सुबह ऑटो में आते हुए बगल में बैठे हुए यूँ ही बात चीत के दौरान वर्तमान सामाजिक परिवेश पर बात होने लगी ।
बुजुर्ग ने वर्तमान सभी बुराइयो की जड़ को यह कहते हुए ख़त्म किया " यह कलयुग है ... कलयुग में ऐसा ही होना लिखा है "
मैं सोच में पड़ गया क्या वाकई कलयुग का दोष है ?
क्या समाज में व्याप्त बुराइयो का दोष कलयुग को जाता है ?क्या सतयुग में सब सही था ?
अब यह कलयुग क्या है ?
हिन्दू विचारधारा के अनुसार चार युग हैं , सतयुग , त्रेता युग , द्वापर युग , और चौथा कलयुग
सतयुग( वैदिक युग) , त्रेता युग (राम युग) , द्वापर युग(कृष्ण युग) और वर्तमान कलयुग , जो सभी बुराइयो की जड़ है ।
युगों पर विचार करते हुए प्रसिद्ध लेखक डॉक्टर सुरेन्द्र कुमार ( अज्ञात ) कहते हैं -
प्रचलित युगों के विचार में प्राचीन हिन्दू धर्म ग्रन्थो में ' युगों 'वाले अर्थ नहीं मिलते । वेदों आदि में ये शब्द मिलते तो हैं पर उनका अर्थ द्युूत ( जुए ) से लिया गया है ।
जब जीते गए अक्षो ( पासो) की संख्या चार से विभक्त हो जाती थी तब तीन बचते थे उसे ' त्रेता' कहते थे । जब दो शेष रहे तब ' द्वापर' और जब चार से बाँटने पर एक शेष रहे तब ' कलि'कहा जाता था । (देखें - वैदिक कोश, संपादक डॉक्टर सूर्यकान्त ,बनारस विश्वविधालय प्रकाशन )
इन पासों में 'कृत' विजयी करने वाला था और कलि पराजयात्मक।
छांदोग्य उपनिषद चौथे प्रपाठक , पहले खंड के चौथे श्लोक में लिखा है " अथ कृताय विजितायाधरेया: संयन्त्येवमेनम "
जिसका भाष्य करते हुए आदि शंकराचार्य ने लिखा है -"चार चिन्हों वाला पासा कृत है और तीन , दो, और एक चिन्ह वाले पासे क्रमशः त्रेता, द्वापर, और कलि कहे जाते हैं "
इसी प्रकार अब ' युग ' शब्द का अर्थ देखेंगे -
हिन्दू विचारधारा के अनुसार चार युगों की मानव सौर वर्षो में अवधि इस प्रकार हैं -
सतयुग- 1728000
त्रेता युग- 1296100
द्वापरयुग- 8,64,000
कलियुग - 432000
क्या ऐसा संभव है की 172800 साल तक ऐसा कोई युग रहे जिसमें की सब निरोगी रहें , अपराध न हों , सब सुखी रहें सब अच्छा ही अच्छा हो ?
विश्व इतिहास में ऐसा कंही नहीं हुआ , पर हिन्दू विचारधारा में यह कल्पना मिल जायेगी सतयुग के नाम पर ।
अब युग का अर्थ देखिये , पुनः सुरेन्द्र जी कहते हैं , युग का अर्थ पांच वर्ष की अवधि के लिए लिया गया है देखें -
" युगस्य पंचवर्षस्य कालज्ञान प्रचक्षते " ( वेदांगज्योतिष सूत्र 5)
यही अर्थ वराहमिहिर की पञ्च सिद्धान्तिका के अध्याय 12 श्लोक 1 में भी लिया गया है -
" पंचसनवत्सरम्य युगाध्यक्ष ..... पञ्च युगं वर्षाणि "
ऋग्वेद (3/26/3 ) में भी युग का अर्थ " अल्पकाल ' ही है ।
मनु स्मृति के अध्याय 9 के श्लोक 301 से 302 में राजा के राज काल की अवधि को युग कहा गया है देखें-
" सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग ये चारो युग राजा के ही चेष्टा विशेष (आचार विचार) से से होते है। अतएव राजा ही 'युग' कहलाता है ।
अब यह कलियुग के बुरे और सतयुग युग के अच्छे होने की भावना कँहा से आई ?इसके लिए पुनः हम डॉक्टर सुरेन्द्र कुमार जी के विचार देखेंगे ।
तीसरी चौथी शताब्दी के पल्लव राजाओं के शीला लेख में जो की तीसरी चौथी शताब्दी रहा था उनके शिलालेख में संस्कृत में उद्धत है -
" कलियुग्दोषावसन्न धर्मोद्वदरणनित्यसन्नद्वसन्न "
अर्थात- कलियुग के बुरे प्रभावो के कारण गर्त में पड़े धर्म को निकालने में तत्पर।
निश्चय ही युगों का सिद्धांत ईसा की पहली या दूसरी सदी में हुआ होगा ।
अब यह युगों की कल्पना का कारण क्या रहा होगा ?
