Thursday, 18 October 2018

रावण चरित्र


वाल्मीकि रामायण के अनुसार राक्षस जाती की तीन शाखाएं थी ,विराद,दानव और राक्षस ।रावण तीसरी शाखा का नायक था ,वाल्मीकि रामयण  उत्तर कांड ४-११ के अनुसार ब्रह्मा ने जलसर्ष्टि कर के उसकी रक्षा के लिए निमित्त प्राणियों की उत्पति की , जो क्षुधा पीड़ित थे वो बोल उठे ‘ रक्षाम:’  हम रक्षा करेंगे । जो क्षुधा पीड़ित नही नही थे वे बोल उठे
'यज्ञम:' ।इस प्रकार  रक्षा करने वाले प्राणी राक्षस और यज्ञ करने वाले प्राणी यक्ष कहलायें।  रावण उन्ही रक्षा करने वाले प्राणियों का नायक हुआ ।


रावण के दस सिर और बीस भुजाओं का वर्णन वाल्मीकि रामायण में भी आया है पर एक-दो स्थानों पर ,वो भी शायद बाद में जोड़ा गया है । वास्तव में रावण की बड़ी थी जिस कारण वो “दसग्रीव” या एक ही सर पर दस सिरों का बल रखने वाला कहलाया |
दरअसल ‘दशानन ” का भाव है की उसने दसो दिशाओं को जीता या दस प्रकार मणियों को धारण किया । यदि नाम के आधार पर ही उसे दस सिरों वाला या बीस भुजाओं वाला मान लें तो दशरथ को तो दस रथो वाला मानना चाहिए ।

दरअसल दस सिर और बीस भुजाओं , बीस आंखे सूक्ष्म दृष्टी ,अद्वितीय वीरता ,अनगिनत विजय , बुद्धिमानता, पांडित्य का प्रतीक था । रावण एक सिर वाला और दो भुजाओं वाला मानव था , जैसा की वाल्मीकि रामायण के हनुमान द्वारा लंका रावण दर्शन , अशोक वाटिका और मंदोधारी विलाप से भी सिद्ध होता है।

देखें  सीता की खोज में लंका पहुचे हनुमान रावण को पलंग पर सोता हुआ देख क्या कहते हैं
  तस्य ……….महामुखत,(वाल्मीकि रामायण सुन्दर कांड १०/२४)
 (अर्थात हनुमान ने रावण को पलंग सोते हुए देखे जिसके एक सर और दो भुजाएँ थी )
हाँ , अनार्य होने के कारण उसका रंग अवश्य काला था ।

कुबेर से लंका अपने अधिकार में लेने के बाद उसका यश वैभव दूर दूर तक फैल गया , रावण ने जल्दी ही अपनी  वीरता से अंगद्वीप (सुमात्रा ) ,यवद्वीप (जावा ) ,मलायाद्विप ( मलाया) ,शंख द्वीप ( बोर्नियों ), कुश द्वीप ( अफ्रीका ) , वराह द्वीप ( मेडागास्कर ) आदि दक्षिणी द्वीप समूहों  को जीत लिया । उसने देव , दानव , असुर , गन्धर्व , यक्ष आदि उस समय की लगभग सभी जातियों को जीत लिया , इस प्रकार रावण उस समय का सबसे बड़ा और शक्तिशाली राज्य की स्थापना की उससे पहले ऐसा कोई नहीं कर पाया था ।


 रावण  राजनैतिक और सांस्क्रतिक रूप से भी बहुत महत्वपूर्ण और शक्तिशाली सम्राट था उसने आदित्य और यक्ष जाती को मिला के राक्षस संस्कृति की स्थापन की । राक्षस संस्कृति का मूल मन्त्र था -अखिल विश्व को एक धर्म और एक संस्कृति में दीक्षित करना , इस प्रकार ये रावण ही था जिसने स्वप्रथम अखिल विश्व में एकता का उद्घोष किया । इस उद्देश्य से सर्व प्रथम  उसने ही वेदका संपादन , वैदिक रचनाओं पर नविन टिप्पणियां , मूल मन्त्रों की  व्याख्या की ।रावण द्वारा प्रतिपादित यह नवीनभाष्य ही आज ” कृष्ण यजुर्वेद ” के नाम से पुकारा जाता है ।

रामकथा रचियताओं ने रावण को परस्त्रीगामी कहा है , पर ये आरोप भी गलत हैं । रावण ने सभी स्त्रिओं को  विवाह करके ही हासिल किया था  विलासिका , मंदोदरी , कुमुद्वती , सुभद्रा , प्रभावती आदि रानियों ने रावण को स्वयं वारा था अथवा उनके पिताओं ने स्वयं रावण को प्रदान किया था ।

लंका देख कर हनुमान जी कहते हैं …
स्वर्गोsय …..मारुतिः ( वाल्मीकि रामायण , सुन्दर कांड 9/31)
अर्थात -लंका को उन्होंने देवताओं का वास और स्वर्ग के सामान कहा , लंका उन्हें इंद्र लोक की तरह लगी जहाँ सब कुछ उत्तम था )
यदि रावण निर्दयी या दुष्ट होता तो उस समयकालीन हनुमान उस के पाप आचरण से परिचित होते , यदि परिचित थे तो फिर दुष्ट निर्दयी और पापी की नगरी को देव लोक और इंद्र लोक  के सामान सामान क्यों कहा ? वास्तव में रावण एक कुशल प्रशासक था जिसकी तारीफ हनुमान जी ने स्वयम की ।

वाल्मीकि रामायण में ऐसे बहुत से प्रसंग मिल जायेंगे जो रावण की उस छवि के विपरीत हैं जैसा आज प्रदर्शित किया जाता है। दरसल राम और रावण का युद्ध कुछ और नही द्रविण /नाग संस्कृति को मिटा वैदिक संस्कृति का विस्तार भर था ।जंहा सीता जी मात्र एक जरिया थीं ( ऐसा स्वयं राम भी युद्ध कांड में सीता जी से कहते हैं ) । यह सर्वज्ञात है कि विजेता हारे हुए को दुष्ट, पापी आदि बता के अपनी जीत को जायज ठहरता है.... रावण के साथ भी यही हुआ ।


Tuesday, 25 September 2018

यम और आर्य

इतिहासकारो का मानना है कि लगभग 1700 ईसा पूर्व आर्यो की पहली लहर यूरेशिया ( वर्तमान उज़्बेकिस्तान, ईरान, मीडिया( {फ़ारस}  आदि  )से और दूसरी ईसा के पहली सदी के आस पास भारत पहुँची । मुख्यत:  आर्यो के  चारागाह लंबे सूखे के कारण मवेशियों और उनके भरण पोषण के लिए पर्याप्त नही थे अतः देशांतरण उनकी मजबूरी थी ।

इस बात की पुष्टि हित्ती मुहरों पर उत्कीर्ण विशिष्ट कूबड़ वाले भारतीय बैल के चित्र से स्पष्ट हो जाती है। हित्ती भाषा भी मूल रूप से आर्य भाषा ही है , खत्ती शब्द  हित्ती का पर्याय है जो संस्कृत में क्षत्रिय बन जाता है और पालि में खत्तिय । सिन्धु सभ्यता को नष्ट करने में लोहे के हथियारों का महत्वपूर्ण योगदान रहा था , लोहे का ज्ञान हित्तियो द्वारा ही भारत में पहुँचा।

ईरान , मीडिया ,उज्बेकिस्तान के लोग संस्कृत से मिलती जुलती भाषा बोलते थे , जावेस्ता में तो एक चौथाई शब्द संस्कृत के ही जान पड़ते हैं। 1400 ईसा पूर्व के आस पास के मितन्नी अभिलेखों से पता चलता है कि भारतीय आर्य देवताओ की उपासना करने वाले लोग ईरान की उरमिया झील ( उर प्रदेश) के पास बसे हुए थे , संस्कृत ग्रन्थों में उर स्थान का जिक्र बहुत बार आया है। ऋग्वैदिक अप्सरा उर्वशी उर प्रदेश की ही थी। ईरान में इन्द्र, मित्र, वरुण आदि देवताओं की पूजा होती थी परंतु ज़रतुशत/ ज़रदुश्त द्वारा बहिष्कृत करने और फिर नए आश्रय की तलाश में ये वंहा से पलायन कर गयें। बाद में ईरानियों ने मित्र , वरुण , इन्द्र आदि की पूजा बंद कर दी किंतु अग्नि को भारतीय आर्य की तरह पूजते रहें।

ईरानी ग्रन्थो में राजा यम / यिम के 'वर' की जानकारी मिलती है , यह वर ऐसा आयताकार स्थान था जंहा मृत्यु, जाड़े की शीत या पाप घुस नही सकती थी , यह वही स्वर्गलोग था जिसका सीमित वर्णन  संकृत ग्रन्थों में आता है । निषेध भंग के कारण दंड की भागी बनी जनता को बचाने के  लिए राजा यम ने स्वयं मृत्यु को अपनाया इस प्रकार वह पहला मरने वाला देवता बना। ऋग्वेद में भी वह पहला मरने वाला देवता है आज भी मृत्यु का देवता है , प्राचीन समय मे जब किसी की मृत्यु होती थी तो वह यम की नगरी में ही अपने पूर्वजो से मिलता था। बाद में यम यातनाएं देने वाला  नरक का देवता बना  दिया गया ।

ग्रन्थो में जिस प्रकार की वर/ यमलोक की जानकारी मिलती है ठीक उसी प्रकार की लंबाई चौड़ाई के आयताकार बाड़े को सोवियत पुरातत्व विद्वानों ने उज्बेकिस्तान में खोज निकाले हैं, इस 'वर/ यम लोक ' का जिक्र आचार्य चतुरसेन जी ने भी अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ' वयं रक्षाम: में किया है।  वर में पत्थर की दीवारों से बने छोटे छोटे कमरे बने हुए थे जिनमें वे संकट के समय रहते थे और बीच की खुली जगह में अपने पशुओं को बांध देते थे। यम और उसका वर/यमलोक( अधिकार क्षेत्र) एक सत्यता थी जिसकी यादे आर्य अपने साथ भारत लाएं।

यही 'वर/ यमलोक' बाद में यूनानी आख्यानों में औजियन ( गंदगी से भरा) की अश्वशाला के रूप में वर्णित हुआ जिसे यूनानी देवता हेराक्लीज ने साफ किया ।

Saturday, 15 September 2018

जानिए गणपति के मूषक का रहस्य-

  आपने मेरे पहले लेख में पढ़ा कि गणपति के हस्ती मुख होने के पीछे क्या कारण हो सकते हैं? कैसे गुप्त काल मे  गणपति अर्थात गणों( संघ) के नायक का परिवर्तन कर उन्हें देवता बनाया गया । जैसा की बताया गया कि गणपति का हस्ती मुख दरसल उन राजसत्ताओं का प्रतीक था जिनका सम्बन्ध हाथी टोटम से रहा होगा। जैसे कि मतंग सत्ता, खरगेवाल सत्ता आदि

गणपति की मूर्ति का दूसरा अभिन्न अंग होता है मूषक, मूषक को उनकी सवारी के रूप में दर्शाया जाता है। क्या एक चूहा किसी व्यक्ति की सवारी हो सकता है? तो, आईए इस भाग में जाने की दरसल  वह मूषक किसका प्रतीक है।

प्रसिद्ध इतिहासकार केपी जायसवाल (1881-1937) अपनी पुस्तक ' इंडियन हिस्ट्री' में कहते हैं कि" हमे प्राचीन इतिहास में चूहों अथवा मूषकों का भी उल्लेख मिलता है। मूषक वही थे जो प्राम्भिक ग्रीक कथाकारों की कथाओं में मूसिकन कहलाते थे।मूषक और मूसिकन दोनों नामो में काफी समानता है। यदि यह बात सत्य है तो यदि हमें ग्रीक कथाकारों की पर विश्वास करना चाहिए तो हमे यह भी मानना पड़ेगा कि सिकंदर के अभियान के समय ये मूषक एक सामुदायिक जनजातीय जीवन बिता रहे थें।"


अतः ये स्पष्ट है कि हाथियों या मतंगो की भांति इन चूहों या मूषकों का भी टोटमवादी अतीत था ।

जनरल आफ दी बिहार एंड ओरिसा रिसर्च सोसायटी का हवाला देते हुए चट्टोपाध्याय बताते हैं  मूषक लोग दक्षिण भारत के निवासी थें, महाभारत में बताया गया है कि वे  वनवासियों  के साथ रहते थे। निश्चय ही इनका प्रदेश कलिंग से ज्यादा दूर नही रहा होगा क्यों कि नाट्यशास्त्र में ( लगभग 200 ईसापूर्व) में तोमल, कोसल , और मोसल( मूशिका) जनों का उल्लेख है। पुराणों में विंध्य देशों में ' स्त्री राज्य' अर्थात मातृसत्तामक सत्ता का उल्लेख है । याद कीजिये कि अशोक के कलिंग विजय की जो कथा कही जाती है उसमे उसकी भिड़ंत स्त्री सैनिको से होती है, ऐसा तभी सम्भव हो सकता है जब सत्ता या तो मातृसत्तामक हो अथवा सत्ता में स्त्री की महत्वपूर्ण भूमिका रहती हो अतः हम यह कह सकते हैं कि विंध्य राज्यों में स्त्री राज्य के साथ मूषक टोटमवादियों का भी अस्तित्व रहा होगा । यह भी हो सकता है कि दरसल विंध्य के स्त्री राज्यों का टोटम मूषक ही रह हो।

हमे सीधा यह तो पता नही मिलता की मूषकों की राजसत्ता कौन सी थी किन्तु इसके ऐतिहासिक प्रमाण जरूर मिलते हैं कि किसी प्राम्भिक सत्ता ने मूषकों को पराजित अवश्य किया था ,मूषकों के पराजित होने की कथा प्रसिद्ध हस्तिगुफ़ा में कलिंग के राजा खारवेल के शिलालेखों में मिलती है । ये शिलालेख 160 ईसा पूर्व बताए जाते हैं।  जायसवाल जिन्होंने इन शिलालेखों को पढ़ने में अपना पूरा जीवन बिता दिया था बताते हैं कि शिलालेख की चौथी पंक्ति में उल्लेख है कि राजा खारवेल ने मूषिकों को पराजित किया ।

दुखद यह है कि सभी ऐतिहासिक और शोधकार्यो के बाद भी हस्तिगुफ़ा के लेख आज भी पूरी तरह से नही पढ़े गए जिससे हमें मूषिकों के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त हो सके। यंहा तक कि यह भी नही पता चला कि उस गुफा के नाम हस्तिगुफ़ा क्यों पड़ा? और हस्ती से उनका किस सत्ता से सम्बन्ध है ।

इस गुफा के निर्माण बौद्ध / जैन धर्मावलंबियों ने बनाया था ।इसका मतलब की गुफा में जो शिलालेखों में मूषिकों की पराजय का विवरण है उनका  गणपति के देवता बनने में कोई न कोई संकेत अवश्य है । जो भी हो पर यह ऐतिहासिक प्रमाण है की प्राचीन भारत मे हस्ती कबीले भी थें और मूषक कबीले भी , हमारे पास हस्ती कबीले विजयी होने और मूषक कबीले के पराजित होने के प्रमाण है इसलिए इतिहाकारों कि धारण है की गणपति की मूर्ति के पीछे किसी हस्ती क़बीले( शायद खारवेल) द्वारा अपना साम्राज्य स्थापित करने का इतिहास छिपा है।

मोरे और डेवी ने मिश्र में जनजातियों से साम्राज्य बनने तक के काल का बहुत गहन शोध कार्य किये थे, उन्होंने मुख्यतया टोटमवादी प्रमाणों के आधार पर सिद्ध किया कि राज्य के उदय का इतिहास देवताओं के उदय का भी इतिहास था।

अतः हम यह कह सकते हैं कि गणपति हस्तिमुख उनके हाथी के टोटम( झंडे) का प्रतीक था और उनके पैरों में पड़ा चूहा पराजित मूषक जनजाति का प्रतीक । एक आश्चर्यजनक चीज और देखने को मिलती है , वह है उड़ीसा के बौद्ध विहारों में जो गणेश की प्रतिमाएं मिलती हैं वे स्त्री काया लिए हुए है ,अर्थात 64 योगनियों में सम्लित हैं। ऐसा कैसे हुआ कि गणेश को स्त्री बना दिया गया ? या कंही वास्तव में गणेश योगनी अर्थात मातृसत्तामक सत्ता का प्रतीक तो नही थे?

इन सवालों का जबाब जानिए मेरे अगले लेख में ...

Thursday, 13 September 2018

गणपति

  गणपति सम्बन्धी पौरणिक कथाएं जितना जटिल और गल्प भरी हुई हैं उतना ही उनका नाम सरल है, गणपति का शाब्दिक अर्थ हुआ गणों का पति अर्थात गणों का स्वामी या नायक। आइए जानते हैं कि क्या गणपति का कोई ऐतिहासिक चिंन्ह भी है या सिर्फ वह पौरणिक कथाओं के गल्प तक सीमित हैं?

