मुस्लिम पर्सनल बोर्ड ने सुप्रीम कोर्ट के तीन बार तलाक और चार शादियों से सम्बंधित सुनवाई को यह तर्क देते हुए चुनौती पेश की है की कुरआन इन मामलो में मुसलमानो पुरुषो को यह अधिकार देता है जिसमे संसोधन करना गैर इस्लामिक है ।
बोर्ड ने प्रमुखता से यह दलील दी है की शारीरिक रूप से पुरुष और महिला बराबर नहीं होते अतः शरीयत ने पुरुषो को तलाक लेने का हक़ दिया क्यों की उनमे फैसले लेने की क्षमता अधिक होती है ।किन्तु मेरे हिसाब से इस बात का इतिहास गवाह है की पुरुष का अधिकतर फैसला वर्चस्ववादी ही होता है , उसके फैसले हमेशा दूसरे वर्गों पर शासन या अधिकार के ही पक्ष में होते हैं ।जितने भी विश्व में हिंसा या शोषण हुआ है उसका आधार कंही न कंही पुरुष का वर्चस्ववादी फैसले ही रहे हैं ।
बोर्ड एक और दलील यह देता है की महिलाओ की अपेक्षा पुरुष अपनी भावनाओ पर ज्यादा काबू कर सकते है ।
किंतु कठोर भावनाये मानवीय मूल्यों और प्रेम के साथ इंसाफ करने में बाधक हो सकती हैं ।यदि भावनाये अत्यधिक कठोर हों तो वे अन्धफैसलो की जननी हो सकती है जो सही गलत में फैसला न कर केवल जिद में तब्दील हो सकती हैं तब ऐसे में महिलाओं को इंसाफ मिलने की उम्मीद नगण्य हो जाती है ।
बोर्ड का एक दलील यह है की यदि तीन तलाक न हो तो शौहर अपनी पत्नियो को मार सकते हैं।
किन्तु क्या बोर्ड की यह दलील वाकई अच्छा तर्क है ?नहीं !
सोचिये क्या फोन पर एकाएक किसी महिला को उसका पति तलाक दे देता है तो क्या यह उस महिला मरने से बदतर नहीं हुआ ?यदि कोई महिला तलाक देने से अचानक बेसहारा हो जाये तो क्या यह उसके मरने से बदतर नहीं हुआ ? चुकी तलाक के बाद खर्चे का प्रवधान शरीयत में नहीं है जैसा की चर्चित केस शाहबानो में हुआ था तो क्या यह उस बेसहारा स्त्री के मरने के बराबर नहीं हुआ ?
क्या गला काट के हत्या ही हत्या हुई , किसी स्त्री को बेसहारा छोड़ देना उसकी हत्या नहीं हुई?
फिर यदि तीन तलाक का प्रवधान इतना ही अच्छा होता तो मुस्लिम महिलाये इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में क्यों जाती?मुस्लिम महिलाओं को परेशानी थी तभी वे सुप्रीम कोर्ट गईं अपना दुःख लेके ताकि इस प्रथा को बंद किया जा सके ।
इसका अर्थ हुआ की मुस्लिम पर्सनल बोर्ड अपने ही समाज की महिलाओं की समस्याओ की खबर नहीं रखता ।
मुस्लिम पर्सनल लो बोर्ड की एक दलील यह है की ऐसा कुरआन का हवाला है की तीन तलाक वैध है और इसे बदला नहीं जा सकता।
किन्तु बोर्ड को शायद यह नहीं पता की दुनिया के लगभग 22 देशो में इस तीन तलाक प्रथा पर रोक लग चुकी है ।तुर्की, ट्यूनीशिया , पाकिस्तान यंहा तक को बांग्लादेश सहित कई इस्लामिक देश हैं जंहा यह प्रथा खत्म की जा चुकी है , तो क्या माना जाए की वे पवित्र कुरआन को नहीं मानते?।ट्यूनीशिया में तो आदलत के बाहर तलाक मान्य ही नहीं है ।
जब दूसरे इस्लामिक देशो में तीन तलाक की मान्यता ख़त्म की जा सकती है तो भारत में पर्सनल लॉ बोर्ड क्यों शुतुर्गमुर्ग बना हुआ ही ?
