Friday, 23 September 2016

ओ बी सी आरक्षण और पिछड़ी जातियां

यदि आज आरक्षण की बात की जाती है तो लोगो की नज़रे sc/st  को मिले आरक्षण पर आके टिक जाती हैं ।
obc आरक्षण लगभग लोगो की नज़रो से ओझल ही हो जाता है , दोष निकालने और बहस का मुद्दा केवल दलित केंद्रित हो जाता है तथा अपने को पिछड़ी कहलाने वाली  जातियां जो आरक्षण का सर्वाधिक लाभ लेती हैं वे इस बहस में सुप्त अवस्था में चली जाती हैं किन्तु लाभ लेने के लिए रेल की पटरियां उखाड़ देने, सड़के जाम करने और हिंसा का सहारा लेने तक में पीछे नहीं रहती ।

यह सत्य है की ब्राह्मण ने अपने लाभ के लिए वर्ण और जातियों में समाज को बांटा,अस्पर्शयता ब्राह्मणवाद का ही निर्माण है जिसके कारण एक बड़ा वर्ग अछूत बना दिया गया और समाज में उसे पशुओ से भी बदतर हालत पहुंचा दिया गया ।

सामज में अछूतो को जो सामाजिक भेदभाव और शोषण सहना पड़ा वह मात्र ब्राह्मण द्वारा ही नहीं अपितु अपने को शुद्र कहलाने वाली जातियों द्वारा भी भरपूर शोषण और जातीय हिंसा का शिकार होना पड़ा है ।

यादव, गुर्जर, जाट, लोध, आदि बहुत सी अपने को आज  पिछड़ी कहलाने वाली जातियो ने वही सामजिक भेदभाव और अत्याचार किया है जो तथाकथित तीनो उच्च वर्णों ने ।कई मामलो में तो ये पिछड़ी कहलाने वाली जातियां ज्यादा हिंसात्मक और शोषणकारी रहीं है ब्राह्मण की अपेक्षा।

उत्तर प्रदेश,बिहार के यादवो दलितों पर ब्राह्मण की अपेक्षा अधिक भेदभाव और अत्याचार करते हुए मिलेंगे ।हरियाणा ,राजस्थान के जाट -गुजर्र ब्राह्मण से कंही अधिक जातीय भेदभाव की संक्रीण मानसिकता से ग्रस्ति होंगे दलितों के प्रति ।
आपको उत्तर प्रदेस की घटना याद होगी की एक यादव का कुत्ता दलित के घर रोटी खा लेता है तो यादव परिवार उस कुत्ते को अछूत घोषित कर दलित परिवार पर अत्याचार करता है ।यादवो द्वारा बिहार उत्तर प्रदेस में प्रत्यक्ष  जातीय भेदभाव जनित अछूतो पर  अत्याचार आम है ।

हरियाणा में तो यदि कोई दलित जाटो के पानी पीने का स्रोत छू भी ले तो उसके हाथ काट दिए जाते हैं ( यह प्रमुख घटना है हरियाणा की )।राजस्थान में यदि जाटो - गुर्जरो के बराबर खाट पर दलित बैठ जाए तो उनका क़त्ल कर दिया जाता रहा है ।ऐसे उदहारण आपको लगभग रोज ही मिल जायेंगे जिनमे इन तथाकथित पिछड़ी जातियों ने दलितों के साथ जातीय मानसिकता के चलते कोइ न कोई  अत्याचार कर रहे हैं ।यदि दलित और अपने को पिछड़ी कही जाने वाली जातियां के बच्चों में भूले से प्यार भी हो जाए तो दलित पक्ष का क़त्ल सरेआम कर दिया जाता है ,घर और मोहल्ले तक में आग लगा दी जाती है ।

कुछ दिन पहले की घटना में राजस्थान के  जाटो ने दलितों की जमीन पर कब्ज़ा करने के लिए कई लोगो को ट्रेक्टर से कुचल के मार दिया था ।

मंडल सूचि के अनुसार यादव , जाट , गुर्जर , लोध तथा इनके समतुल्य जातियां  obc आरक्षण ले रही हैं ।मंडल सूचि  द्वारा आरक्षित यादव, जाट, गुर्जर, लोधी तथा इनके समतुल्य जातियो का सामजिक व्यवहार दलितों के प्रति कमोवेश ऐसा रहा की दलितों का सम्मान के साथ जीना दूभर रहता है ।

मंडल आयोग का गठन 1जनवरी 1979 को संविधान की धारा 340 के तहत हुआ था ।धारा 340 में पिछड़े वर्गो की दशा पर एक आयोग के गठन का प्रधिकार है ।
ज्ञात रहे की इस धारा में  आरक्षण(राईट तो रिपर्जनटेशन) का उल्लेख तक नहीं है  उल्लेख है तो मात्र ग्रांट्स का अर्थात पिछड़े वर्ग आयोग का अधिकार क्षेत्र आर्थिक  मुद्दों से अधिक न था ।
किन्तु राजनैतिक मज़बूरी के चलते पिछड़ा आरक्षण लागू हुआ  ।इस मंडल आयोग में मात्र एक दलित सदस्य थे एल आर नायक जिन्होंने मंडल आयोग के संस्तुतियो पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया था और मंडल आयोग का विरोध किया था ।उनका तर्क था की मंडल में समल्लित जातियो को दो सूचि में बाँट दिया जाए एक पिछड़ा और दूसरा अति पिछड़ा क्यों की यह पिछड़ी जातियो में जिन्हें शामिल किया गया था वे वास्तव में पिछड़ी नहीं रही थी अतः यादव ,कुर्मी,जाट ,गुर्जर आदि जातियां अति पिछड़े जैसे नई,भर, माली, कुम्हार, कहार,ठठेरा आदि सैकड़ो अति पिछड़ी जातियो का हक़ मार लेंगी ।

इस पर बी पी मंडल नायक का ऐसा जबाब देते हैं की फासीवादी ताकते भी शर्मा जाए । मंडल जी ने कहा - इसमें कोई दो राय नहीं की पिछड़े वर्ग के आरक्षण और अन्य कल्याणकारी योजनाओ को पिछड़े वर्ग के अगड़े तबके मार ले जाएंगे किन्तु क्या यह सार्वभौमिक बात नहीं है ?आयोग के आरक्षण का मुख्य गुण यह नहीं की वह पिछड़े वर्ग समानता लाएगा बल्कि आरक्षण उच्च जातियो की नौकरियों से पकड़ कमजोर करेगा "।


कितनी विडम्बना की बात है की जिस मंडल आयोग का उद्देशय समानता कहा जा रहा था वह असमानता पर टिका था ।

यही कारण है आज अति पिछड़ी जातियां जैसे भर , कुम्हार, कहार, नाइ, आदि हाशिये पर डाल obc आरक्षण केवल यादवो, जाटो , गुजरो और इनके समतुल्य जातियो तक सिमित रह गया है ।

वास्तव मे यादव और इनके समतुल्य जातियां कभी सामजिक रूप भेदभाव का शिकार रही ही नहीं , एक यादव ,जाट -गुर्जर सर पर मटका ले गली गली दूध बेच सकता है और कोई भी बिना भेदभाव के उससे दूध ख़रीद लेता है ।किन्तु क्या किसी दलित जाति का व्यक्ति इस प्रकार दूध या खाने पीने की चीजे खुले में बेच सकता है ?
नहीं !

तो, सरकार को जरुरत है एक बार obc आरक्षण की समीक्षा करने की और जो पिछड़ी दबंग जातियां है उन्हें हटा वास्तविक पिछड़ी जातियो को obc आरक्षण का लाभ  देने की ।

Thursday, 22 September 2016

नाटक मण्डली- कहानी - अंतिम भाग


अब तक आपने पढ़ा की केशव के पिता की उत्सव नाटक मण्डली थी जो अपने समय में बहुत पॉपुलर थी किन्तु बाद में लोग नाटक देखना बंद कर देते है जिस कारण उसके पिता की मृत्यु हो जाती है ।केशव अपने घर आता है और उसके पिता का घर और गोदाम बेच के वापस विदेश चला जाना चाहता है । वह गोदाम  जिसमे नाटक मण्डली का सामान रखा हुआ था उसे कबाड़े में बेच गोदाम की मरम्मत करवाना चाहता है ताकि कीमत ठीक मिल जाए ।

http://kahaniyakeshavki.blogspot.in/2016/09/blog-post_15.html?m=1

अब आगे ....

केशव की दृष्टि संदूक में रखी एक डायरी पर ठहर गई , उसका हाथ फोन करते करते वंही स्थिर हो गया ।उसने फोन जेब में रखा और झुक के डायरी उठा की ।यह काले रंग की डॉयरी थी जिस पर उसके पिता जी नाम लिखा हुआ था , यह उन्ही की डायरी थी।

केशव ने डायरी के पन्ने पलट के देखे तो शुरआत में कुछ गीत लिखे हुए थे ,उसके बाद पिता जी ने अपनी जीवन की घटनाएं दर्ज की थी उसमें ।एक दो पन्ने पढ़ने के बाद वह कुछ विचलित सा लगने लगा , उसने डायरी बंद की और तेज कदमो से गोदाम के बाहर आ गया ।
दरवाज़े को किसी तरह दुबारा बंद कर वह गोदाम के ही ऊपरी मंजिल पर  बने अपने कमरे की तरफ चल दिया।

कमरे में आके वह एक कुर्सी पर बैठ गया और डायरी पढ़ने लगा । जैसे जैसे वह डायरी पढता जा रहा था उसका दिल बैठता जा रहा था , आँखे भारी होती जा रही थी ।
पिता जी ने अपने जीवन के अभी उतार चढाव , उसके पैदा होने की ख़ुशी से लेके उसकी माँ की मृत्यु की असहनीय पीड़ा सब  उस डायरी में लिपिबद्ध किया हुआ था ।उसकी माँ की मृत्यु के बाद पिता जी के जीने का सहारा नाटक मण्डली ही थी , नाटक मण्डली को वे बहुत प्यार करते थे यंहा तक की केशव से भी ज्यादा ।उनके जीने का सहारा नाटक मण्डली ही थी ,उन्होंने पैसे के लिए नहीं अपितु कला को जीवित रखने के लिए नाटक मण्डली को बनाया था ।
उसी मण्डली के एक नाटक के दौरान उसकी माँ और वे मिले थे और फिर प्यार शादी में बदल गया ।

केशव की  माँ को नाटक मण्डली से बहुत प्यार था , वह मण्डली के सभी सदस्यों को अपने परिवार जैसा ही समझती थी ।उनकी  इच्छा थी की नाटक मण्डली कभी न बंद हो ।माँ के जाने के बाद पिता जी ने मण्डली को और ऊंचाइयों तक पहुँचाया । किन्तु जैसे जैसे समय बीतता गया मनोरंजन के आधुनिक साधन आते गएँ और लोगो का नाटक देखने के प्रति रुझान कम होता गया ।

अब नाटक मण्डली की जगह वी सी आर और प्रोजेक्टर ने ले लिया था ।नाटक मण्डली को बुलाने की समस्या अधिक रहती थी  क्यों की 20-22 आदमियो का मेहनताना देना पड़ता था ,उनको खाने पीने , स्टेज आदि बनवाने का खर्चा अलग होता था ।जबकि वी सी आर या प्रोजेक्टर में केवल एक व्यक्ति होता था जिससे खर्चा कम आता , फिर बाराती अपनी पसन्द की नई नई फिल्में देखने की फरमाइस कर सकते थे जो की नाटक मण्डली में नहीं हो सकता था ।

इस प्रकार धीरे धीरे नाटक मण्डली को काम मिलना बंद हो गया , किंतु उसके पिता ने कभी इस बात का जिक्र नहीं किया था उससे की कंही उसकी पढाई में बाधा न आ जाए ।केशव को अब ध्यान आ रहा था की जब वह साल दो साल में अपने पिता से मिलता तो क्यों वे बीमार और कमजोर लगते ।

