"पकड़ पकड़ ...हाँ ...हाँ..शाबाश..."
"टांग पकड़...पकड़ ले ....पकड़ ले "
"दे पटखनी .....हाँ ..हाँ ऐसे ही ..पछाडी मार"
"अरे यार!...कैंची फंसा ... कैंची ....केशव "
"पटक नंदू .... पटक दे ... उठा के पटक दे "
"शाबास ! केशव ... धोबी पछाड़ लगा ..."
पूरा अखाडा इन्ही जोशीले कानफोड़ू शोर से गूंज रहा था , अखाड़े में दो पहलवान केशव और नन्दू जमे हुए थे । कभी केशव ऊपर होता तो कभी नन्दू ,दोनों एक दूसरे पर अपना हर दाँव आजमा ले रहे थे ,पर कोई भी हार मानने को तैयार न था । कुश्ती नन्दू और केशव में हो रही थी पर लग रहा था की जैसे दर्शको में हो रही हो , इतना जोश भरा हुआ था दर्शको में की आपस में लड़ने भिड़ने को तैयार थे ।
केशव था नानकपुरा गाँव का और नंदू था दल्लुपुर का । बसन्त पंचमी को होने वाली वर्षीक कुश्ती थी , इस कुश्ती में पुरे जिले के पहलवान भाग ले रहे थे ।एक एक कर के इधर नन्दू बाकी प्रतिद्वंदी को हराता रहा तो उधर केशव , आख़िरत में ये दोनों ही बचे थे जिनके बीच अब फ़ाइनल मुकाबला हो रहा था । चुकी कुश्ती जिले स्तर पर थी इसलिए गणमान्य लोगो के आलावा छोटे बड़े हजारो लोग इस कुश्ती को देखने जुटे थे। नानकपुरा और दल्लूपुरा गाँव तो पूरा खाली हो गया था सभी लोग भोर होने से पहले ही काम छोड़ दंगल वाले स्थान पर आगे वाली पंक्ति में जगह घेरे बैठे थे ।
केशव ने नन्दू को कमर से पकड़ के उठा के पटखनी लगा दी , नन्दू की पीठ जमीन से लगने वाली ही थी की उसने हिम्मत करते हुए अपनी एक टांग उठा के केशव की गर्दन तक ले गया और पूरी ताकत से धक्का दिया ।एक झटके में केशव नन्दू से दूर जा गिरा ।
दोनों पहलवान क्रुद्ध सांडो की तरफ एक दूसरे से टकरा रहे थे पर ऐसा लग रहा था की आज हार जीत का फैसला नहीं हो पायेगा , दर्शक उतने ही पागल हुए जा रहे थे ।
"केशव....केशव"
"नन्दू ...नन्दू"
कान फाड़ देने शोर ....
अचानक शोर थम गया , भीड़ में कुछ में कुछ क्षण पिन ड्राप साइलेन्स छा गया ।
सब आश्चर्य से खड़े हो गए ।
नन्दू ने केशव को चित कर दिया था।
लोगो का हुजूम नंदू नंदू चिल्लाने लगा ।
दल्लूपुरा निवासी जैसे ख़ुशी से पागल ही हो गए, लोगो का हुजूम अखाड़े में ही घुस गया और नन्दू को कंधे पर उठा नाचने लगा ।
एक बड़ी सी ट्रॉफी और दस हजार नगद जीत लिए था नन्दू ने और इनसे भी ज्यादा कीमती पूरे जिले का सबसे बड़े पहलवान का ख़िताब भी ।
दल्लूपुरा निवासी बैंड बाजे के साथ नन्दू को गाँव लेके आये , हर घर में आज उसी की चर्चा थी ।इस कुश्ती को जीतने के बाद नन्दू पूरे गाँव का हीरो बन गया था ।
लोग कहते की "मर्द हो तो नन्दू जैसा " ।
अब दल्लूपुरा में' मर्दानगी ' की पहचान नन्दू बन गया था ।
नंदू भी इस 'मर्द' के तगमे से फुला न समाता,सीना चौड़ा तो था ही , अब यह 'उपाधी' मिलने से और सीना फूल गया था उसका ।