 वाजसनेयी संहिता के अपने भाष्य में  महिधर ने व्यख्या की है " गणनाम  गणरूपेण पालकम' अर्थात जो गणों या सैन्य दलों की रक्षा करता है। फ्लीट ने गण शब्द का अर्थ करते हुए कहा है 'गण शब्द का प्रमुख अर्थ है जनजातीय समूह और संगठन या परिषद। पाणिनि ने संघ शब्द की व्युत्पत्ति गण शब्द से बताया है।

गणपति के प्रमुख नामो में से कुछ नाम इस प्रकार है -विघ्नकृत, विघ्नेश, विघ्ननेश्वर ,विनायक आदि।  इन सबका विशुद्ध शाब्दिक अर्थ है विघ्न डालने वाला । प्रचीन ब्रह्मणिक ग्रन्थो में गणपति के प्रति तिरस्कार और घृणा के भाव हैं। 'मानव गृह्य सूत्र ' में कहा गया है - शासन करने योग्य राजकुमार को राज्य नही मिलता, सभी गुण सम्पन कुमारियों को पति नही मिलते, संतान उतपन्न करने योग्य स्त्रियां भी बांझ रह जाती हैं, स्त्रियों की संतानों की मृत्यु हो जाती है ।"

देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय जी भी याज्ञवल्क्य का उदहारण देते हुए अपनी पुस्तक ' लोकायत' में कहते हैं कि " याज्ञवल्क्य के अनुसार रुद्र और ब्रह्मा ने बाधाएं उत्पन्न करने के लिए विनायक को गणों का मुखिया नियुक्त किया ।उसका आक्रांता स्वप्न में देखता है कि वह डूब रहा है ,लाल कपड़े पहने हुए सिर मुंडे लोग हैं। मांसाहारी पशुओ की सवारी कर रहा है, चांडालों , ऊंटों , कुत्तो, गधों आदि के साथ रह रहा है । "

गौर तलब है कि मनु ने शूद्रों का धन कुत्ते और गधे बताया है , और लाल  वस्त्र पहना तथा सिर मुंडाना बौद्ध परम्परा रही है। तो क्या हम कह सकते हैं की गण वास्तव में शुद्र और बौद्ध रहे होंगे? जैसा कि पाणिनि ने भी कहा है कि गण का अर्थ संघ होता है। संघ बौद्ध परम्परा का हिस्सा था।

ब्रह्म वैवर्त पुराण में एक कथा आई है जिसमे गणपति एक दन्त होने की कथा इस प्रकार है , परशुराम और गणपति के बीच एक युद्ध हुआ था जिसमे परशुराम ने अपना कुल्हाड़ा गणपति पर मारा जिससे उनका एक दांत टूट गया । इस कथा में रोचक बात यह है कि परशुराम से उनका युद्ध, जैसा कि सभी जानते हैं कि परशुराम ब्राह्मणों और पुरोहितों के सर्वोच्च स्थिति के घोर समर्थक थे । क्या इसका तात्पर्य यह हुआ  की गणपति के काल मे उनका सबसे प्रमुख शत्रु पुरोहित और ब्राह्मण वर्ग था? प्राचीन ब्रह्मणिक ग्रन्थों में जिस प्रकार गणपति के प्रति तिरस्कार और घृणा है उससे तो यही जाहिर होता है। बौद्ध और शूद्रों के प्रति जो घृणा और तिरस्कार ब्राह्मणिक ग्रन्थों में हैं उससे इसकी पुष्टि भी होती है की गणपति का सम्बंध जरूर बौद्ध धम्म से रहा होगा।

मनु ( 3/219) में तो ब्राह्मणो को गणो का अन्न तक खाने को निषेध कर देते है ।मनु सीधा शुद्रो और दलितों का अन्न खाने से मना करते है , यानि मनु के अनुसार गण शुद्र -अछूत और बौद्ध  रहे होंगे ।

देवीप्रसाद जी मोनियर विलियम्स जैसे विद्वान का हवाला देते हुए कहते हैं कि"  यद्यपि गणपति बाधाएं उत्पन्न करने वाले हैं  किंतु साथ मे इसे दूर भी करते हैं इसलिए सभी कार्यो के आरम्भ में ' नमो गणेशाय विघ्नेश्वराय ' के साथ उनका स्मरण किया जाता है।जिसका अर्थ है कि मैं विघ्नों के देवता गणेश के सम्मुख नमन करता हूँ। यह बात तो सही है किंतु यह बात बदली हुई  परिस्थितियों की है ,यानी ऐसा बाद में विकसति हुई गणपति संबंधी परिवर्तित भावनाओ के कारण हुआ। देवीप्रसाद जी कहते है कि गणपति की आरंभिक प्रतिमाओं में कुछ में उन्हें भयावह दानव के रूप में दिखाया गया है जो नग्नता के साथ साथ
आभूषण रहित दिखाया गया है जो संकेत हैं कि आरम्भ में गणपति के प्रति कैसी धारणाएं थीं।

कोडिंगटन ने अपने 'एशेन्ट इंडिया ' में गणपति की ऐसी प्रतिमा का उल्लेख किया है जो पूर्ण साज सज्जा के साथ है और इसका काल गुप्त काल के निकट है । कुमारस्वामी जैसे विद्वानों ने माना है कि गुप्त शासन से पहले इस प्रकार की गणेश की कोई प्रतिमा नही थी , गुप्त काल मे ही गणेश की प्रतिमाएं अचानक बनने लगी। गौर तलब है कि गुप्त राजाओं के शासन में ब्रह्मणिक ग्रँथ नए सिरे से लिखे जाने लगे थे तो यह संभवना रही है कि गणपति का बदला हुआ नया रूप गुप्त काल मे ही प्रकट हुआ हो।गणपति का ब्राह्मणीकरण इसी काल मे हुआ होगा।


आगे देवी प्रसाद जी फिर कहते है की मध्य काल के ग्रन्थो में गणेश ( गणपति) के हस्ती मुख , मूषक वाहन आदि कई तरह जिक्र है जबकि प्राचीन ग्रंथो में ऐसा नहीं है ।इसका उत्तर देते हुए वे कहते हैं की हस्ती सर टोटम (प्रतीक चिन्ह ) दर्शाता है । जैसा की हैम जानते है दुनिया भर में प्रत्येक काबिले का एक टोटम होता है जो पशु , पक्षी अथवा पेड़ पौधों पर हो सकता था ।जैसे जब यूनानी भारत आये तो उनका टोटम पंख फैलाये बाज था ।

भारत में भी टोटमवाद रहा है , मतंग( हाथी)  राजवंश की स्थापना कोसल के बाद के काल की है ।मतंग राजवंश  ने सिक्के चलवाए और एक विस्तृत राजसत्ता कायम की ।
मतंग राजसत्ता ललित विस्तार के अनुसार मौर्य राजाओ से पहले की है पंरतु हम यह नहीं कह सकते की मतंग राजसत्ता स्थापित होने से  गणपति के देवत्य का स्थान प्राप्त हुआ होगा ।
परन्तु इससे यह सिद्ध होता है की हाथियो (टोटम) की राजसत्ता कभी रही होगी ।

अब केवल मतंग सत्ता  ही नहीं हस्ती सत्ता नहीं रही होगी बल्कि शिलालेखो से पता चलता है की बहुत से हस्तिसत्ता भारत में रही जैसे खारवेल की रानी ने स्वयं को हस्ती की पुत्री बताया ।

एक और गौर करने लायक उदहारण देना चाहूँगा मैं आपको , की बौद्धों का और हाथियों का सम्बन्ध जग उजागर है । किद्वंतीयो के अनुसार गोतम के जन्म से पूर्व उनकी माता के सपने में हाथी आता है ।

अतः बाद के कई बौद्ध राजो जैसे मतंग आदि ने हाथी को अपना टोटम बनाया ।तो यह सिद्ध है की गणपति का जो हस्ती सर है वह दरसल बौद्ध राजाओ का टोटम रहा था, तो क्या माने की गणपति वास्तव में बौद्ध धम्म से सम्बंधित थें? । जो गण शब्द है जिसका अर्थ पाणिनि ने भी संघ किया है उसका सीधा संबंध बौद्ध अनुयायिओं से है? हम सांची स्तूप द्वार  में बुद्ध की माता लुम्बनी को कमल आसन पर बैठे देखते है जिनके बगल में दो हाथी उनपर जल वर्षा कर रहे हैं, बिल्कुल इसी चित्र की कल्पना लक्ष्मी देवी के लिए की गई है।

तो क्या ब्राह्मणिक व्यवस्था में विघ्न डालने वाले ' विघ्नेश्वर' वास्तव में कभी बौद्ध संघ के नायक थें ?




Tuesday, 11 September 2018

आत्मा और मृत्यु -

पृथ्वी पर जब से जीवन की शुरुआत एक कोशीय जीव के रूप में हुई तब से जीवन को बचाये रखने की जद्दोजहद शुरू हो गई थी। जीवन को सुरक्षित रखने की प्रक्रिया में खुद को बचाने की प्रवृति उत्पन्न हुई।  मृत्यु से जीवन को बचाने और खुद को सुरक्षित रखने को प्रवृति जो करोड़ो साल पहले एक कोशीय जीव से आरम्भ वह विकास के विभिन्न चरणों से गुजरती हुई एक भय के रूप में मनुष्यों में स्थापित हुई । जिन जीवो में खुद को सुरक्षित रखने या जीवन को बचाये रखने की प्रवृति नही थी वे विलुप्त होते चले गए।

मृत्यु सिर्फ शरीर की समाप्ति भर नही बल्कि जीवन की समाप्ति है ,अतः जीवन को बचाने की प्रवृति का अधिकतम रूप हमे मौत के भय के रूप में प्रदर्शित होता है। मृत्यु द्वारा पूरी तरह से ख़त्म हो जाने का विचार हमारे मन में भयानक उथल पुथल मचा देता है। जीवन को बचा पाने की ललक, जीवन को जीते रहने का परिणाम हुआ की  मनुष्य ने ‘आत्मा’ की परिकल्पना की,जो मृत्यु से परे हो। मरने के बाद भी जीवित रहने की धारणा ही आत्मा की परिकल्पना है।

आत्मा की स्थापना के लिए मनुष्य में मौजूद ' चेतना' तत्व का सहारा लिया गया । चेतना ज्ञानेन्द्रियो का समूह है ,जिनसे विचार या बोध की भावना जैसे गुण प्रकट होते है । चेतना को आत्मा का रूप दिया गया जो मनुष्य के शरीर मे कंही रहता है और शरीर से अलग हौ। जो मरता नही और न ही नष्ट होता है चाहे शरीर नष्ट हो जाये तब भी। आत्मा के सहारे धर्मो को स्थापित किया गया या यूं कहें कि आत्मा को धर्मो की धुरी बनाया गया। यहूदी , ईसाई, इस्लाम धर्म के अनुसार  मृत्यु के बाद आत्मा क़यामत के दिन तक इंतज़ार करती है और उस दिन पाप और पुण्य के आधार पर स्वर्ग या नर्क में जाती है। किन्तु हिन्दू धर्म मे आत्मा परमात्मा का रूप है और वह कर्मो के अनुसार पुनर्जन्म लेके  योनियों में भटकती रहती है अंत मे मोक्ष प्राप्त कर परमात्मा में विलीन  हो जाती है।

आधुनिक जीव विज्ञान के अनुसार आत्मा नाम की कोई चीज नही है, इसी प्रकार आत्मा से संबंधित सभी धारणाएं जैसे पुनर्जन्म, स्वर्ग- नर्क, परमात्मा आदि को खारिज करती है। मॉडर्न बायलॉजी द्वारा विख्यात वैज्ञानिक फ्रांसिस क्रिक ने यह साबित करने का दावा किया आत्मा का अस्तिव नही होता , उन्होंने अपनी किताब 'विज्ञान द्वारा आत्मा की खोज' जो 1962 में लिखी थी उस पर उन्हें नोबल पुरस्कार भी मिला था  उसमे सिद्ध किया कि आत्मा मात्र कल्पना भर है। उनके अनुसार जीवन कोई वस्तु,शक्ति  या ऊर्जा नही बल्कि कुछ गुणों का संयोग भर है जैसे Metabolism, Reproduction, Responsiveness, Growth, Adaptation आदि।

उनके अनुसार ये गुण जटिल कार्बन यौगिकों के मिश्रण द्वारा प्रदर्शित होते हैं जिन्हे कोशिका के नाम से जाना जाता है और सबसे सरल कोशिका जिसे हम जानते हैं वह है वायरस ।अपनी सहज प्रवृति  की वजह से यदि ये कोशिकाएं एक दुसरे के साथ सहयोग में आती है और किसी वातावरण में साथ में रहती है तो वे एक संगठन बनाती है जिसे हम जीव कहते है। यदि कोशिकाएं एक दूसरे से असहयोग करती है तो वह कैंसर कहलाती हैं।जब ज़्यादा से ज़्यादा कोशिकाएं एक दुसरे के सहयोग में आती हैं और जटिल संगठन का निर्माण करती हैं तो हमें और दुसरे जीव प्राप्त होते हैं जैसे की कीड़े, सरीसृप, बंदर, मनुष्य आदि।

मनुष्य के शरीर मे लगभग 38 लाख कोशिकाएं हैं जो रोज मरती और रोज नई बनती हैं, मनुष्य इन्ही कोशिकाओं का समूह है ।हर कोशिका में जीवन होता है। तो इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि हमारे अंदर 38 लाख आत्माएं रहती हैं!!मनुष्य के मरने के 24 घण्टे बाद उसके त्वचा की कोशिकाएं मरनी शुरू हो जाती हैं  दो दिन बाद हड्डियों की और तीन दिन बाद रक्त धमनियों की यही कारण है कि मरने के तुरंत बाद भी अंगदान सम्भव होता है।

 मानव शरीर कि कोशिकाएं अधिकतम 50  गुना विभाजित हो सकती हैं जिसे हेफलिक सीमा(Hayflick Limit) कहते हैं। जब हम बच्चे होते हैं तो कोशिका विभाजन कि दर काफी ऊँची होती है, फिर समय के साथ यह दर काफी धीमी हो जाती है और अंत मे कोशिका विभाजन बिल्कुल ही रुक जाता है जिससे मृत्यु होने की प्रक्रिया होती है। पर ऐसा नही है कि संसार मे सभी जीव मरते ही है, कई जीव जैसे जैली फिश अपनी कोशिकाओं  को विभाजित कर अमर रहती है जब तक कि कोई बाहरी कारण उसकी मृत्यु का कारण बने।

उपनिषदों ( देंखे छान्दोग्य उपनिषद 8-3-3) में आत्मा का केंद्र ह्रदय को माना गया है ,आत्मा हृदय में रहती है ' स वा आत्मा ह्रदय ' । किन्तु , 1964 में जेम्स हार्डी ने मनुष्य के ह्रदय की जगह चिंपांजी के ह्रदय का प्रत्यारोपण कर यह सिद्ध किया कि आत्मा हृदय में नही रहती।

दरसल मृत्यु के स्वभाविक प्रक्रिया है किंतु धर्म के धंधेबाजों ने इसे भय के रूप में परिभाषित कर इसे भयानक तो बना ही  दिया है बल्कि इससे स्वर्ग नरक जोड़ के अपनी धूर्तता भी सिद्ध की ।  अपने स्वजनों के मरने पर इंसान फूट फूट के रोता है जबकि धर्म / मजहब के अनुसार आत्मा की मृत्यु ही नही होती ,तो रोने का औचित्य क्या? दरसल इंसान धर्म/ मज़हब के झूठ को जानता है इसलिए उसे अपने स्वजनों के दुबारा जन्नत/ स्वर्ग में मिलने का विश्वास नही रहता ।

सोचिए की अगर इस्लामिक आतंकवादियों जो जन्नत के लालच में खुद को बम्ब से उड़ा लेते हैं या दूसरों को मार देते हैं यदि उन्हें यह हकीकत पता होती कि मरने के बाद कोई रूह नही होती तो शायद लाखो बेगुनाहों की जान बच गई होती। अगर आत्मा नाम की कल्पना नही की गई होती तो ऐसा होता कि हम मानते की हर व्यक्ति धीरे धीरे खत्म हो रहा है तो आपस मे प्रेम की संभवना बहुत अधिक होती।


Saturday, 11 August 2018

तंत्रवाद और ताओवाद


प्रचीन तंत्रवाद में प्रजनन और उर्वरता के कारण प्रकृति को स्त्री देह का स्वरूप माना गया है । तंत्रवाद में पुरुष (जल)गौड़ रहा है इसलिए इसका प्रमुख चिंतन स्त्री के आस- पास घूमता रहा है। स्त्री प्रमुखता होने कारण इसे मातृसत्तात्मक पक्ष कहा गया। सिन्धु सभ्यता में तंत्रवाद के बहुत अवशेष देखने को मिलते हैं अतः विद्वानों के अनुसार निश्चय ही सिन्धु सभ्यता मातृसत्तामक रही होगीं।

बाद के पितृसत्तामक सिद्धान्तों में स्त्री यानी प्रकृति गौड़ हो गई और पुरुष  चिंतन का केंद्र बन गया।

 शिव- शक्ति की धारणा तंत्रवाद के प्रकृति और पुरुष के सिद्धांत की ही उपज है ।

भारत के तंत्रवाद और चीन के ताओवाद में बहुत सी समानता है,जिस प्रकार तंत्रवाद में सृष्टि की उत्पत्ति मैथुन क्रियाओं से बताई गई है वैसे ही ताओवाद में अलग अलग सिद्धान्तों में मैथुन से ही सृष्टि की उत्पत्ति बताई गई है।