 केशव डायरी पढता जा रहा था और उसकी आँखे नम होती जा रहीं थी , पीड़ा के कई भाव झूला झूलने लगे थे उसकी आँखों में ।

नाटक मण्डली के सभी लोग बेरोजगार हो गएँ थे , किसी को कोई और दूसरा काम नहीं आता था अतः सभी को काम खोजने में बहुत परेशनी हो रही थी ।
जगपाल ईंट भट्टे पर मजदूरी करने लगा था , हैदरअली को तो काम ही नहीं मिला कंही मजबूरन भीख मंगनी पड़ती थी उसे ।नत्थूलाल रिक्शा चलाने लग गया था परिवार का पेट भरने के लिए , ऐसे ही अन्य कलाकार भी कोई छोटा मोटा काम करने लगे थे अथवा शहर चले गए थे नौकरी की तलाश में ।

नाटक मण्डली बंद होने और कलाकारों की दुर्दशा का इतना ज्यादा आघात हुआ की केशव के पिता ने खाट ही पकड़ ली । अकेले रहने के कारण उन्हें उनका भाई यानि केशव के चाचा अपने घर ले गएँ ताकि देखभाल हो सके , किन्तु वे अंतिम समय तक चाहते थे की नाटक मण्डली दुबारा शुरू हो जाए।

केशव ने डायरी बंद की और दोनों हाथो से सर पकड़ के बैठ गया ,बहुत देर तक यूँ ही बैठे बैठे सोचते रहने के बाद उसने  अंतर्मन में कई फ़ैसले लिए ।पूरी रात आँखों में ही कटी , नींद जैसे उससे रूठ गई हो ।

सुबह होते ही वह  राज मिस्त्री तथा मजदूरो को ले आया , गोदाम की मरम्मत शुरू करवा दी ।नया गेट लगवा के उस पर तथा दीवारो पर  रंग रोगन करवा दिया  , दोनों संदूकों के सामान को निकाल साफ सफाई करवा दी ,तख्तो, चादरों और दरियों को नए में बदल दिया  गया । बल्बस बदल के ट्यूबलाइटस् लगवा दी गईं थी ।

अब गोदाम वैसा ही चमक रहा था जैसा उसके बचपन में था , गोदाम के बाहर "यह मकान बिकाऊ है " का बोर्ड हटा दिया था केशव ने ।यह सब करने के बाद केशव ने अपना लैपटॉप निकाला और कुछ लिखने लगा,काफी देर लिखने के बाद उसके हाथ रुक गएँ क्षण भर सोचने के पश्चात उसने दृण हाथो से  एंटर का बटन दबा दिया ।
यह रेजिग्नेशन मेल था , कंपनी अनुबंध से अनुसार केशव को अब उसका पीएफ , बोनस आदि  कुछ नहीं मिलेगा बल्कि एक महीने की सेलरी और काट ली जायेगी किन्तु केशव को लगा जैसे एक बोझ कम हुआ हो ,महीन सी मुस्कुराहट बिखर गई उसके होंठो पर ।

अब उसने अपने पिता जी की नाटक मण्डली के पुराने साथियो को खोजना शुरू कर दिया ।हैदरअली को खोजने में ज्यादा परेशानी नहीं हुई उसे , सड़क के किनारे ही भीख मांगता हुआ मिल गया ।जिस चेहरे को देखते ही दर्शको के मुखबिंदु पर हँसी आ जाती थी आज  उस चेहरे को देख दया के भाव उठ रहे थे , मैले कुचैले कपड़ो की गठरी बांधे चेहरे पर घनी अधपकी दाढ़ी लिए वह धूल भरी सड़क पर मौन बैठा रहता ।जिसे जो देना होता वह उसके सामने फेंक देता था ।

केशव की एक आवाज में वह उसे पहचान गया ,बहुत फ़ूट फूट के रोया वह नाटक मण्डली को याद कर ।केशव ने उसे बताया की वह नाटक मण्डली फिर से शुरू करेगा ,हैदरअली को सहसा यकीं न हुआ किन्तु केशव सच कह रहा था ।हैदरअली केशव के साथ आ गया ।

अब बारी थी जगराम की , क्यों की वह सबसे विशिष्ठ कलाकार था उस मण्डली का ।खोज शुरू हुई तो जगराम के मिलने पर ही ख़त्म हुई , ईंट भट्टे पर काम कर के वह काली खाल का अस्थिपिंजर नजर आ रहा था ।सुनी आँखे , निस्तेज चेहरा , पके बाल जिस कमर लचकाने पर महिलाएं रस्क रखती थी उससे वह कमर अब कंही नजर नहीं आ रही थी , नजर आ रहा था तो बेबस जगराम ।
वह भी हैदरअली की तरह रोते हुए मिला केशव से ।जब उसे केशव का आशय पता चला तो उसने केशव से कहा  -

"अब यह मुमकिन नहीं , उम्र ढल चुकी है और नाटक मण्डली अब कौन देखता है .. क्यों आप पैसा और समय बर्बाद कर रहें हैं ?"
"आप फ़िक्र मत करो !मैं सब ऑरेन्ज कर लूंगा बस आप तैयार हो और बाकी के लोगो को तैयार करो "केशव ने जगराम का साहस बांधते हुए कहा

जगराम केशव की बात मान  दुबारा नाटक मण्डली में आने के लिए तैयार हो गया । उसके बाद शुरू हुई  अन्य कलाकारों की खोज ।
किन्तु 20 में से 10 लोग ही मिल पाये , बाकी कुछ मर गए थे तो कोई अत्यधिक बीमार था तो कोई शहर बस गया था जिन्हें अभी तत्काल खोजपाना आसान न था ।

10 लोग पुरानी मण्डली के थे तो 12 नाए लोगो को भर्ती कर लिया गया जिनको सिखाने और निखारने की जिम्मेदारी पुराने लोगो पर थी , सभी लोगो को नाटक की स्क्रीप्ट देके और रात दिन तैयारी करवाने की जिम्मेदारी जगराम को दे केशव शहर आ गया था कुछ जरुरी खरीदारी करने ।उसने बैंक से अपनी जितनी जमा पूंजी थी वह खाली कर ली ,उसने कुछ सामान ख़रीदा ।


चार महीने की कलाकारों की लगन , मेहनत और केशव के जूनून ने मण्डली को फिर खड़ा कर दिया था ।पुरे शहर में एक बार फिर ' उत्सव नाटक मण्डली ' के पोस्टर छपे हुए थे ।जगराम के साथ दो सुंदर महिला डांसर भी थीं पोस्टर में जिनका आइटम सांग रखा गया था , पोस्टर में इन तीनो को प्रमुखता से छापा गया था ।

यह पहला नाटक केशव ने प्रमोशन के लिए रखा हुआ था , सभी की एंट्री फ्री थी ।जंहा नाटक चल रहा था वंही थोड़ी दूर पर एक बारात रुकी हुई थी जिसमे प्रोजक्टर से फ़िल्म दिखाई जा रही थी ।

नाटक के लिए ऊँचा और रंग बिरंगे फूलो पत्तियो से स्टेज सजा हुआ था , आगे रंगीन और आकर्षक रंगो युक्त पर्दा लगा हुआ था ।पर अब नाटक के प्रदर्शन में कुछ ख़ास बदलाव किये गए थे ,पंडाल के बीच में दो बड़ी बड़ी स्क्रीन्स लगी हुईं थी ।लाउडस्पीकर की जगह बड़े बड़े 30 हजार वॉट के 8 -10 स्पीकर रखे हुए थे जिनका कनेक्सन एक डी जे जैसे ऑपरेटर से जुड़ा हुआ था ।केशव खुद हैण्डी कैम लिए हुए बीच में खड़ा था वह जो भी शूट कर रहा था स्क्रीन्स पर दिख रहा था ।

नाटक शुरू हुआ , जैसे ही कैमरे से केशव ने नाटक को कवर किया वह स्क्रीन्स पर प्रदर्शित हुआ ,जो लोग अब तक बनी बनाई पिक्चर ही देखते थे स्क्रीन पर अब वे लाइव देख के अचंभा कर रहे थे , जब केशव लोगो पर कैमरे का फोकस करता तो वे स्क्रीन्स पर अपनी शक्ले देख रोमांचित हो उठते। नाटक के कलाकार तो थे ही मंझे हुए , थोड़ी ही देर में ऐसा शमा बंधा की हजारो की भीड़ उमड़ पड़ी नाटक देखने , स्पिकार्स का बेस लोगो को कलाकारों के साथ झूमने पर मजबूर कर दे रहा था दर्शको को ।
डिस्को लाइट्स इफेक्टस स्टेज को अद्भुत बना दे रहे थे , जैसा आज तक लोगो ने अपनी आँखों से नहीं देखा था ।देखा भी था तो सिर्फ टीवी में या फिल्मो में ।सारे आधुनिक तिकड़म भिड़ा दी थी केशव ने नाटक के लिए ।



जंहा बारत रुकी हुई थी वह सारे बाराती नाटक देखने बारात छोड़ पहुँच गए , बड़ी मुश्किल से लोग जरा सी देर के लिए खाना खाने जाते और फिर वापस आ के खड़े खड़े ही नाटक देखते ।

नाटक सुपरहिट रहा ,अगले दिन कसबे के लोकल न्यूज पेपर में केशव का सक्षात्कार  छपा हुआ था ।अब उत्सव नाटक मण्डली पहले से ज्यादा व्यस्त और पॉपुलर हो चुकी थी , लोग अग्रिम राशि देके काफी महीने पहले बुक करवाने लगे थे ।उत्सव नाटक मण्डली का खोया रुतवा चौगुनी कीमत पर वापस आ रहा था ।

बस यंही तक थी कहानी ....


Wednesday, 21 September 2016

बुद्ध की युद्ध ?



शाक्य(सक्क) और कोलियों राज्यो  में रोहिणी नदी विभाजक रेखा थी ,एक बार दोनों राज्यो के नागरिको में पानी लेने के पीछे झगड़ा हुआ जिसमे दोनों पक्षो को बेहद गंभीर चोट आईं।

इस बात पर दोनों राज्यो के वैमनस्य में अधिक बढ़त हुई और दोनों राज्य के सैनिक आमने सामने आ गएँ ।शाक्य सेनापति ने कोलियों से युद्ध छेड़ने के लिए संघ से अनुमति मांगी ।संघ में सेनापति के युद्ध करने के प्रस्ताव को को पारित कर दिया , किन्तु नियम के अनुसार सेनापति ने सभी सदस्यों को संबोधित करते हुए पूछा की इस प्रस्ताव पर किसी को ऐतराज तो नहीं है ? इस पर सिद्धार्थ( गौतम/गोतम) ने सभा में खड़े होके युद्ध के खिलाफ बोला, उन्होंने कहा -
" युद्ध से कोई समस्या हल नहीं होती और न ही उद्देश्य पूरा होता है , एक युद्ध दूसरे युद्ध का बीज बो देता है ।कोलिय और शाक्य निकट पडोसी है अतः जो भी समस्या है उसे शांति पूर्वक हल किया जाना चाहिए '

इस प्रकार सिद्धार्थ युद्ध में भाग लेने से मना कर देते हैं अतः परिणाम स्वरुप उन्हें उन्हें देश परिवार और राज्य छोड़ के परिवार निकाला दे दिया जाता है।


अशोक(असोक) कलिंग जीतने के लिए युद्ध करता है किन्तु युद्ध की विभीषिका देख कर आगे से कभी युद्ध नहीं करने का प्रण लेता है उसके बाद वह अन्य देशो में बौद्ध धर्म प्रचारित प्रसारित करता है किन्तु बिना युद्ध लड़े।चीन, श्रीलंका  कोरिया , जापान , वर्मा, वियतनाम जैसे देशो में बौद्ध संस्कृति फैलती है बिना युद्ध किये ।