स्पष्ट है की सतयुग अच्छा और कलियुग बुरा है इसकी अवधारणा बौद्ध सम्राट असोक के बाद का है ।यह वह समय था जब वैदिक धर्म बुरी तरह परास्त हो चुका था ।
बौद्ध धर्म के बढ़ते प्रभाव ने वैदिक धर्म को मरणासन्न स्थिति में ला दिया था ।वैदिक धर्म कमजोर और असहाय हो गया था , यजमानो ने दान देना बंद कर दिया था समाज कटने लगा था उनसे जिस कारण उनकी जिविका और कर्मकांडो पर गहरा असर पड़ रहा था ।
तब धीरे धीरे अपनी कमजोरी और पराजय को ' समय' के मत्थे मढ़ने के लिए सतयुग आदि की कल्पना की गई ।
उनका मानना यह था की -
"आज हमारी बुरी स्थिति है वह हमारे दोषो के कारण नहीं अपितु 'कलियुग ' के प्रभाव कारण है । हमारे नियम और ग्रन्थ बुरे नहीं है और न ही इनमे कोई दोष है यह सब तो ' कलियुग ' का प्रभाव है "
तो, मित्रो यंहा से हुई कलियुग को बुरा बनाने की कल्पना ..
ओह! कितना पढ़ना पड़ता है जरा सी बात के लिए ।
बुजुर्ग ने वर्तमान सभी बुराइयो की जड़ को यह कहते हुए ख़त्म किया " यह कलयुग है ... कलयुग में ऐसा ही होना लिखा है "
मैं सोच में पड़ गया क्या वाकई कलयुग का दोष है ?
क्या समाज में व्याप्त बुराइयो का दोष कलयुग को जाता है ?क्या सतयुग में सब सही था ?
अब यह कलयुग क्या है ?
हिन्दू विचारधारा के अनुसार चार युग हैं , सतयुग , त्रेता युग , द्वापर युग , और चौथा कलयुग
सतयुग( वैदिक युग) , त्रेता युग (राम युग) , द्वापर युग(कृष्ण युग) और वर्तमान कलयुग , जो सभी बुराइयो की जड़ है ।
युगों पर विचार करते हुए प्रसिद्ध लेखक डॉक्टर सुरेन्द्र कुमार ( अज्ञात ) कहते हैं -
प्रचलित युगों के विचार में प्राचीन हिन्दू धर्म ग्रन्थो में ' युगों 'वाले अर्थ नहीं मिलते । वेदों आदि में ये शब्द मिलते तो हैं पर उनका अर्थ द्युूत ( जुए ) से लिया गया है ।
जब जीते गए अक्षो ( पासो) की संख्या चार से विभक्त हो जाती थी तब तीन बचते थे उसे ' त्रेता' कहते थे । जब दो शेष रहे तब ' द्वापर' और जब चार से बाँटने पर एक शेष रहे तब ' कलि'कहा जाता था । (देखें - वैदिक कोश, संपादक डॉक्टर सूर्यकान्त ,बनारस विश्वविधालय प्रकाशन )
इन पासों में 'कृत' विजयी करने वाला था और कलि पराजयात्मक।
छांदोग्य उपनिषद चौथे प्रपाठक , पहले खंड के चौथे श्लोक में लिखा है " अथ कृताय विजितायाधरेया: संयन्त्येवमेनम "
जिसका भाष्य करते हुए आदि शंकराचार्य ने लिखा है -"चार चिन्हों वाला पासा कृत है और तीन , दो, और एक चिन्ह वाले पासे क्रमशः त्रेता, द्वापर, और कलि कहे जाते हैं "
इसी प्रकार अब ' युग ' शब्द का अर्थ देखेंगे -
हिन्दू विचारधारा के अनुसार चार युगों की मानव सौर वर्षो में अवधि इस प्रकार हैं -
सतयुग- 1728000
त्रेता युग- 1296100
द्वापरयुग- 8,64,000
कलियुग - 432000
क्या ऐसा संभव है की 172800 साल तक ऐसा कोई युग रहे जिसमें की सब निरोगी रहें , अपराध न हों , सब सुखी रहें सब अच्छा ही अच्छा हो ?
