Saturday, 17 September 2016

नास्तिकता और सत्तामूलक ईश्वरीय संस्थाएं

नास्तिकता और ईश्वरीय सत्तामूलक संस्थायें-

भारतीय दार्शनिक परम्परा की दो कोटिया निर्धारित की गई हैं , वेदों और ईश्वर को मानने वाले आस्तिक और वेदों और ईश्वर को न मानने वाले नास्तिक ।

नास्तिको के खिलाफ समस्त धार्मिक ग्रंथो में ढेरो अपशब्द कहे गएँ है , उन्हें अभिशप्त किया गया वे असुर परम्परा में रखे गए हैं । असुरो के विरुद्ध देवतो का लगातार युद्ध ठना रहा है , असुरो के वध के लिए भगवान् बार बार अवतार लेते रहते हैं ।

कौटिल्य ने जो दार्शनिक वर्गीकरण किया है उसमे सांख्य, न्याय , योग, वेदांत , मीमांसा और वैशेषिक प्रणाली को आस्तिक वर्ग में रखा है जबकि लोकायत , बौद्ध और जैन को नास्तिक प्रणाली में । कौटिल्य ने ये वर्गीकरण वेदों पर आस्था न होने और होने के कारण किया है ।

एक राजनितिक सत्तामूलक के लिए वेद अथवा ईश्वर निंदा या निषेध वेद पोषक वर्ग के लिए असहनीय था । इसलिए वेद निंदकों के लिए कठोर दंड और नर्कों के आतंक का भरपूर प्रवधान किया जाने लगा । वेद निंदा इतनी असहनीय थी की सांख्य जैसे दर्शन जो कपिल मुनि द्वारा प्रतिपादित था उसे आस्तिक दर्शन मान लिया गया जबकि कपिल को नास्तिक कहा गया परन्तु वेदों के समर्थन के कारण उसे बाद में आस्तिक दर्शन मान लिया गया ।

कौटिल्य का सुझाया उपाय जिसमे राजसत्ता कायम रखने के लिए अन्धविश्वास को बढ़ावा दिया जाना चाहिए उसने भारतीय समाज को अज्ञानता की बेडियो में जकड़ लिया । राजसत्ताये तरह से टोटके और अन्धविश्वास का सहारा लेने लगी , इन अंधविश्वासों को जनता में पैठ बैठाने के लिए पुरोहित वर्ग आगे रहा । नए नए ग्रन्थ लिखे जाने लगे , वेदो का आधार लेके पुराण आदि मिथकीय ग्रंथो की रचनाये तेजी से होने लगी ।

ब्रह्मणिक व्यवस्था आधारित साधुओ की परजीवी परम्परा बड़े काम आई। इन साधुओ से दो लाभ थे , एक तो ये जाति प्रथा को कठोरता से बनाये रखने में भरपूर मदद करते दूसरे मठो, आश्रमो में दीक्षित साधू कथा वाचको , प्रचारको के रूप में गृहस्थ लोगो के घरो में प्रवेश कर कर्मकांडो की पैठ बनाते । भारतीय समाज में अन्धविश्वास और कर्मकांडो का तानाबाना इन्ही साधुओ की देन है ।

 चुकी आस्तिक के सबसे बड़े शत्रु नास्तिक ही थे जो उनके अन्धविश्वास और ईश्वरीय रानीतिक सत्तामूलक प्रणाली को चुनौती दे रहे थे ।अत: असुर विचारधारा  बौद्ध और लोकायतों को समाप्त कर दिया गया परन्तु इन्ही विचार धारा से निकले सिद्ध , योगी , नाथ  मत बड़े जोरदार ढंग से वैदिक सत्तामूलक विचारो के खिलाफ अलख जगाये हुए रहे ।

लेकिन सत्ताओं  के दमन के कारण उन्हें रोजगार , अपने निवास स्थान और परिवार  से बेदखल होना पड़ा । फिर भी वे किसी तरह अपना अस्तित्व बनाये रहें । वे रोजगार से बेदखल थे , रिस्तो के टूटने से रमतो की तरह दर दर भटकने के लिए मजबूर थे पर वे झुकने को तैयार नहीं हुए । उन्होंने कभी ईश्वरीय  सत्तामूलक ताकतों से समझौता नहीं किया , वे ब्रह्मणिक सत्ता की आँखों में कांटे की तरह चुभते , आज भी भारत में ये नास्तिक परम्परा के लोग जगह जगह बिखरे पड़े है । दक्षिण की सिद्धो की परम्परा का अध्ययन करते हुए विद्वानों ने माना है की इनका जीवन अत्यंत दयनीय स्थिति में रहा है पर ये अपने मार्ग से भटके नहीं और न कभी सत्तामूलको से समझौता किया ।

आज भी बंगाल के बाउलो को गीत गाते हुए और भीख मांगते देखा जा सकता है , इनके गीतों में विद्रोही तेवर  ईश्वरीय सत्ता के खिलाफ होते हैं ।

आगे चल के ये विचारधारा कबीरपंथीओ में तब्दील हो जाती है जो नए उल्लास से सत्तामूलक और शोषणकारी शक्तियो के सामने आ खड़ी हो जाती है ।


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