भारतीय दर्शनों को दो भागो में विभक्त किया जाता है, एक आस्तिक और दूसरा अनीश्वरवाद( नास्तिक कह लीजिये सुविधा के लिए)
सीधे रूप से हम कह सकते एक वौदिक और दूसरा अवैदिक ।
आस्तिक ग्रन्थ वो जो वेदों का समर्थन करें अवैदिक या नास्तिक वे जो वेदों को न माने ।
बौद्ध, लोकायत , जैन ऐसे ही दर्शन माने गए हैं , अर्थात ब्राह्मण न इन्हें नास्तिक दर्शन में रखा है ।
बौद्ध और जैन धर्म में समानता यह है की दोनों ही ईश्वर को नहीं मानते , दोनों ही वेदों का खंडन कर देते हैं (हलाकि यह विषय अलग है की बुद्ध के समय वेद थे ही नहीं बल्कि बाद की रचना हैं) ।
जैन और बौद्ध दोनों पर्यायवाची शब्द है दोनों का अर्थ एक ही है , जैन शब्द जिन से बना है और बुद्ध बुद्धि से ।
जिन का अर्थ भी चेतना है और बुद्ध शब्द का भी ।
अमरकोश जैसे ग्रन्थ में बौद्धों और जैनियो को एक ही कहा गया है , वह कहता है की गौतम को दोनों ही मानते है ।दीपवंश जैसे प्राचीन बौद्ध साहित्य में शाक्य मुनि गोतम को अक्सर महावीर के नाम से ही संबोधित किया गया है , निश्चय ही उस समय बौद्ध और जैन एक ही धर्म रहा होगा ।
जैन मत के अनुसार जीव ही परमेश्वर हो जाता है ,वे तीर्थंकारो को ही मोक्ष प्राप्त परमेश्वर मानते हैं , अनादि परमेश्वर कोई नहीं ।
जैन मत के अनुसार -
1- जैसे हम इस समय परमेश्वर को नहीं देखते इसलिए कोई सर्वज्ञ अनादि परमेश्वर प्रत्यक्ष नहीं । जब ईश्वर में प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं तो अनुमान भी घट सकता है क्यों की एकदेश प्रत्यक्ष के बिना अनुमान नहीं हो सकता ।
2- चित् और अचित् अर्थात चेतना और जड़ दो ही परमतत्व है और उन दोनों की विवेचना का नाम विवेक है , जो जो ग्रहण करने लायक है उस उस को ग्रहण और जो जो त्याग करने लायक है उसको त्याग करने वाले को विवेकी कहते हैं ।
3- जगत का कर्ता ईश्वर है इस अविवेकी मत का त्याग और योग से लक्षित परमज्योतिस्वरूप जीव है उसका ग्रहण करना उत्तम है ।
किन्तु कालांतर में जैन और बौद्ध मत में अंतर आ गया , जैसे - बौद्ध धर्म में निर्वाण प्राप्ति के लिये मध्यम मार्ग बताया जिसके लिए मृत्यु आवश्यक नहीं अपितु कोई भी अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण कर यह प्राप्त कर सकता है ।
जबकि जैन मत में कैवल्य की प्राप्ति के लिए मृत्यु आवश्यक है , दुखो से मुक्ति के लिए उपवास , उग्र तपस्या (संथारा भी शामिल) जरुरी है ।
बाद में यह अंतर इतना बढ़ गया की वैष्णव और जैनियो में फर्क करना भी मुश्किल हो गया और इसका श्रेय जाता है हेमचन्द्र सूरी जी को जिन्होंने जैन मत को ब्रह्मणिक धर्म में विलय सा ही कर दिया ।आज के जैन मुनि तरुण सागर जी स्त्री , आरक्षण आदि पर जो विचार प्रकट करते है वह उसी विलय का नतीजा है ।
किन्तु आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद जी अपने सत्यार्थ प्रकाश के 12 समुल्लास में जैन मत का खंडन करते हुए कहते हैं की जैन मत छोकरा बुद्धि है , स्वामी जी यंहा तक कह देते हैं की जैन मत "जो ईर्ष्या द्वेषी हो तो जैनियो से बढ़ के दूसरा कोई न होगा ।
कुछ भी हो इतना तो तय है की जैन मत और बौद्ध धर्म कभी एक ही रहे थे और जो आज तरुण सागर जी के विचार है वे मूल जैन मत के विचार नहीं हैं लगते ।
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