ब्रिटिश प्रख्यात विद्वान जोसेफ निधम ने अपनी पुस्तक ' साइंस एंड सिविलाइजेशन इन चीन' में बताया है की चीन के ताओवाद और भारतीय तंत्रवाद में गहरा संबंध रहा है। उनके अनुसार ताओवाद का प्रकृतिक चिंतन ही चीन के सभी विज्ञानों का आधार है। चीन में ताओवाद का उदय लगभग ईसा दूसरी सदी पूर्व माना गया है।

जिज़ प्रकार भारतीय तंत्रवाद में प्रकृति और पुरुष(जल)"  माने गए हैं जो बाद के चिन्तनों में शिव-शक्ति के रूप में अपनाए गए वैसे ही ताओवाद में भी पुरुष और प्रकृति का सिद्धांत रहा था । स्त्री( प्रकृति)  को 'यीन' और पुरुष को 'यांग' माना गया है। इस प्रकार सभी नरम, शीतल, अंधकारमय, निष्क्रिय वस्तु स्त्री जातीय अर्थात 'यीन' है और सभी कठोर, उष्ण, आलोकमय और सक्रिय वस्तु पुरुष जातीय है।

ताओवाद के सिद्धांत के अनुसार शारीरक देह ही सभी कुछ है, शारीरिक अमरत्व की प्राप्ति किसी अलौकिक क्रियाओं द्वारा नही बल्कि भौतिक क्रियाओं पर निर्भर करता है जैसे-
1-श्वशन तकनीक
2-सूर्य की  किरणों से चिकित्सा
3-व्यायाम क्रियाएं
4-यौन क्रियाये
5- रासायनिक और औषधीय तकनीक
6-आहार सम्बन्धी क्रियाएं

हम देखते हैं कि ये सभी सिद्धान्त भारतीय तंत्रवाद के सिद्धांतों से हूबहू मेल खाते हैं , तंत्रवाद में 'देहतत्व'ही सभी कुछ है, योग साधना , व्यायाम की क्रियाओं को जिन्हें प्राणायाम तथा आसान कहा जाता था। यौन साधना तंत्रवाद में प्रमुख रही । नीधम ने कहा है कि जिस प्रकार तंत्रवाद में पूजरिनो( योगनी, भैरवी),  का महत्व था उसी प्रकार ताओवाद में भी पुजारिन अर्थात 'वू' का महत्व था । वे आगे कहते हैं कि जिज़ प्रकार मातृसत्तामक पक्ष में आदर्शवादी समाज का निर्माण होता है वैसे ही ताओवादियों का भी सिंद्धात था।

ताओवाद को नष्ट करने वाला कंफ्यूशियस सिद्धात था , कंफ्यूसियस को 'यांग' प्रधान चिंतन कहा गया है अर्थात पुरुष प्रधान या पितृसत्तामक पक्ष ।जैसा की भारत मे भी मातृसत्तामक पक्ष वाले सिन्धु सभ्यता को नष्ट करने वाला पितृसत्तामक पक्ष । पुरुष चिंतन सिद्धान्त से ही 'ईश्वर' की कल्पना का प्रादुर्भाव हुआ।


Sunday, 15 July 2018

मुस्लिम शासक, अंग्रेज और कुप्रथाएं-

अक़बर ने दीन-ऐ-इलाही के जरिये उच्च हिन्दुओ और उच्च मुसलमानो को पास लाने का भरकस प्रयास किया ,इस प्रयास में उसने हिन्दुओ के लिए  पवित्र समझी जाने वाली गाय की हत्या को निषेध करवा दिया था। नए मंदिरो को बनाने की छूट दे दी थी । मंदिरो और तीर्थ यात्राओं को कर मुक्त कर दिया था।

उसका प्रयास था कि वह अधिक से अधिक उच्च हिन्दुओ को अपने नव धर्म की तरफ आकर्षित करे, ऐसा हुआ भी दीन-ऐ-इलाही को सबसे पहले अपनाने वाला महेशदास अर्थात बीरबल ही हुआ ।

अक़बर हिन्दुओ के धार्मिक और जातीय स
मसलो में हस्तक्षेप नही करता था यही कारण रहा कि उसने निम्न जातियों के उद्धार के लिए कोई कार्य नही किया था। 'महान' कहलाये जाने के बाद भी  शासन काल में अछूतों का   जातीय शोषण / अत्याचार तो बना ही रहा,   कई कुप्रथाएं भी ज्यूँ की त्युं उसके राज में  चलती रही जिनको अंग्रजो ने आके खत्म किया , उनमे से कुछ कुप्रथाएं इस प्रकार की थीं-

1- काशी - करवट-  काशी धाम में  आदि विशेश्वर के मंदिर के पास कुंए मे कूद कर  भक्त अपनी जान दे देते थे , भक्तो की धारणा थी कि उस कुंए में मरने के बाद सीधा स्वर्ग में जाना होगा।

2- गंगा प्रभाव- अधिक समय बीत जाने के बाद जब किसी वैवाहिक जोड़े को संतान पैदा नही होती थी तो वह ऐसी मनौती मांगता था कि उसका पहला बच्चा होगा तो उसे गंगा में प्रभावित कर देगा। मनौती को पूरी करने के लिए अपने बच्चे को गंगा में छोड़ देते थे। अंग्रजो में 1835 में कानून द्वारा इसे बंद करवाया।

3- सतीदाह- विधवा स्त्रियों को उनके पति के साथ जिंदा जलाये जाने की प्रथा को अंग्रेजो 1863 में कानून द्वारा बंद किया।

4- कन्या वध- कन्या भूर्ण हत्या  को 1870 में कानून बना के रोका गया

5- नर मेध-  ऋग्वेद के शुनःशेप की कहानी के आधार पर निर्धन या अनाथ व्यक्ति को दीक्षित कर उसकी यज्ञ में बलि दी जाती थी जिसको अंग्रजो ने  1845 में ऐक्ट 21 बना के रोका ।

6- हरिबोल- इस प्रथा के अनुसार रोगी को गंगा में ले जाकर उसे गोते दे देकर हरि बुलवाते और उसे मार देते। जो मर जाता उसे बहुत भागयशाली समझते और जो नही मरता उसे वंही घाट पर तड़प तड़प के मरने के लिए छोड़ देते। अंग्रेजो ने 1831 में इस अमानवीय प्रथा पर रोक लगाई।

7- धरना- साधु संत विष या शस्त्र हाथ मे लेके किसी  गृहस्थ के द्वार पर बैठ जाते और उन पर दवाब डालते की उनकी अमुक इच्छा पूरी करे ।कभी कभी गृहस्थ की पत्नी या बेटी से संबंध बनाने पर भी जबरजस्ती करते। अंग्रजो ने सन 1920 में कानून बना इसे बंद करवाया।

इसके अलावा जगन्नाथ धाम में रथ यात्रा के दौरान भक्त लोग रथ के पहिये के नीचे मोक्ष प्राप्ति की आशा में आत्महत्या कर लेते थे । यह जघन्य आत्महत्याएं हर  तीसरे वर्ष रथ यात्रा के दौरान होतीं। अंग्रजो ने इस प्रथा को कानून बना के बंद करवाया। ऐसी अनेक कुप्रथाएं जिन्हें मुस्लिम शासक नही खत्म कर पाए थे उन्हें अंग्रेजो ने खत्म किया।

समझिये की क्यों मात्र दो सालों के राज में अंग्रेजों का विरोध शुरू हो गया था जबकि अक़बर आदि मुस्लिम शासकों का सैकड़ो सालों के बाद भी नही।


Wednesday, 11 July 2018

सूफ़ीवाद

  भारत मे इस्लाम के फैलने का प्रमुख कारण इसका ' तसव्वुफ़ अर्थात सूफ़ी मत रहा है। सूफ़ी मत तलवार से भी अधिक मारक था जिसने बिना खून बहाये अधिक से अधिक हिन्दुओ को अपनी ओर आकर्षित किया।

अरब के लोगो ने दर्शन के लिए ' फ़लसफ़ा' शब्द का इस्तेमाल किया ,'सूफ़ी' शब्द ' फ़लसफ़ा' के 'सफा' से बना है जिसका अर्थ है दार्शनिक। हम कह सकते हैं कि सूफ़ीवाद इस्लाम का निचोड़/ केंद्र था जो लोगो को जबरजस्ती तलवारों के बल से मुसलमान बनाने के पक्ष में नही था । जो लोग यह मानते थे कि कुरआन ईश्वर और समाधि ,ईश्वर और चिंतन में सम्बन्ध है और यही उस तक पहुचने का मार्ग है वह इस्लाम की कट्टरता के घेरे से निकल के सूफी हो गए। हालांकि की हम यह कह सकते हैं कि अरब के लोगो ने यह धारणा यूनान से ली है किंतु यह भी सच था कि अरब और यूनान का भारत से प्राचीन रिश्ता रहा है। इसलिए इतिहासकार मानते हैं कि दर्शन पहले भारत से यूनान पहुँचा और फिर वंहा से अरब।

फिर यह भी सच है कि अरब में  इस्लाम के आने से पहले बौद्ध धर्म का भी प्रभाव रहा  था , बलख का नौ बिहार दरसल नौ विहार या बौद्ध मठ था और इसका पुजारी बरामका कहलाता था यँहा बुद्धदेव की पूजा होती थी ।

अरब के नगरो में यहूदी मत, ईसाइयत, बौद्ध, हिंदुत्व, और इस्लाम का का मिलन हुआ ।

अतः अरब वालों को सूफिज्म का ज्ञान पहले से था हाँ , यह जरुर हुआ कि इस्लाम मे आने के बाद उस दर्शन का स्वरूप थोड़ा बदल गया , भारत आ के उसने और भी विस्तार किया ।

सूफी मत के अनुसार-
1- सूफी का प्रमुख कर्तव्य ध्यान और समाधि है, प्रार्थना और नाम स्मरण है । इन्ही तरीको से वह परमात्मा मिलन की राह पर अग्रसर होता है।

2- अस्तित्व केवल परमात्मा का है , वह प्रत्येक वस्तु में है और प्रत्येक वस्तु परमात्मा में है।

3- सारी वास्तविकता एक ही है ।

4- सभी धर्मिकता और नैतिकता का आधार प्रेम ही है।प्रेम के बिना धर्म और नीति दोनो निर्जीव हैं।


किन्तु यंहा गौर करने लायक वात यह थी कि जैसा कि ऊपर भी बताया गया है को मौलिक इस्लाम और सूफिज्म में अंतर होने के कारण इसे पसंद नही किया गया । जैसे कि संगीत इस्लाम मे हराम करार दिया गया किन्तु सूफ़ी मत वाले संगीत को अपनी साधना का जरिया मानने लगे। कब्र पूजना इस्लाम मे हराम करार दिया गया किन्तु सूफ़ीवाद कब्र पूजता रहा।

इसलिए सूफ़ीओं को  मुल्लाओं और इस्लाम के ठेकेदारों की नजरों में काफ़िर करार कर दिए गया , उन्हें प्राण दंड दिया जाने लगा । मनसूर- अल- हज्जाज , सरमद आदि ऐसे ही सूफ़ी थें जिनको इस्लामिक ठेकेदारों ने कत्ल कर दिया  ।

आज भी मजारों पर जो हिन्दू श्रद्धा से सर झुकाता है वह  सूफियों के कारण ही सम्भव हुआ था। मज़ार में हिन्दुओ को अपने देवी देवता नजर आते हैं। जो चमत्कार करते हैं, आशीर्वाद देते हैं। सूफिज्म रहस्यवाद की पूर्ति करता है।

देखिये, मज़ार ने  हिन्दू देवी -देवताओं की मूर्तियों को कैसे अंगीकार कर लिया है। क्या यह किसी मस्जिद में संभव है?


Wednesday, 4 July 2018

शेयर्ड सायकोटिक डिसऑर्डर -


कई सालों पहले मैं दोस्तों के साथ राजस्थान के मेंहदीपुर बाला जी के मंदिर में गया था , उसकी मान्यता यह बताई  जाती है कि उस मंदिर में ' ऊपरी हवाओं' जैसे भूत प्रेत आदि का इलाज होता है।

जिज्ञासावश मैं भी चला गया था कि देखूं आखिर भूत प्रेत होते कैसे हैं?

मंदिर में बहुत दूर दूर के लोग आये हुए थे, भूत प्रेत से बाधित मरीज़ो का परिसर अलग था । जंहा कई भूत प्रेत से पीड़ित मरीजों को बांध के भी रखा गया था , ख़ास बात यह थी की वंहा महिला मरीज़ो की संख्या बहुत अधिक थी। एक महिला जोर जोर से चिल्लाने लगी तो एक सेवादार आया और महिला को उसके बालों से पकड़ के बुरी तरह पीटने लगा था । कोई उस सेवादार को नहीं रोक रहा था , न मंदिर में दर्शन के लिए आये लोग और ना ही कोई अन्य मंदिर का कर्मचारी। महिला को  बुरी तरह पीटने के बाद सेवादार चला गया ,महिला कभी रोती तो कभी और जोर से चीखने लगती। साफ़ जाहिर था कि वह किसी मनोरोग से पीड़ित थी न की किसी भूत प्रेत से।

वंहा मरीज़ो की संख्या बहुत अधिक थी, इतनी की कई मनोरोगी मंदिर के पास वाली पहाड़ी पर भी थे जो अजीब अजीब हरकते कर रहे थे ,जैसे पेट पर बड़ा सा पत्थर रख के  लेटना, कूदना , आसमान की तरफ देख कर जोर जोर से चीखना आदि। 99% यंहा आने वाले भूत प्रेत से पीड़ित परिवार या तो गरीब परिवार से थे या मध्यवर्गीय परिवार से जो या तो पैसे के आभाव में मरीज का साइकैट्रिस्ट से नहीं करवा पाएं या अत्याधिक धार्मिकता और अंधविश्वास के चलते यंहा छोड़ के चले गएँ।

यंहा आने वाले मरीजों में मनोरोगी होने का  प्रत्यक्ष आभास और प्रमाण मिल जाता है , किन्तु कई मरीज ऐसे होते हैं जिनका आभास आस पास के लोगो को नहीं हो पाता।ये मनोरोगी प्रत्यक्ष रूप से सामान्य नजर आते हैं , अत्याधिक धार्मिक या सन्वेदनशील हो सकते हैं जिसे लोग नजरन्दाज कर देते है।

आपने कई ऐसे लोग देखें होंगे जो भगवान् या अन्य किसी आत्मा आदि से बाते करने का दावा करते हैं, अपनी चमत्कारिक शक्तियों से लोगो के कष्ट दूर करने का दावा करते हैं ।

 बुराड़ी में हुई 11 सदस्यों की  सामूहिक आत्महत्या वाले केस में भी ऐसा ही हुआ, पुलिस का दावा है कि ललित जो अत्याधिक धार्मिक प्रवृत्ति का था उसे सपने में उसके मृत पिता जी आते थे और निर्देश देते थे।उन निर्देशों को वह रजिस्टर पर उतार लेता था। ठीक ऐसे ही संजय दत्त की एक फिल्म भी आई थी जिसमे वह गाँधी जी को देखने की बात करता है और उनसे बाते करने का दावा भी।

ललित अपने पिता की आत्मा से जो बातें करता उन्हें पूरे परिवार के एक जगह बैठा के सुनाता।  परिवारवाले ललित को चमत्कारिक शक्तियों वाला समझते थे और वही सभी फैंसले लेता था। पिता की आत्मा जो निर्देश देती थी उसे वह रजिस्टर में उतार लेता था। भागवान से मिलने और मोक्ष् प्राप्त करने की बात भी उससे पिता की आत्मा ने ही निर्देश दिया था ,जिसके कारण पूरा परिवार फंदे पर लटक गया।

विशेषज्ञ कह रहे हैं कि ललित शेयर्ड सायकोटिक डिसऑर्डर का शिकार था , इस बीमारी में मरीज को लगता है कि वह किसी मृत व्यक्ति से बात कर रहा है। जैसा संजय दत्त उस मूवी में गांधी जी आत्मा से बात करता है, ऐसे ही ललित अपने पिता की आत्मा से बात करता है। इस बीमारी में मरीज के शरीर में अचानक बदलाव आते हैं और  उसकी आवाज़ वा आवभाव बदल जाते हैं ।देखने में ऐसा लगता है जैसे उस पर कोई आत्मा या भूत प्रेत आ गया हो। इस बीमारी का इलाज संभव है किंतु लोग इसे आत्मा आदि का किया मान के इलाज नहीं करवाते और अंधविश्वास के जाल में फँसते रहते हैं।

आप शेयर्ड सायकोटिक डिसऑर्डर के बारे में यंहा पढ़ सकते हैं-

https://www.webmd.com/schizophrenia/guide/shared-psychotic-disorder

वेदो के रचनाकारों को 'दृष्टा' कहा गया है , जिन्होंने दावा किया था कि उन्होंने  ईश्वर की को देखा और उसकी वाणी सुन वेदों की रचना की ।

 मुहम्मद साहब को भी जीब्रील नाम का फरिश्ता दिखाई देता है और वे उसकी बातों को वैसे ही कुरआन के रूप में दर्ज करते हैं जैसे की ललित अपने पिता की आत्मा के निर्देश पर रजिस्टर.... तो आप समझ ही गए होंगे धर्म- मज़हब की कहानी...

