स्पर्श की ऊष्मा से पिघलने लगी थी।

मन बेकाबू हो रहा था , पिघली नदी में उफान आने की आहट साफ़ और स्पष्ट सुनाई देने लगी बिंदियाँ को ।
अब वह जानबूझ के नन्दू की चौड़ी पीठ पर अपने उभार धंसा दे रही थी , उसका हाथ नन्दू के सपाट पेट को और कस के जकड़े जा रहा था ।

नन्दू को लग रहा था की जैसे बिंदिया के उभार उसकी पीठ धंस के उसके मस्तिष्क को क्षत-विक्षत करे दिए जा रहे हों । 28 साल के कठोर संयम का दुर्गम किला  आज तिनके की मानिंद  उड़ा जा रहा था ।

शेष अगले भाग में .....



Saturday, 2 July 2016

जन्मपत्री


सीमा अपने कमरे के दरवाजे पर लगे पर्दे के पीछे से ड्राइंग हॉल में बैठे अमर और उसके परिवारवालो को देख रही थी ।
"कितना अच्छा लड़का लग रहा है , ठीक वैसे ही जैसे मैंने सोचा था ... भगवान् इस बार सब ठीक कर देना " सीमा ने मन ही मन भगवान् से हाथ जोड़ प्रार्थना की।

तभी सीमा की भाभी कमरे में दाखिल होती हैं, सीमा हड़बड़ा के पर्दे के पीछे से हट जाती ।

"ओहो!! छुप के छुप के नज़ारे हो रहे हैं ..." भाभी ने सीमा को छेड़ते हुए कहा

" न..न..नहीं तो! मैं तो ऐसे ही खड़ी थी " सीमा ने शर्माते हुए कहा
"अच्छा !! ठीक है ... चलो बुला रहे हैं तुम्हे सब बाहर .... जी भर के देख लेना फिर " भाभी ने हसंते हुए कहा ।
" भाभी ... इस बार तो सब ठीक हो जायेगा न ?.... मुझे डर लग रहा है " सीमा ने आशंकापूर्ण प्रश्न किया ।
" अरे ! बिट्टो ... भगवान् सब ठीक करेगा ...तुम चिंता मत करो "भाभी ने सांत्वना देते हुए प्यार से गाल पर हाथ मारा सीमा के ।

अमर और उसका परिवारवाले सीमा को देखने आये थे रिश्ते के लिए । अमर देखने स्मार्ट और व्यवहार का  अच्छा लड़का था जो अपने पिता के बिजनेस में हाथ बंटाता था ।
सीमा अपनी स्नातक की पढ़ाई कर के घर पर ही बच्चों को ट्यूशन देती थी , यूँ तो सीमा के लिए उसके पिता ने उसकी पढाई ख़त्म करते ही रिश्ता देखना शुरू कर दिया था पर बात कंही बन नहीं पा रही थी।

सीमा अब 28 साल की हो गई थी ,बीसियो लड़के देखे होंगे रिश्ते के लिए पर हर जगह कोई न कोई परेशानी आ ही जाती थी । मुख्य बात थी की सीमा के माता पिता दोनों धार्मिक थे , बिना जन्मपत्री  मिलाये सीमा की शादी हरगिज कंही नहीं करना चाहते थे । जंहा भी सीमा के लिए रिश्ता देखते यदि लड़का पसन्द आ भी जाता और जन्मपत्री  न मिलती तो वंहा रिश्ता नहीं करते ।

अमर ने सीमा को देखा और सीमा ने अमर को दोनों ने एक दूसरे को पसन्द कर लिया , सब के पूछने पर दोनों ने हांमी भी भर ली शादी की ।दोनों परिवारवाले भी बहुत खुश हुए इस रिश्ते को लेके, जैसा लड़की वालो को वर चाहिए था वैसा वर मिला और जैसी लड़के वालो को वधु चाहिए थी सीमा वैसी ही थी ।

सीमा का तो ख़ुशी का ठिकाना ही न था , उसे उसके सपनो का राजकुमार मिल गया था ... लगा तलाश ख़त्म हुई ।
विदा होते वक्त दोनों परिवारवालो में सीमा और अमर की जन्मपत्री का आदान प्रदान हुआ मिलान के लिए ।

दो दिन बाद सीमा के पिता जी के पास एक फोन आता है ,फोन सुन उन्हें धक्का सा लगता है वे सोफे पर लगभग गिरते हुए धम्म से बैठ गए ।
फोन हाथ से छूट गया ।
" क्या हुआ पिता जी ?......." सीमा ने दौड़ के पूछा
" कुछ नहीं .... अमर के पिता का फोन था ... कह रहे थे की जन्मपत्री  नहीं मिली तुम दोनों की इसलिए यह शादी नहीं हो सकती " सीमा के पिता जी ने बड़ी मुश्किल से कहा ।

