पाप और पुण्य दो ऐसी धारणाये है जिन के आधार पर धर्म मजहब टिके होते है ।पाप पुण्य की अवधारणा समाज में हर एक को घुट्टी के समान बचपन से ही पिला दी जाती है जिनका असर अजीवन मानव मस्तिष्क में रहता है ।
जंहा दान, कर्मकांड, हवन, पूजा प्रार्थना , नमाज पढना , ईश्वर अल्लह को मानना पुन्य की श्रेणी में रखा जाता है वन्ही इसके विपरीत कार्यो को पाप कहा गया है। विभिन्न धर्मो में पाप की परिभाषा अपने अपने ढंग से की है यानि ऐसा कोई निश्चित पैमाना नहीं है की जिसमे ' पाप" शब्द सभी धर्मो पर एक साथ और एक रूप के अर्थ पर लागू हो।
एक कार्य किसी धर्म वाले के लिए पाप हो सकता है तो दुसरे धर्म वाले व्यक्ति के लिए वह कार्य पुन्य हो सकता है । जैसा की किसी धर्म में पशु हत्या करने पर पाप लगता है तो दुसरे धर्म वाले को पशु हत्या करते समय पाप नहीं लगता।
इसी प्रकार हिंसा करना पाप समझा जाता है परन्तु यह भी कहा गया है की ' वैदिक हिंसा हिंसा नहीं होती' यानि वह हिंसा पाप नहीं होती।
इसके आलावा आम बोलचाल में जो पाप की परिभाषा है वह है " जो कार्य अंतरात्मा की आवाज के विरुद्ध किया जाये वाही पाप है' पर इसके लिए समझना होगा की अंतरात्मा क्या है? बहुत हद तक बचपन के संस्कारो के आधार पर ही अंतरात्मा का विवेक निर्भर करता है।
जैसे यदि किसी को बचपन से ही पशु हत्या को जायज ठहराए जाने को अच्छा कार्य बताया जाए तो उसकी अंतरात्मा पशु हत्या को सही मानेगी परन्तु यदि किसी को बचपन से ऐसे संस्कार दिए जाए की पशु हत्या गलत है तो उसकी अंतरात्मा उसे गलत ही मानेगी।
एक उधारण और देखिये ,यदि किसी बच्चे को पैदा होते ही ऐसे बियावान स्थान पर रखा जाता है जन्हा उसे मानव समाज से दूर रखा जाये ,उसे किसी सामाजिक नियम के विषय में न बताया जाए । तो क्या वह समझ पायेगा की पाप क्या है या पुन्य क्या है? यदि किसी को अच्छे बुरे कार्य करने की भावना बचपन से ही न हो तो उसे कोई कार्य करने में हिचक महसूस होगी?
नहीं... इसी लिए यंहा अंतरात्मा की थ्योरी भी काम नहीं करती ।
पाप का अर्थ यदि केवल अनैतिक आचरण न करना है तो उस पर कोई आपत्ति नहीं , परन्तु ऐसा है नहीं । पाप का मतलब धर्मसम्मत आचरण न किया जाना ही निस्चित किया जाता है। धर्म गुरुओ ने जानबूझ कर ऐसी बाते धार्मिक पुस्तको में शामिल कर लिया है, जो बास्तव में नैतिक गुण हैं । ऐसी बातो को धार्मिक गुण गिनाने का उद्देश्य यही होता है की उनके नैतिक गुणों के साथ साथ धार्मिक आडम्बरो का भी पालन कराया जा सके जिससे उनकी रोजी रोटी चलती है। जो इन आडम्बरो और कर्मकांडो का पालन करता है उसे पुण्य कह के उसे संतुष्ट किया जाता है ताकि उसके स्वयं के लुटने का अहसास न हो।
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