युद्ध कैसा भी हो चाहे विस्तार के लिए या आत्मरक्षा के लिए अंतत: नुकसान सिर्फ आम जनमानस का ही होता है फिर चाहे वह आर्थिक हो या शारीरिक ।युद्ध हमेशा अपने पीछे कर्दन,रुदन,चीत्कार, शोक छोड़ जाता है पीढ़ियों के लिए ।

वैदिक धर्म कहता है "धर्म हिंसा तथैव च: " (धर्म के लिए हिंसा श्रेष्कर है ) यंहा हिंसा देश के लिए नहीं धर्म के लिए करने का विधान है कहा गया है
वह यह भी कहता है "वैदिक हिंसा , हिंसा न भवति:'( अर्थात वैदिक हिंसा हिंसा नहीं कहलाती ) यंहा भी हिंसा धर्म के लिए ही कही गई है न की देश के लिए ।

इसी प्रकार क़ुरान में भी जगह जगह  गैर ईमान वालो से युद्ध करने के लिए कहा गया है , दारुल हर्ब को दारुल इस्लाम बनाने के लिए ।

मोदी जी आपने वियतनाम में जाके कहा है की 'उन्होंने तुम्हे युद्ध दिया , हमने तुम्हे बुद्ध दिया ' ।

मैं जानता हूँ की आज सभी लोग पाकिस्तान से युद्ध चाहते हैं , सारा देश क्षुब्द है अपने वीर सैनिको को खो के अतः वे ' आक्रमण'  चाहता है  'युंद्ध देहि' कह रहा है ।पर वाकई यह हकीकत है की युद्ध केवल जज्बातों से नहीं लड़ा जाता उसके लिए कूटनीति बहुत जरुरी है ।
आज देशवासियो की जो मांग आपसे है वह अपेक्षित थीं,आपने किया क्या था सोचिये ।
नकली लाल किला बनवाके उस पर तुरंत मौजूदा प्रधान मंत्री
की खिल्ली उड़ाना ।टीवी प्रोग्राम में ' ओबामा ओबामा' कह के चिढ़ाना आदि सब आपने ही किया था चुनाव जीतने के लिए ।अब जब सच में हमला हुआ है तो जनता आपको आपके ही वादे याद दिला रही है ।

पर यह आप पर निर्भर है की आप अपने पडोसी को 'बुद्ध ' देना चाहते हैं की 'युद्ध' किन्तु इतना निवेदन है सत्ता के लिए ऐसे वादे मत कीजिये जनता से की उसे निभाना मुश्किल हो जाए , सत्ताएं आती तो आती जाती रहती हैं ।
फोटो साभार गूगल





Saturday, 17 September 2016

नास्तिकता और सत्तामूलक ईश्वरीय संस्थाएं

नास्तिकता और ईश्वरीय सत्तामूलक संस्थायें-

भारतीय दार्शनिक परम्परा की दो कोटिया निर्धारित की गई हैं , वेदों और ईश्वर को मानने वाले आस्तिक और वेदों और ईश्वर को न मानने वाले नास्तिक ।

नास्तिको के खिलाफ समस्त धार्मिक ग्रंथो में ढेरो अपशब्द कहे गएँ है , उन्हें अभिशप्त किया गया वे असुर परम्परा में रखे गए हैं । असुरो के विरुद्ध देवतो का लगातार युद्ध ठना रहा है , असुरो के वध के लिए भगवान् बार बार अवतार लेते रहते हैं ।

कौटिल्य ने जो दार्शनिक वर्गीकरण किया है उसमे सांख्य, न्याय , योग, वेदांत , मीमांसा और वैशेषिक प्रणाली को आस्तिक वर्ग में रखा है जबकि लोकायत , बौद्ध और जैन को नास्तिक प्रणाली में । कौटिल्य ने ये वर्गीकरण वेदों पर आस्था न होने और होने के कारण किया है ।

एक राजनितिक सत्तामूलक के लिए वेद अथवा ईश्वर निंदा या निषेध वेद पोषक वर्ग के लिए असहनीय था । इसलिए वेद निंदकों के लिए कठोर दंड और नर्कों के आतंक का भरपूर प्रवधान किया जाने लगा । वेद निंदा इतनी असहनीय थी की सांख्य जैसे दर्शन जो कपिल मुनि द्वारा प्रतिपादित था उसे आस्तिक दर्शन मान लिया गया जबकि कपिल को नास्तिक कहा गया परन्तु वेदों के समर्थन के कारण उसे बाद में आस्तिक दर्शन मान लिया गया ।

कौटिल्य का सुझाया उपाय जिसमे राजसत्ता कायम रखने के लिए अन्धविश्वास को बढ़ावा दिया जाना चाहिए उसने भारतीय समाज को अज्ञानता की बेडियो में जकड़ लिया । राजसत्ताये तरह से टोटके और अन्धविश्वास का सहारा लेने लगी , इन अंधविश्वासों को जनता में पैठ बैठाने के लिए पुरोहित वर्ग आगे रहा । नए नए ग्रन्थ लिखे जाने लगे , वेदो का आधार लेके पुराण आदि मिथकीय ग्रंथो की रचनाये तेजी से होने लगी ।

ब्रह्मणिक व्यवस्था आधारित साधुओ की परजीवी परम्परा बड़े काम आई। इन साधुओ से दो लाभ थे , एक तो ये जाति प्रथा को कठोरता से बनाये रखने में भरपूर मदद करते दूसरे मठो, आश्रमो में दीक्षित साधू कथा वाचको , प्रचारको के रूप में गृहस्थ लोगो के घरो में प्रवेश कर कर्मकांडो की पैठ बनाते । भारतीय समाज में अन्धविश्वास और कर्मकांडो का तानाबाना इन्ही साधुओ की देन है ।

 चुकी आस्तिक के सबसे बड़े शत्रु नास्तिक ही थे जो उनके अन्धविश्वास और ईश्वरीय रानीतिक सत्तामूलक प्रणाली को चुनौती दे रहे थे ।अत: असुर विचारधारा  बौद्ध और लोकायतों को समाप्त कर दिया गया परन्तु इन्ही विचार धारा से निकले सिद्ध , योगी , नाथ  मत बड़े जोरदार ढंग से वैदिक सत्तामूलक विचारो के खिलाफ अलख जगाये हुए रहे ।

लेकिन सत्ताओं  के दमन के कारण उन्हें रोजगार , अपने निवास स्थान और परिवार  से बेदखल होना पड़ा । फिर भी वे किसी तरह अपना अस्तित्व बनाये रहें । वे रोजगार से बेदखल थे , रिस्तो के टूटने से रमतो की तरह दर दर भटकने के लिए मजबूर थे पर वे झुकने को तैयार नहीं हुए । उन्होंने कभी ईश्वरीय  सत्तामूलक ताकतों से समझौता नहीं किया , वे ब्रह्मणिक सत्ता की आँखों में कांटे की तरह चुभते , आज भी भारत में ये नास्तिक परम्परा के लोग जगह जगह बिखरे पड़े है । दक्षिण की सिद्धो की परम्परा का अध्ययन करते हुए विद्वानों ने माना है की इनका जीवन अत्यंत दयनीय स्थिति में रहा है पर ये अपने मार्ग से भटके नहीं और न कभी सत्तामूलको से समझौता किया ।

आज भी बंगाल के बाउलो को गीत गाते हुए और भीख मांगते देखा जा सकता है , इनके गीतों में विद्रोही तेवर  ईश्वरीय सत्ता के खिलाफ होते हैं ।

आगे चल के ये विचारधारा कबीरपंथीओ में तब्दील हो जाती है जो नए उल्लास से सत्तामूलक और शोषणकारी शक्तियो के सामने आ खड़ी हो जाती है ।


Thursday, 15 September 2016

नाटक मण्डली- कहानी



केशव ने बरसो से बंद पड़े गोदाम के दरवाज़े पर जड़े जंग लगे ताले को डुप्लीकेट चाभी से बड़ी मशक्क़त से खोला ।
कुण्डी खोल जैसे ही भीतर  दाख़िल होने के लिए दो पल्लो के दरवाजे पर अंदर की तरफ बल लगाया , एक पल्ला कब्जे समेत उखड के लटक गया ।कब्जे में लगी कीलें पूरी तरह से गल चुकी थीं और चौखट  दीमक लग जाने कारण जरा सा धक्का  सहन नहीं कर पाया था और कीलों सहित निकल गया ।

केशव ने लटके हुए दरवाजे को उठा के दीवार के सहारे से खड़ा किया ,हाथो में लगी धूल को झाड़ के गोदाम में दाखिल हुआ । अंदर गुप्प अँधेरा था , दरवाजे के दाहिने हाथ की दीवार पर लगे बोर्ड के सारे बटन दबा देने के बाद अंदर दो बल्ब पीली सी रौशनी लिए चमक उठे ।

गोदाम कोई 800 वर्ग फुट में रहा होगा,सामने की दीवार से लगे  चार तख़्ते बिछे हुए थे जिन पर चार दरियां फ़ैली हुई थी उन पर धूल इतनी जम गई थी की वह धूल का गलीचा लग रहा था ।तख़्तों के पीछे दीवार पर बड़ी सी कपडे की चादर  लटकी हुई थी जो दो तीन जगह से गल जाने के कारण फट चुकी थी , चादर पर जंगल का दृश्य बना हुआ था । तख्तो के थोड़े से आगे किन्तु सामने ही दो दरियाँ बिछी हुई थीं।
तख्तो और उसके पीछे लटकी चादर पर बने दृश्य  को देख के ऐसा लगता था की इसे किसी स्टेज की शक्ल दी गई थी ।छत पर , दिवार के कोनो में बड़े बड़े मकड़ी के जाले लग गए थे।

दाहिने हाथ पर एक बड़ा और उसके ऊपर एक छोटा संदूक रखे हुए थें।

दीवार में बनी हुई अलमारी में 4-5 लाउडस्पीकर रखे हुए थे, कुछ माइक और उनके तारो का एक बंडल बना हुआ पड़ा था ।अलमारी के नीचे वाले खाने में कई तरह की चखरियां रखी हुंई थी , इन चखरियो पर रंग बिरंगी पन्नियाँ चिपकी हुईं थी । जब रंग बिरंगी पिन्नी चढ़ी  चखरियो में बल्ब लगा घुमाया जाता तो ये स्टेज पर लाइट इफेक्ट्स का काम करतीं ।

केशव मंत्रमुग्ध सब देख रहा था ,वह आगे बढ़ा और मकड़ी के जालों को हाथ से साफ कर उस छोटे संदूक को उठा के एक कुर्सी पर रखता हुआ  उसे खोला ।सन्दूक सौंदर्य प्रसाधनो के सामनो से भरा पड़ा था , लिपस्टिक,काजल,बिंदी, पाउडर , विभिन्न प्रकार की मालाएं, विग आदि न जाने क्या क्या चीजे थी।

केशव विस्मित हो उन्हें  हाथ से स्पर्श कर रहा था   ,उसकी सांसे जैसे उसके धौकनी की तरह चल  रही थीं ।सर भारी होने लगा था उसका , जैसे भूली हुई  स्मृतियाँ ज्वालामुखी बन के विस्फोट करने के लिए व्याकुल हों।

फिर हुआ भी ऐसा, वह अतीत में कंही खो गया ।उसके बचपन की स्मृतियाँ सजीव हो उसके सामने ऐसी आ गईं।

वह देख रहा था की -

गोदाम में चहल पहल थी  , सामने जो चार तख़्ते जिन पर नई चादर बिछी थी वह नाटक के  रियल्सल का अस्थाई स्टेज थी ।पीछे जंगल वाली सीनरी उसके पिता जी लाये थे ताकि रियल्सल करते समय वास्तविक स्टेज का आभास हो।
उस सीनरी में बने जंगल का चित्र जिसमे पेड़ पौधे और  जानवर हैं उनको निहारना केशव को कितना अच्छा लगता  , उसे देख केशव को लगता जैसे वह जंगल में पहुँच गया हो ।