मुक्त होइये ऐसे शेयर्ड सायकोटिक डिसऑर्डर द्वारा लिखे गए रिस्टर्स से

फोटो साभार गूगल-


Saturday, 5 May 2018

आदि शंकराचार्य - भारत के पतन का कारण?


 सिंधु सभ्यता में  मुद्रा, तौलने के बाट, सील, बर्तन, औजार,धातु  आदि बहुत से ऐसे अवशेष मिले हैं जिससे यह निर्धारित होता है कि आज से 3- 5 हजार पहले संधु सभ्यतावासी विदेशो जैसे सुमेर ,सुसा( ईरान) , बेबिलोनिया, मिस्र आदि देशों में बड़े पैमाने पर व्यापर करते थे। कृषि, मछली पालन, मिट्टी और धातु के बर्तन तथा औजार बनाना, जेवरात बनाना ,नक्कासी करना आदि अन्य मुख्य धंधे थे जिनका वे व्यापार करते थे।

इतिहासकार कहते हैं कि सुमेर राज्य सिंधु व्यपारियो का उपनिवेश था जंहा से वे इजिप्ट से लेके क्रीट द्वीपो तक व्यापार करते थे । इजिप्ट के सबसे पुराने पिरामिड में जौ और गेंहू की वही प्रजाति पाई गई है जो सिन्धु नगरों की खुदाई में मिली थी।

सिन्धु सभ्यता में व्यापार और विज्ञान उस काल में उन्नत माना जाता था।विज्ञान और व्यापार की वह उन्नति बौद्ध शासको ,चन्र्दगुप्त , बिंदुसार, अशोक,हर्ष आदि  के समय चरम पर पहुंची।

चंद्रगुप्त के समय हैलेनवादियो से वैवाहिक रिश्ते कायम किया ,आर्थिक और व्यापारिक लाभ के संबंध भी बनाये गएँ।

बिंदुसार ने अपने राजकाल में यूनानियों से व्यापारिक सम्बन्ध ।

अशोक के समय बौद्ध धम्म के साथ साथ विज्ञान-व्यापार भी देश विदेश पहुंचा।

प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग हर्ष के काल में ही आया ,  उस समय विज्ञान,कला , साहित्य, व्यापार  बहुत उन्नत था । जेवरातों से लेके रेशम और सूत का व्यापार होता था ।

बौद्ध राज्यओ के समय ही नालंदा, तक्षशिला( तक्कसिला) जैसे बौद्ध  विश्वविद्यालयों का निर्माण किया जिसमे ज्ञान लेने दुनिया भर के विद्यार्थी आते थे। शून्यवाद और विज्ञानवादी परम्परा खूब फल फूल रही थी।

आदि शंकराचार्य का काल 7-8 सदी माना गया है, यह वह काल था जब हर्ष के बाद बौद्ध धर्म के संरक्षक कमजोर हो रहे थें। ऐसे में शंकराचार्य बौद्ध परम्परा अपना के बौद्ध धर्म को समाप्त करने निकल पड़े । बौद्ध परम्परा के शून्यवाद और विज्ञानवाद की नक़ल कर वे ब्रह्मात्मैक्य -अद्वैतवाद का गठन करते हैं । इसलिए रामानुज और अन्य आधुनिक विद्वानों ने उन्हें ' प्रच्छन्न बौद्ध' कहते हैं।

शंकराचार्य 'जगत मिथ्या - ब्रह्म सत्य' की अवधारणा ला के संसार को माया कह देते हैं। बौद्ध परम्परा का कारण- कार्य श्रंखला  की तार्किकता निष्पत्ति है,  जिसके  आभाव में किसी वस्तु की विद्यमानता की कल्पना नहीं की जा सकती । शंकराचार्य इसी कारण- कार्य श्रंखला के वास्तविक स्वरूप को ही विकृत करने का प्रयत्न हुए कारणता निषेध के परिणाम स्वरूप जगत मिथ्या का प्रतिपादन करते है ।

शंकर का वेदांत कहता है जो दिखता है वह सब मिथ्या है ,जगत के रूप में जो हम परिवर्तन देख रहे हैं वह वस्तुतः मिथ्या है ,माया है ...झूठ है ,केवल मानसिक आरोप है जिसे वेदांत की भाषा में 'अध्यास 'कहा गया । जगत केवल नामरूपात्मक है,उसका कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं। यह बौद्धो के प्रतीत्यसमुत्पाद की तार्किकता का विकृत निषेध था। वेदांत ने बौद्ध  कारणवाद का खंडन करते हुए कहा सृष्टि विकास में कारणता नही है ,वस्तुतः यह विकास है ही नहीं जंहा अस्तित्व ही न हो वँहा विकास कैसा और किसका? बल्कि यह माया है।शंकराचार्य ने मनु को आधिकारिक रूप से अपनीं दार्शनिक रचनाओं में बार बार स्थापित किया है, अगर हम कहें कि मनु को जिंदा करने वाले शंकराचार्य ही थे तो अतिश्योक्ति न होगी।

शंकराचार्य अपनी बात की स्थापना के लिए तर्कबुद्धि और दैनिक जीवन के अनुभवों का ही तिरस्कार करने से नहीं चूकते।

इस प्रकार आदि शंकराचार्य भारतिय समाज को ऐसे अँधेरे कुएं में धकेल देते हैं जंहा चारो मठो की तीर्थ यात्रा करना , वर्ण धर्म का पालन करना, ब्राह्मण श्रेष्ठता, आत्मवाद  आदि ही प्रमुख क्रियाये और अंग रह जाते हैं। तर्कवाद, विज्ञानवाद का मार्ग पूरी तरह से अवरोध कर उसे काल्पनिक ब्रह्म के चरणों में समर्पित कर देते हैं।

आप देखेंगे कि शंकराचार्य के बाद ही देश गुलामी और अंधकार की तरफ अग्रसर हो जाता है।समाज विदेशियो के हाथों पराजय स्वीकार करता रहता है, विज्ञान और व्यापार कोई प्रगति नहीं करते बल्कि ब्रह्म आदि काल्पनिक अवधारणाओं में उलझ अपनी रौशनी गंवा बैठते हैं। समाज का पतन शुरू हो जाता है कि मुट्ठी भर विदेशी आसानी से भारत पर कब्ज़ा कर लेते हैं। शिक्षा ,व्यापार और विज्ञान की प्रगति उलटी दिशा में हो जाती है ।

यदि कहें कि देश का और समाज का जो पतन हुआ उसके लिए आदि शंकराचार्य मुख्य रूप से जिम्मेदार रहे हैं तो गलत न होगा। आठवी सदी के शंकर के बाद ही भारत मुख्य रूप से गुलामी की तरफ बढ़ा, जातिया व्यवस्था मजबूत हुई।


Tuesday, 3 April 2018

आरक्षण क्यों और कैसे-

आरक्षण क्या, क्यों, किसके लिए और कैसे? साथ मे पढ़े अन्य संवैधानिक उपाय, जिनका उद्देश्य है देश -समाज मे शोषितों और वंचितों के लिए समानता के स्तर को प्राप्त करना….

अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सामाजिक स्तर मे सुधार के लिए संविधान में त्रि-आयामी (त्रि-स्तरीय) रण नीति बनाई गयी, जो इस प्रकार हैं।

1. सामाजिक सुरक्षा प्रदान करके:

न्यायिक/नियमन साधनों द्वारा समानता के सिद्धांतको लागू करके और सामाजिक बाधाओं को दूर करके,दलितों पर होने वाली शारीरिक हिंसा के अपराधियों को कठोर दंड का प्रावधान करके,
ऐसे परंपरागत नियमों, प्रबंधों को बंद करके, जो दलितों की डिग्निटी ( गरिमा )और आत्म सम्मान को ठेस पहुँचाते हैं।

उनके परिश्रम की उचित कीमत और फल की प्राप्ति सुनिश्चित करके,-प्राकृतिक संसाधनों पर किसी खास वर्ग का ही अधिपत्य कम करके,
दलितों को उपलब्ध कराई गयी सुविधा, अधिकार, लाभ आदि की देखभाल के लिए स्वतंत्र आयोगो का गठन करके।

2. कमपेनसेटरी डिस्क्रिमिनेशन (प्रति पूरक भेदभाव ): सार्वजनिक सेवाओं, प्रतिनिधि संगठनों/ निकायों, शैक्षिक संस्थानों मे आरक्षण लागू करके व अन्य सहायता प्रदान करके।

3. विकास:- अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति और अन्य समुदायों के बीच पैदा हुई खाई को पाटने के लिए लाभ और संसाधनों का पुनरवितरण करके.
ये नीति राज्य (भारत) द्वारा कार्यान्वित की गयी और तब से इस नीति के प्रति प्रतिबद्धता, भारत राज्य की विशेषता रही है. समय समय पर ये नीति ज़रूरत पड़ने पर और ज़्यादा मजबूत बनाई गयी और साथ ही ज़रूरत के मुताबिक इसका दायरा भी बढ़ाया गया है.  जहाँ तक सुरक्षा संबंधी प्रायोजनों की बात है, तो खुद संविधान मे काफ़ी विस्तृत रूप से उन परंपराओं, नियम क़ानूनों, सामाजिक संस्थागत प्रबंधों और दलितों पर थोपी गयी किसी भी अन्य प्रकार की अमानवीय  और भेदभावी स्थिति को ख़तम करने की ढाँचागत रूपरेखा दी गयी है जो अस्पृश्यता को समाज मे लागू करते हैं, उसका अनुमोदन करते हैं या इस हीन परंपरा के पालन को प्रोत्साहित करते हैं।

इन संवैधानिक प्रबंधों को लागू करने के लिए क़ानून बनाए गये. उदाहरण के लिए:-

The Untouchability Practices Act,  1955 संविधान के आर्टिकल 17 को लागू करने के लिए बनाया गया.  इस क़ानून को फिर से सख़्त बनाया गया और 1976 मे सन्सोधित करके इसे Protection of Civil Rights Actके नाम से ज़्यादा प्रभावी रूप मे लागू किया गया. बाद मे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्यों पर लगातार बढ़ते गये जघन्य अत्याचारों और हिंसा, जैसे सामूहिक नर संहार, बलात्कार, आगज़नी, गंभीर हमलो द्वारा शारीरिक क्षति आदि के फलस्वरूप राज्य को एक बार फिर गंभीर फ़ैसले लेने पड़े और दलितों को सुरक्षा के लिए विशेष क़ानून बनाना पड़ा जिसे

 “Scheduled Caste and Scheduled Tribe (Prevention of Atrocities) Act, 1989

के नाम से जाना गया और इसमे पहले से अधिक  कठोर सजाओं का प्रावधान किया गया ताकि ये क़ानून दलित के लिए प्रतिरक्षक ढाल का कार्य कर सके. इसी क़ानून का शोषक समाज ने जमकर विरोध किया. यही क़ानून वर्ग विशेष द्वारा “हरिजन एक्ट” के नाम से प्रचारित किया गया.  समाज मे स्थापित परंपराओं और क़ायदे क़ानूनों द्वारा दलितों को परंपरागत कार्यों में धकेलने के विरुद्ध और उनके अपने सामाजिक स्तर मे सकारात्मक बदलाव लाने के प्रयासों में सहयोग के लिए समय समय पर अतिरिक्त क़ानूनों को भी प्रभाव मे लाया गया।

The Employment of Manual scavengers and Construction of Dry Latrines (Prohibition) Act, 1993  नामक क़ानून, जो दलितों द्वारा हाथ से अन्य नागरिकों के मानव मल को साफ करने की अतिहीन कुप्रथा को ख़तम करने के लिए बना था, इन नियमों मे सबसे महत्वपूर्ण है.  जो एक अन्य कुप्रथा रोकी जानी थी, वो थी दलित लड़कियों का मंदिरों मे देवदासी के नाम पर यौन शोषण. आंध्रा प्रदेश और कर्नाटक ने देवदासी नाम की इस प्रथा को तत्काल प्रभाव से ख़त्म करने के लिए क़ानून पास किए. इस प्रथा के द्वारा जवान दलित लड़कियाँ स्थानीय देवता को देवदासी के नाम पर भेंट चढ़ा दी जाती थीं, जिनका मंदिर के पुजारियों द्वारा यौन शोषण होता था।

 देवता के नाम पर मंदिर के पुजारी/पुरोहित, दलित लड़कियों का शोषण करते रहे थे.  महाराष्ट्र मे 1934 मे ही इस घटिया परंपरा को बंद करने का क़ानून बन चुका था. कुछ क़ानून जो, इस उच्च वर्ग द्वारा शुरू की गयी दलित बालिकाओं के शारीरिक शोषण इस नीच धार्मिक परंपरा को गैर क़ानूनी घोषित करके इसके उन्मूलन और प्रतिबंध के लिए पास किए गये, वो इस प्रकार हैं:-

Andhra Pradesh Devdasi (Prohibition of Dedication) Act, 1988
Karnataka Devdasi (Prohibition of Dedication) Act, 1992
Hindu Religious and Charitable Endowment Act, 1927 of Mysore.
The Bombay Devdasi Protection Act, 1934
(उपरोक्त क़ानूनों का बनाया जाना इस परंपरा के वजूद, उसके प्रचलन और पुरोहित वर्ग के दलित वर्ग के प्रति घृणित और अमानवीय नज़रिए का सेल्फ़ एक्सप्लनेटरी और लीगल प्रूफ है)

रोज़गार प्रदाता/नियोक्ता द्वारा अपने यहाँ नियुक्त काम गारों/श्रमिकों के शोषण को रोकने के लिए भी क़ानून बनाया गया. इस क़ानून का मकसद मालिक द्वारा मजदूरों की सही मज़दूरी का भुगतान पक्का करना, कार्य के चुनाव की स्वतंत्रता दिलाना, ताकि नियोक्ता दावरा श्रमिकों पर अमानवीय और श्रमिकों की इच्छा के विपरीत कार्य करने की बाध्यता लादना बंद करना सुनिश्चित किया जा सके, अपने शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाने की स्वतंत्रता आदि आदि का ध्यान रखा गया. हालाँकि ये क़ानून अनुसूचित जाति और अनुसूचित/जन जाति के लिए ही विशेष रूप से न होकर, हर वर्ग के श्रमिक पर लागू होता है, पर इसका सबसे बड़ा प्रभावित वर्ग दलित वर्ग ही था क्योंकि सबसे ज़्यादा मजदूर और श्रमिक इसी वर्ग से आते थे और आते हैं।


इस उद्देश्य के लिए बने क़ानून इस प्रकार हैं:

Bonded Labour System (Abolition) Act, 1976, बंधुआ मज़दूरी प्रणाली(निषेध) एक्ट, 1976
Minimum Wages Act, 1948, मिनिमम वेजस आक्ट,
Equal Renumiration Act, 1976, 1948, ईक्वल रीम्यूनरेशन आक्ट, 1976
Child Labour (Prohibition and Regulation) Act, 1986, चाइल्ड लेबर (प्रोहिबिशन आंड रेग्युलेशन) आक्ट, 1986
Inter-State Migrant Workmen (Regulation of Employment and Conditions of Services) Act, 1979, इंटर-स्टेट माइग्रेंट वर्कमेन (रेग्युलेशन ऑफ एंप्लाय्मेंट आंड कंडीशन्स ऑफ सर्वीसज़) आक्ट, 1979

दलित समुदाय को समाज की मुख्य धारा से निकल दिए जाने और समाज से बहिष्कृत रखे जाने के फलस्वरूप सभी प्रकार के लाभकारी और उत्पादन के साधनों पर उच्च वर्ग का ही अधिकार रहा, जिसके  कारण आज़ादी के समय भी लबभग सभी प्राकृतिक और बौद्धिक संसाधन इस उच्च वर्ग के ही पास अत्यधिक घनत्व के साथ केंद्रित थे, और दलित समुदाय इनसे सभ्याता के समय से ही वंचित रखा गया. आर्थिक संसाधनों और लाभकारी संपदा के कथित सवर्ण समाज के पास ही भारी मात्रा मे एकत्रित पाए जाने पर भी चोट की गयी. इस विषय के अंतर्गत “लैंड रिफॉर्म लॉ” (भूमि शुधार क़ानून), जिसका उद्देश्य अनुसूचित जाति व जनजाति के साथ साथ गाँव मे अन्य ग़रीब तबके के लोगों को भूमि का पुनरवितरण शामिल था, लागू किया गया।

डेट रिलीफ लेजिस्लेशन्स (ऋण राहत कानून) साहूकारों और सूद खोरों के हाथों ग़रीब लोगों के शोषण को रोकने और पैसे के लेन देन को नियमित करने के उद्देश्य से लागू किए गये.
सामाजिक सुधार की इस  रणनीति का दूसरा भाग कमपेनसेटरी डिस्क्रिमिनेशन (प्रति पूरक भेदभाव / क्षतिपूर्ति भेदभाव या सकारात्मक कार्यवाही) से संबंधित है जो निम्न लिखित प्रायोजन लागू करता है:

सार्वजनिक सेवा की नियुक्ति और प्रमोशन मे आरक्षण लागू करके,विधायिका की सीटों मे आरक्षण लागू करके (केंद्रीय, राज्य, पंचायत राज, मुनिसिपल बॉडीस आदि),शैक्षिक और प्रोफेशनल कॉलेजस की सीट मे आरक्षण लागू करके,निर्धारित योग्यता मापदंडो मे छूट प्रदान करके,फीस मे छूट या माफी प्रदान करके, आदि आदि।

