एक शाम लिए हाथ में जाम
ख़्यालो में यूँ ही दूर तक गुम था
शायद ये अकेलेपन का गम था
तभी एक साया सामने आ गया
देख मुझे वह थोडा संकुचा गया
मैंने पूछा तुम कौन सी बाधा हो
बतलाओ जरा! नर की मादा हो
इतना सुन व्यथित सा मुस्काया
फिर वह धीरे से फुसफुसाया
मैं ईश्वर हूँ!!हाँ! मैं ईश्वर ही हूँ
सुन उसकी बात मैं उचक गया
भर एक और प्याला सटक गया
मैंने कहा यह तो गजब हो गया
सच बता!तू ईश्वर कैसे हो गया
क्षणिक मौन! फिर वह शाब्दिक हुआ
कहो तो अल्लाह और गॉड भी हूँ
यदि जानो तो धूर्तो का फ्रॉड भी हूँ
न जाने मुझे कँहा कँहा बैठाते है
कभी सातवें आसमान तो कभी
सर्द हिमालय पर हाड कँपवाते है
सुन साये की व्यथा दिल द्रवित हुआ
भर एक प्याला उसके सम्मुख किया
वह किंचित घबराया फिर मुस्कुराया
मैंने कहा लेलो!वैसे भी तुम बांटते हो
स्वर्ग-जन्नत में मय से नदिया पाटते हो
कंठ और प्याले का फिर मिलन हुआ
तीन के बाद चौथे का भी मन हुआ
गुरु!कहाँ रहते हो या यूँ भटकते हो
सच बताओ ! राज क्या है तुम्हारा?
क्या सच में सृष्टि निर्माण है तुम्हारा
प्रश्न सुन वह पुनःरहस्मय मुस्कुराया
अपने होठो को मेरे कान तक लाया
नहीं रे! मैं तो सिर्फ एक कल्पना हूँ
मैं कैसे बनाता धरा,नभ,मानव...
मैं खुद मनुष्य के मन की रचना हूँ
अब मैं चकराया,संयित हो पूछा
पोथियाँ झूठ हैं?गुरु गड्डम झूठ है?
हाँ यह सत्य है !सब ये असत्य है!
न मैं कण कण में न अंतर मन में
इन धूर्तता के प्रचार से मैं विकल हुआ
आज से मैं भी तेरे साथ नास्तिक हुआ
No comments:
Post a Comment