Friday, 19 August 2016

जानिए कैसे स्त्री के सुहाग चिन्ह दासता के प्रतीक हैं


जिस तरह किसी मुस्लिम महिला के लिए बुर्का प्रत्यक्ष रूप से पुरुष सत्ता की आधीनता की निशानी माना जा सकता है वैसे ही एक हिन्दू महिला के लिए ' सुहाग चिन्ह' भी पुरुष सत्ता की आधीनता ही है ।

यह भी गौर करने लायक है की बुर्का और सुहाग चिन्हों को स्त्री पर लादने का जरिया धर्म और मजहब बना।
धर्म और मज़हब के चाबुक के सहारे अपने अपने बाड़े की स्त्रियों को अधीनता के पट्टे पहनाये गए ।

सिंदूर, बिंदी , बिछुए जैसे विभिन्न सुहाग चिन्हो के नाम पर स्त्री की स्पष्ट पहचान सुनिश्चित की गई की यह स्त्री किसी पुरुष के आधीन(ब्याहता) है जबकि पुरुष स्वयं इन चिन्हों से मुक्त रहा जिससे यह पता चले की अमुक पुरुष किसी स्त्री का पति है ।इन सुहाग चिन्हों को स्त्री बिना विरोध के धारण करे इसके लिए इसे धर्मिक क्रिया -कलापो के साथ पति के जीवन सेजोड़ दिया गया।
स्त्री सिंदूर इसलिए लगाए की उसके पति की उम्र लंबी हो , बिछुए इसलिए पहने ताकि पति के जीवित रहने के आभास हो , चूड़ी भी पति को ही समर्पित ।

इसी प्रकार लगभग सभी व्रत -उपवास महिलाओं के लिए ही बने हैं ,कभी घर की सुख शांति के लिय तो कभी पति और कभी पति के नाम पर स्त्री साल भर न जाने कितने ही व्रत उपवास रख अपने शरीर को कष्ट देती है ।वह व्रत उपवास रख अपने शरीर को इसलिए सुखाती रहती है ताकि उसका स्वामी पुरुष खुश रहे ,जीवित रहे किन्तु पुरुष स्त्रियों के लिए ऐसा न कर सका ।

क्यों?  जंहा स्वामी और दासी का संबंध हो वंहा ऐसा संभव नहीं ।

व्रत-उपवास भी स्त्री बिना विरोध के करे और अपना 'कर्तव्य' समझे इसके  लिए इसे धर्म से जोड़ दिया गया , और इन व्रत उपवासों में ऐसी कोई न कोई कहानी गढ़ दी गई की  अंत में पुरुष का स्वार्थ सिद्ध हो।
किन्तु ,इसके पीछे पुरुषो की धूर्तता स्त्री कभी नहीं समझ पाई और न आज भी समझना चाहती है ।
दरसल व्रत या उपवास खासकर महिलाओ के लिए इसलिए बनाये गएँ हैं की महिलाएं उन्ही व्रत और उपवासों में उलझी रहें और अपने शासक पुरुषो से मुखर न हों ।

प्राचीन समय से ही  पुरुष प्रायः धन अर्जित करने, शासन करने ,नौकरी आदि विभिन्न कार्यो के कारण अधिकाँश समय घर से बाहर रहता था।वह बाहर रहता तो उसे भय रहता की कंही उसी स्त्रियां अपनी गुलामी में विचारशील न हो जाएँ , कंही पुरुष सत्ता के ख़िलाफ़ विद्रोह न पैदा हो जाए , कंही उनके बाड़े से आज़ाद न हो जाएँ?वह स्त्रियो की मानसिकता को सिर्फ अपने प्रति ईमानदारी और समर्पण तक सिमित रखना चाहता था ।वह चाहता था की जब वह बाहर रहे तो उसकी स्त्रियां उसकी जंजीरो से आज़ाद होने की न सोचें ।
अत: उसने धर्म का सहारा ले व्रत उपवास , सुहाग चिन्हो का निर्माण किया ।

महीने में 4-5 दिन स्त्रियां व्रत रखे, ईश्वर, पुत्र, पति के नाम पर भूंखी रहें इसका  विधान बना दिया ।
स्त्रियां दिन रात भजन कीर्तन करें, मंदिर में बैठ कथा कीर्तन सुने ।स्त्री जितनी धर्मिक होगी और भजन कीर्तन , व्रत उपवास में जितनी लिप्त होगी उसका विमुख होने और स्वत्रंत्र होने की भावना और विचार उतने ही नगण्य होंगे ।

इन सबके बीच पुरुष ने स्वयं अपने लिए दासी, नगर वधुओं , एक से अधिक /उप पत्नी का प्रबंध कर लिया था ताकि उसकी शारीरिक जरुरत निर्विघ्न पूरी होती रहें।परन्तु स्त्रियां कंही ऐसा न कर दें  , वे स्वतंत्रता न हों इसलिए उसने अधिक से अधिक कर्मकांड और आडम्बर का निर्माण किया  ताकि स्त्रियां उनके बीच अजीवन उलझी रहें ।इसीलिए समाज में आज भी यह मानसिकता प्रचलन में की जितनी ज्यादा स्त्री धर्मिक होगी पति के लिए उतनी ही प्रिय होगी।कई लोग तो अपनी कन्यायो को शादी से पहले 'अच्छा'पति मिलने के नाम पर  उपवास रखवाने लगते है ताकि विवाह उपरांत उसे उपवास रखने में रूचि पैदा हो जाए ।

कहते हैं की उपदेश देने से पहले खुद से शुरुआत होनी चाहिए , अतः मैने अपनी पत्नी को समझा बुझा  बहुत से सुहाग चिन्हों और व्रतो से मुक्ति दिला दी है ...आगे प्रयास जारी है ।
क्या आप प्रयासरत हैं ?
हाँ! आपकी बात सही है यह थोडा कठिन है पर मुझे पता है की एक दम से सामाजिक परिवर्तन अपेक्षित नहीं हो सकता ।

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