ये सब उपाय यह सुनिश्चित करने के उद्देश्य के साथ किए गये की दलित समुदाय के लोग भी देश के सार्वजनिक तंत्र की शक्ति और निर्णयों मे अपना हिस्सा ले सके, साथ ही उनको उच्च शिक्षा प्राप्त करने के भी अवसर उपलब्ध हो सकें. ये महसूस किया गया था की यह वर्ग जन्म जन्मान्तर और सदियों की अर्जित की गयी कमज़ोरी, व्यापक रूप में प्रचलित सामाजिक शोषण और सामाजिक अपंगता के कारण खुली प्रतियोगिता मे अपना ज़रूरी हिस्सा नहीं ले पाएगा।

इन प्रायोजनों का उद्देश्य दलितों और उस क्षेत्र मे रह रहे अन्य वर्गों के बीच पैदा हुई सामाजिक अंतर की गहरी खाई को पाटना था।
सामाजिक सुधार की इस रण नीति का तीसरा पहलू दलितों के व्यापक और बहुदिशीय विकास पर फोकस करता है. इस विषय के अंतर्गत लाभो का सीमांकन करके व तरह तरह की योजनाओं के अंतर्गत धनराशि जारी करके दलितों की आर्थिक स्थिति को सुधारने का प्रयास किया गया है ताकि समाज मे दलितों का उन्नयन (उपर की और गमन) हो सके. इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्रायोजन था की योजना के अंतर्गत जारी राशि का एक निश्चित प्रतिशत अनिवार्य रूप से दलितों के लाभ वाली योजनाओं पर ही खर्च किया जाए।

 अनुसूचित जाति के केस मे इस प्रकार के प्रबंध को “स्पेशल कॉंपोनेंट प्लान” के नाम से जाना जाता है और इसके अंतर्गत ज़िम्मेदार एजेंसी दलितों के हित के लिए योजना बनाकर धन राशि पास करती है जो कम से कम उस राज्य मे दलितों की जनसंख्या के प्रतिशत के बराबर होती है और केंद्रीय योजनाओं मे देश की कुल आबादी मे दलितों के प्रतिशत के बराबर होती है. (उत्तर प्रदेश की राज्य योजना मे  = 21%, केंद्रीय योजना मे= 15%). ये संसाधन दलित समुदाय के लिए ऐसे प्रोग्राम और गतिविधियों मे खर्च किए जाते हैं जो सीधे तौर  पर दलितों की आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाने मे मददगार साबित होते हों।


इसी नियम के समानांतर, स्टेट पॉलिसी द्वारा प्रावधान किए गये की विभिन्न विकास कार्यक्रमों, जिनसे आम आबादी के लाभ जुड़े हों, उनमें लाभ प्राप्त करने वाले लोगों की संख्या या की एक निश्चित प्रतिशत अनुसूचित जाति व जन जाति से होना सुनिश्चित किया जाएगा और किसी भी स्थिति मे उनकी उस राज्य मे जनसंख्या मे हिस्से के प्रतिशत से कम नहीं होगा. ऐसा इसलिए करना पड़ा ताकि संस्थाएँ लाभों का एक तरफ़ा वितरण करके दलितों को उनके हिस्से से वंचित न कर दें, जैसा की परंपरागत तौर पर समाज मे होता आया।


कुछ विशेष कार्यक्रमों के अंतर्गत, जहाँ दलितों और शेष समाज के बीच अत्यधिक विशाल अंतर पाए गये, वहाँ विशेष संस्थागत कार्यक्रमों द्वारा इस खाई को पाटने के लिए अतिरिक्त संसाधन जारी किए गये, जिसके अंतर्गत साक्षरता का विस्तार, ग़रीबी-उन्मूलन कार्यक्रम, घर और खेती के लिए ज़मीन का आवंटन आदि शामिल हैं.

दलित समुदाय की बहुदिशीय सुरक्षा के उपाय करने के साथ साथ इस बात की निगरानी रखनी भी बहुत आवश्यक थी कि दलितों के लिए किए गये उपाय सही मे ज़मीनी हक़ीकत बन भी रहे हैं या नहीं और इस समुदाय के हिस्से के लिए जारी की गयी सुविधा उन तक पहुँच भी रही है या नहीं. इस उद्देश्य के साथ चार निगरानी संस्थाएँ / आयोग बनाए गये.

राष्ट्रीय अनुसूचित जाति व जनजाति आयोग की स्थापना स्वयं संविधान के अंतर्गत की गयी,
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना Proctection of Human Rights Act, 1993 के अंतर्गत हुई,
राष्ट्रीय महिला आयोग की स्थापना National Commission for Women Act, 1990 के अंतर्गत हुई,
राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग की स्थापना National Commission for Safai Karmacharis Act, 1993 के अंतर्गत हुई है.
मानवाधिकार आयोग और महिला आयोग, किसी विशेष जाति के लिए ना होकर देश के हर एक नागरिक के लिए स्थापित हुए हैं, लेकिन इनके कार्यक्षेत्र हमेशा ही दलित समुदायसे सबसे ज़्यादा जुड़े रहे, जिनका अधिकार हनन सबसे ज़्यादा होता आया।

उपरोक्त संवैधानिक प्रबंधों से स्पष्ट है की राज्य, दलितों के प्रति होने वाली हिंसा और इसके कारणों की जड़ को सामाजिक व्यवस्था और परंपरागत पदानुक्रमित संबंधों मे पाता है और इन तथ्यों को क़ानूनी रूप से स्वीकार करता है, जो दलितों को सामाजिक आधीनता और इनडिग्निटी से भरी जिंदगी मे झोंक कर अवसाद भरा जीवन जीने को मजबूर करते हैं।

यहाँ बताई गयी त्रि-स्तरीय पॉलिसी धीरे धीरे उन कारकों को ख़त्म करने मे सहायता करेगी जो दलितों के प्रति हिंसा के रूप में परिणत हो जाते हैं या कारण बनते हैं और इस तरह समय के साथ साथ समाज मे समानता का आगमन और प्रसार होगा, जो समय लेगा. बड़े सोच विचार के बाद सामाजिक समानता लाने के लिए बनाया गया ये मॉडेल, समय के साथ साथ अनुभवों के आधार पर और सुदृढ़ किया गया और सोशियल इंजिनियरिंग के द्वारा सुधार के लिए देशभर मे प्रयासरत है।

यह बात भी स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आती है की सामाजिक संबंधों को बंद करने की इस प्रक्रिया मे राज्य की भूमिका न केवल बेहद महत्वपूर्ण बल्कि निर्णायक रूप मे रही है. इसमे कोई शंका नहीं की राज्य को ये भूमिका, जागरूकता के साथ साथ एक सकारात्मक झुकाव से इन हाशिए पर रखे गये और वंचित (सुविधा विहीन और अधिकारहीन) समुदायों के पक्ष मे प्रयोग करनी थी, जब भी दुर्जेय और अभेद्य उच्च वर्ग इस वंचित समुदाय के सामने रुकावट बना खड़ा हो. राज्य के सामने स्पष्ट था की ये वंचित और शक्तिहीन समुदाय उच्च और शक्तिशाली (सुविधा संपन्न और अधिकार संपन्न) वर्ग के सामने लंबी समयावधि तक भी अपने दम पर अपने हक की लड़ाई लड़ने मे सक्षम नहीं हो पाएगा. इसलिए ऐसी उम्मीद की गयी थी की राज्य कार्यकारिणी, विधायिका और न्यायपालिका के संस्थान न्यायिक  और संवैधानिक भावना का सम्मान करते हुए, राज्य की इस नीति का पालन करेंगे और उचित और आवश्यक प्रतिक्रिया देंगे।

कहीं ऐसा ना हो कि सरकारी तंत्र एक उदासीन या पक्षपात पूर्ण तरीके से कार्य करने लगें, इस पर निगरानी रखने के लिए विशेष निगरानी तंत्रों की स्थापना की गयी ताकि नीतिगत प्रतिबद्धता और इसके पालन के उद्देश्य से बनाई गयी व्यवस्था अपने नियत रास्ते से भटके नहीं।

इस रण नीति में ये भी आशा और आदर्शवादी दृष्टिकोण संजोया हुआ थी की बहुसंख्यक हिंदू समाज भी स्वयं अपनी ज़िम्मेदारी समझ कर एक उदार और मानवीय नीति और लोकतांत्रिक प्रक्रिया अपनाते हुए ज़रूरी सहयोग देगा और स्वयं को इन आधारों पर खुद को बदलकर एक संपूर्ण और सकारात्मक सामाजिक बदलाव मे अपना सहयोग प्रदान करेगा. इस प्रकार ये उम्मीद की गयी थी की सोशियल इंजिनियरिंग के इस प्रयास द्वारा अन्य समुदायों के दलित, उत्पीड़ित और शोषित समुदायों के प्रति चले आ रहे रवैये और व्यावहारिक प्रतिक्रिया मे व्यापक और सकारात्मक परिवर्तन देखने को मिलेंगे।


मानवाधिकार आयोग की इस रिपोर्ट के आगे के भागों मे विस्तार से इस बात की जाँच की गयी है और कारण बताए हैं कि इस त्रि-आयामी रणनीति के  अभीष्ट उद्देश्य संपादित/कार्यान्वित हुए, ज़मीनी हक़ीकत बने भी कि नहीं या फिर अनुसूचित जातियों के खिलाफ परंपरागत जारी हिंसा, जो कि धीरे धीरे और चुपचाप अस्पृश्यता के पालन द्वारा, तरह तरह की बाधाएँ लादकर और निर्योग्यताएँ थोप कर, भेदभाव करके, पक्षपातो और छुवा छूत आधारित परंपराएँ जारी रखकर तथा प्रत्यक्ष रूप से शारीरिक हिंसा करके और उनके प्रति जघन्य अपराध जैसे हत्या, नरसंहार, बलात्कार, आगज़नी आदि द्वारा सतत रूप से अन्य समुदायों द्वारा जारी रहती है। ताकि जाति आधारित सामाजिक व्यवस्था को लागू रखा जा सके और इसमे होने वाले परिवर्तनों के खिलाफ बहुत ही सख़्त प्रतिरक्षा दलितों के मन मे भय बैठाकर स्थापित रखी जा सके, वो वैसे ही जारी रही या कम हुईं.

अगर इस पॉलिसी का पालन नहीं हुआ है तो कभी आगे ये भी बताया जाएगा की राज्य की इस त्रि-आयामी पॉलिसी के कार्यान्वयन और इसे समाज मे लागू करने के रास्ते मे कौन सी बाधाएँ आई और इनके पालन मे क्या कुछ सही नहीं रहा. समय मिला तो इस विषय पर भी बात की जाएगी की संविधान और राज्य की पॉलिसी मे निहित इस प्रकार की आशा को बहुसंख्यक हिंदू समाज ने अपनी इन घ्रिणित परंपराओं को छोड़कर उदारवादी और मानवतावादी और जनतांत्रिक सामाजिकता को अपनाने मे कितनी उत्सुकता दिखाई ताकि भारतीय सभ्यता भी दुनिया की विकसित सभ्यताओं के स्तर को प्राप्त कर सके और यह भी चर्चा की जाएगी कि क्या “राज्य -नागरिक समाज इंटरफेस” ने इस मुद्दे पर सकारात्मक सामाजिक बदलाव के लिए ज़रूरी सदभाव दर्शाया या नहीं!!

धन्यवाद!

Source: Human Right Commission Report by K. B. Saxena (For Govt. of India)

Sunday, 25 March 2018

स्त्री ,तंत्रवाद और ईश्वर

इतिहासकार जोसेफ नीधम ने यह सिद्ध किया है कि विश्व के प्राचीनतम इतिहास में धार्मिक कार्यो और पूजा अर्चना या जादू टोना का कार्य पुरुषो की वजाय स्त्रियों की थी और बाद में यह काम पुरुष पुजारिओं ने हथिया लिया।

इस ऐसे कार्य के लिए जोसेफ, डुइड लोगो का उदहारण देते हैं, इस बात का ताजा प्रमाण की डुइड लोगो ने जादू- टोने के काम से स्त्रियों को हटा दिया और स्वयं यह कार्य करने लगे ।

चुकी कृषि की खोज स्त्रियों ने की थी और कृषि से ही जादू टोने का आरम्भ हुआ था इसलिए जैसे जैसे कृषि पर पुरुषो का आधिकर होता गया वैसे वैसे अनुष्ठानों पर भी पुरुषो का आधिकर होता गया।
देवियों की तुलना में देवता हावी होने लगे और पुरुष भी महान ओझा या जादूगर बन गएँ।

कुछ उदहारण देते हुए जोसेफ कहते हैं, पातागोनिया में पुरोहिताई के कार्य करने वाले लोगो को एक प्रकार से अपना लिंग त्याग देना पड़ता है और स्त्रियों जैसे कपडे पहनने होते हैं।

बोर्निया की डायाक जनजाति के पुरुष जो जादू टोने या धार्मिक अनुष्ठान करते थे स्त्रियों के कपडे पहनने के लिए बाध्य होते थे।

जुलू सरदार वर्षा लाने के लिए धार्मिक अनुष्ठान करते है तो वे स्त्रियों के पेटीकोट पहनते हैं।

मेडागास्कर में पुजारी स्त्रियों के कपडे पहनते हैं।

अमेरिका में यह नियम रेड इंडियंस और मैस्को की जनजातियों में पाया जाता है।

भारत के तेलगुभाषी प्रदेश में ग्विचिवाड़ में जब कोई पुजारी धार्मिक क्रिया करने लगता है तो वह स्त्रियों के कपडे पहनता है।

बंगाल में जादू- टोने / धार्मिक अनुष्ठान  क्रियाये महिलाओं द्वारा सम्पन्न होते हैं।

पुष्टि के लिए यह खबर पढ़िए-

http://m.indiatoday.in/story/in-a-unique-tradition-men-dressed-up-as-women-in-kerala-for-a-religious-celebration/1/306710.html

कृषि के आरम्भ में इसे करने वाली स्त्रियों को यह पता नहीं था कि धरती से पौधे वास्तव में कैसे उगते हैं, उनके लिए बुआई से लेके कटाई तक की सारी प्रक्रिया बहुत रहस्यपूर्ण थी । इसके अलावा उनके पास कृषि तकनीक बिलकुल नहीं थी जिससे अच्छी फसल होने की सम्भवना अनिश्चित थी , इसलिए कृषि कार्य के लिए बहुत धैर्य, दूरदर्शिता और विश्वास की जरूरत होती थी और यही सब कारक थे जादू टोने और धार्मिक अनुष्ठानों की उत्पत्ति के ।

जादू टोना या धार्मिक अनुष्ठान उनकी मनोवैज्ञानिक आवश्यकताएं पूरी करता था ,यह विश्वास उत्पत्न करता था बेशक वह विश्वास काल्पनिक और भ्रमपूर्ण था ।

वे अपने मनोरथ की काल्पनिक सृष्टि करते थे किंतु वास्तव में इसका प्रभाव वास्तविक परिस्थियों पर नहीं पड़ता था परंतु काल्पनिक सृष्टि करने वालो को यह काफी प्रभावित कर सकता था और आज भी करता है।

जादू टोना, धार्मिक अनुष्ठान एक तरह से अज्ञान ही थे ,किन्तु इतना अवश्य था कि ये सब कार्ता को मनोवैज्ञानिक काल्पनिक सबलता देते थे । अच्छी फसल का विश्वास बढ़ाते थें , इच्छापूर्ति का काल्पनिक विश्वाश दिलाते थें।

और आज भी दिला रहे हैं....ईश्वर के अस्तित्व का कारण भी वही काल्पनिक मनोवैज्ञानिक विश्वास थे....है...