सीमा तो जैसे जड़वत हो गई , काटो तो खून नहीं ... दिमाग सुन्न .... दो दिन में कितने सपने देख लिए थे उसने सब एक झटके में चूर ।
सीमा के कई रिश्ते टूट गए थे , सीमा का हर बार रिश्ता टूटना सीमा को मानसिक रूप से तोड़ देता था ।बेशक जन्मपत्री  न मिलती थी पर सीमा अपने को हीन समझती। समाज में उसकी बेज्जती होती , सभी लोग उसे ही अजीब निगाहो से देखते जैसे रिश्ता उसके कारण ही टूट जाता हो ।

" कल जाता हूँ अपने वाले पुरोहित के पास तेरी और अमर की जन्मपत्री  दुबारा मिलवाने " सीमा के पिता जी ने ठंडी आह भरते हुए कहा ।

सीमा बिना कुछ बोले अपने कमरे में चली गई , अगली सुबह सीमा की लाश पंखे से लटकी हुई मिलती है ।परिवारवालो के पास सिवाए रोने के  कुछ चारा न था ।

ये एक सीमा की कहानी नहीं है बल्कि देश में हजारो लाखो सीमायें जन्मपत्री  न मिलने के कारण या तो जीवन भर कुंवारी बैठी रहती है या मौत को गले लगा लेती हैं ।

जन्मपत्री मिलान का खेल हमारे देश में जबरजस्त तरीके से फैला हुआ है ,विडम्बना है की लोग धूर्तो के बनाये जन्मपत्री/ कुंडली के चक्कर में कर्मपत्रि को नजरअंदाज कर देते हैं और नतीजा वही होता है जो ऊपर बताया ।

जन्मपत्री मुखयतः 12 राशियों , 9 ग्रहो और 27 नक्षत्रो पर आधरित एक विवरण पत्रिका होती है ।
पंडितो के अनुसार जन्मपत्री बच्चे के जन्म के समय आकाश में ग्रहो की जो स्थिति होती है वह जन्मपत्री में दिखाया जाता है ।

बारह राशियाँ जैसे - मेष, मिथुन, कर्क , सिंह , धनु , कन्या , तुला, वृश्चिक , मकर , कुम्भ , मीन हैं जिनके नामकरण वैज्ञानिक नहीं हैं बस तारो के काल्पनिक आकृतियों पर आधारित हैं ।

नौ ग्रह- सूर्य , मंगल, चन्द्र, बुध , ब्रहस्पति , शुक्र , शनि , राहु और केतु जन्मपत्री के ग्रह है ।
इनकी धूर्तता देखिये , बच्चा भी जानता है की चंद्रमा ग्रह नहीं है और राहु केतु का आज तक पता नहीं चला की कौन से ग्रह हैं ।

नक्षत्र- कई ताराओं के समूह को नक्षत्र कहते हैं , आकाश में में ये तारागण विभिन्न आकृतियों में देखे जा सकते हैं । आकाश में कुल 27 नक्षत्र यानि तारा गण है जैसे रोहिणी , मघा , अश्विनी आदि ।

राशियों की तरह नक्षत्र भी भ्रमक होते हैं ,

इन्ही 12 भावो पर धूर्त ज्योतिषियों का महल खड़ा होता है जिसमे फंस के सीमा अमर जैसे मासूम या तो मौत के गले लगा लेते हैं या आजीवन कुंवारे रहते है या बेमेल शादी करने पर मजबूर होते हैं ।

एक बात समझ लेनी चाहिए हम सब लोगो को की फलित ज्योतिष एक ठग विद्या है और जिसका प्रमुख हथियार है जन्मपत्री ।जन्मपत्री के आधार पर लोगो का भविष्य बताने का दावा करने वाले अपने भविष्य के बारे में नहीं जानते ।
कुछ दिन पहले अख़बार में एक खबर पढ़ी थी की एक ज्योतिष को उसकी बहु ने घर से बेदखल कर दिया और उस ज्योतिष ने अपनी बहु और बेटे पर केस डाला ।

सोचिये की जो ज्योतिष अपने भविष्य के बारे में नहीं बता सकता या अपने घर के ग्रह सही नहीं बैठा सकता वो आपके घर का ग्रह कैसे ठीक करेगा ?

अतः इन सब चक्करो में न फंस के लोगो को चाहिए की वे इस ठगी के धंधे के प्रति जागरूक हों ।