फोटो साभार गूगल
बोर्ड ने प्रमुखता से यह दलील दी है की शारीरिक रूप से पुरुष और महिला बराबर नहीं होते अतः शरीयत ने पुरुषो को तलाक लेने का हक़ दिया क्यों की उनमे फैसले लेने की क्षमता अधिक होती है ।किन्तु मेरे हिसाब से इस बात का इतिहास गवाह है की पुरुष का अधिकतर फैसला वर्चस्ववादी ही होता है , उसके फैसले हमेशा दूसरे वर्गों पर शासन या अधिकार के ही पक्ष में होते हैं ।जितने भी विश्व में हिंसा या शोषण हुआ है उसका आधार कंही न कंही पुरुष का वर्चस्ववादी फैसले ही रहे हैं ।
बोर्ड एक और दलील यह देता है की महिलाओ की अपेक्षा पुरुष अपनी भावनाओ पर ज्यादा काबू कर सकते है ।
किंतु कठोर भावनाये मानवीय मूल्यों और प्रेम के साथ इंसाफ करने में बाधक हो सकती हैं ।यदि भावनाये अत्यधिक कठोर हों तो वे अन्धफैसलो की जननी हो सकती है जो सही गलत में फैसला न कर केवल जिद में तब्दील हो सकती हैं तब ऐसे में महिलाओं को इंसाफ मिलने की उम्मीद नगण्य हो जाती है ।
बोर्ड का एक दलील यह है की यदि तीन तलाक न हो तो शौहर अपनी पत्नियो को मार सकते हैं।
किन्तु क्या बोर्ड की यह दलील वाकई अच्छा तर्क है ?नहीं !
सोचिये क्या फोन पर एकाएक किसी महिला को उसका पति तलाक दे देता है तो क्या यह उस महिला मरने से बदतर नहीं हुआ ?यदि कोई महिला तलाक देने से अचानक बेसहारा हो जाये तो क्या यह उसके मरने से बदतर नहीं हुआ ? चुकी तलाक के बाद खर्चे का प्रवधान शरीयत में नहीं है जैसा की चर्चित केस शाहबानो में हुआ था तो क्या यह उस बेसहारा स्त्री के मरने के बराबर नहीं हुआ ?
क्या गला काट के हत्या ही हत्या हुई , किसी स्त्री को बेसहारा छोड़ देना उसकी हत्या नहीं हुई?
फिर यदि तीन तलाक का प्रवधान इतना ही अच्छा होता तो मुस्लिम महिलाये इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में क्यों जाती?मुस्लिम महिलाओं को परेशानी थी तभी वे सुप्रीम कोर्ट गईं अपना दुःख लेके ताकि इस प्रथा को बंद किया जा सके ।
इसका अर्थ हुआ की मुस्लिम पर्सनल बोर्ड अपने ही समाज की महिलाओं की समस्याओ की खबर नहीं रखता ।
मुस्लिम पर्सनल लो बोर्ड की एक दलील यह है की ऐसा कुरआन का हवाला है की तीन तलाक वैध है और इसे बदला नहीं जा सकता।
किन्तु बोर्ड को शायद यह नहीं पता की दुनिया के लगभग 22 देशो में इस तीन तलाक प्रथा पर रोक लग चुकी है ।तुर्की, ट्यूनीशिया , पाकिस्तान यंहा तक को बांग्लादेश सहित कई इस्लामिक देश हैं जंहा यह प्रथा खत्म की जा चुकी है , तो क्या माना जाए की वे पवित्र कुरआन को नहीं मानते?।ट्यूनीशिया में तो आदलत के बाहर तलाक मान्य ही नहीं है ।
जब दूसरे इस्लामिक देशो में तीन तलाक की मान्यता ख़त्म की जा सकती है तो भारत में पर्सनल लॉ बोर्ड क्यों शुतुर्गमुर्ग बना हुआ ही ?
फोटो साभार गूगल
अच्छा लेख !
ReplyDeleteआभार सर
ReplyDeleteआभार सर
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