Friday, 23 March 2018

सम्राट अशोक और बौद्ध धम्म-

अधिकतर भारतीय इतिहासकारो (?) का यह मानना है की सम्राट अशोक ने कलिंग युद्ध की विभीषिका से दुखी होके बौद्ध धर्म ग्रहण किया था, इस घटना पर कई फ़िल्म और सीरियल
भी बन चुके हैं जिस कारण आम धारणा भी यही बन गई ।
पर क्या यह घटना सत्य है? क्या वास्तव में अशोक ने युद्ध की विभीषिका से दुखी होके बौद्ध धर्म अपनाया था ? क्या वास्तव में वह बौद्ध बना था ?
जी नहीं , ये कहानी झूठ है की सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म अपनाया था क्यों की वह तो शुरू से ही बौद्ध था । उसका पिता बिन्दुसार और उसके पूर्वज पहले से ही बौद्ध थे अत: अशोक का बाद में बौद्ध धर्म अपनाने की कहानी झूठी साबित होती है , देखें कैसे –
हम अधिक पीछे न जाके अपनी बात बिन्दुसार से शुरू करते हैं , सम्राट बिन्दुसार का जन्म 299 ईसा पूर्व हुआ और मृत्यु 269 ईसा पूर्व । ग्रीक लेखको ने इन्हें ‘ अमित्रघातक’ कहा जिसका अर्थ होता है शत्रुओ का नाश करने वाला । इन्होंने मगध का साम्राज्य दक्षिण भारत के कोंकण, मदुरई, कर्णाटक तक को जीत कर विस्तार किया । बिन्दुसार ने बौद्ध धर्म को दक्षिण तक फैलाया और कई शीला लेख लिखवाएं , उनके राज्य में बौद्ध धर्म राज धर्म बना रहा ।
कहा जाता है की बिन्दुसार के कई ( लगभग 16) रानियां थीं और 101 पुत्र थे और 99 को मार के अशोक राजगद्दी पर बैठा , परन्तु यह सत्य प्रतीत नहीं होता । लामा तारनाथ ने अपने ग्रन्थ ‘ बौद्ध धर्म का इतिहास’ के पेज नम्बर 18 पर लिखा है बिन्दुसार की केवल तीन रानियां थी और 6 सौतले भाई और 4 बहने थी ।
अशोक का युद्ध केवल सुसीम से हुआ था जो की बिन्दुसार की पहली पत्नी से हुआ था और अशोक से बड़ा था । सुसीम बिन्दुसार की मृत्यु के उपरांत मगध का राजा बनाना चाहता था परन्तु दरबारी और जनता उसे नहीं चाहते थे अत: जब अशोक का राज्याभिषेक होना था तब सुसीम और अशोक का युद्ध हुआ जिसमें सुसीम मारा गया ।
शिलालेख 5 जो की अशोक ने अपने राज्यभिषेक के 13 साल बाद लिखवाया था उसमें उसने अपने भाई बहनो का जिक्र किया है जो अलग अलग प्रान्तों की राजधानियों में रह रहें थे और अशोक ने उन्हें धम्म महापात्र नियुक्त किया हुआ था । अत: अशोक का 99 भाइयो का मार के गद्दी प्राप्त करने की बात झूठ है ।
वह कहानी जो अशोक के बारे में प्रचलित है की उसने बौद्ध धर्म अपनाया था वह कपोल कल्पित है , जब अशोक के पिता और पूर्वज पहले से ही बौद्ध थे तो अशोक तो स्वयं ही बौद्ध था , उसे बौद्ध धर्म अपनाने की क्या जरूरत थी?
अशोक की मृत्यु के बाद उसके उत्तराधकारी मौर्य राजा लगभग 52 साल तक मगध में शासक रहें ।
बिम्बिसार से लेके अशोक के पुत्र कुणाल और उसके वंसज ब्रहद्रथ ( जिसे शुंग ने छल से मारा था ) सभी बौद्ध राजा रहें ।
सम्राट अशोक कलिंग विजय से पूर्व एक साम्राज्यवादी थे , लेकिन विजय के पश्चात वे एक आदर्श मानव बने , इनके वयक्तित्व में विशेष गुणों का विकास हो गया था । सत्य, दया, उदारता आदि विशेष गुण उन्होंने अपना लिए थे । कलिंग युद्ध के बाद उन्होंने दिग्विजय की नीति त्याग दी और अपने पूर्वजो की तरह बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार में मन लगाया । उन्होंने प्रचारको और उपदेशकों का विशाल दल तैयार किया जिसने विश्व के लगभग आधे भाग को अपने धम्म से जीत लिया । उन्होंने पशु बलि , मदिरा आदि व्यसनों पर रोक लगाई ।
दरसल उस समय बहुसंख्यक समाज जो की बौद्ध रहा था उसमे में शांति, नैतिकता आदि की भावना और आचरण प्रबल रही होगी जिससे समाज के बड़े वर्ग ने अशोक के अनावश्यक युध्द का विरोध किया होगा ।चुकी कोई भी सत्ताधारी बहुसंख्यक समाज की भावनाओ को कुचल कर ज्यादा दिन राज नहीं कर पाता है तो यही डर की भावना अशोक में भी होगी क्यों की अशोक प्रजा के खिलाफ नहीं जा सकता था ।
उस समय के समाज में बौद्ध धर्म भली भांति प्रचलित और स्वीकार था अत: जब सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म को राज धर्म बनाया तो समाज में उसका स्वागत हुआ और इसी के चलते वह चीन, जापान, कोरिया आदि दूर देशो तक बौद्ध धर्म का विस्तार कर पाया ।
सम्राट अशोक ने 14 शीला लेख ( पेशवर, जूनागढ़, देहरादून, मानसेहरा, पुरी, जैगढ़, करनाल, आदि ) लिखवाये जिसमें धम्मोपदेश लिखवाये। सात स्तम्भ लेख लिखवाये ( दिल्ली, मेरठ, इलाहाबाद , रामपुरवा, सारनाथ, लौरिया, साँची). कई गुहा लेख लिखवाये जिसमें की गया के निकट की पहाड़ी के गुहा लेख प्रसिद्ध हैं ।




Thursday, 22 March 2018

बिहारी- कहानी

"ओ!! बिहारी!!....भो@# के साइड में चल ले" कार वाले ने कार का  हॉर्न मारने के साथ मुंह से गालियों का हॉर्न बजाया ।

 चिलचिलाती धूप की भीषण गर्मी में जिस सड़क पर पैदल चलना भी बड़ी मुश्किल हो रहा था दिल्ली वालों के लिए ,उस सड़क पर मुन्नालाल पसीने से भीगा और हांफता हुआ किसी तरह अपने रिक्शे को खींच रहा था। मुन्नालाल ट्रान्सपोर्ट से अपने  रिक्शे पर माल की भारी भारी तीन पेटियों को लोड किये हुए था जिसे जल्द ही सेठ के सदर बाजार वाले गोदाम पर पहुँचाना था , सेठ ने उसे इसी शर्त पर काम दिया था कि वह माल टैंपो से जल्दी पहुंचा देगा। अब  टैम्पो तो शाम चार बजे के बाद 'नो एंट्री', खुलने के उपरांत ही पहुंचा सकता था चुकी सेठ को माल जल्दी चाहिये था अतः उसने मुन्नालाल को यह जिम्मेदारी दी ।

"अबे ओ..... बिहारी ... मादर@# सुने ना...के!! परे नै कर ले या रिक्सा नै...." कार वाले की कर्कश आवाज़ फिर गूंजी ,इस बार आवाज़ कार के हॉर्न से भी तेज थी ।
"कर तो रहे हैं....साइड मिलेगी तब न करेंगे " मुन्नालाल खीजता हुआ बोला।
"तेरी भैण की $# ...जबान लड़ा रहा है ...बिहारी ...मादर@#." मुन्नालाल की खीज भरा उत्तर सुन कार वाला आपे से बहार हो गया ।

" भैण चो#.... दिल्ली नै अपने बाप की समझ के आ जाऊ थम , हरामजद्दो नै पूरी दिल्ली नास कर राखी है" माँ- बहन की सैकड़ो गालींयां देता हुआ वह कार से बाहर निकल आया। कार से उतरते ही  उसने मुन्नालाल पर गालियॉ के साथ थप्पड़ों ,लात- घूसों की बरसात कर दी।
मुन्ना लाल पहले से ही थका हुआ था ,यूँ अचानक हमला हो जायेगा यह उसने सोचा न थी । फिर दुबला पतला शरीर लिए वह अपना बचाव भी ठीक से नहीं कर पा रहा था ।
"छोड़ दीजिए .... छोड़ दीजिए.... हमारी गलती नहीं है...." कहता हुआ मुन्नालाल नीचे गिर गया । उसकी मैली कमीज फट के तार तार हो गई , थप्पड़ पड़ने के कारण मुंह से खून निकलने लगा था ।वह लगभग अचेत हो सड़क पर ही धम्म से बैठ गया । कर वाले का गुस्सा मुन्नालाल को मारने भर से ही शांत नहीं हुआ उसने एक जोरदार लात रिक्शे के अगले पहिये में मारी जिससे रिम टेढ़ा हो गया।

भीड़ बढ़ने लगी तो कार वाला कार में बैठा और तेजी से निकल गया।

मुन्नालाल बहुत देर तक वंही बैठा रहा । मुंह से खून निकलना बंद तो हो गया था पर लात -घूसों का असर अब तक था। सारा शरीर दर्द कर रहा था। मुन्ना लाल उठा और रिक्शे से पानी की बोतल निकाल पानी पिया और मुंह धोया। रिक्शे के पहिये को टेढ़ा देख उसको बहुत  गुस्सा आया, उसने गुस्से में कार वाले को बीसियों गाली दीं ।मुन्नालाल को अपनी मार पर इतना दुःख नहीं था जितना रिम के टेढ़े होने का था,आखिर माल समय पर पहुँचाना था वर्ना पैसे नहीं देगा सेठ।

किसी तरह रिम को कामचलाऊ करने के बाद मुन्नालाल दर्द भरे बदन से रिक्शा खींचते हुए  सदर बाजार सेठ के गोदाम पर पहुंचा । तब तक  शाम के छः बज गए थे , सेठ गुस्से में उसका इंतेजर कर रहा था ।

" साले बिहारी.... कँहा मर गया था ? तेरे चक्कर में ग्रहाक चला गया मेरा...कितना बड़ा नुकसान हो गया मेरा!!... कौन भरेगा ... भो@#$ के तेरा बाप!!" सेठ ने मुन्नालाल को देखते ही गुस्से में आग बबूला हो उठा और मारने दौड़ा।
मुन्नालाल ने हाथ जोड़ के सारी बात बतानी चाही पर सेठ कुछ कुछ सुनने को तैयार न था। मुन्नालाल ने माल गोदाम में उतार भाड़ा मांगने सेठ के पास पहुंचा तो सेठ ने उसे सौ रूपये पकड़ा दिए।
" सेठ जी बात तो तीन सौ रूपये की हुई थी" मुन्नालाल ने पूछा ।
" हुई थी पर वह टाइम पर आने के लिए था .... तेरे चक्कर में मेरा बहुत नुकसान हो गया ....लेना हो तो ले नहीं तो भाग यंहा से ... आज से साले बिहारियों पर भरोसा करना ही नहीं"सेठ ने दो टूक कहा ।

निराश मुन्नालाल ने सौ का नोट पकड़ा और चुपचाप वँहा से चल दिया। आखिर रिक्शा मालिक को  रिक्शे का किराया भी तो देना ही था ,अस्सी रूपये प्रति दिन। वह रिक्शा लेके धीरे धीरे रिक्शा मालिक के गैराज की तरफ चल दिया ।

"आज तो दिहाड़ी भी नहीं बनी, रिक्शे का रिम और टेढ़ा हो गया , अब रिक्शा मालिक इसके अलग पैसे काटेगा। आज क्या खाऊंगा ? होटल वाला उधार देगा की नही? "यही सब उसके मस्तिष्क में चल रहा था। मुन्नालाल बिहार के छपरा जिले का रहने वाला था , दसवीं तक किसी तरह पढाई की पर गरीबी ने आगे पढ़ने नहीं दिया । बिहार में रोजगार नहीं मिला तो दिल्ली आ गया था पिछले साल । अकेला कमाने वाला , बाप खेतिहर मजदूर छोटी दो बहनें जिनकीं शादी करनी थी । रिक्शा चला के पैसे घर भेजता हर महीने जिससे परिवार का पेट भरता था।

मुन्नालाल मन में  चिंता और उधेड़ -बुन लिए रिक्शा मालिक के गैराज पर पहुंचा । रिक्शा जमा कर किराया देके जैसे ही जाने लगा तभी रिक्शा मालिक की नजर रिक्शे के टेढ़े रिम पर पड़ी। उसने मुन्नालाल को आवाज लगाते हुए कहा
" इधर बे बिहारी..... साले फुद्दू बना के भाग रहा था ... रिम टेढ़ा कर लाया और बता भी नहीं रहा....निकाल इसके बीस रुपये "

मुन्नालाल ने चुप-चाप बिना कुछ कहे बचे हुए बीस रुपये निकाल के रिक्शा मालिक के हाथ में रख दिए और चलाने लगा।

" साले ये बिहारी चोर होते हैं..... ध्यान राखियों इसके रिक्शे का कंही कुछ गड़बड़ न कर के खड़ा कर जाए" रिक्शा मालिक ने पीछे से जोरदार आवाज में अपने लड़के को समझाते हुए कहा जिसे मुन्नालाल ने सुन लिया था।

"साले ये बिहारी चोर होते हैं....." ये शब्द मुन्नालाल के कानों में पिघले सीसे की तरह घुसते जा रहे थे। बिहारी शब्द एक गाली बन गई थी उसके लिए ..यही गाली तो दिन भर सुनता रहता है वह।
"बिहारी होना इतना बड़ा गुनाह है क्या?...मैं बिहार का हूँ तो इसमें मेरी क्या गलती....मैं चोर क्या चोर हूँ? अगर बिहार में रोजगार मिलता तो मैं यंहा इतनी दूर अपने परिवार को छोड़ के क्यों आता??"गुस्से और दुःख से उसने अपने आप से पूछा ,जिसका उसके पास कोई उत्तर नहीं था।

वह अभी कुछ दूर ही चला था कि एक दीवार पर लगे एक पोस्टर  पर पड़ी जिसपर लिखा था -
" बिहार दिवस की हार्दिक बधाई'

मुन्नालाल ने जब पोस्टर पढ़ते ही जैसे विक्षिप्त हो गया हो ..... उसने वह नोच लिया।

बस यंही तक थी कहानी.....

Friday, 16 March 2018

आयुर्वेद और ब्राह्मणिक विचारधारा-

जिन लोगों ने ब्रह्मणिक ग्रन्थो को पढ़ा होगा वे जानते होंगे की चकित्सको के बारे में कितनी घृणात्मक बाते की गई हैं। ब्राह्मण को चकित्सको के हाथों का छुआ अन्न तक लेना निषेध किया गया है। मनु महाराज तो यंहा तक कह देते हैं कि चकित्सक के हाथों का अन्न राद( मवाद) के तुल्य है।

देखें मनु स्मृति अध्याय 4, श्लोक 220 -' पुयं चिकित्सकस्यान्नं .....'

ऐसा ही मनु कई बार दोहराते हैं, देखें अध्याय 4, श्लोक 212में भी निर्देश देते हैं कि चिकित्सा कर्म में लिप्त व्यक्तियों का अन्न कदापि ग्रहण न करें।

गौतम धर्म सूत्र में भी ऐसा ही निर्देश दिया गया है कि ब्राह्मण को किसी शल्य चिकित्सक का अन्न ग्रहण नहीं करना चाहिए ( अध्याय 17, श्लोक सात) ।

चिकित्सक पेशे से इतनी घृणा क्यों थी ब्रह्मणिक व्यवथा को? जबकि आज आयुर्वेद  को ब्रह्मणिक व्यवस्था इसे वैदिक बताने पर लगी हुई है। यह जानने से पहले मैं आपका ध्यान एक और महत्वपूर्ण चीज की तरफ खींचना चाहता हूँ । वह चीज है तर्क, तर्क या बहस को ब्रह्मणिक ग्रन्थों में निषेध किया हुआ है , कठोउपनिषद घोषणा  करता है - ' नैषातर्कण मतिरापनेया ....'  अर्थात तर्क से उसे प्राप्त नहीं किया जा सकता । महाभारत के अनुशासन पर्व में बड़े ही कठोर शब्दो में तार्किक लोगो की निंदा की गई है , उन्हें कुत्ता कहा गया है ( अनुशासन पर्व , 37-12,13) । गीता भी तर्क - बुद्धि को निषेध करती है । गीता भी यह घोषणा करती है कि संदेह ( तर्क) करने वाले के लिए कृष्ण को नहीं प्राप्त कर सकते बल्कि उनके लिए न तो लोग में और न परलोक में ही सुख है ( देखें अध्याय 4 , श्लोक 40)

आदि शंकराचार्य जिन्होंने गीता का भाष्य सर्वप्रथम किया था वे भी तार्किकों को जम के भला बुरा कहते हैं। शंकर के अनुसार तार्किक सींग पूँछ रहित बैल है ,प्रश्नोउपनिषद में शंकर ने तार्किकों को मांसाहारी पशुओँ के समान तक बता दिया है। शंकर ने उसी तर्क की मान्यता दी है जो श्रुति यानी वेदो के वाक्यों को समझने के लिए प्रयोग हो । उनके अनुसार तर्क वह ही है जो श्रुति ( वेद) पर आधारित है, यह तत्व है वह तत्व नहीं है , यह कर्ता है वह कर्ता है जैसा तर्क करने वाले तार्किकों का घोर तिरस्कार किया है ।

अब वापस लौटते हैं अपने मूल विषय पर , आयुर्वेद के दो महत्वपूर्ण ग्रन्थ हैं , चरक संहिता और सुश्रुत संहिता ।चरक संहिता कहती है कि अपनी बुद्धि से तर्क वितर्क कर औषधियों का प्रयोग करना चाहिए या कहें कि चिकित्सा के लिए इस बात की अति आवश्यकता है कि वैध तर्क वितर्क कर के ही दवाई का प्रयोग करे। शारीरिक चिकित्सको और तकनीकी  शिल्पकारों का विश्व दृष्टिकोण ही इस बात पर टिका होता है कि वे तर्कसम्मत और  वाद-विवादी हों।

हम जानते हैं कि चिकित्सक आमजनमानस के कितने उपयोगी होते  हैं अतः निश्चय ही अतीत उनका आम जनमानस में अच्छा खासा प्रभाव भी रहा होगा । इसलिए ब्रह्मणिक  अंधविश्वास और श्रद्धा सम्मत शास्त्रों  के प्रचार प्रसार में  चिकित्सक एक बड़ी बाधा रहे होंगे  । इसी लिए चिकित्सको के प्रति  धर्मशास्त्रों,स्मृतियों  आदि में लगातार घृणा के नजरिये से देखा गया । आयुर्वेद का ज्ञान मूल रूप से स्वतंत्र तर्क- वितर्क , देह महत्व और सांसारिक परिदृश्य के उद्भव और विनाश के 'स्वभाववाद ' पर टिका हुआ था जो की अंधविष्वास, आत्मवाद, वर्ण समर्थित व्यवस्था के पैरोकारों के लिए एक दम से निषेध थीं।

पुरोहित वर्ग की समस्या यह थी की चिकित्सा कर्म में सब लोगो से मेलजोल रखना पड़ता है ,चिकित्सक सबको स्पर्श भी करेगा और और सबसे मिलेगा भी जो ब्राह्मणवाद की व्यवस्था को बिलकुल भी रास नहीं आ सकता था । यह व्यवहार सेवाकर्मियों ( शूद्र/ अछूत) को काबू करने में बाधक था इसलिए ब्रह्मणिक व्यवस्था ने सबसे पहले चिकित्सा कर्म को निषेध किया।

अब एक प्रश्न आपके दिमाग में उपज रहा होगा की यदि आयुर्वेद वैदिक व्यवस्था की खोज नहीं थी तो किसकी थी? चिकित्सा का कार्य जब ब्राह्मण के लिए निषेध था तो आयुर्वेद उनके द्वारा प्रतिपादित कैसे हो सकता है?