केशव के पिता जी की एक प्रसिद्ध नाटक मण्डली थी जिसका नाम "उत्सव नाटक मण्डली' थी ।उत्सव नाटक मण्डली का नाम दूर दूर तक प्रसिद्ध थी , उसके पिता जी स्वयं संचालन करते नाटक मण्डली का ।
शादी -ब्याह में तो लोग चार महीने पहले ही उनकी उनकी नाटक मंडली को बुक कर लेते । बारातियो की ख़ास मांग होती थी 'उत्सव नाटक मण्डली ' की , जिस बारत में उत्सव  नाटक मण्डली जाती तो उसे देखने के लिए लोग दूर दूर से आते ।कभी कभी तो आगे बैठने के लिए मार पीट तक हो जाती थी इसलिए सुरक्षा की जिम्मेदारी नाटक बुक करने वाले की होती ।

राजा हरीश चंद्र, लैला मजनू, एकलव्य - द्रोणाचार्य सीता वनवास, सुलताना डाकू  जैसे दर्जनों नाटक थे जिनकी धूम थी ,बिरहा गाने में तो कोई सानी नहीं था इस  मण्डली का  । इसके अतरिक्त रामलीलाओं में भी बुलाया जाता ।जब स्टेज पर केशव के पिता जी संवाद  बोलते तो उनकी अदाकारी पर लोग नोटों की बौछार कर देते ।असर यह था की बच्चे उनकी नकल करते अपने खेलो में ।

 मण्डली में तकरीबन 20 लोग और काम करते थे जिनमें आठ तो नाटक में संगीत देने वाले ही थे ।
नागड़ा, ढोलक , ताशे, डुग्गी ,मंजीरे , हारमोनियम , मटका, बैंजो जैसे जोशीले और मधुर  वाद्य यंत्र बजते तो दर्शको में जोश दुगना हो जाता ।कोसो दूर से ही पता चल जाता था की 'उत्सव मण्डली' आई  है।

जगराम, महिला  का किरदार निभाने वाला! जब महिला का मेकअप कर स्टेज पर आता तो कोई पहचान ही नहीं पाता की यह दो बच्चों का बाप है ।कमर को ऐसे लचक देता की महिला भी न कर पाये , दर्शक पंक्ति में बैठी महिलायें जल भुन जाती जगराम के नृत्य पर ।

हैदरअली , जोकर का किरदार निभाने वाला! छोटे से कद के हैदरअली को देखते ही कितना भी व्यक्ति तनाव में होता उसे हंसी आये बिना नहीं रहती ।बीसीयों तरह का चेहरे का एक्सप्रेशन बना लेता , जब नाड़े वाले कच्छा पहन और ऊपर से फटा हुआ कोट और हैट पहन के आता तो बच्चे बूढ़े सब गिर गिर पड़ते हँसते हुए ।

नत्थूलाल , नागड़ा बजाने वाला ! नाटक में जब जोशीला संवाद आता या युद्ध दृश्य आता तो  नागडा ऐसा बजाता की कलाकारों से अधिक जोश दर्शको में आ जाता ।

केशव को एक एक कर के सभी नाटक के  कलाकरों और वाद्य यंत्रो को बजाने वालो के नाम और उनके चेहरे बिलकुल स्पष्ट नजर आ रहे थे ।जब काम नहीं होता था तो वे लोग उसके पिता जी के साथ इसी गोदाम में अभ्यास करते । कितना रंगीन और गुलज़ार हुआ करता था यह गोदाम उन दिनों , आस पास के लोग भी आ जाते थी कलाकारों के अभ्यास को देखने ।जिन्हें गोदाम में अभ्यास देखने के लिए प्रवेश मिल जाता वे अपने को धन्य समझते।

 केशव  अक्सर इस गोदाम में नाटको का अभ्यास देखता,सभी कलाकार बहुत प्यार करते थे उससे बिलकुल अपने बच्चे की तरह।कभी कभी वह भी  बाल कलाकार के रूप में कोई छोटा मोटा पात्र निभा लेता।किन्तु उसके पिता जी चाहते थे की पहले वह आपनी पढाई ख़त्म कर ले ।

केशव का दाखिला शहर के बोर्डिंग स्कूल में करवा दिया गया,अब साल में केवल कुछ दिन के लिए ही वह अपने कस्बे में पिता जी से मिलने आता ।
जितनी बार भी मिलता उसके पिता पहले से अधिक हताश और कमजोर दिखाई देते , नाटक मण्डली में रौनक हर साल कम सी होती जा रही थी ।कई बार पिता जी इस बारे में पूछता तो वह हँस के टाल देते या यह कह देते की तबियत ख़राब होने के कारण नाटक मण्डली पर ध्यान नहीं दे पा रहे ।

खैर, दिन फिर साल बीतते गएँ केशव धीरे धीरे नाटक मण्डली के बारे में भूल गया ।उसने  ने पढ़ाई खत्म की और एक मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी कर ली ।नौकरी का अनुबंध ऐसा था की 10साल के लिए विदेश में रहना था ,यदि उसने बीच में अनुबंध तोडा तो उसका प्रोविडेंट फंड , बोनस आदि जितने भी लाभ हैं कँपनी की तरफ से वह नहीं मिलेगा बल्कि हर्जाना और भरना पड़ेगा।

इस बीच केशव के पिता जी की तबियत और खराब होती गई , नाटक कंपनी को बंद हुए कई साल बीत गए थे ।
केशव कई बार बीच में मिलने भी आया और बड़े हास्पिटल में इलाज भी करवाया किन्तु कोई फायदा न हुआ ।

अंत में तीन दिन पहले केशव को खबर मिली की उसके पिता जी अब नहीं रहें।

उनका क्रियाकर्म करने के बाद उसने सोचा की अब कौन रहेगा यंहा? क्यों की वह तो विदेश में ही सैटल होने का मन बना चुका था इसलिए  उसने मकान और गोदाम बेचने का मन बनाया ।आज उसने गोदाम को इसलिए खोला की उसकी थोड़ी मरम्मत करवा दे ताकि बेचने में अच्छी कीमत मिल सके '।

तभी एक तेज आवाज ने उसकी स्मृतियों के जाल को तोड़ा तो चौंक के जैसे जाग उठा हो ।
देखा तो एक बल्ब फट गया था , शायद इतने सालो बंद रहने के कारण हुआ था ।

केशव ने अब बड़ा बक्सा खोला तो उसमे कलाकारों के कपड़े और वाद्य यंत्र थे,हरमोनियम, मंजीरा ,ढ़ोलक,मुकुट ,तलवारे आदि भिन्न भिन्न प्रकार की चीजे भरी हुईं थी ।
केशव उन्हें एक एक कर उलट पलट कर देख रहा था ।
उसके लिए ये इन चीजो के प्रति उत्सुकता तो थी क्यों की ये सब चीज उसके बचपन से जुडी थी।किन्तु यह भी सही था की अब ये सब चीजे उसके लिए मात्र कबाड़ भर थी अतः वह खड़ा हुआ और  और कबाड़ी को फोन मिलाने लगा की तभी अचानक उसकी दृष्टि किसी चीज पर पड़ी , उसके नेत्र उत्सुकतावश सिकुड़ते चले गएँ....

आगे की केशव के साथ क्या घटित होता है यह जानने के लिए कहानी का अगला रोमांचाकारी भाग पढ़ना न भूलें....






Monday, 12 September 2016

पशुबलि और कृषि

जब मानव सभ्यता आरम्भ हुई तब इंसान अपने भोजन के लिए शिकार पर निर्भर था , वह समूह तो कभी अकेले छोटे बड़े जानवर का शिकार करता था ।

जैसे जैसे मानव विकाश होता रहा  शिकार के तरीको में भी बदलाव होता आया ,चुकी  शिकार करने में अधिक चपलता -फुर्ती और शरीरिक ताकत की जरूरत रहती इसलिए इस कार्य में पुरुषो की भागीदारी मुखयतः रही ।

मासिक धर्म अथवा गर्भवती होने पर स्त्रियों द्वारा शिकार में रही सही भागीदारी नगण्य हो जाती थी।अतः महिलाएं अमूमन निवास स्थान पर हर बच्चों की देखभाल अथवा कंदमूल एकत्रित करतीं ।

स्त्रियां रिक्त  समय में अपने झोपडी के आस पास खाली जमीन में उपयोग  हुए कंदमूल /फल के बीज बो देती और उनकी देखभाल करती जिससे आपातकाल में उन्हें भोज्य पदार्थो की सहायता मिल जाती।इसकी महत्वता देखते हुए स्त्रियों ने इसे थोडा बड़े पैमाने पर करना शुरू कर दिया अर्थात लकड़ी के नुकीले भाले नुमा औजार बना लिये  जिससे वे अधिक आसानी और कम श्रम में अधिक बीज बो देती।तब तक पुरषो का कोई हस्तक्षेप नहीं हुआ था इस में ,
इस प्रकार कृषि की खोज स्त्रियों द्वारा हुई ।अब तक कृषि पर पूर्ण अधिकार स्त्रियों का ही था ,पुरुष उसमे रूचि नहीं लेता था।

हाँ यह जरूर हुआ था की कुछ जानवरो को पालतू बना लिया गया था जिससे चरवाहा वर्ग का निर्माण हो गया था । किन्तु यह भी पुरुष प्रधान कार्य ही था , शिकार और पालतू पशु दोनों ही ऐसे कार्य थे जिसमे अधिक श्रम और कई कई दिन लग जाते थे अतः स्त्रियां इससे दूर रहती ।
शिकार और पशुपालन उस समय अर्थव्यवस्था का आधार बन गए ,चुकी इन कार्यो में पुरुष प्रधानता थी अतः पुरुषसत्तात्मक या पितृसत्तात्मक व्यवथा का निर्माण हुआ ।

जंहा कृषि प्रधान क्षेत्रो का विकास हुआ वंहा स्त्री सत्तात्मक व्यवस्था का निर्माण हुआ ।यदि भारत का ही उदहारण देखें तो बंगाल ,असम आदि ऐसे ही राज्य रहें जंहा मातृसत्तामक
संस्कृति का  उदय हुआ जिसकी झलक आज भी देखी जा सकती है ।

कृषि में  जैसे जैसे सुधार हुआ अर्थात इसमें हलो,कुदाल तथा अन्य उपकरणों का जैसे जैसे उपयोग बढ़ा उसमे पुरुष की भागीदारी बढ़ती गई ।कृषि अब अर्थव्यवस्था का सवसे मजबूत स्तंभ बन गई थी और पुरुष के कब्जे में भी आ चुकी थी , चारागाह की कमी और बस्तियां बसा के स्थाई रूप में रहने के कारण पुरुष सत्ता पूरी तरह से हावी हो गई थी कृषि पर ।स्त्रियां फिर से हाशिये पर डाल दी गईं।

पुरुष कृषि से जुड़ तो गया था किन्तु वह उस शिकारी प्रवृति जीवित रही जो पशुपालक रूप में  भी न छूट पाई थी , अर्थात पशु हत्या ।जब वह शिकारी था तो शिकार का एक भाग पवित्र मान  काबिले के पूज्य देवता  को खुश करने के लिए  अर्पित करता ।पशुबलि द्वारा कबीलाई देवता को खुश की परम्परा नरबलि तक के चरम तक पहुँच थी ,आप  धर्मीक / मज़हबी किताबो में  इस्माइल और शुन:शेप आदि की कहानियाँ पढ़ सकते हैं जो नरबलि का ही प्रकार था

पर गौर तलब था की पशुबलि केवल पुरुष ही देते थे , ऐसा बहुत कम उदहारण मिलेगा का की पशुबलि स्त्रियों द्वारा दी गई हो।कृषि में पशुबलि देना न के बराबर है , आप कृषि उत्सवो को देख सकते हैं चाहे नवेष्ठि हो , ओडम , बैसाखी या अन्य कृषि प्रधान पर्व हो उसमे बलि नहीं दी जाती ।

तो, क्या हमारे पास यह मानने के पर्याप्त कारण नहीं है की आज भी ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए पशुबलि देना उसी    पुरुष सत्तात्मक  मानसिकता का पुर्नजीवन होना  होता है जो जंगलो/पहाड़ो के शिकारी कबीलाई संस्कृति  से आरम्भ हुई और खानाबदोश चरवाहे  से लेके कृषि सत्ता परिवर्तन से लेके चला आ रहा है ?
 



