Tuesday 11 October 2016

योद्धा - कहानी

अमूमन प्रतेक रात्रि में भयंकर गर्जना कर अपनी लहरो को क्रोध में  दूर तक उछाल के जैसे सभी कुछ नष्ट कर देने की चेष्ठा करने वाला समुन्दर इस रात्रि जैसे शोक में डूबा  शांत -अचेत पड़ा हुआ  प्रतीत हो रहा था ।उसकी लहरे माध्यम गति से रेतीली भूमि से टकरा रही थीं जैसे कोई मृत्यु के निकट हो और अंतिम साँसे गिन रहा हो ।

रात्रि की कालिमा बहुत घनी प्रतीत हो रही थी , बिलकुल भयभीत करने वाली ।बीच बीच में नरभक्षी आरण्य पशुओं द्वारा हड्डियां चबाने की और माँस के लिए लड़ने झगड़ने की ध्वनियां साफ़ सुनाई दे रहीं थी ।

अभी कुछ ही पहर बीते होंगे युद्ध समाप्त हुए , नियमानुसार संध्या होने के कारण युद्ध रोक लिया गया था अब युद्ध अगले दिन आरम्भ होगा।यही युद्ध का नियम था, सूर्योदय से लेके सूर्यास्त तक ही युद्ध किया जा सकता था उसके बाद नहीं ।दोनों ओर के घायल और मृत सैनिको को अपनी अपनी सेना द्वारा उठाया जा चुका था किंतु मरने वालो की संख्या इतनी अत्यधिक थी की प्रत्येक मृत शरीर को उठाना संभव न था अतः कुछ मृत सैनिक रणभूमि जो की समुन्दर के किनारे थी छूट गए थे ।आरण्य नरभक्षी पशु उन्ही मृत सैनिको को खा रहे थे ।

लंकापति रावण निढ़ाल , निषतेज, निषप्राण  और शोकाकुल -चिंता में आकंठ डूबा एक शिलाखंड पर बैठे दूर तक फैले समुन्दर को देख रहा था ।उसे रह रह के अपने कुनबे के एक एक सदस्य की रण में मृत्यु विचलित कर रही थी ,कुम्भकर्ण,मेघनाथ आदि समस्त उसे सगे-संबंधी एक एक कर राम से लड़ते हुए रण में काम आ गए थे ।अब वह अकेला था , बिलकुल अकेला ।महल में मृत सैनिको की स्त्रियो की चीत्कार उसे विचलित कर रही थी अतःमंदोदरी के लाख समझाने के बाद भी रावण अकेला ही महल से बाहर आ गया । अपने खड़ग् को हाथो में लिए वह एकांत की तलाश में समुन्दर के तट पर पहुंचा तथा एक  शिलाखंड पर अपना खड्ग रख वह धम्म से बैठ गया ।

रावण एकटकी लगाये विशाल समुन्दर जो इस समय उसी की तरह निस्तेज लगा रहा था उसे देख रहा था की एकाएक किसी की वाणी उसके कानो में गूंजी।

" दौहित्र...दौहित्र..'
"दौहित्र .... रावण '

रावण के विचार एकाएक भंग हुए और उसका हाथ खड्ग की तरफ बढ़ा की उसे लगा की यह वाणी तो जानी पहचानी है ,बिलकुल किसी अपने की ।यह वाणी तो वह बचपन से सुनता आ रहा था , किसी अपने प्रिय की ।
रावण ने अपने नेत्र फैला के अंधेरे में और स्पष्ट देखने की चेष्ठा की तो उसे एक साया दिखा ।

साया चलता हुआ उसके और समीप आ गया ।
'' प्रिय रावण...''साये ने बिलकुल करीब आ संबोधित किया

सहसा रावण को अपने नेत्रो पर विश्वास न हुआ किन्तु जब साया बिलकुल समीप आ गया तो रावण ने साये का मुख देखा ।
"मातामह..."
" मातामह...आप!!"यह रावण का नाना सुमाली था ।सुमाली , जिसे रावण सबसे प्रिय था और रावण भी सबसे ज्यादा स्नेह  रखता था अपने नाना । सुमाली ने ही रावण को बलवान और इतना बड़ा योद्धा बनाया था अतः सुमाली के प्रति रावण का विशेष अनुग्रह था , रावण सुमाली को अपना मार्गदर्शक मानता था ।

किन्तु सुमाली कैसे आ सकता है ?रावण के मन में यह प्रश्न उठा , वह कुछ पूछने वाला ही था सुमाली ने हाथ के संकेत  से उसके सभी प्रश्नवाचक ज्वारो को शांत रहने को कहा ।

