Saturday 9 July 2016

मर्द-कहानी -भाग 2


कहानी के पिछले भाग में अब तक आपने पढ़ा की नन्दू केशव को हरा  कुश्ती प्रतियोगिता जीत के पुरे जिले का नामी पहलवान बन जाता है ।
एक दिन चौराहे पर चाय के स्टाल पर उसे बिंदिया मिलती है जो उसी के गांव थी ।नन्दू अपनी मोटरसाइकिल पर उसे गाँव तक लिफ्ट देता है , रास्ते में अचानक ब्रेक लगने से दोनों करीब आ जाते हैं ।

अब आगे ...

अँधेरा घना हो गया था पर मोटरसाईकिल चल नहीं बल्कि रेंग रही थी ,नन्दू रास्ते को और लंबा कर देना चाहता था ।
दोनों मन ही मन एक ही चीज चाह रहे थे  , नन्दू कंही अँधेरे कोने में  मोटरसाइकिल रोक लेना चाहता था और बिंदिया रुकवा लेना चाहती थी पर कह दोनों ही न पा रहे थे ।इसी उधेड़बुन में वे गाँव में प्रवेश कर गए ।

अब बिंदिया नन्दू से अलग हो गई थी , नन्दू ने बिंदियाँ के घर के आगे मोटरसाइकिल रोकी ।

बिंदियाँ के घर के बरामदे में लालटेन जल रही थी जिसकी माध्यिम रौशनी पुरे बरामदे  फैली हुई थी ।बिंदियाँ मोटरसाइकिल से उतर के खड़ी हो गई , उसका घूँघट सरक के कंधो पर कब आ गया था उसे पता ही नहीं चला ।

लालटेन की मद्धिम रौशनी में उसका दूधिया चेहरा ऐसा चमक रहा था जैसे अमावश्या की काली रात में पूरा चंद्रमा निकल आया हो ।

नन्दू ने अब उसे पूरा देखा ।

बड़ी आँखे , पतले ओंठ , दूध में पड़े केसर जैसा रंग, चाँद सा चमकता और शीतलता देता चेहरा  जिसकी भीनी भीनी साँसों से वह पुरे रास्ते मदहोश था , छरहरा बदन ,  ये साँचे में ढले उभार जो पूरे रास्ते उसकी पीठ में धँस उसके तन  और मन को क्षत-विक्षत कर रहे थे ।

नन्दू सिर्फ यही कह सका अपने मन में "सौंदर्य की देवी है यह तो "।

बिंदिया भी नन्दू के पहलवानी के गठीले बदन को देख के मंत्रमुग्ध हो रही थी ।विशाल और बलिष्ठ भुजाएं , चौड़ी छाती .....शायद ऐसा ही मर्द कभी वह चाहती थी ।

तभी किसी की आहट ने दोनों को अपने अपने विचारो की दुनिया से खींच धरातल पर ला दिया था ।
सामने केवलराम और उसकी पत्नी खड़े थे । बिंदियाँ को देख केवलराम बोले-
" बिंदिया तू आ गई बेटी.... माफ़ करना मेरी तबियत खराब हो गई थी इसलिए आ नहीं सका तुझे लेने "
" कोई बात नहीं पिता जी .... " बिंदिया ने सास ससुर के  पैर छूते हुए जबाब दिया ।

नन्दू को केवलराम जानते थे जब बिंदिया ने उन्हें बताया की कैसे उसने उसकी मदद की और यंहा तक सामान के साथ छोड़ा तो केवलराम ने बहुत आभार जताया ।

नन्दू बिंदिया को उसके घर छोड़ के आ तो गया था पर अपना दिल और दिमाग वंही छोड़ आया था ।वह अजीब रोमांच और उत्तेजना जो बिंदिया के शरीर के स्पर्श से महसूस किया था वह भूले से भी नहीं भुलाया जा रहा था उस से ।इधर बिंदिया का भी हाल यही था , रात बहुत बेचैनी से कटी दोनों की ।

सुबह नन्दू फिर किसी बहाने से बिंदिया के घर के आगे से निकला की बिंदिया से मुलाकात हो जाए ।बिंदिया मिली और मुस्कुरा भी दी , उसकी आँखे बता रही थी की सोई नहीं थी रात भर वह ।पर दोनों में कोई बात न हो पाई क्यों की उसकी सास घर पर ही थी ।

कई दिनों तक नन्दू ऐसे ही वियोग में  किसी न किसी बहाने से बिंदिया के घर के चक्कर लगता । बिंदिया भी यही चाहती थी , उसने मौन स्वीकृति दे दी थी नन्दू को पर मौका नहीं मिल रहा था दोनों को ।

एक दिन जब नन्दू बिंदिया के घर आगे से निकल रहा था की बिंदियाँ ने उसे बुलाया और धीरे से बताया की  आज उसके सास ससुर किसी रिस्तेदार के घर जायेंगे अतः रात में अकेली रहेगी।