इसका जाबाब खोजने के लिए हमें फिर से मनु महाराज की शरण में जाना होगा । मनु महाराज अध्याय दस ,श्लोक 46-47में  कहते हैं -

ये द्विजानामपसदा ...... वनिकपथ'

अर्थात-जो द्विजातियों में नीच हैं और जो अपध्वंस (वर्णसंकर) से पैदा हुए हैं , वे द्विजो के लिए निंदित  घोषित कर्मो को कर  के अपनी जीविका करें ।सूत का काम है रथ जोतना, अश्व साधना आदि, अम्बष्टो का कर्म चिकित्सा करना, स्त्री कार्य वैदेहक, और वाणिज्य कार्य मागध करें।

आपने देखा की चिकित्सा कार्य नीच कहे जाने वाले और वर्णसंकर जाति के  अम्बुष्टो के लिए निर्धारित किया गया , जिसका अन्न भी खाना ब्राह्मण के लिए मवाद के समान था।  कई इतिहासकार बताते हैं कि अम्बुष्ट भारत की एक जनजाति थी । निश्चय ही आयुर्वेद उन्ही की खोज थी जिसका बाद में ब्रह्मनिकरण हुआ ।

किन्तु ...किन्तु... एक और आश्चर्य की बात आपको बताता हूँ, ऋग्वेद में एक देवता अश्विन कुमार है जिसके बारे में कहा जाता है कि वह चिकित्सक था जिसे बाद के शास्त्रों में अपवित्र घोषित कर के उसका स्थान नीचे कर दिया गया । मंडल दस में चिकित्सको का आभार भी व्यक्त किया गया  है। तब यह कैसे हुआ की  वेद में चिकित्सा देवता को बाद के ब्रह्मणिक ग्रन्थो में अपवित्र और वर्ण संकर  घोषित कर दिया गया?

दरसल जब वैदिक यंहा आये तो उन्हें यंहा के लोगो से युद्ध करना पड़ा था , वैदिक असुरों का युद्धों से ऋग्वेद भरा पड़ा है। इंद्र ने असुर नरेश शंबर के सौ नगरों को नष्ट किया आदि युद्धों के वर्णन है । असुरों से रक्षा के लिए प्रार्थनाएं भी की गई हैं। जाहिर सी बात है युद्ध में वैदिक भी घायल होते होंगे , ऐसे में उनको भी चिकित्सा की जरूरत होती होगी। वो अपने उपचार के लिये जनजाति अम्बुष्टो आदि की सहायता लेते होंगे , अतः ऋग्वेद जो प्रारंभिक काल था उसमें उनकी प्रशंसा की गई। बाद के काल में जैसे जैसे ब्रह्मणिक व्यवस्था मजबूत होती गई होगी चिकित्सकों ( अम्बुष्टों) की जो की मूल रूप से जनजाति थे उनकी स्थिति वर्ण व्यवस्था के अनुसार नीचे गिरती गई होगी अंत में  वे अपवित्र घोषित कर दिए गए होंगे। आयुर्वेद  शुद्ध भौतिकतावाद है जिसमे देह - काया का महत्व है जिसमे आत्मा - ईश्वर का कोई स्थान नहीं होता ,  आप सब को बताने की जरूरत नहीं की भारतीय भौतिकतावादी दर्शन किसका था ।हाँ बाद में ईस
का ब्राह्मणीकरण हुआ ....

Friday, 9 March 2018

पेरियार- जानिए कुछ पहलुओं को

पेरियार कपोल कल्पित देवी देवताओं और ईश्वर को नहीं मानते थे , कई बार इस पर वे पण्डे पुजारियों से जम के बहस करते। 19 वर्ष की आयु में नागम्मई नामक कन्या से विवाह हो गया ।विवाह के बाद परिवार की अन्धविश्वसी परम्पराओं का वे खुल के विरोध करने लगे, व्रत वाले दिन वे जानबूझ के अपनी पत्नी से स्वादिष्ट पकवान बनवाते ,खुद भी खाते और अपनी पत्नी को भी खिलाते। अपनी पत्नी को मंदिर नहीं जाने देते थे , घर पर अपने अछूत कहे जाने वाले मित्रों को बुला अपने साथ भोजन करवाते। घर में इस बात को लेके बहुत बखेड़ा होता पर पेरियार अपनी आदतों को नहीं बदलते थे । एक बार उन्होंने अपनी पत्नी का मंगलसूत्र/ हँसुली/ सुहाग चिंन्ह उतरवा दिया जिससे उनके परिवार वालों और उनमे काफी कहा सुनी हो गई , नाराज पेरियार घर से भाग गयें और कलकत्ता , बनारस आदि तीर्थ स्थानों का भ्रमण करते रहें। साधू महात्माओं के साथ उन्होंने काफी समय बिताया ,जीवन के खट्टे मीठे अनुभव लेते रहें । फिर संयासी जीवन की हकीकत जान के उससे मोहभंग हुआ तो वापस घर आ गए और पिता जी के साथ व्यापार में हाथ बंटाने लगें।

इसके बाद वे नगर पालिका के चेयर मैन बने।जिस समय पेरियार इरोड नगर पालिका के चेयर मैन थे उस समय राजगोपालाचारी सलेम नगर पालिका के चेयर मैन थे । पेरियार की संगठन क्षमता को देख के राजगोपालाचारी ने उन्हें कांग्रेस में शामिल होने का प्रस्ताव रखा जिसे उन्होंने ने स्वीकार कर लिया क्यों उस समय कांग्रेस के घोषित उद्देश्य स्वतंत्रता प्राप्ति ,अछूतोंउद्धार , नशाबन्दी व आर्थिक सुधार उनकी विचार धारा से मेल खाते थे।

उस समय कांग्रेस का दक्षिण में प्रभाव नहीं था , पेरियार की संगठन क्षमता ने कांग्रेस को नया बल दिया । पेरियार का भाषण सुनने लाखो लोग खींचे चले आते थे। गांधी के असहयोग आंदोलन में निष्ठा से साथ दिया। उसके बाद गांधी ने जब नशाबन्दी का आंदोलन चलाया तो पेरियार ने अपनी जमीन पर लगे हजारो ताड़ के पेड़ों को कटवा दिया था क्यों की उनसे नशीली ताड़ी निकली जाती थी । अंग्रेजी अदालतों का बहिष्कार करने के लिए उन्होंने उस समय पचास हजार के प्रोनोट जला दिए थे जो की उस समय एक बड़ी राशि मॉनी जाती थी।

पेरियार के जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना वाइकोम की मानी जाती है।

त्रावनकोर कोचीन के राजा ने बाइकोम में मंदिर बनवाकर  ब्राह्मण पुजारियों को दे दिया था , पुजारियों ने मंदिर के पास के रास्ते पर अछूतों के चलने पर प्रतिबंद लगा दिया तो अछूत अपने गाँव की बस्ती में नजरबंद हो गए क्यों की मुख्य सड़क मंदिर के बगल से होके ही जाती थी जिस पर उनके चलने पर प्रतिबंद लगाया जा चुका था।

उसी मंदिर में राजा की अदालत भी लगती थी ,एक।केस में इजवा जाति जो अछूत जाति थी उस जाति के वकील माधवन को एक केस के सिलसिले में राजा की अदालत में जाना पड़ गया इस पर पुजारियों ने माधवन को मारने पीटने के अलावा बहुत अपमानित करा। इस घटना को लेके केरल कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष के पी मेनन और उपाध्यक्ष जार्ज जोसेफ ने विरोध किया और आंदोलन आरम्भ किया तो राजा ने उन्हें जेल में डाल दिया।

अतः उन्होंने जेल से ही पेरियार को वाइकोम आंदोलन का नेतृत्व करने की अपील की।  पेरियार ने जब छुआछूत के विरुद्ध आंदोलन तेज किया तो उन्हें भी गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया । इसके बाद इस आंदोलन की कमान उनकी पत्नी और बहन कन्नमल , एस रामनाथन ने संभाली । यह आंदोलन इतना प्रचंड हुआ की राजा को घबरा के सभी लोगो को रिहा करना पड़ा। इसके बाद पेरियार जननायक बन के उभरे।

शमी देवी जिला तिरुनेवेली में आर्य पम्परा के नाम पर गुरुकुल की स्थापना हुई जिसमें पेरियार कोषाध्यक्ष थें। इस गुरुकुल का उद्देश्य था धार्मिक शिक्षा, समाज सेवा और राष्ट्रीय भावना जागृत करना। इस गुरुकुल में दान देने वाले अधितर छोटी जाति से आते थे परंतु प्रबंध सिमित में मुख्यतः उच्च वर्ण के ही लोग थें। गुरुकुल में छोटी जाति के छात्रों से बहुत भेदभाव होता था यंहा तक की उनके लिए खाना भी घटिया किस्म का बनाया जाता था जबकि उच्च जाति के छात्रों को अच्छा खाना दिया जाता ।

पेरियार  ने जब इस भेदभाव का विरोध किया तो उच्चवर्णीय समिति के प्रबंधकों को नागवार गुजरा किन्तु भेदभाव की नीति बंद नहीं हुई तो पेरियार ने सभी दानकर्ताओं से दान ना देने की अपील की ।परिणामस्वरूप गुरुकुल बंद हो गया ,इससे चिढ के उच्च वर्णीय लोगो ने  राजगोपालाचारी से पेरियार को कांग्रेस से निष्कासित करने की अपील की किन्तु  भारी समर्थन होने के कारण उनकी अपील रद्द कर दी गई ।

परन्तु उस समय कांग्रेस में जो निर्णय लिए जाते वे अधिकतर उच्च वर्ण के लोगों के हितों को ध्यान में रख के लिए जाते थे और निम्न वर्ण के लोगो के विरुद्ध होते थे। अतः उन्होंने नौकरियों और विधान सभा में निम्न जाति के लोगो के लिए आरक्षण की मांग उठाई जिसका ब्राह्मण वर्ग ने जम के विरोध किया। 1925 में जब कांचीवरम कांग्रेस अधिवेशन में पेरियार ने दुबारा यह मांग उठाई तो उन पर ईंट पत्थरो से जानलेवा हमला कर दिया गया। उसी समय पेरियार को यह अहसास हो गया था कि तमिलनाडु कांग्रेस के दो बार अध्यक्ष रहने के बाद भी उनकी स्थिति क्या है ,दरसल कांग्रेस का सामाजिक सुधार और राष्ट्रीय एकता जैसी बातें झूठी थीं । उस समय कांग्रेस की आड़ में उच्च वर्णीय लोग अपना एजेंडा सेट किये हुए थें। विधवा पुनर्विवाह, बाल विवाह पर रोक, मंदिरों पर एकाधिकार समाप्त हो,छुआछूत को कानूनी अपराध माना जाए  जैसे अनेक मुद्दे थे जिनको लेके पेरियार कांग्रेस के ध्यान ने देने पर नाराज थे।

कांग्रेस छोड़ने के बाद उन्होंने रूस, जर्मनी, फ्रांस आदि देशों की यात्रा की और वँहा की राजनैतिक तथा सामाजिक संरचनाओं पर काफी रिसर्च किया।

यात्रा से वापस आने के बाद पेरियार ने निम्न जातियो / आदिवासियों / पिछड़े को ब्रह्मणिक व्यवस्था से आजाद कराने के प्रयत्न में जुट गएँ।
कई पुस्तकें लिखी जिसमे 'सच्ची रामायण ' प्रमुख रही । उनका मानना था की रामायण दरसल आर्यो(वैदिकों)  का द्रविणो पर आक्रमण की कहानी है। वे मानते थे की दलित/ आदिवासी/ पिछड़े आदि निम्न जातियों की दुर्दशा का कारण धर्म और ईश्वर की कल्पना है जिसके सहारे सदियों से उच्च वर्ण के लोग शोषण कर रहे हैं।

उनके मुख्य उद्देश्य थे-

ईश्वर नाम की कल्पना और धर्म की समाप्ति।
ब्राह्मणवाद की समाप्ति।
कांग्रेस और गांधीवाद की समाप्ति ।
सामजिक बुराइयों की जड़ से समाप्ति और एक आदर्श समाज की स्थापना ।


उच्च जाति के लोगो द्वारा निम्न जाति पर हो रहे अत्याचार और हमलों को रोकने के लिए पेरियार ने स्वाभिमान अन्दोलन चलाया था जो बाद में द्रविण कजगम पार्टी के नाम से जाना गया।

वे हमेशा काली कमीज पहनते थे ,इसलिए कई पत्रकारों ने उनके आंदोलनों को ' काली कमीज आंदोलन' भी कहते थे। उनकी काली कमीज व्यवस्था परिवर्तन का सूचक थी।


Sunday, 21 January 2018

शिव और सींग-

 डाक्टर तुलसीराम जी ने अपनी आत्मकथा ' मुर्दहिया' में अपनी दादी व गाँव की कुछ अन्य बुजुर्ग महिलाओं द्वारा एक पुरानी परम्परा का उल्लेख किया है। उनकी दादी व गाँव की अन्य बुजुर्ग दलित महिलाओं के पास मरे हुए बैलों आदि डांगरो के खाली सींग होते थे जिसमें वे सुई धागा, बटन, रेजगारी, जड़ी- बूटी  आदि छोटी छोटी वस्तुओं को संभाल के  रखती थीं।  पशुओँ के मरने के बाद उन्हें जंगली पशुओँ,गिद्धों आदि के खाने से पहले काट लिया जाता था और अच्छी तरह साफ कर के उनमे छोटी छोटी वस्तुओं को रखने के काम में लिया जाता था।


तुलसीराम जी ने बताया कि उन्हें बाद में पता चला की सींगों में सामान रखने की परंपरा की शुरुआत बौद्ध धम्म में हुई थी । त्रिपिटक में वर्णन है कि गोतम बुद्ध के महापरिनिर्वाण के करीब सौ साल बाद वैशाली में  विद्वान भिक्षुओं की दूसरी महासंगीति अर्थात बुद्ध के उपदेशों का संगायन हुआ तो उसमें बुद्ध के दस उपदेशों में संसोधन किये गए थे । जिसमें से की पहला ही संसोधन की भिक्षा के समय जानवरन की एक खाली सींग में नमक ले जाना । विनय पिटक में किसी भी बौद्ध भिक्षु को किसी प्रकार की खाद्य सामग्री या धन संचय करना निषेध था । इस संसोधन का मूल कारण यह था कि भिक्षा में अकसर नमक नहीं मिलता था, अतः भिक्षु लोगो को बिना नमक के ही खाना बना के खाना पड़ता था । इस व्यवहारिक समस्या से बचने के लिए यह संसोधन किया गया था । ताकि भिक्खु नमक मांग कर या खरीद कर सींग में रख  सके , सींग में संचय कर के रखने के पीछे भी यह कारण था कि वह मूल्यवान नहीं होती थी जिससे  भिक्खु उसे रख सकता था । तभी से सींग में संचय करने की यह बौद्ध परम्परा जारी हुई। तुलसीराम जी अपनी दादी द्वारा सींग में दवाइयाँ, सुई धागा , बटन आदि संचय करने की परंपरा से यह दावा करते हैं कि निश्चय ही  सदियों पूर्व उनके पूर्वज बौद्ध रहे होंगे।

जब तुलसीराम जी द्वारा वर्णित यह घटना पढ़ रहा था तो मेरे भी मस्तिष्क में बचपन की  कुछ पुरानी यादें ताज़ा हो गईं जिसको मैंने अपने गाँव में  देखा था। गाँव में कई घर थे जिनके यंहा सींग टंगे होते थे , एक सींग हमारे घर भी था जिसमे सुई धागा या दवाइयां तो नहीं नीम की पत्तियों की डंठले सुखा के रखी रहती थी । ये सूखी डंठले दांत खोदने( टूथपिक) के काम में लाई जाती थीं।
अतः, निश्चय ही हमारे पूर्वज भी कभी बौद्ध ही रहे होंगे और सींगों के प्रयोग की परंपरा उन्ही से आई होगी। यह बात मुझे अब पता चली है, अब यह परम्परा लुप्त हो गई है ।

अच्छा! अब एक महत्वपूर्ण बात , शिव तथाकथित हिन्दू देवता कहलाये जाते हैं किंतु वे काल्पनिक  हिन्दू देवता नहीं रहे होंगे बल्कि कभी बौद्ध परम्परा के रहे होंगे जिनका बाद में ब्रह्मणिकरण किया गया , शायद ऐसा उनकी आम जनमानस में पूजनीय मान्यता के कारण करना पड़ा होगा ब्राह्मणों को । ऐसा हुआ होगा की बौद्ध से हिन्दू बन जाने के बाद भी बड़ी संख्या में खासकर शूद्रों और निचली जातियों में' सिउ' यानी बौद्ध शिव को पूजना जारी रहा होगा , तभी शिव का वैदिकरण किया गया।

आप सब सोच रहे हैं कि मेरे इस दावे का स्रोत क्या है ? मैं ऐसा  दावा क्यों कर रहा हूँ की शिव  अर्थात 'सिउ' बौद्ध रहे होंगे?