Saturday, 10 September 2016

जानिए क्यों अवांछनीय होती है कन्याये

भारत में पुरुषो के अनुपात में महिलाओ की संख्या कम है यह जानकारी सर्वज्ञात है किन्तु बहुत से राज्यो में जिनमे हरियाणा , पंजाब शामिल हैं उनमे तो यह लिंगानुपात चिंता का विषय रहा है क्यों की इन राज्यो में महिलाओं की संख्या इतनी कम है की यंहा के पुरुष विवाह के लिए दूसरे राज्यो की महिलाओं को खरीद तक के ले आते हैं।

भारत में कन्या भूर्ण हत्या समस्या एक आम किन्तु गम्भीर समस्या रही है जिस कारण कन्यायो की संख्या निरन्तर कम होती गई ,कुप्रथाओं और रूढ़िवादी मानसिकता के चलते लोग कन्या पैदा होना अशुभ मानते हैं जिस कारण उनकी हत्या बड़ी निर्ममता से करते रहें हैं ।हलाकि सरकार ने भूर्ण लिंग जांच पर प्रतिबंध लगाया हुआ है और सजा का प्रवधान भी रखा है किन्तु अब भी डॉक्टर लालच में आ के यह जांच कर देते हैं और कन्या के पैदा होने से पहले ही उनकी हत्या कर दी जाती है ।

कन्या हत्या का एक प्रमुख कारण गरीबी और अशिक्षा  माना जाता रहा है ।गरीब माता पिता बच्चियो का लालन पालन असमर्थ होते हैं , किसी तरह पल भी गईँ तो फिर उनके विवाह का खर्चा उठाने की असमर्थता के भय से उनकी हत्या कर देते हैं ।
किन्तु यह सत्य प्रतीत नहीं होता , आज ऐसी खबरे आ रहीं है की समाज में सम्पन्न और पढ़े लिखे माता पिता भी अपनी कन्यायो की हत्या कर दे रहे हैं । कन्या भूर्ण जांच और उसकी हत्या करने वाला  अधिकतर परिवार पढ़ा लिखा और सम्पन ही होता है ।

हाल की ही एक चर्चित खबर पढ़ पढ़ लीजिए, जयपुर की एक कारोबारी की पत्नी जो की पढ़ी लिखी थी और आर्थिक रूप से सम्पन्न थी उसने अपनी चार माह की पुत्री की हत्या कर उसे एसी केबिनेट में डाल दिया ।
उस महिला की एक पुत्री और थी जो 8 साल की थी ,दुसरी भी बेटी पैदा होने से वह महिला इतनी अवसाद में थी की  उसने चार महीने की फूल सी बेटी के गर्दन पर 16 घाव किये उसको मारने के लिए ।सोचिये कितनी मानसिक रूप से विक्षिप्तत हो गई होगी वह महिला !

बेटे की इतनी चाहत थी उस महिला को की उसने हवन यज्ञ भी करवाया था , किन्तु हवन यज्ञ के बाद भी कन्या पैदा हुई ।बेटी के जन्म के बाद ही महिला तनाव में चली गई और अंत में उसकी हत्या ही कर दी उसने ।

अभिभावको द्वारा बेटे की इसी चाहत का नतीजा है की आज भी ऐसी खबरे सुनने और पढ़ने को मिलती हैं की फला तांत्रिक ने किसी दम्पत्ति से लाखो रूपये ऐठ लिए या नरबलि देते हुए कोई तांत्रिक पकड़ा गया ।

भारतीय लोग बेटे की चाहत में इतने पागल क्यों होते हैं ?यदि आंकड़े देखा जाए तो महिलाये ही कन्या भूर्ण हत्या की प्रत्यक्ष अपराधी अधिक पाई जाएँगी ।घर की महिलाये ही गर्भवती महिला पर अधिक दबाब डालती हैं बेटे के लिये ।ऐसा मैं इस किये कह सकता हूँ की मेरी भी दो बेटियां है ,बहुत बार हम पर भी दबाब बनाया मेरी माता और महिला रिस्तेदारो ने बेटे के लिए और यदाकदा अब भी यह दबाब जारी है ।

किन्तु इस 'बेटे की चाहत' के दबाब के पीछे क्या मानसिकता होती है ? जंहा तक मैं समझ पाया हूँ वंश बेल आगे बढ़ाने और आर्थिक सुधार मुख्य कारण होते है ।
भारतीय समाज पुरुष सत्तात्मक रहा है , जंहा घर की जिम्मेदारी और आर्थिक रूप से आगे बढ़ने की जिम्मेदारी पुरुषो के कंधे पर ही होती है ।
बेटियो का विवाह कर के विदा कर दिया जाता है ,बेटी के घर का पानी तक पीना माता पिता के लिए निषेध तक होता है अतः उनके जाने के बाद माता पिता असहाय हो जाते हैं ।

बुढ़ापे में देखभाल कौन करेगा?कौन आर्थिक रूप से सहायता करेगा? कौन कमाए धन का उपयोग करेगा जैसी कई समस्याएं खड़ी हो जाती है ।दामाद को 'यम'भी कहा जाता है समाज में ,सामाजिक प्रथा ऐसी की ससुर के मरने पर जमाई का कन्धा लगाना तो दूर उसकी शक्ल तक नहीं देखने दिया जाता ।श्मशान में चिता को आग पुत्र ही लगाएगा , श्राद्ध पुत्र ही करेगा तभी वैतरणी पार होगी ।

ऐतरेय ब्राह्मण जैसे धर्म ग्रन्थ कहते हैं 'कृपनं ह दुहिता'( 7/3/1) अर्थात पुत्री कष्टप्रदा और दुखदायनी होती है । उक्त अंश पर भाष्य करते हुए पुराने विद्वान् भाष्यकार सायणाचार्य कहते हैं "संभवे स्वजनदुःखकारिका ..... हृदयदारिका पितुः' अर्थात जब कन्या उत्पन्न होती है , तब स्वजनो को दुःख देती है , जब इसका विवाह करते हैं तब यह धन का अपहरण करती है , युवावस्था में बहुत सी गलतियां कर बैठती है इसलिए दारिका अर्थात लड़की पिता के हिर्दय को चीरने वाली कही गई है ।

समाज मे आज भी ऐसी धार्मिक मान्यताएं प्रचलित जिसमे कन्या पैदा होना दुःख माना जाता है , आपको अपनी बताऊँ जब मेरी पहली बेटी हुई तो किन्नर नेग मांगने नहीं आये ।जब मैंने उनके न आने का कारण पूछा तो बोलें की हम लड़की पैदा होने पर नेग नहीं लेते , लड़की पैदा होने की ख़ुशी नहीं मानी जाती ।मुझे घोर आश्चर्य हुआ था, मैं उनपर बहुत गुस्सा हुआ  और कहा की मुझे तो बहुत ख़ुशी हुई  की लड़की हुई ।

यह सत्य है की जब तक समाज में धर्मिक रूढ़िवादिता की मानसिकता रहेगी तब तक कन्याओ के प्रति नजरियां बदलना बहुत मुश्किल होगा ।जिस समाज की आँखे तब भी न खुले जब ओल्पिक जैसे प्रतियोगिता में देश का नाम बेटियां रोशन करती हों तो क्या कहा जा सकता है ?
यही कहा जा सकता है की अभी समाज को बदलने में काफी समय लगेगा ,खासकर जब तक की महिलाये आर्थिक रूप से स्वतंत्र नहीं हो जाती हैं ।


- संजय (केशव)

Thursday, 8 September 2016

आसमान का रंग काला क्यों - लघु कथा

बहुत समय पहले की बात है , एक गाँव में एक विद्वान् पण्डित जी रहते थे ।उनकी विद्वता के चर्चे दूर दूर प्रचलित थे , सभी धर्मिक ग्रन्थ उन्हें मौखिक रूप से याद थे ।

एक दिन गाँव के बीचो बीच पुराने बरगद की घनी छांव में लौकिक और अलौकिक विषयो पर प्रवचन दे रहे थे , भारी  भीड़ जमा थी ।पास ही चढावे के रुपयो से भरी थाली रखी हुई थी , रूपये थाली से बाहर झांकने लग गए थे इसलिए दूसरी तरफ पड़े दक्षिणा में मिले फलो के ढेर से एक सेब उठा के पंडित जी ने रुपयो के ऊपर रख दिया था ताकि रूपये  हवा से उड़े न ।
श्रोता पंडित जी प्रवचन शैली की विद्वता से मंत्रमुग्ध थे , तभी दूध मिश्री ग्रहण करने लिए कुछ क्षण के लिए पंडित जी ने अपनी वाणी को विश्राम दिया ।

तभी गांव का हरवाहा घुरहु उठा और बोला " महाराज एक ठो बात पूछक चाहत हइं"

पंडित जी को घुरहु का यूँ उठ के प्रश्न करना तनिक अरुचिकर लगा , किन्तु भरी सभा थी अतः मना भी न कर पाये .

" बोल रे घुरहु क्या प्रश्न है तेरा ? "
" महाराज ! ई आसमान का रंग काला काहे है ?" घुरहु ने पूछ ही लिया ।

पंडित जी को सपने में भी आशा न थी की अनपढ़ गंवार घुरहु ऐसा प्रश्न भी पूछ लेगा ।
आसमान का रंग काला कहे है ?ऐसा प्रश्न तो आज तक किसी पढ़े लिखे ने भी न पूछा था पंडित जी से , इस अनपढ़ हरवाहे के दिमाग में कैसे आया यह प्रश्न? । बड़ी भारी दुविधा में घेर दिया था पंडित जी को अपनपढ़ गांवर  ने आज ।
क्या करे अगर उत्तर न दें तो विकट किरकिरी हो जायेगी सभा में ,पर दें क्या ?  पंडित जी मन ही मन बहुत क्रोधित हुए घुरहु पर ... ससुरा ऐसा उल्टा प्रश्न पूछ लिया ।अकेले में पूछता तो दो झापड़ मार के भगा देते ससुरे को  किन्तु यंहा तो भरी सभा है ।


 पंडित जी में एक नज़र रूपये की भरी थाली पर डाली तो ऐसा लगा की पब्लिक थाली से अपने पैसे वापस ले जा रही है ।

उन्होंने तुरंत घबरा के दृष्टि घुरहु पर डाली जो अब भी हाथ जोड़े खड़ा मुस्कुरा रहा था , ऐसा लग रहा था की वह समझ गया था की पंडित जी के पास उसके प्रश्न का जबाब नहीं है .... विजयी मुस्कान थी उसके चेहरे पर ।

पंडित जी में गला साफ़ करते हुए घुरहु के प्रश्न का जबाब दिया " सुन रे मुर्ख! आसमान का रंग इसलिए काला है क्यों की कृष्ण जी का रंग काला था .... जब कालिया नाग पर चढ़ के भगवान् नाचने लगे थे तो उनका मुख आसमान तक पहुँच गया था , उसी वक्त भगवान् के मुखमंडल के रूप को देख के आसमान ने भी अपना रंग काला कर लिया था "

घुरहु को आशा न थी की पंडित जी ऐसा जबाब देंगे , उसके चेहरे का विजयी भाव एक दम से पराजित भाव में बदल गया , अब क्या कहे वह !कृष्ण के आगे तो वह भी हार गया ।

घुरहु को मौन देख भीड़ ने श्रद्धा से जयकारा लगाया -
" पंडित महाराज की ... जय "
" कृष्ण भगवान् की .... जय"

जयकारा लगाने वालो में घुरहु भी शामिल हो गया था , पंडित जी की विद्वता से पूरा पंडाल आनन्दित था ।

पंडित जी ने रुपयो की थाली की तरफ मुस्कुरा के देखा और चैन की सांस भरी ।




Wednesday, 7 September 2016

जानिये कैसे था भारत विश्व गुरु


" भारत कभी विश्व गुरु था " आपने अक्सर  लोगो को यह कहते हुए सुना होगा , पर वास्तव में क्या भारत कभी विश्वगुरु था या नहीं ?अधिकतर जनमानस के मन में यह प्रश्न उठता होगा की आखिर भारत को विश्वगुरु किस कारण कहा जाता था ?
जब भारत विश्व गुरु था तो उस समय किसका शासन काल था ?कौन सी संस्कृति थी भारत में जिसने भारत को विश्व गुरु बना दिया था ?