दो चार चेले चपाटे हमेशा उसकी जी हजुरी में लगे रहते , मजाल था की पुरे जवार में कोई उससे आँख मिला के भी बात कर ले ।नन्दू चलता भी तो पुरे अकड़ के साथ था ।
एक दिन शाम को गाँव से बाहर चौराहे पर बनी एक चाय/पान के खोखे पर बैठे नन्दू और उसका साथी भूरा चाय की चुस्की ले रहे थे की उन्होंने देखा की जीप से एक महिला सवारी उतरी जिसके साथ दो बैग्स थे ।
बैग्स निश्चय ही भारी थे क्यों की महिला को मुश्किल हुई थी उन्हें उतारने में ।
महिला ने बैग्स रखते ही घूंघट कर लिया था अतः उसका चेहरा साफ़ नहीं दिख रहा था । छोटा सा चौराहा होने के कारण सवारियां कम ही मिलती थी वंहा , इस लिए एक आध ही रिक्शेवाले वाले ही रहते थे ।
अब तक अँधेरा होने लगा था, वह महिला एक मात्र रिक्शेवाले से कंही चलने के लिए कह रही थी पर रिक्शेवाला मना कर रहा था ।
महिला की व्याकुलता उसके हावभाव से साफ पता चल रही थी ।
भूरा बहुत देर से यह सब देख रहा था , उसने जा के पता किया की माजरा क्या है ।
उस घूँघट वाली महिला ने बताया की वह दल्लूपुर गाँव ही घर था उसका , सामान ज्यादा है इसलिए रिक्शा करना चाह रही थी पर रिक्शेवाला रिक्शा खराब होने की दलील दे रहा था ।
भूरा ने यह बात आ के नन्दू को बताई ।
" अपने गाँव की ही है ....रात भी होने वाली है कैसे जायेगी ?" नन्दू ने खुद अपने से ही प्रश्न किया ।
भूरा को यूँ महिला के बारे में चिंता करता देख नन्दू से रहा नहीं गया , आखिर उसने भी सोच ही लिया की रात में अकेली महिला 4 किलोमीटर गांव तक पैदल कैसे जायेगी
वह भी इतने भारी सामान के साथ? ।
वह महिला के पास गया और बड़ी ही आत्मीयता से बोला -
" मैं भी दल्लूपुरा गाँव का ही रहने वाला हूँ, रात होने वाली है और यंहा कोई गाँव तक जाने का साधन भी नहीं मिलेगा इस समय .... यदि आप बुरा न माने तो आप मेरे साथ चल सकती हैं ... मेरी मोटरसाइकिल पर ... मैं आपको गाँव तक छोड़ दूंगा ।"
" पर....' महिला ने शंका भरे शब्दों में कहा
" देखिये ,मैं तो आपकी मदद करना चाह रहा हूँ ... आप मुझे गलत मत समझिये ... बाकी आपकी इच्छा है " नन्दू ने बीच में टोकते हुए कहा ।
महिला परेशान तो थी ही , उसने एक क्षण सोचा और फिर सहमति में सर हिला दिया ।
भूरा ने मोटरसाइकिल के दोनों तरफ महिला के बैग्स को अच्छी तरह बाँध दिया ।नन्दू ने मोटरसाईकिल स्टार्ट की तो महिला पीछे बैठ गई ,महिला ने अब भी घूंघट किया हुआ था ।
नन्दू महिला को लेके चल दिया ,भूरा पैदल ही आ रहा था ।
थोड़ी देर चलने के बाद नन्दू के मन में उस महिला को जानने की और इच्छा हुई , उसने अपना गला साफ़ करते हुए पूछा -
"दल्लूपुरा में किस घर से हैं आप ? "
" केवलराम जी के घर से .... मैं उनकी बहु हूँ "
"केवलराम जी की बहु हैं आप .... यानी रतिलाल की पत्नी !... वो तो फ़ौज में है न ?"