मेरे इस दावे का कारण है शिव के गले में लटका सींग, बैसे ही सींग जैसा बौद्ध भिक्खु द्वितीय महासंगीति में हुए नियमो के संसोधन के बाद अपने पास नमक को संचय करने के लिए रखते थे । बाद में यह परम्परा हमारे पूर्वजो तक में रही।

शिव के गले में लटका नमक संचय करने वाला खाली सींग इस बात का प्रमाण है कि वे बौद्ध परम्परा से रहे होंगे जिनका बाद में ब्राह्मणीकरण हुआ ।

नोट- आप शिव के गले में लटका सींग देख सकते हैं।


Thursday, 18 January 2018

हिम्मत

प्रोफेसर तुलसीराम जी ने अपनी चर्चित आत्मकथा 'मुर्दहिया' में लिखा है कि उनके गाँव के सवर्ण दलितो से लगभग मुफ्त में बेगारी करवाते थे । सुबह मुर्गे की बांग के साथ वे अपने खेतों  में दलितों को ले जाते थे और शाम के अँधेरा होने तक जी भर मेहनत करवाते थे । बदले में उन्हें एक सेर ( लगभग सवा किलो ) अनाज दिया जाता । आकल के दिनों में या जब घर में खाने को न रहता अथवा जिस दलित के पास छोटे खेत होते थे वे सवर्णो से अनाज उधार लेते थे तो सवर्ण उनसे एक सेर अनाज के बदले डेढ़ सेर अनाज वसूलते थे ।

अनाज तौलने के लिए जिस बाट का वे इस्तेमाल करते थे वह शुद्ध मानक नहीं होता था बल्कि हाथ से ही ईंट तोड़ के बाट बना लेते थे जो की मानक से बहुत कम होता था। किंतु, जब दलित अनाज  उधार चुकाने जाते तो सवर्ण असली बाट से तौलते।

इसलिए कभी कभी सवर्णो और अछूती में संघर्ष की स्थिति भी आ जाती थी। संघर्ष की स्थिति में एक तरफ सवर्ण होते जो तलवार, भाले, बरछे ,गंडासे आदि धारदार हथियारों से लैस रहते तो दूसरी तरफ अछूत केवल लाठी डंडा लिए जिससे उनका पिटना और घायल होने या मारे जाना निश्चित रहता।
किन्तु, ऐसे में अछूत महिलायें आगे आती। हाथो में मरी हुई गाय की सूखी हड्डी , टूटे हुए घड़ो में मैला, गर्ववती स्त्री के प्रसव के बाद जो गंदगी( मल- मूत्र , नार आदि) जिसे 'बियाना' कहते थे वह हांडियों में भर उठा लाती थीं, चुकी सवर्ण स्त्रियोँ के जब बच्चे पैदा होते तो दाई का काम दलित महिलाएं ही करती थी । जच्चा- बच्चा की मालिश यंहा तक की उनका मलमूत्र भी वही हांडियों में भर के फेंकती थी अतः उन्हें पता होता था कि वह हांडिया कँहा मिलेगी । लड़ाई शुरू होने से पहले दलित महिलाएं यह सब एकत्रित कर लेती थी ।  लड़ाई शुरू होते ही गांदगी भरी हांड़ी, मरे हुई गाय की हड्डियां आदि जोर जोर से सवर्णो के दल में  फेंकती जिससे सवर्णो में हड़कंप मच जाता। गाय की हड्डी छूना वे लोग महापाप समझते थे , बियाना की गंदगी और मल मूत्र पड़ते ही सवर्ण अपने भाले बरछे लेके उलटे पाँव चिल्लाते हुए भाग लेते । इस प्रकार अंत में जीत हमेशा दलितों की होती।

मैंने तुलसीराम जी की आत्मकथा में  दर्ज इस घटना का जिक्र क्यों किया? आप सोचिये जो आज तथाकथित क्षत्रिय ' जोहार' को अपनी शान समझ के उस पर जातीय गर्व कर रहे हैं यदि उनकी महिलाओं ने आग में कूदने की अपेक्षा वैसी ही वीरता , हिम्मत और युक्ति  दिखाई होती जैसी मुर्दहिया कि अछूत स्त्रियां दिखाती थी तब शायद जोहार न करना पड़ता क्षत्राणियों को। खिजली के सामने सूअर लेके खड़ी हो जातीं तो शायद वह उलटे पाँव भाग लेता.... पर अछूत स्त्रियों जैसी हिम्मत कँहा थी??


Monday, 15 January 2018

बल्ब की पीली रौशनी और स्त्री शिक्षा-

बात उन दिनों की है जब हमारी कॉलोनी में बिजली नहीं आई थी, घरो में मिट्टी के तेल के दिए या लैम्प जलते थे । किन्तु  जो एक - दो  सम्प्पन परिवार थे उन्होने अपने घरों में बिजली के  जेनरेटर की व्यवस्था की थी। ऐसे ही एक अन्य  सम्पन्न परिवार एक दिन अपने लिए नया जनरेटर खरीद लाया । फिर क्या था ,  जेनरेटर आते ही पूरा घर लट्टू वाले बल्बों की रोशनी से जगमगा गया । मकान मालिक ने घर की छत पर भी शौक़िया तौर पर एक बल्ब लगा लिया था, घर के बगल में एक खाली प्लॉट था जिसमे कॉलोनी के हम सब बच्चे दिन भर खेलते रहते थे।  छत पर लगा बल्ब जब रात में जलता तो खाली प्लॉट में उसकी भरपूर रौशनी जाती ,पूरा प्लॉट पीली रौशनी से जगमगा जाता। अब बच्चो को उस खाली प्लॉट में रात में भी खेलने अवसर मिल गया था , बच्चे बल्ब की रौशनी में देर रात तक खेलते रहते।

मकान मालिक को अपने बल्ब की रौशनी में बच्चो का खेलना रास नहीं आ रहा था , वह बच्चो को भगा तो सकता नहीं था और न ही अपनी ' बिजली वाला घर' का रुतबा ही कम  कर सकता था छत से बल्ब हटा के । क्यों की, बल्ब दूर से चमकता था जिससे अंजान लोगो को पता चले की यह 'पैसे वाले ' का घर है।

अपने बल्ब की रौशनी में बच्चो को खेलता देख कुढ़ता रहता , एक दिन वह एक ऐसा होल्डर ले आया जिसके ऊपर टीन का पंजा बना हुआ था । अब उसमे बल्ब लगाने के बाद रौशनी फैलती नहीं थी बल्कि उसी छत तक ही सीमित हो गई थी। रौशनी न होने के कारण हम बच्चों का रात में खाली प्लाट में खेलना बंद हो गया । उस व्यक्ति ने बिना किसी बच्चे को डांटे या भगाए खाली प्लॉट में उनका बंद कर दिया अपने रौशनी के स्रोत को अपने कब्जे में लेके।

अब इस घटाना का परिपेक्ष्य जानिये, मैंने इस घटना का जिक्र क्यों किया यह समझिये।

तथाकथित सनातन परंपरा में शूद्र ,अछूतों और स्त्रियोँ का उपनयन संस्कार नहीं होता । उपनयन संस्कार शिक्षा लेने का पासपोर्ट था , बिना पासपोर्ट यानि उपनयन  के आप शिक्षा जगत में प्रवेश नहीं कर सकते थे,शिक्षा का अर्थ वेद पढ़ना होता था । शूद्रों और अछूतों से वैमनस्यता तो समझ आती हैं किन्तु अपनी ही कुल की स्त्रियों को शिक्षा यानी वेद पढ़ने पर क्यों रोक दिया गया यह विचारणीय प्रश्न रहा है।

दरसल ,स्त्री को ब्याह के अपने घर जाना होता था । ऐसा भी होता था कि स्त्री किसी और वर्ण में विवाह कर लेती थी इसी कारण मनु ने उच्च वर्णीय स्त्री का विवाह शूद्र से करना घोरतम पाप माना है ।  अब ऐसे में यदि उच्च वर्ण के पुरुष अपनी स्त्रियों को उपनयन संस्कार  कर वेद पढ़ा देते तो भी यह सम्भावना बनी रहती की कंही स्त्री  शूद्र/ अछूत वर्णीय पुरुष के प्रेम में आ उससे विवाह कर लेती है तो वेद की शिक्षा उसके साथ उस शूद्र/ अछूत के घर भी चली जायेगी , वह अपने बच्चों या पति को वेद की शिक्षा दे उन्हें शिक्षित कर सकती थी।

फिर उच्च वर्ण के वर्चस्व का क्या होता?
फिर उस निषेधता और पाप का क्या होता जो वेद पढ़ने या सुनने तक लागू किया गया था ?

अतः सबसे अच्छा तरीका था कि जैसे उस मकान मालिक ने अपने घर की रौशनी को अपनी छत तक सीमित कर दिया था वैसे ही उपनयन संस्कार कर केवल  पुरुषो तक सीमित कर दिया जाए । न स्त्री के पास शिक्षा जायेगी और न उस शिक्षा का दूसरे वर्ण में जाने का खतरा रहेगा।

उस पर भी शिक्षा यानी वेद को श्रुति बना कर दिमाग में रखना था , न लिखित होगी न स्त्री इसे चुरा के पढ़ पायेगी।

बड़ी खतरनाक युक्ति थी यह शिक्षा का प्रसार को अपने तक सीमित रखने की , जिसे स्त्रियां शायद आज तक समझ नहीं पाईं ।

Sunday, 14 January 2018

जातीय सरनेम और दलित-


भारत में अपने नाम के पीछे जाति आधारित सरनेम लगाना एक प्रचलित परम्परा रही है , किसी भी व्यक्ति के नाम के पीछे सरनेम उसके जातिय गर्व का सूचक होता है । यह जातिय सरनेम लगाने की प्रथा अधिकतर सवर्ण हिन्दुओ में मिलती है जो इस सरनेम के सहारे अपनी जाति का उद्घोष करता है , जैसे , शर्मा, त्रिवेदी, चतुर्वेदी, कश्यप, माहेश्वरी, ठाकुर, राजपूत, गुप्ता , अग्रवाल, आदि । कई लोग अपने गोत्र का सरनेम लगाते हैं, जोकि जाति आधारित होती है । ऐसा भी प्रचलन है कि अधिकतर सवर्ण अपने पुरे नाम के स्थान पर ‘ शर्मा जी’, ‘ वर्मा जी’ , गुप्ता जी, ठाकुर साहब आदि सरनेम से ही खुद को संबोधित करवाना ज्यादा पसंद करते हैं। ऐसा जातीय कुल के गर्व की मानसिकता के तहत भी होता जंहा खुद के नाम की जगह जाति ज्यादा महत्व होती है ।

मैं यंहा इस मुद्दे को अभी आप लोगो से दूर रखूँगा की ये जातीय सरनेम लगाने की शुरुआत कैसे हुई क्यों की प्रचीन काल से लेके मध्यकाल तक बहुत कम उदहारण मिलते हैं जब जातिय सरनेम का लोगो ने प्रयोग किया हो , जैसे – इंद्र, वृत्त,शंभर, गार्गी,कृष्ण, कौत्स, चार्वाक, राम, अर्जुन, सुयोधन( दुर्योधन), एकलव्य, हनुमान, तुलसीदास, कबीर, रैदास, मीरा आदि ऐसी चर्चित लोग रहें जो बिना जातिगत सरनेम के ही आज तक प्रसिद्ध हैं ।

किन्तु, यंहा एक बात है की यह तय हैं की जातिगत सरनेम लगाने की जो प्रथा का प्रारम्भ हुआ होगा वह निश्चय ही उच्च जाति से शुरू हुआ होगा , क्यों की उनके पास जातिय अभिमान था । दलित वैसे ही हीन और अछूत समझे जाते थे तो वे जातिसूचक सरनेम लगा के जातीय अभिमान प्रदर्शित कर ही नहीं सकते थे, अतः यह निस्चित है कि जातीय सरनेम लगाने की परंपरा भारत में तथाकथित उच्च वर्णीय लोगो द्वारा ही आरम्भ की गई होगी।

तब यह प्रश्न है की आज दलित जाति के लोग सरनेम क्यों लगाते है ?

हुआ यूँ की मुगलो के समय तक कोई भी दलित उनके दरबार में उच्च पद प्राप्त ही नहीं कर पाया था या मुग़ल दलितों को अपने दरबार में किसी उच्च पद पर नहीं रखते थे पर जैसे ही अंग्रेजो का राज आया , दलितों को भी अंग्रेज छोटी मोटी नौकरी पर रखने लग गए या जो थोडा पढ़ा लिखा दलित होता था उसे थोड़ी उच्च पद पर रख लेते थे । उन्ही कार्यालयो में उच्च जाति के लोग भी काम करते थे जो पर्याय आपस में संबोधित करने के लिए , गुप्ता जी, पंडित जी, शर्मा जी, पांडे जी, आदि सरनेम से पुकारते थी । वंही दलित जाति का व्यक्ति बिना सरनेम के काम करता था , लोग उसको उसके नाम से ही पुकारते थे । कभी कभी तो उच्च जाति के लोग दलित जाति वे वयक्ति का नाम बिगड़ के या शोर्ट में नाम लेते जैसे किसी का नाम नन्दलाल हो तो लोग उसे ‘ नंदू’ कह देते, चंद्रप्रकाश हो तो ‘चंदू’ , रामलाल हो तो ‘ रामू’ कह कर पुकार देते थे ।

नाम के साथ सरनेम न होना दलित जाति से सम्बंधित माना जाता था, दलितों में यह भावना जागी की कंही सरनेम न होने के कारण उसकी आने वाली पीढ़ियों को भी न उसी तरह पुकारा जाए जैसे उसे पुकारा जाता है । तो यंहा से शुरू हुई दलितों में भी सरनेम लगाने की भावना।
शुरू में दलितों ने गुस्से वाले, आज़ादी वाले सरनेम लगाये जैसे – बैचैन, आक्रोशित, जख्मी , आज़ाद, अनजाना, निर्भीक, परदेसी, बागी, विद्रोही, अशांत आदि।

फिर दूसरे दौर में जब थोडा समाज के हालात बदले तो सरनेम को सुन्दर और अर्थपूर्ण बनाया गया जैसे – राकेश, शशी, सुमन, प्रियदर्शी, पुष्पांकर, कँवल, भास्कर, आदि।
कुछ दलितों ने गाँव, शहर या राष्ट्र से संबोधित नाम भी रखे जैसे – भारती, माधोपुरी, देहलवी, आदि।

उसके बाद एक दौर ऐसा भी आया जब दलितों में शिक्षा का प्रसार और थोडा बढ़ा ,सवर्णों के थोड़े निकट आये , धार्मिक पुस्तके पढ़ने की आजादी मिली तो उन्होंने रामायण, गीता आदि को खरीद के पढ़ना शुरू किया , माथे पर तिलक लगा के मंदिरो के घंटे भी बजाये पर उच्च जातियो की तरफ से घृणा ही मिली और जाति आधारित नामो से पुकारना नहीं छूटा।

कई दलितों ने सवर्णों की इस जातीय घृणा से बचने के लिए अपने नाम के पीछे शर्मा, चौहान, भार्गव, आदि उच्च जातीय नाम भी लगये पर कुछ काम न आया । क्यों की भारत में सामने वाला आपकी केवल जाति से ही संतुष्ट नहीं होता बल्कि गाँव, शहर , रिस्तेदार सब के बारे में जब तक पूछ न ले तब तक वह चैन से नहीं रहता । फिर कंही न कंही पकडे ही जाते तो और तिरस्कार झेलना पड़ता ।
पर ऐसा भी था की कई दलितों ने सीधी सीधी प्रतिक्रिया की अपनी जातिगत सरनेम लगाये और जैसे – जाटव, चमार, वाल्मीकि, पासी , दुसाध, खटीक आदि ।बाबा साहब अम्बेडकर के बाद बौद्ध धर्म में आस्था रखने वाले दलितों ने बौद्ध धर्म से सम्बंधित उपनाम लगये जैसे – सिद्धार्थ, गौतम, मौर्य, आन्नद, अशोक आदि।
पर इतना सबकुछ प्रयत्न करने के बाद भी जातिगत भेदभाव दलितों के साथ जस का तस है ।

जाति एक ऐसी लाइलाज बीमारी बन गई है जिसने इस देश का बहुत नुकसान किया है और हिन्दू धर्म को मरणांसन्न पर पंहुचा दिया , इसे रोकने के लिए सबसे अच्छा उपाय है की सभी देशवासियो को जातिगत सरनेम लगाना छोड़ना होगा।