ऐसी कई शंकाएं आपके मन में भी उठी होंगी कभी न कभी ।

लीजिये ,इन सभी शंकाओ के उत्तर हाज़िर हैं -

भारत में सिकन्दर के आक्रमण के बाद इतिहास लिखना आरम्भ हुआ वह भी विदेशियो द्वारा अन्यथा भारतीय मनीषी तो पुराण पोथी लिख के जनता को अन्धविश्वास के जाल में उलझाये हुए थे ।सिकंदर के साथ आया हैरोटोडस ने भारत में सिकन्दर की विजयो और तत्कालीन भारतीय समाज का वृतांत लिखा , किंतु आज वह मूल रूप से उपलब्ध नहीं है ।

सिकंदर के बाद आया मेग्नस्थिज , उस समय मौर्य काल था जो की बौद्ध संस्कृति काल था । मेगस्थनीज ने बौद्ध संस्कृति के बारे में परवर्ती लेखको से सुना हुआ था अतः वह उत्सुक हो भारत आया ।मौर्य शासन में रह उसने लगभग 6 साल भारत में बिताएं और अध्ययन किया ।उसने तत्कालीन राजनैतिक और सांस्कृतिक वर्णन लिखा  जिसका नाम दिया'इंडिका "

पहली शताब्दी के कुछ पहले या उसके आरम्भ में बौद्ध संस्कृति भारत से बाहर  पहुंची तो बौद्ध संस्कृति को जानने और समझने की उत्सुकता वंहा के निवासियो में जागृत हुई और उन्होंने भारत को श्रद्धा पूर्वक देखा ।
चीन, जापान, कोरिया आदि ऐसे ही देश रहे।

 शुमाशीन - बौद्ध संस्कृति को जानने की लालक पैदा हुई चीनी इतिहासकार शुमाशीन ने जो पहली शताब्दी के प्रथम में आया , उसने कई बौद्ध ग्रन्थो का अध्ययन किया और अपना वृतांत लिखा किन्तु दुर्भाग्य से आज वह उपलब्ध नहीं ।

फाहियान- यह 399 इसा में भारत आया और 14 वर्ष तक भारत में रह बौद्ध संस्कृति और उसके ग्रन्थो का अध्ययन करता रहा ।उसने बौद्ध संस्कृति के नियम,परिपाटी, सिद्धांत तथा सामाजिक व्यवस्था का विवरण लिखा ।

बौद्ध धर्म में दीक्षित होने के बाद उसने बौद्ध धर्म के छिन्न भिन्न और अपूर्ण ग्रन्थो ख़ास कर विनयपिटक से खिन्न होके उसने भारत आके उसे पूर्ण जानने और मठो के नियमो से भली प्रकार सीखने का निश्चय किया ।
फाहियान में बौद्ध धर्म के प्रति इतनी ललक और श्रद्धा की उसने भारत आने के लिए अपनी जान तक की परवाह नहीं की ।वह भारत आने के अपने यात्रा विवरण में लिखता है -
"यंहा अनेक दुष्ट आत्माये रहती है और तपती गर्म हवाएँ है । जो भी यात्री इनका मुकाबला करता है वे उन्हें नष्ट कर देती हैं ।यंहा न तो आसमान में उड़ता पंक्षी दिखाई देगा और न जमीन पर कोई पशु ,तुम व्याकुल हो रास्ता खोजोगे पर वह तुम्हे नहीं मिलेगा ।रास्ते का संकेत केवल मरे हुए पशुओ और आदमियो की हड्डियां होंगी जो रेत पर बिखरी होंगी "


आप सोचिये की कितना जूनून रहा होगा फाहियान को बौद्ध धर्म के बारे में जानने का की वह मौत से लड़ता हुआ भारत आया ।इसके बाद वह भारत में कई साल रहा और सारनाथ, बोध गया, कुशी नगर,कपिलवस्तु , मगध, आदि बौद्ध स्थानो पर रह उसने बौद्ध धर्म के बारे में जाना ।
414इसा में वह वापस चीन पहुंचा।

हवेइ शंग और सुंग - ये 518 चीन से भारत आये , इनका मकसद था बौद्ध धर्म का अध्यन करना । ये अपने साथ बौद्ध धर्म के 170 ग्रन्थ लेके वापस गए ।

ह्वान सांग- यह चीन के प्रख्यात बौद्ध तीर्थ यात्रियों में सर्वाधिक उल्लेखनीय और सम्माननीय रहा ।बौद्ध अनुयायी बनने के बाद इसने भारत में और गहराई से बौद्ध धर्म को जानने की इच्छा व्यक्त की ।
इसने बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों की खोज में सुदूर और दुर्गम रास्तो से गुजर के भारत की यात्रा की
ह्वान सांग ने लगभग 657बौद्ध ग्रन्थो का चीनी अनुवाद किया । यह कन्नौज, मगध में रहा किन्तु अपना अधिकतर समय नालंदा महाविहार में अध्ययन में बिताया जो उस समय बौद्ध शिक्षा का केंद्र था ।

इतसिंग-ह्वान सांग के बाद अगला चीनी यात्री था , इसने चौदह वर्ष की उम्र में बौद्ध धर्म में प्रव्रज्या ली और 18 साल की उम्र में बुद्ध के देश भारत आने का निस्चय किया ।
654 इसा में बौद्ध धर्म के ग्रन्थ प्राप्त कर विनयपिटक के अध्ययन में ही पांच साल लगा दिए ।

इसके बाद बहुत से अन्य यात्री भारत में बौद्ध धर्म को जानने और समझने आते रहे जिनमे कोरिया , जापान , श्रीलंका , वर्मा , वियतनाम आदि कई देशो के तीर्थयात्री बुद्ध को अपना गुरु मान के और बौद्ध धर्म के बारे में गहराई से जानने ,समझने, अनुसरण करने आते रहे ।


तो, भारत इसलिए कभी विश्व गुरु कहा गया क्यों की उस समय बौद्ध धर्म जंहा जंहा फैला उन्होंने भारत को बुद्ध भूमि मान के इसे गुरु माना।


Monday, 5 September 2016

मास्टर जी - कहानी

अभी मास्टर ओमप्रकाश घर में घुसे ही थे की उन्हें किसी के रोने की आवाज सुनाई दी , कमरे में जा के देखा तो श्रीमती जी सब्जी काटते हुए सुबक रही हैं ।
" क्या हुआ ? रो क्यों रही हो ?" उन्होंने बगल में लटकाये झोले को सोफे पर पटकते हुए पूछा ।

ओमप्रकाश जी की बात सुन सब्जी काटना छोड़ चाक़ू टेबल पर पटकते हुए श्रीमती जी गुस्से से बोलीं-
" रोऊँ नहीं तो क्या हंसु?मेरे तो करम ही फूट गए जो आप जैसे मास्टर  से ब्याहि .... दो कौड़ी का आदमी भी मेरी इज्जत नहीं करता ... हर कोई धमका देता है "
" क्या हुआ बताओ तो सही ? .... किसने बेज्जती कर दी तुम्हारी ? किस की हिम्मत हुई ?" ओमप्रकाश जी पत्नी की बात सुन थोडा उत्तेजित हो गए
" अरे वो है न .... नासपिटा ... सब्जी वाला ...नन्दू ... उसी ने बेज्जती की है " श्रीमती जी ने आंसू पोछते हुए कहा
" वो नन्दू? उसका तो लड़का मेरे विद्यालय में पढता है कक्षा आठ में .... साले की इतनी हिम्मत ... स्कूल से न निकलवा दिया उसके बच्चे को तो कहना " ओमप्रकाश जी अब पुरे गुस्से में थे ।

" अजी जब निकालना तो निकालना ... अभी उसने भरे बाजार में मेरी बेज्जती कर दी उसका क्या ?" यह कह श्रीमती जी फिर रोने लगी ।
" तू रो मत !!..... ठीक है जाता हूँ उसके पास तेरी बेज्जती का बदला लेता हूँ ....साले की इतनी हिम्मत की हमारी घर की औरत की बेज्जती करे "  मास्टर जी इतना कह गुस्से में बहार निकल गए साथ में अपने 15 वर्षीय लड़के को भी ले गएँ।

बाजार में पहुंच के ....


" क्यों रे दो कौड़ी के सब्जी वाला होके मेरी बीबी की बेज्जती करता है " ओमप्रकाश जी ने नन्दू का कॉलर पकड़ एक झापड़ रसीद कर दिया ।
" मास्टर साहब....मास्स्.... साब!मेरी बात सुनिए " गिड़गिड़ाता हुए  नन्दू  ने अपना कॉलर छुटाने का भरकस प्रयास किया ।
"क्या बात सुनू साले!!....अपने लौंडे के दाखिले के लिए मेरे पैरो में गिर रहा था उस दिन और आज मेरे ही घर वालो की बेज्जती..... तुझे नहीं छोड़ूंगा....तड़ाक!" ओमप्रकाश जी ने नन्दू को चांटा लगा दिया ।
"साहब!....बीबी जी ही हमें उल्टा सीधा बोलीं थी और दो किलो मटर मुफ़्त मांग रही थी ...गरीब आदमी हूँ साहब मुफ़्त कैसे देता " नन्दू ने गिड़गिड़ाते हुए सफाई दी ।
" तेरा गरीबपना तो मैं निकलूंगा जब तेरी बेटे का नाम कटेगा स्कूल से और ऐसा सर्टिफिकेट बनाऊंगा की कंही कंही दाखिला नहीं मिलेगा उसे " ओमप्रकाश जी ने एक थप्पड़ और रसीद कर दिया यह कह।

तभी एक आवाज ने उनको रोक दिया ।

"रुकिए साहब ! क्यों गरीब आदमी को मार रहे हैं ?... छोड़ दीजिये इसे " इस आवाज़ ने सम्मानीय भरे लहजे में उन से निवेदन किया ।

यह एक 28-29 साल का युवक था , पतला और सांवला सा देखने में बिलकुल साधारण ।

मास्टर साहब को यूँ उस युवक का टोकना अच्छा न लगा , वे नन्दू को छोड़ उसे पास आएं और बोले -
" क्यों छोड़ दूँ ?तू कंही का लॉट साहब है क्या .....चल अपना काम कर "
" आप छोड़ दीजिये उसे और शांत हो जाइए ...गरीब आदमी है " युवक ने बड़े ठंढे लहजे में कहा
युवक की बात सुन ओमप्रकाश जी का गुस्सा सातवें आसमान पर था " गरीब आदमी है .... हैं ... गरीब आदमी है .... तो तूने ठेका लिया हुआ सभी का यंहा " इतना कह ओमप्रकाश जी ने एक जोरदार तमाचा युवक के गाल पर भी जड़ दिया ।

पर यह क्या तमाचा खा युवक क्रोधित होने की वजाय मुस्कुरा दिया ।किन्तु अचानक भीड़ से एक लंबा तगड़ा आदमी निकला और उसने ओमप्रकाश जी को इतना जोर से थप्पड़ मारा की ओमप्रकाश जी चक्कर खा के गिर पड़े , उस आदमी ने तुरंत चाकू निकाल लिया और ओमप्रकाश जी की गर्दन से सटा दिया । चाकू इतना जोर से सटा हुआ था की एक हल्की सी रक्त की धार निकल गई ।