नन्दू को तो जैसे कोहिनूर हीरा मिल गया हो यह खबर सुन के वह उत्तेजना , उमंग , उल्लास , उत्साह न जाने कितने भावो को ले रात का इंतेज़र करने लगा ।

तय समय पर नन्दू बिंदियाँ के घर पर पहुँच गया, चारो तरफ अँधेरा होने के कारण किसी को पता भी न चला की बिंदिया के दरवाजे पर कौन है ।
बिंदियां ने दरवाजा खोला और नन्दू को भीतर खींच के दरवाजा बन्द कर लिया ।

सामने चारपाई पर बिस्तर बिछा हुआ था , बिस्तर पर नई चादर बिछी थी उसे देख ऐसा लग रहा था मानो वह अपने मैले होने का बेसब्री से इन्तेजार कर रही हो ।

नन्दू अपनी बेसब्री छुपा न पाया , उसने बिंदियाँ को बाहों में खींच लिया ।उस चुभन का अहसाह जो उसने मोटरसाइकिल पर पीठ पर लिया था अब वही चुभन वह अपनी छाती पर महसूस कर रहा था ।वह उस चुभन को और अंदर और अंदर तक महसूस करना चाहता था इसलिए उसने बिंदिया को अपनी बाँहो के घेरे में पूरा जकड़ लिया  , बिंदिया भी जैसे उसके बलिष्ठ भुजाओ और चौड़े सीने में समा जाना चाहती थी ।

अब उन्हें अपने तन के वस्त्र भी भारी लगने लगे थे, अतः वे उस भार से मुक्त हो गए ।नन्दू ने बिंदिया को गोद में उठा लिया था और बिस्तर पर पटक दिया ।दोनों तरफ की उत्तेजनाएं चरम पर थीं , यूँ लग रहा था  जैसे की बरसो शांत पड़ा समुन्दर आज ज्वारभाटा ला सभी तटबंधनो को नेस्तनाबूत कर देना चाहता हो ।

उत्तेजना तो चरम पर थी नन्दू की पर उससे वह नहीं हो पा रहा था जिसकी चाहत बिंदिया को थी , नन्दू लाख कोशिश करने के बाद भी बिंदियां को वह आनंद नहीं दे पा रहा था जो बिंदिया चाह रही थी ।उसके अंग में उत्तेजना पैदा नहीं हो पा रही थी ,शुरू में उसे लगा की शायद ऐसा पहली बार करने के कारण हो रहा हो पर कई बार कोशिश करने के बाद भी वह नाकामयाब रहता है ।

अब उसे तो खीज हो ही रही थी बिंदियाँ को भी गुस्सा आ रहा था , उसकी हालत वैसी ही थी जैसे की किसी बंजर भूमि पर काले घने बदल छाए पर बिना बरसे चले जाएँ ।

बहुत कोशिस करने के बाद भी नन्दू नाकामयाब रहता है , इधर सुबह होने वाली थी ।  खीज, गुस्से और कुंठा में बिंदिया ने अपने कपडे पहनते हुए कहा -
" नामर्द हो तुम .... छी:... मैं तो तुम्हे  मर्द समझती थी पर तुम तो नमार्द निकले .... शरीर सांड सा पर किसी काम का नहीं ..... आज के बाद मुझे अपनी शक्ल मत दिखाना ...नामर्द कंही का .. चल भाग यंहा से ...हिजड़ा '  नन्दू की असफलता से बिंदिया में जो खीज और गुस्सा उपज गया था वह अब शब्दों का लावा बन फूट पड़ा था ।

बिंदियाँ के एक एक शब्द मानो नन्दू के कानो को पिघला दे रहे थे , उसने लड़खड़ाते कदमो से अपने कपडे पहने और बहार निकल गया । उसके बाहर निकलते ही बिंदियाँ ने गुस्से में दरवाजा बन्द कर लिया ।

नन्दू लड़खड़ाते हुए कदमो से घर की तरफ बढ़ रहा था , उसके कानो में बिंदियाँ की आवाज अब भी गूंज रही थी ।
"नामर्द"
"नामर्द"
"हिजड़े"
"मैं नामर्द हूँ ... नहीं..... नहीं ... मैं मर्द हूँ ...  मर्द हूँ ... मैं .... मैं किसी से नहीं हारता "वह चिल्लाया ।

बदहवासी में उसके मुंह से झाग निकलने लगा , शायद वह मानसिक संतुलन खो चुका था ।वह एक क्षण के लिए रुका और दूसरी तरफ हो लिया । यह रास्ता गाँव से बाहर बाग़ की तरफ जाता था ।
उसने रास्ते में पड़ने वाले एक छप्पर से रस्सी निकाल ली।

सुबह गाँव वालो को नन्दू की लाश एक पेड़ से लटकी हुई मिली ।
पुरे जवार के लोगो में शोक और कुतूहल था ,आखिर उनके 'मर्द'ने आत्महत्या क्यों की ?

बस यंही तक थी कहानी ....



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