विश्व इतिहास में ऐसा कंही नहीं हुआ , पर हिन्दू विचारधारा में यह कल्पना मिल जायेगी सतयुग के नाम पर ।
अब युग का अर्थ देखिये , पुनः सुरेन्द्र जी कहते हैं , युग का अर्थ पांच वर्ष की अवधि के लिए लिया गया है देखें -
" युगस्य पंचवर्षस्य कालज्ञान प्रचक्षते " ( वेदांगज्योतिष सूत्र 5)
यही अर्थ वराहमिहिर की पञ्च सिद्धान्तिका के अध्याय 12 श्लोक 1 में भी लिया गया है -
" पंचसनवत्सरम्य युगाध्यक्ष ..... पञ्च युगं वर्षाणि "
ऋग्वेद (3/26/3 ) में भी युग का अर्थ " अल्पकाल ' ही है ।
मनु स्मृति के अध्याय 9 के श्लोक 301 से 302 में राजा के राज काल की अवधि को युग कहा गया है देखें-
" सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग ये चारो युग राजा के ही चेष्टा विशेष (आचार विचार) से से होते है। अतएव राजा ही 'युग' कहलाता है ।
अब यह कलियुग के बुरे और सतयुग युग के अच्छे होने की भावना कँहा से आई ?इसके लिए पुनः हम डॉक्टर सुरेन्द्र कुमार जी के विचार देखेंगे ।
तीसरी चौथी शताब्दी के पल्लव राजाओं के शीला लेख में जो की तीसरी चौथी शताब्दी रहा था उनके शिलालेख में संस्कृत में उद्धत है -
" कलियुग्दोषावसन्न धर्मोद्वदरणनित्यसन्नद्वसन्न "
अर्थात- कलियुग के बुरे प्रभावो के कारण गर्त में पड़े धर्म को निकालने में तत्पर।
निश्चय ही युगों का सिद्धांत ईसा की पहली या दूसरी सदी में हुआ होगा ।
अब यह युगों की कल्पना का कारण क्या रहा होगा ?
स्पष्ट है की सतयुग अच्छा और कलियुग बुरा है इसकी अवधारणा बौद्ध सम्राट असोक के बाद का है ।यह वह समय था जब वैदिक धर्म बुरी तरह परास्त हो चुका था ।
बौद्ध धर्म के बढ़ते प्रभाव ने वैदिक धर्म को मरणासन्न स्थिति में ला दिया था ।वैदिक धर्म कमजोर और असहाय हो गया था , यजमानो ने दान देना बंद कर दिया था समाज कटने लगा था उनसे जिस कारण उनकी जिविका और कर्मकांडो पर गहरा असर पड़ रहा था ।
तब धीरे धीरे अपनी कमजोरी और पराजय को ' समय' के मत्थे मढ़ने के लिए सतयुग आदि की कल्पना की गई ।
उनका मानना यह था की -
"आज हमारी बुरी स्थिति है वह हमारे दोषो के कारण नहीं अपितु 'कलियुग ' के प्रभाव कारण है । हमारे नियम और ग्रन्थ बुरे नहीं है और न ही इनमे कोई दोष है यह सब तो ' कलियुग ' का प्रभाव है "
तो, मित्रो यंहा से हुई कलियुग को बुरा बनाने की कल्पना ..
ओह! कितना पढ़ना पड़ता है जरा सी बात के लिए ।
Doctor shab padna to pura chahiya tha adhura gyan hh tbi to aap ko lagti he jra si baat
ReplyDeleteVese aap is subject ke baare me or bahut kuch pad sakte he
Itni badi sanskriti juth or majak ke Bal par to nhi chal sakti
ReplyDeleteNice
ReplyDeleteYes bilkul sahi
DeletePlease update your knowledge sir
ReplyDeleteSorry but I know agree apko grantho ki knowledge km h app phle pade tabhi koi tark btaye bhagwan se uper n hi koi hai n hi hoga yahi satya h
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