जब मानव सभ्यता आरम्भ हुई तब इंसान अपने भोजन के लिए शिकार पर निर्भर था , वह समूह तो कभी अकेले छोटे बड़े जानवर का शिकार करता था ।
जैसे जैसे मानव विकाश होता रहा शिकार के तरीको में भी बदलाव होता आया ,चुकी शिकार करने में अधिक चपलता -फुर्ती और शरीरिक ताकत की जरूरत रहती इसलिए इस कार्य में पुरुषो की भागीदारी मुखयतः रही ।
मासिक धर्म अथवा गर्भवती होने पर स्त्रियों द्वारा शिकार में रही सही भागीदारी नगण्य हो जाती थी।अतः महिलाएं अमूमन निवास स्थान पर हर बच्चों की देखभाल अथवा कंदमूल एकत्रित करतीं ।
स्त्रियां रिक्त समय में अपने झोपडी के आस पास खाली जमीन में उपयोग हुए कंदमूल /फल के बीज बो देती और उनकी देखभाल करती जिससे आपातकाल में उन्हें भोज्य पदार्थो की सहायता मिल जाती।इसकी महत्वता देखते हुए स्त्रियों ने इसे थोडा बड़े पैमाने पर करना शुरू कर दिया अर्थात लकड़ी के नुकीले भाले नुमा औजार बना लिये जिससे वे अधिक आसानी और कम श्रम में अधिक बीज बो देती।तब तक पुरषो का कोई हस्तक्षेप नहीं हुआ था इस में ,
इस प्रकार कृषि की खोज स्त्रियों द्वारा हुई ।अब तक कृषि पर पूर्ण अधिकार स्त्रियों का ही था ,पुरुष उसमे रूचि नहीं लेता था।
हाँ यह जरूर हुआ था की कुछ जानवरो को पालतू बना लिया गया था जिससे चरवाहा वर्ग का निर्माण हो गया था । किन्तु यह भी पुरुष प्रधान कार्य ही था , शिकार और पालतू पशु दोनों ही ऐसे कार्य थे जिसमे अधिक श्रम और कई कई दिन लग जाते थे अतः स्त्रियां इससे दूर रहती ।
शिकार और पशुपालन उस समय अर्थव्यवस्था का आधार बन गए ,चुकी इन कार्यो में पुरुष प्रधानता थी अतः पुरुषसत्तात्मक या पितृसत्तात्मक व्यवथा का निर्माण हुआ ।
जंहा कृषि प्रधान क्षेत्रो का विकास हुआ वंहा स्त्री सत्तात्मक व्यवस्था का निर्माण हुआ ।यदि भारत का ही उदहारण देखें तो बंगाल ,असम आदि ऐसे ही राज्य रहें जंहा मातृसत्तामक
संस्कृति का उदय हुआ जिसकी झलक आज भी देखी जा सकती है ।
कृषि में जैसे जैसे सुधार हुआ अर्थात इसमें हलो,कुदाल तथा अन्य उपकरणों का जैसे जैसे उपयोग बढ़ा उसमे पुरुष की भागीदारी बढ़ती गई ।कृषि अब अर्थव्यवस्था का सवसे मजबूत स्तंभ बन गई थी और पुरुष के कब्जे में भी आ चुकी थी , चारागाह की कमी और बस्तियां बसा के स्थाई रूप में रहने के कारण पुरुष सत्ता पूरी तरह से हावी हो गई थी कृषि पर ।स्त्रियां फिर से हाशिये पर डाल दी गईं।
पुरुष कृषि से जुड़ तो गया था किन्तु वह उस शिकारी प्रवृति जीवित रही जो पशुपालक रूप में भी न छूट पाई थी , अर्थात पशु हत्या ।जब वह शिकारी था तो शिकार का एक भाग पवित्र मान काबिले के पूज्य देवता को खुश करने के लिए अर्पित करता ।पशुबलि द्वारा कबीलाई देवता को खुश की परम्परा नरबलि तक के चरम तक पहुँच थी ,आप धर्मीक / मज़हबी किताबो में इस्माइल और शुन:शेप आदि की कहानियाँ पढ़ सकते हैं जो नरबलि का ही प्रकार था
पर गौर तलब था की पशुबलि केवल पुरुष ही देते थे , ऐसा बहुत कम उदहारण मिलेगा का की पशुबलि स्त्रियों द्वारा दी गई हो।कृषि में पशुबलि देना न के बराबर है , आप कृषि उत्सवो को देख सकते हैं चाहे नवेष्ठि हो , ओडम , बैसाखी या अन्य कृषि प्रधान पर्व हो उसमे बलि नहीं दी जाती ।
तो, क्या हमारे पास यह मानने के पर्याप्त कारण नहीं है की आज भी ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए पशुबलि देना उसी पुरुष सत्तात्मक मानसिकता का पुर्नजीवन होना होता है जो जंगलो/पहाड़ो के शिकारी कबीलाई संस्कृति से आरम्भ हुई और खानाबदोश चरवाहे से लेके कृषि सत्ता परिवर्तन से लेके चला आ रहा है ?