ओमप्रकाश जी ने देखा यह तो उन्हें याद आया की यह तो वही आदमी है जिसने भरी भीड़ में एक आदमी को चाकू मार के हत्या कर दी थी पिछले महीने ।किसी ने भी पुलिस में गवाही नहीं दी थी उसके खिलाफ , बड़े आराम से यह उस व्यक्ति की हत्या कर वंहा से चला गया था ।यह तो माना हुआ  बदमाश है , ओमप्रकाश जी डर से थर थर काँपने लगे ।काटो तो खून नहीं वाली हालत हो गई थी डर से उनकी ।
इतने में दो लोग और आ गए , उनके हाथ में रिवाल्वर थी आते उन्होंने ओमप्रकाश पर तान दी ।ओम प्रकाश ने देखा तो उनका लड़का कोने में छुपा कॉप रहा था भय से , आज मौत निश्चित लग रही थी ओमप्रकाश जी को अपनी ।
इन्होंने पचासियो गाली अपनी पत्नी को दी मन मन में जिसके बहकावे में आ आज उनकी जान जाने वाली थी ।

" छोड़ दो इन्हें "अचानक सांवले से युवक ने आदेशात्मक आवाज में कहा ।
उसकी बात सुन यंत्रचलित मनुष्य भाँति उन लोगो ने ओमप्रकाश को छोड़ दिया , गर्दन से चाकू हट चुका था ।

"पाय लागू मास्टर जी " उस सांवले युवक ने ओमप्रकाश जी के पैर छूते हुए कहा ।
ओमप्रकाश जी की सहसा समझ नहीं आया की यह क्या हुआ ?वे तो उस युवक को पहचानते नहीं ।

" मैं लालजीत हूँ मास्टर जी , धनीराम मोची का बेटा .... याद है आपको कई साल पहले आपका ही शिष्य हुआ करता था "

" धनीराम मोची का लड़का .... लल्ला ?" मास्टर जी ने दिमाग पर बहुत जोर देके याद किया

लल्ला नाम से याद आया की तक़रीबन 18-20 साल पहले की बात रही होगी । धनीराम ने ओमप्रकाश जी से जूते के पैसे मांग लिए थे तो उन्होंने उसके पढाई में होनहार लड़के को स्कूल से ही निकलवा दिया था ।

" याद आया मास्टर जी ? मैं वही लल्ला हूँ " मुस्कुराते हुए लल्ला ने ओमप्रकाश जी से पूछा ।
"आपने मुझे स्कूल से निकाल दिया ऐसा केरेक्टर सर्टिफिकेट मेरा आपने बनाया की उसके बाद मेरा कंही दाखिला न हो पाया..... फिर हालात में मुझे चोर लुटेरा और हत्यारा बना दिया .... ये सब मेरे ही गुर्गे हैं .... कई सालो से पुलिस ने तड़ीपार किया हुआ था आज ही वापस आया हूँ "

लल्ला कहे जा रहा था और ओमप्रकाश जी जड़वत हुए सुने जा रहे थे , मानो लल्ला की एक एक शब्द उनके कानो में गूंज रहे हों ।

"मैं आपका कभी शिष्य रहा हूँ इसलिए आपके प्रति सम्मान ही मेरे दिल में .... आपको कोई कुछ नहीं कह सकता .... आप चाहें तो मुझे या नन्दू को मार लिजिये किन्तु उसके बेटे को स्कूल से न निकलयेगा .... मैं नहीं चाहता हूँ की फिर कोई लल्ला बने " इतना कह लल्ला ओमप्रकाश जी के सामने हाथ जोड़ के खड़ा हो गया ।

ओमप्रकाश जी के उपर जैसे हजारो ठंढे पानी के घड़े उड़ेल दिए गए हों ।उनके कानो में जैसे जोर जोर से हवा टकरा के सायं सायं की सीटी बजा रही हो ।


उनकी आँखों से झर झर आंसुओ के रूप में पश्चाताप सैलाब उमड़ पड़ा .... उन्होंने आगे बढ़ के अपने शिष्य को गले लगा लिया ।

बस यंही तक थी कहानी ...

फोटो साभार गूगल

Sunday, 4 September 2016

तलाक़ - कहानी

 आनन्द उम्र लगभग 40 साल ,एक घड़ीसाज ।कई सालो तक एक घड़ी की दुकान पर हैल्पर और फिर कारीगर का काम करने के बाद और एक एक रुपया बचा के आनंद ने एक ऐसी जगह  छोटी से दुकान ले ली थी जंहा अभी आबादी कम थी।

आबादी कम होने के कारण दुकान सस्ती मिल गई थी , परन्तु काम कम ही था ।आनंद शादीशुदा था और तीन बच्चों का बाप , तीनो लड़के ही थे पर अभी तरुण ।

जैसे जैसे समय बीतता गया आबादी और बढ़ती गई और आनंद का काम भी ,उस क्षेत्र में उस समय केवल एक मात्र आनंद ही घड़ीसाज था अतः दूर दूर तक मशहूर था ।
एक सुबह आनंद आपनी दुकान पर बैठा एक पुरानी घडी को खोल उसके कल पुर्जो में उलझा हुआ था की एक सुरीली सी आवाज सुनाई दी -
"नमस्ते "
आनन्द ने गर्दन ऊपर करते हुए चश्मे से देखा तो सामने एक महिला जो तकरीबन 38 साल की होगी खड़ी उसकी तरफ देख मुस्कुरा रही थी ।
"नमस्ते..... कहिये " आंनद ने हाथ में पकडे औजारो को एक तरफ रखते हुये कहा ।
"जी एक घड़ी सही करवानी थी " महिला ने एक छोटे से पर्स से घड़ी निकालते हुए कहा।

आनंद ने घड़ी को देखा तो यह सोनाटा कंपनी की लेडिस घडी थी ।

"क्या खराबी है इसमें ? "आंनद ने पूछा ।
" बंद हो गई है , डेढ़ साल पहले आपनी बेटी की शादी में दी थी "महिला ने उत्तर दिया ।

आनंद ने घड़ी खोल जांच की और बताया की 200 रूपये लगेंगे खर्चा सही होने में ।200 रूपये का नाम सुनते ही महिला बेचैन हो गई , उसने पूछा की क्या कम में बात नहीं बन सकती ? 200 रूपये नहीं हैं उसके पास ।

अब आंनद ने उस महिला को गौर से देखा । साधारण कद काठी , चेहरा बुझा हुआ होने के बाद भी आकर्षण लिए हुए था तन पर सस्ती सूती साड़ी उसकी निर्धनता का खुला संकेत कर रही थी।
आंनद ने एक पल सोचा और बोला -
" देखिये! हद से हद मैं अपनी मेहनत छोड़ भी दूँ तो इसमें जो सामान लगेगा उसकी कीमत 150 होगी ... इससे कम नहीं हो सकता "
" मेरे पास अभी 100 रूपये हैं ... ब्याहता लड़की की घड़ी है इसलिए बनवाना भी जरुरी है ... क्या आप 50 रूपये उधार कर सकते  हैं कुछ दिनों के लिए ?"महिला ने लाचारी भरे शब्दों में कहा ।

आंनद ने एक पल सोचा और फिर घड़ी की मरम्मत करने लग गया ।महिला सामने पड़े स्टूल पर बैठ गई ,घड़ी की मरम्मत करते समय एक आध बार आनंद और उस महिला की नज़रे मिलती तो दोनों मुस्कुरा देते ।

कुछ देर के परिश्रम के बाद आंनद ने घड़ी ठीक कर महिला को पकड़ा दिया , महिला ने पर्स से सौ का नोट निकाल उसे आंनद को पकड़ती हुई बोली -
" बहुत बहुत धन्यवाद आपका , बाकी के पचास रूपये 3-4 दिन में दे दूंगी "
आंनद ने पैसे गल्ले में डालते हुए कहा-
"कोई बात नहीं !आप अपना नाम बता दीजिये "
"कमला .....यंही 4गली छोड़ के रहती हूँ किराये पर "

इसके बाद कमला दुकान से चली गई , आंनद ने एक कॉपी में कमला का बकाया लिखा और यह सोचने लगा की अगर  50 रूपये न भी देगी तो पुर्जे तो 100 रूपये के ही गिरे हैं घड़ी में चलो कम से कम मूल तो दे ही गई ।

कमला को गए आज पंद्रह दिन से अधिक हो गए थे किन्तु वह लौट के न आई ,आंनद भी अपने पैसे भूल ही चुका था ।
उसने सोच लिया था की कमला अब वापस नहीं आएगी ।

पर आज 20 दिन बाद कमला अचानक आनंद की दुकान में आई तो आनंद को आश्चर्य हुआ और वह कमला को देख व्यंग से बोला -
" ओह! आप आ गईं !! मैंने सोचा था की अब आप वापस नहीं आएँगी "
" क्यों नहीं आती? मैं बेईमान नहीं हूँ ..... पैसे का इंतजाम नहीं हो पाया था इसलिए नहीं आई " इतना कह कमला ने 50 रूपये आंनद को थमा दिए ।

आंनद को लगा की शायद कमला को बुरा लग गया , उसने बात टालने के लिए दो चाय का ऑर्डर दे दिया ।कमला मना करती रही किन्तु आनंद को तो जैसे अपनी गलती की इसी बहाने क्षमा मांगनी थी ।

चाय आई तो , बातो का दौर भी शुरू हो गया ।कमला ने बताया की उसके तीन बच्चे हैं , दो लड़कियां और एक लड़का ।पति शराबी है और एक ट्रक का पर हैल्पर है अतः ज्यादा तर वह घर से दूर ही रहता है उसे घर से कोई मतलब नहीं रहता है न ही घर का खर्च देता है और न ही कोई अन्य सहायता करता है ।

कमला घरो में झाड़ू पोंछा कर के किराये के मकान में रह रही है , बड़ी लड़की की डेढ़ साल पहले गरीब लड़कियो का विवाह करवाने वाली सामूहिक संस्था के माध्यम से विवाह हुआ है ।छोटी लड़की 14 साल की होगी जो घर पर ही रह के छोटा मोटा काम करती है और लड़का अभी 10 साल का है और पढ़ रहा है ।कमला के दिन बढ़ी कठिनाई से गुजर रहे हैं , कई दिन तो ऐसा होता है की खाना न होने के कारण भूंखे ही सोना पड़ता है ।

कमला ने जब आपनी कहानी ख़त्म की तो कुछ  क्षणों तक ख़ामोशी छाई रही दूकान में। फिर आनंद ने जेब से कमला का दिया हुआ 50 का नोट निकाला और उसे कमला के हाथो पर रख यह कहते हुए ख़ामोशी को भंग किया -
" आप रखिये यह पैसे ... 100 रूपये में काम चल गया था मेरा "

बहुत प्रेशर देने पर कमला ने पैसे वापस रखे ।इसके बाद दोनों के मन में एक दूसरे के प्रति सहानभूति उत्पन्न हो गई ।

अब कमला को जब भी समय मिलता वह आनंद की दुकान पर आ जाती दोनों में देर तक बाते होती, कमला अपना सारा दुःख सुख आनंद से बांटती ।आनंद भी उसकी बाते गौर से सुनता और अपनापन दिखाता , आनंद कभी कभी आर्थिक मदद भी कर देता था कमला की ।

धीरे धीरे कमला और आनंद एक दूसरे से शारीरिक रूप से भी करीब आ गए थे किन्तु अभी तक यह बात किसी को पता न चली थी ।हाँ हुआ यह था की आंनद ने आर्थिक मदद बढ़ा दी थी कमला की , एक तरह से कमला और उसके दोनों बच्चों की जीविका का भार अब आनंद ही उठा रहा था ।कमला अब महंगी साड़ियां पहनती और घर में खाने की कमी न रहती ,उसने घरो में झाड़ू पोंछे का काम भी बंद कर दिया था ।लड़का भी अच्छे स्कूल में पढ़ने लग गया था ।सब तरह की सुख सुविधा अब हासिल करवा रहा था आनंद उन्हें ।