"जी .... माँ की तबियत ख़राब थी इसलिए तीन महीने से मयके में ही थी .... वंही से वापस आ रही हूँ "
तभी अचानक सामने सड़क पर एक बड़ा गड्ढा देख नन्दू ने मोटरसाइकिल के तेज ब्रेक लगाये , यूँ अचानक ब्रेक लगने से महिला का संतुलन बिगड़ गया और वह नन्दू की पीठ से टकराई ।
महिला के वक्ष नन्दू की पीठ में धंस से गए थे , नन्दू के शरीर में जैसे करन्ट सा दौड़ गया हो।नसों में सिहरन सिहरन पैदा हो गई ।दिमाग अजीब सा महसूस करने लगा था , धड़कने एक दम से तीव्र ।
नन्दू जब 8 साल का रहा होगा तभी से उसके पिता जी ने उसे अखाड़े के गुरु जी को सौंप दिया था ।उनकी इच्छा थी की नन्दू भी एक बड़ा पहलवान बने और जवार भर में नाम कमाए ।
गुरु ने नन्दू को लंगोट पहनाते समय सबसे पहली शपथ यही दिलवाई की जब तक वह पहलवानी करेगा तब तक लंगोट का पक्का रहेगा , किसी महिला को छूना तो दूर उसके साये से भी दूर रहेगा ।
नन्दू आज तक अपनी शपथ और लंगोट का पक्का था ।
पर आज जैसे ही वह महिला नन्दू से टकराई अचानक उसके मन में यह क्या हो गया जिसे वह समझ नहीं पा रहा था ।
आगे भी सड़क पर छोटे बड़े कई गड्ढे थे अतः महिला ने अपना संतुलन बनाने के लिए अपना एक हाथ घुमा के नन्दू की कमर को जोर से पकड़ लिया ।
अब महिला का शरीर नन्दू के शरीर से बिलकुल सट गया था , नन्दू महिला की भीनी सांसो की खुशबु के साथ उसके वक्षो की हलकी चुभन साफ मासूस कर रहा था ।
नन्दू मानो इस दुनियां में हो ही नहीं , किसी महिला के निकट वह पहली बार आया था ।उसका रोम रोम रोमांचित और स्वर्गीय आनंदित हो रहा था ।
उसने अपने मन पर कठिनाई से काबू करते हुए और लड़खड़ाते स्वर में आगे पूछा -
"क...क...क्या नाम है अ...आपका?"
"बिंदिया..." महिला ने सकुचाते हुए जबाब दिया ।
ऐसा नही था की सिर्फ नन्दू ही बिंदिया के शरीर के स्पर्श को पा रोमांचित हो रहा था बल्कि बिंदिया की मानसिक स्थिति भी कुछ ऐसी ही थी ।बिंदिया के पति रतिलाल को भी फ़ौज की नौकरी की मज़बूरी के चलते शादी के एक हफ्ते बाद ही उसे छोड़ के जाना पड़ा ।
बिंदिया अभी ठीक से तृप्त भी न हो पाई थी रतिलाल से की बिछोह का दर्द सहना पड़ा । बिंदिया की अतृप्त इच्छाओं की नदी जो रतिलाल के जाने के बाद आठ महीने से जम के जो बर्फ जैसी ठंढी और सख्त हो गई थी वह नन्दू के शरीर के स्पर्श की ऊष्मा से पिघलने लगी थी।
मन बेकाबू हो रहा था , पिघली नदी में उफान आने की आहट साफ़ और स्पष्ट सुनाई देने लगी बिंदियाँ को ।
अब वह जानबूझ के नन्दू की चौड़ी पीठ पर अपने उभार धंसा दे रही थी , उसका हाथ नन्दू के सपाट पेट को और कस के जकड़े जा रहा था ।
नन्दू को लग रहा था की जैसे बिंदिया के उभार उसकी पीठ धंस के उसके मस्तिष्क को क्षत-विक्षत करे दिए जा रहे हों । 28 साल के कठोर संयम का दुर्गम किला आज तिनके की मानिंद उड़ा जा रहा था ।
शेष अगले भाग में .....
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