"प्रिय रावण!इतना व्याकुल क्यों हो? "
"मातामह ! मेरे सभी सगे- संबंधी , सेनापति सैनिक सब युद्ध में काम आ गए .... बिलकुल अकेला हो गया हूँ मैं ... स्त्रियो की चीत्कार मुझे व्याकुल कर रही है ...शत्रु और समीप आता जा रहा है ..लंका में पुरुषो के नाम पर थोड़े से सैनिक और बूढ़े बचे हुए हैं ....आह! मेरा प्रिय इंद्रजीत और कुम्भकर्ण दोनों मुझे छोड़ के चले गए " कहते कहते रावण के नेत्रो से अश्रु निकल अधरों तक लुडक गए ।
" मातामह, कभी कभी विचार करता हूँ की सीता को लौटा दूँ और यह रक्तपात समाप्त कर दूँ "रावण ने एक बार फिर समुन्दर पर नजर डाली और कहा ।
"दौहित्र!क्या तुम यह समझ रहे हो की राम युद्ध सीता के लिए कर रहे हैं ?न यह सत्य नहीं है ! राम सीता के लिय युद्ध नहीं कर रहे हैं " सुमाली ने रावण के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा ।
" क्या !!क्या कह रहे हैं आप मातामह? राम सीता के अनुग्रह नहीं रखते? क्या वे सीता के वियोग में लंका से युद्ध नहीं कर रहे हैं ?रावण ने श्यामवर्णीय मुख पर आश्चर्य के अनेक भाव एक साथ उतपन्न हो गए ।

"वस्तुतःनहीं! वे युद्ध इस लिए कर रहे है की लंका जो की  अनार्य संस्कृति है उसे आर्य संस्कृति में बदला जा सके ।राम ऐसा बालि के वध के उपरांत कर चुके हैं , वैदिक ऋषि विश्वामित्र उनके मार्गदर्शक हैं उन्ही की आज्ञा से राम वैदिक धर्म प्रचारित कर रहे हैं , चुकी तुम अनार्य धर्म के सबसे रक्षक हो अतः तुम्हे समाप्त किये बिना उनका अभियान अधूरा रहेगा  ।राम जानते थे की सुग्रीव आसानी से संधि कर लेगा क्यों की वह धूर्त बाली की पत्नी और राज्य पर कुदृष्टि रखता है उसका मंतव्य बाली को समाप्त कर राजा बनने का है जिसके बारे में वह एक बार चेष्टा भी कर चुका था ।अतः सुग्रीव से यही वचन भरवाये थे राम ने और संधि भी इसी आधार पर हुई की वह किसकिन्धापुरी में वैदिक धर्म का प्रचार करेगा तथा लंका विजय में सहायता करेगा  , बालि को समाप्त करने के बाद ऐसा हुआ भी " सुमाली शांत भाव से सब कहे जा रहा था और रावण बुत सा सब सुने जा रहा था ।

"विभीषण भी इसी मंशा से राम के साथ मिला है ताकि वह तुम्हारे उपरांत लंका के वैभव को भोग कर सके , उसकी इच्छा तुम्हारे  सिंहासन पर विराजमान होना है यंहा तक की तुम्हरी पटरानियों को भी प्राप्त करना चाहता है ....अनार्य संस्कृति पर ये दोनों  विश्वशघाति बहुत अनर्थ करेंगे भविष्य में ....अनार्य संस्कृति लुप्त हो जायेगी और गुलाम बना ली जायेगी " इतना कह सुमाली खामोश हो गया ।

" नहीं!!... कदापि नहीं .....रावण के जीवित रहते हुए ऐसा नहीं हो सकता ... अनार्य संस्कृति कभी मिट नहीं सकती .. मैं हर एक हाथ को काट दूंगा जो रक्ष संस्कृति की तरफ उठेगा ... " रावण क्रोध से चीत्कार उठा
" तथास्तु प्रिय दौहित्र ... किन्तु वे लोग तुम्हे दस सिरो वाला ,क्रूर, अन्यायी ,भयंकर रूप रंगवाला आदि कितने ही विकृत नामो से प्रचारित करेंगे " सुमाली ने रावण को समझाया ।

"परवाह नहीं मातामह, चिंता नहीं ... वे लोग मुझे क्या कह प्रचारित करेंगे इसका शोक न होगा लंका रहे या न किन्तु मैं अपने जीवित रहते वैदिक संस्कृति को लंका पर हावी न होने दूंगा ... उसे कभी लंका में प्रचारित न होने दूंगा  , मैं प्रचारित न होने दूंगा वर्ण व्यवस्था को, पशुबलि , नरमेध यज्ञ , अश्वमेध यज्ञ तथा अनेक कर्मकांडो को ...मैं जीते जी लंका में प्रचलित न होने दूंगा वैदिक संस्कृति को "
 - इतना कह रावण ने हुँहकर भरी और अपना खड्ग उठा तेज गति से अपने महल की तरफ चल दिया , कल के युद्ध की तैयारी करने ।अब उसके मुख शोकाकुल  नहीं अपितु सूर्य सा प्रकाश था , निढ़ाल भुजाओ में पहले सी शक्ति संचालित हो गई थी, आँखों की लालिमा फिर से वापस आ गई जिससे इंद्र जैसे देवता भी भय खाते रहे थे  ।



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