जैसे जैसे मानव विकाश होता रहा शिकार के तरीको में भी बदलाव होता आया ,चुकी शिकार करने में अधिक चपलता -फुर्ती और शरीरिक ताकत की जरूरत रहती इसलिए इस कार्य में पुरुषो की भागीदारी मुखयतः रही ।
मासिक धर्म अथवा गर्भवती होने पर स्त्रियों द्वारा शिकार में रही सही भागीदारी नगण्य हो जाती थी।अतः महिलाएं अमूमन निवास स्थान पर हर बच्चों की देखभाल अथवा कंदमूल एकत्रित करतीं ।
स्त्रियां रिक्त समय में अपने झोपडी के आस पास खाली जमीन में उपयोग हुए कंदमूल /फल के बीज बो देती और उनकी देखभाल करती जिससे आपातकाल में उन्हें भोज्य पदार्थो की सहायता मिल जाती।इसकी महत्वता देखते हुए स्त्रियों ने इसे थोडा बड़े पैमाने पर करना शुरू कर दिया अर्थात लकड़ी के नुकीले भाले नुमा औजार बना लिये जिससे वे अधिक आसानी और कम श्रम में अधिक बीज बो देती।तब तक पुरषो का कोई हस्तक्षेप नहीं हुआ था इस में ,
इस प्रकार कृषि की खोज स्त्रियों द्वारा हुई ।अब तक कृषि पर पूर्ण अधिकार स्त्रियों का ही था ,पुरुष उसमे रूचि नहीं लेता था।
हाँ यह जरूर हुआ था की कुछ जानवरो को पालतू बना लिया गया था जिससे चरवाहा वर्ग का निर्माण हो गया था । किन्तु यह भी पुरुष प्रधान कार्य ही था , शिकार और पालतू पशु दोनों ही ऐसे कार्य थे जिसमे अधिक श्रम और कई कई दिन लग जाते थे अतः स्त्रियां इससे दूर रहती ।
शिकार और पशुपालन उस समय अर्थव्यवस्था का आधार बन गए ,चुकी इन कार्यो में पुरुष प्रधानता थी अतः पुरुषसत्तात्मक या पितृसत्तात्मक व्यवथा का निर्माण हुआ ।
जंहा कृषि प्रधान क्षेत्रो का विकास हुआ वंहा स्त्री सत्तात्मक व्यवस्था का निर्माण हुआ ।यदि भारत का ही उदहारण देखें तो बंगाल ,असम आदि ऐसे ही राज्य रहें जंहा मातृसत्तामक
संस्कृति का उदय हुआ जिसकी झलक आज भी देखी जा सकती है ।
कृषि में जैसे जैसे सुधार हुआ अर्थात इसमें हलो,कुदाल तथा अन्य उपकरणों का जैसे जैसे उपयोग बढ़ा उसमे पुरुष की भागीदारी बढ़ती गई ।कृषि अब अर्थव्यवस्था का सवसे मजबूत स्तंभ बन गई थी और पुरुष के कब्जे में भी आ चुकी थी , चारागाह की कमी और बस्तियां बसा के स्थाई रूप में रहने के कारण पुरुष सत्ता पूरी तरह से हावी हो गई थी कृषि पर ।स्त्रियां फिर से हाशिये पर डाल दी गईं।
पुरुष कृषि से जुड़ तो गया था किन्तु वह उस शिकारी प्रवृति जीवित रही जो पशुपालक रूप में भी न छूट पाई थी , अर्थात पशु हत्या ।जब वह शिकारी था तो शिकार का एक भाग पवित्र मान काबिले के पूज्य देवता को खुश करने के लिए अर्पित करता ।पशुबलि द्वारा कबीलाई देवता को खुश की परम्परा नरबलि तक के चरम तक पहुँच थी ,आप धर्मीक / मज़हबी किताबो में इस्माइल और शुन:शेप आदि की कहानियाँ पढ़ सकते हैं जो नरबलि का ही प्रकार था
पर गौर तलब था की पशुबलि केवल पुरुष ही देते थे , ऐसा बहुत कम उदहारण मिलेगा का की पशुबलि स्त्रियों द्वारा दी गई हो।कृषि में पशुबलि देना न के बराबर है , आप कृषि उत्सवो को देख सकते हैं चाहे नवेष्ठि हो , ओडम , बैसाखी या अन्य कृषि प्रधान पर्व हो उसमे बलि नहीं दी जाती ।
तो, क्या हमारे पास यह मानने के पर्याप्त कारण नहीं है की आज भी ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए पशुबलि देना उसी पुरुष सत्तात्मक मानसिकता का पुर्नजीवन होना होता है जो जंगलो/पहाड़ो के शिकारी कबीलाई संस्कृति से आरम्भ हुई और खानाबदोश चरवाहे से लेके कृषि सत्ता परिवर्तन से लेके चला आ रहा है ?
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