5-6 सालो तक यह रिश्ता यूँ ही चलता रहा।

बात तब खुली जब आनंद ने कमला की दूसरी लड़की की शादी में सारा खर्च उठाया , मामला यह पड़ा की आनंद ने स्वयम् के घर में पैसे देने कम कर दिए थे  ।करता भी क्यों न ?आखिर उसी घड़ीसाज के काम में इतना पैसा नहीं आता  था की दोनों घरो में भरपूर पैसा देते रहता आंनद।
कमला की लड़की के विवाह में कर्ज भी लिया था उसने अतः देनदारों का भी देना था उसको ।

अब घर में कलेश बढ़ने लगा , आनंद और उसकी पत्नी में मारपीट तक हो जाती ।बड़ा लड़का तक़रीबन 17 साल का था अतः वह भी खूब बुरा भला कहता आनंद को ।
किन्तु इससे वावजूद भी आनंद और कमला का साथ न छूटा । आनंद की पत्नी कई बार कमला के घर जाके भी खूब गलियां दे आई थी , साम-दंड दोनों पैतरे आजमा लिए थे कमला का साथ छुड़वाने के लिए किन्तु सब असफ़ल ।यंहा तक की आंनद कुछ दिन जेल भी रह के आ गया था पत्नी को प्रताणित करने के जुर्म में ।

आंनद भी अपनी पत्नी से थक चुका था , अब तो उसके सारे संबंधी भी पत्नी की तरफ हो गए थे और उसके खिलाफ। इस बीच आनंद पर कर्जदारो ने शिकंजा अधिक सख्त कर लिया था उसके ऊपर , फिर आनंद के ठीक से काम न कर पाने के कारण कमला को उसने पैसे देने बंद कर दिया था ।किराये के मकान में रहने वाली कमला का भी  पैसो को लेके दबाब बढ़ता जा रहा था उसके ऊपर।
वह मानसिक रूप से अत्याधिक विचलित  रहने लगा , थक हार के उसने अपनी दुकान बेचने का फैसला कर लिया ।घर वह बेंच नहीं सकता था क्यों की उस पर उसकी पत्नी और बच्चों का कब्ज़ा था जिनका सहयोग उसके रिस्तेदार कर रहे थे ।

दुकान बेचने के बाद उसने कमला के लिए एक घर लिया , जो पैसा बचा उसको कर्जदारो को देके पीछा छुड़ाया।
इधर जब पत्नी ने देखा की आनंद अब नहीं सुधरने वाला है तो उसने उसे तलाक देने का निश्चय किया पर इसके  ऐवज में जितनी भी संपत्ति बची थी गाँव और यंहा उसको अपने नाम करने की शर्त रखी।

आनंद ने सहर्ष यह शर्त स्वीकार कर ली क्यों की वह तो खुद अपनी पत्नी से छुटकारा चाहता था , उसने अपनी बची हुई सारी सम्पत्ति नाम कर दी ।

अब आनंद स्वतंत्र था ।

वह अब उस घर में रहने लगा जो उसने कमला को लेके दिया था किन्तु घर कमला के नाम ही था ।चुकी आनंद ने दुकान बेच दी थी तो अब वह एक किराये की दुकान लेके घड़ीसाज का काम करने लगा ।

धीरे धीरे कई महीने बीत गए,आंनद अब भी किसी तरह से कमला और उसके बेटे का भरण पोषण कर रहा था पर अब किराए की दुकान लेके।

" कमला!ये तुम्हारी बड़ी लड़की अपने बच्चों के साथ जब देखो आ जाती है और कई कई दिनों तक यंही रूकती है " एक दिन आंनद ने कमला से थोडा नाराज होते हुए पूछा ।
" हाँ तो?क्या हो गया ?" कमला ने रूखे स्वर में उत्तर दिया
" हो कुछ नहीं गया आर हमारा छोटा सा घर है ... सोने बैठने की परेशानी हो जाती है ... और फिर खर्चा बढ़ जाता है " आंनद ने कमला के उपेक्षित स्वर का जबाब दिया ।
"बेटी माँ के घर नहीं आएगी तो किस के घर जायेगी? तुम्हे क्या परेशानी?"कमला ने अब थोडा नाराज होके कहा ।
" परेशनी है न !घर का खर्चा मैं उठता हूँ और जगह की परेशानी अलग होती है मुझे " आनंद ने गुस्से भरे शब्दों में कहा ।

कमला कुछ और बोलती इससे पहले आनंद अपनी बात ख़त्म कर दुकान पर जाने के लिए बाहर निकल गया ।बात आई गई हो गई ।
कुछ दिनों बाद कमला की छोटी लड़की के बच्चा  पैदा हुआ , बच्चा पैदा होने पर ननिहाल से छूछक(नेग) आने की प्रथा थी ।जिसमे कमला ने लड़की के ससुराल वालो को कपडे , मिठाइयां , फल और कुछ जेवर देने की बात आनंद से की जिसका कुलमिला खर्चा 30 हजार के करीब आ रहा था ।

आंनद के लिए 30 हजार की रकम उस समय बहुत बड़ी लगी अतः उसने असमर्थता जाता दी ,किन्तु कमला को बहुत बुरा लगा इस बात का। वह बहुत लड़ी आनंद से ।

थोड़े दिनों बाद कमला की दोनों बेटियां एक साथ रहने आ गई कमला के घर ,खर्चा बहुत बढ़ गया आनंद का फिर से ढेरो रूपये कर्जा लेना पड़ा उसको ।वह अब चिढ़चिढ़ा होता जा रहा था , बात बात पर सभी से लड़ना उसकी आदत बन गई थी ।

कई बार तो उसे अपनी पहली पत्नी और बच्चों की बहुत याद आ जाती , वह व्याकुल हो उनसे मिलने चल देता किन्तु बीच रास्ते में उसे याद आता की उसने तो तलाक ले लिया है और वह आंसू लिए फिर वापस आ जाता ।झगड़ालू स्वभाव हो जाने के बाद रहा सहा घड़ी साज का काम भी जाता रहा , थक के उसे दुकान बंद ही करनी पड़ी।
अब वह बिलकुल बेरोजगार था , फटे हाल।दिन भर यूँ ही भटकते रहता ,रात को घर जाता तो कमला इसे खाने की जगह गालियां देती।

दिन यूँ ही बीत रहे थे ,आनंद अब बूढ़ा और कमजोर लगने लगा था । एक दिन किसी से आनंद ने अब एक बात और सुनी की कमला का पहला  पति घर वापस आ गया है ।
वह गुस्से में भरा घर पहुंचा और कमला से प्रश्न किया तो कमला ने  उत्तर दिया -
"क्यों नहीं रहेगा मेरा पति मेरे साथ? मैंने उसे तलाक थोड़े न दिया है ....वह मेरे साथ ही रहेगा....आखिर वह मेरे बच्चों का बाप है ...तुम कौन हो?"

कमला की बात सुन जैसे आंनद को ऐसा महसूस हुआ की जैसे किसी ने उसके शरीर के रक्त की एक एक बून्द निचोड़ ली हो । वह निढ़ल ,मूर्ति बना हुआ खड़ा रहा ,उसके दिमाग यही सोचने लगा -"वास्तव में मैंने दिया था तलाक अपनी पत्नी को ... मैंने छोड़े थे अपने बच्चे...कमला ने तलाक नहीं दिया था अपने पति को न बच्चे छोड़े "

वह बहुत देर तक मौन वंही खड़ा रहा ,कमला क्या क्या बोल रही थी उसे कुछ नहीं सुनाई आ रहा था । वह तो अपने मस्तिष्क में चल रहे अतीत और वर्तमान के प्रश्नो में तूफान में फंसा हुआ था ।

उस शाम के बाद आनंद को किसी ने नहीं देखा , न जाने कँहा खो गया था वह ।

बस यंही तक थी कहानी ...

Saturday, 3 September 2016

क्यों न खत्म हो तीन तलाक प्रथा ?

   मुस्लिम पर्सनल बोर्ड ने सुप्रीम कोर्ट के तीन बार तलाक और चार शादियों से सम्बंधित सुनवाई को यह तर्क देते हुए चुनौती पेश की है की कुरआन  इन मामलो में मुसलमानो पुरुषो को यह अधिकार देता है जिसमे संसोधन करना गैर इस्लामिक है ।

बोर्ड ने प्रमुखता से यह दलील दी है की शारीरिक रूप से पुरुष और महिला बराबर नहीं होते अतः शरीयत ने पुरुषो को तलाक लेने का हक़ दिया क्यों की उनमे फैसले लेने की क्षमता अधिक होती है ।किन्तु मेरे हिसाब से  इस बात का इतिहास गवाह है की पुरुष का अधिकतर फैसला वर्चस्ववादी ही होता है , उसके फैसले हमेशा दूसरे वर्गों पर शासन या अधिकार के ही पक्ष में होते हैं ।जितने भी विश्व में हिंसा या शोषण हुआ है उसका आधार कंही न कंही पुरुष का वर्चस्ववादी फैसले  ही रहे हैं ।


बोर्ड एक और दलील यह देता है की महिलाओ की अपेक्षा  पुरुष अपनी भावनाओ पर ज्यादा काबू कर सकते है ।
किंतु कठोर भावनाये  मानवीय मूल्यों और प्रेम  के साथ इंसाफ करने में बाधक हो सकती हैं ।यदि भावनाये अत्यधिक कठोर हों तो वे अन्धफैसलो की जननी हो सकती है जो सही गलत में  फैसला न कर केवल जिद में तब्दील हो सकती हैं तब ऐसे में महिलाओं को इंसाफ मिलने की उम्मीद नगण्य हो जाती है ।

बोर्ड का एक दलील यह है की यदि तीन तलाक न हो तो शौहर अपनी पत्नियो को मार सकते हैं।
किन्तु क्या बोर्ड की यह दलील वाकई अच्छा तर्क है ?नहीं !
सोचिये क्या फोन पर एकाएक किसी महिला को उसका पति तलाक दे देता है तो क्या यह उस महिला मरने से बदतर नहीं हुआ ?यदि कोई महिला तलाक देने से अचानक बेसहारा हो जाये तो क्या यह उसके मरने से बदतर नहीं हुआ ? चुकी तलाक के बाद खर्चे का प्रवधान शरीयत में नहीं है जैसा की चर्चित केस शाहबानो में हुआ था तो क्या यह उस बेसहारा स्त्री के मरने के बराबर नहीं हुआ ?

क्या गला काट के हत्या ही हत्या हुई , किसी स्त्री को बेसहारा छोड़ देना उसकी हत्या नहीं हुई?

फिर यदि तीन तलाक का प्रवधान इतना ही अच्छा होता तो मुस्लिम महिलाये इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में क्यों जाती?मुस्लिम महिलाओं को परेशानी थी तभी वे सुप्रीम कोर्ट गईं अपना दुःख लेके ताकि इस प्रथा को बंद किया जा सके ।
इसका अर्थ हुआ की मुस्लिम पर्सनल बोर्ड अपने ही समाज की महिलाओं की समस्याओ की खबर नहीं रखता ।

मुस्लिम पर्सनल लो बोर्ड की एक दलील यह है की ऐसा कुरआन का हवाला है की तीन तलाक वैध है और इसे बदला नहीं जा सकता।

किन्तु बोर्ड को शायद यह नहीं पता की दुनिया के लगभग 22 देशो में इस तीन तलाक प्रथा पर रोक लग चुकी है ।तुर्की, ट्यूनीशिया , पाकिस्तान यंहा तक को बांग्लादेश सहित कई इस्लामिक देश हैं जंहा यह प्रथा खत्म की जा चुकी है , तो क्या माना जाए की वे पवित्र कुरआन को नहीं मानते?।ट्यूनीशिया में तो आदलत के बाहर तलाक मान्य ही नहीं है ।

जब दूसरे इस्लामिक देशो में तीन तलाक की मान्यता ख़त्म की जा सकती है तो भारत में पर्सनल लॉ बोर्ड क्यों शुतुर्गमुर्ग बना हुआ ही ?


फोटो साभार गूगल